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* २४ * तीसरा बोल : काय छह
(८) अनुकूलन (Adaptation-एडप्टेशन), (९) विसर्जन (Excretion-एक्सक्रेशन), .. (१०) मरण (Death-डेथ)।
वनस्पतियों में मन की बात को समझने की क्षमता होती है। पौधे सहानुभूति रखते हैं, दयार्द्र होते हैं। वे पहचानने की शक्ति भी रखते हैं। अधिकांश वनस्पतियाँ जड़ों, पत्ते, शाखाओं आदि से सजीव पृथ्वी, पानी, वायु व ऊष्मा का आहार लेती हैं। किन्तु कुछ वनस्पतियाँ, जैसे-परोपजीवी (Parasitesपेरासाइट्स) वनस्पतियाँ, ये वनस्पतियों का भी आहार ग्रहण करती हैं। कुछ माँसाहारी वनस्पतियाँ होती हैं, जैसे-कीटभक्षी, मानवभक्षी। ये द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों का आहार करती हैं। वनस्पतिकाय के जीवों में चारों प्रकार के कषाय व कृष्ण, नील, कापोत व तेजोलेश्याएँ प्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती हैं। इन जीवों की आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त व उत्कृष्ट दस हजार वर्ष है। ये जीव मानव जीवन के लिए विविध क्षेत्रों में बड़े उपयोगी सिद्ध हुए हैं। __वनस्पतिकाय के जीव अन्य स्थावर जीवों की अपेक्षा असंख्य नहीं, अनन्त होते हैं और वे पृथक्-पृथक् रूप से रहते हैं। जब तक उनको विरोधी शस्त्र न लगे तब तक वे सचित्त रहते हैं। वनस्पतिकाय के जीव दो प्रकार के हैं-एक साधारण वनस्पतिकाय जीव और दूसरे प्रत्येक वनस्पतिकाय जीव। पहले प्रकार के जीवों में एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं। सभी प्रकार के कन्द-मूल इसमें समाविष्ट हैं। दूसरे प्रकार के जीवों में एक-एक शरीर में एक-एक जीव होता है, जैसे-वृक्ष, लता, तृण आदि। इसमें शरीर का निर्माण करने वाला मूलतः एक ही जीव होता है किन्तु उसके आश्रित असंख्य जीव होते हैं जबकि द्वीन्द्रिय आदि जीवों में यह बात नहीं मिलती है। उनमें प्रत्येक जीव अपने शरीर का स्वतन्त्र निर्माण करता है।
वनस्पतिकाय के जीवों की उत्पत्ति मुख्यतः आठ प्रकार से होती है। यथा(१) अग्र बीज, (२) मूल बीज, (३) पर्व बीज, (४) स्कन्ध बीज,