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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : २३
वायुकाय जीवों के पाँच भेद हैं
(१) उत्कलिका वायु,
(२) मण्डलिका वायु,
(३) घन वायु,
(४) गुंजा वायु,
(५) शुद्ध वायु ।
पहली प्रकार की वायु ठहर-ठहरकर चलती है । दूसरी प्रकार की वायु चक्र खाती हुई चलती है । तीसरी प्रकार की वायु रत्नप्रभा आदि पृथ्वी के अथवा विमानों के नीचे है । यह जमी हुई बर्फ की भाँति गाढ़ी एवं आधारभूत है । चौथी प्रकार की वायु शब्द करती हुई गति करती है । पाँचवीं प्रकार की वायु उपरोक्त गुणों से रहित मन्द मन्द चलने वाली होती है।
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(५) वनस्पतिकाय
वनस्पतियाँ सजीव होती हैं । इनमें भी जीवन होता है। जैनदर्शन की यह बात तब स्वीकारी गई जब वैज्ञानिक डॉ. जगदीशचन्द्र वसु ने वनस्पति सम्बन्धी अनेक प्रयोग कर यह सिद्ध किया कि वनस्पतियों में भी प्राण तत्त्व है और वनस्पतियाँ भी अन्य प्राणियों की तरह अपनी समस्त जैविक क्रियाएँ मात्र स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा ही सम्पन्न करती हैं ।
डॉ. वसु के अनुसार जीवित प्राणियों में जो विशेष गुण पाये जाते हैं, वे समस्त गुण वनस्पतियों में भी पाये जाते हैं। ये विशेष गुण निर्जीव पदार्थों में नहीं पाये जाने से वनस्पतियाँ सजीव ठहरती हैं । ये गुण इस प्रकार हैं
(१) सचेतनता (Irritability — इरिटेबिलिटी),
(२) स्पंदनशीलता (Movement - मूवमेण्ट),
(३) शारीरिक गठन (Organisation- ऑर्गेनाइजेशन),
(४) भोजन (Food - फूड),
(५) वर्धन (Growth — ग्रोथ ),
(६) श्वसन (Respiration - रेसपाइरेशन),
(७) प्रजनन (Reproduction - रिप्रोडक्शन),