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* २२ * तीसरा बोल : काय छह
वायकायु को गतिशील अर्थात् गतित्रस माना है। तेजस्काय जीवों के विषय में यह कहा जाता है कि ये जीव एक निश्चित गर्मी के तापमान में जीवित रहते हैं। उससे कम गर्मी होने पर मर जाते हैं, यानी सचित्त नहीं रहते।
जैनदर्शन में इन जीवों के शरीर, अवगाहना, संहनन, संस्थान, संज्ञा व कषाय आदि का विस्तृत विवेचन मिलता है। ऐसे जीव सजीव, अनेक प्रकार की योनियों, कुल तथा अपनी अनेक विशेषताओं वाले हैं। (४) वायुकाय
स्थावर जीवों का चौथा विभाग है-वायुकाय। इसमें अलग-अलग असंख्य जीव होते हैं। जब तक विरोधी शस्त्र न लगे तब तक ये जीव सचित्त रहते हैं। जैनागमों में इन जीवों के शरीर, अवगाहना, संस्थान, आयु आदि का सविस्तार वर्णन हुआ है। वैज्ञानिकों का मत है कि वायु में 'थेकसस' नामक जीव होते हैं जो अति सूक्ष्म हैं और सुई के अग्र भाग जितने स्थान में इनकी संख्या एक लाख से भी अधिक होती है।
वायुकाय में चार प्रकार के शरीर होते हैं-एक औदारिक शरीर, दूसरा वैक्रियक शरीर, तीसरा तैजस् शरीर और चौथा कार्मण शरीर। वैक्रियक शरीर केवल स्थावर जीवों के वायुकाय जीवों में ही होता है। वैक्रियक शरीर की यह विशेषता है कि इसके आकार-प्रकार को छोटा या बड़ा किया जा सकता है। वायुकाय के शरीर की इस विशेषता को वैज्ञानिक क्षेत्र में भी स्पष्टतः देखा जा सकता है। विज्ञान के अनुसार गर्मी पाकर वायु फैल जाती है। उदाहरण के लिए, ट्यूब में बन्द भरी हवा ग्रीष्म ऋतु में फैलने से ट्यूब स्वतः फट जाता है। ट्यूब का फटना वायुकाय के जीवों के वैक्रियक शरीर के फैलाव को इंगित करता है। वैक्रियक शरीर का और अधिक जब विस्तार होता है तो यह चक्रवात या झंझावात का रूप ले लेता है। वायु का यह वैक्रियक स्वरूप बड़ा भयंकर व विध्वंसकारी होता है। जैसा कि सन् १९१९ में उड़ीसा में आये तूफान से लाखों लोग मारे गये। इन जीवों के स्वभाव का प्रभाव न केवल मानव जाति पर पड़ता है अपितु वनस्पतिकाय के जीवों पर भी पड़ता है। उदाहरण के लिए, पुरवाई जब चलती है तो वह प्राणियों के लिए बड़ी कष्टकारी व वेदनीय होती है। इससे वनस्पतियों में भी नुकसान होते देखा गया है।
१. विज्ञान के आलोक में जीव-अजीव, पृ. ३२