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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ४९ *
में योग एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ प्रचलित अर्थों से नितान्त भिन्न है। इसका अर्थ है प्रवृत्ति। शरीर, वचन और मन जब सक्रिय होते हैं या प्रवृत्ति की ओर उन्मुख होते हैं तब आत्मा के प्रदेशों में जो स्पन्दन, कम्पन, हलचल (Vibration-वाइब्रेशन) होता है, वह योग कहलाता है। इस प्रकार योग एक प्रकार का स्पन्दन है जो आत्मा और पुद्गल वर्गणाओं के संयोग से होता है। बिना पुद्गल वर्गणाओं के सहयोग या संयोग से आत्मा की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। इसी बात को शास्त्रीय भाषा में कहें तो कह सकते हैं कि वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम तथा नामकर्म के उदय से मन, वचन व काय वर्गणा के संयोग से जो आत्मा की प्रवृत्ति होती है, वह योग है। ___छद्मस्थ अवस्था के जीवों का यह योग क्षयोपशम जन्य है जबकि केवली भगवान में योग का यह सद्भाव क्षायिक भाव की अपेक्षा से है क्योंकि उनके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म पूर्ण रूप से क्षय हो चुके हैं। इस कारण केवली भगवान वचन व काययोग की प्रवृत्ति के लिए उद्यत नहीं होते अपितु ये प्रवृत्तियाँ-क्रियाएँ उनके सहज ही होती हैं। उनके वचन व काययोग की सहजता का मुख्य कारण यही है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्म के पूर्णरूपेण क्षय से उनका भाव मन आत्मा के ज्ञानगुण में विलीन हो जाता है। अतः भाव मन न रहने की अपेक्षा मनोयोग सम्बन्धी क्रिया भी उनमें नहीं होती जबकि छद्मस्थ जीव क्षायोपशमिक भाव के कारण उद्यत होता है। छद्मस्थ और केवली के योग में यही मुख्य अन्तर है। शैलेशी अवस्था में केवली अयोगी होते हैं. अतः उन्हें किसी भी योग का सद्भाव नहीं होता।
भाव और द्रव्य की अपेक्षा से योग के दो भेद हैं-एक भावयोग और दूसरा द्रव्ययोग। आत्मा की विशिष्ट शक्ति अर्थात् योग शक्ति भावयोग है और मन, वचन व काय के निमित्त से जो आत्म-प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है, वह द्रव्ययोग है।
प्रवृत्ति की दृष्टि से योग के तीन भेद हैं-एक मनयोग, दूसरा वचनयोग और तीसरा काययोग। जीव की मानसिक प्रवृत्ति को मनोयोग, वाचनिक प्रवृत्ति को वचनयोग और कायिक प्रवृत्ति को काययोग कहते हैं। शुभाशुभ प्रवृत्ति के आधार पर योग के दो भेद हैं-एक शुभ योग और दूसरा अशुभ योग। शुभ योग से पुण्य का और अशुभ योग से पाप का आस्रव होता है। यह शुभत्व और अशुभत्व का आधार भावना की शुभाशुभता है।