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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १५३ *
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(३) किसी को बंधन में डालना, यथा-चिड़िया, कबूतर, तोता, मैना आदि
को पिंजड़े में बंद करना, कुत्ते को रस्सी से बाँधे रखना, साँप को
पिटारे में बंद करना आदि, (४) घोड़े, बैल, भैंसा, खच्चर, ऊँट आदि जानवरों पर सामान्य से अधिक
बोझ लादना, नौकरों से अधिक काम लेना आदि, (५) अपने आश्रित जीवों को समय पर भोजन-पानी न देना। (२) सत्याणुव्रत
दूसरा अणुव्रत है सत्याणुव्रत। इसे स्थूल मृषावाद विरमण व्रत भी कहते हैं। श्रावक के जीवन में सूक्ष्म असत्य का त्याग असम्भव है। किन्तु वह स्थूल सत्य के व्रत को अंगीकार कर सकता है। इसके लिए उसे प्रमादरहित जीवन जीना होता है जिससे किसी निर्दोष की हत्या न हो सके। इस व्रत को पालने वाला श्रावक कभी भी वह बात नहीं कहता जो सत्य न हो, यानी वह असत का व्यवहार नहीं करता है। जो बात है उसे उसी रूप में कहता है। सत्य वचन के साथ-साथ वह हित, मित का भी ध्यान रखता है। अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए या दूसरों को हानि या नुकसान पहुंचाने की भावना से सत्य को विकृत रूप में प्रस्तुत नहीं करता है। वह हर दृष्टि से स्थूल असत्य से बचने का सतत प्रयास करता है। श्रावक अहिंसाणव्रत की तरह इस व्रत का पालन भी तीन योगों व दो करणों से करता है। इस व्रत की भी बड़ी महत्ता है। इस व्रत के पालन करने वाले में विश्वास की भावना बढ़ती है। सारे सांसारिक कार्य विश्वास पर ही चलते हैं। बिना विश्वास के कोई भी कार्य, व्यवसाय, कारोबार, लेन-देन आदि नहीं हो सकते। इसलिए व्यवहार में भी सत्यव्रत अपेक्षित है। सत्याणुव्रत के पालने के लिए निम्न पाँच दोषों से श्रावक को बचना चाहिए
(१) दूसरे पर मिथ्या दोषारोपण करना, (२) किसी की गुप्त बात प्रकट करना, (३) पत्नी आदि के साथ विश्वासघात करना, (४) दूसरे को गलत सलाह या राय देना, (५) जालसाजी करना, झूठे दस्तावेज आदि लिखना।