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* १५२ : बाईसवाँ बोल : श्रावक के बारह व्रत
(२) तीन गुणव्रत, (३) चार शिक्षाव्रत ।
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पाँच अणुव्रत
इसके पाँच भेद हैं। संसार के समस्त पाप इन पाँचों में ही समा जाते हैं । इनसे मुक्ति के लिए एक सम्यक्त्वी गृहस्थ या श्रावक पाँच अणुव्रतों को अंगीकार करता है। ये पाँच अणुव्रत 'पंचाणुव्रत' कहलाते हैं। यथा
(१) अहिंसाणुव्रत,
(२) सत्याणुव्रत,
(३) अस्तेयाणुव्रत,
(४) ब्रह्मचर्याणुव्रत,
(५) अपरिग्रहाणुव्रत ।
(१) अहिंसाणुव्रत
अहिंसाणुव्रत को स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत भी कहते हैं। इसमें अहिंसाव्रत का पालन स्थूल रूप में किया जाता है। इसमें श्रावकों की अहिंसा देशविरति होती है | श्रावक पाँच स्थावर जीवों की हिंसा का परित्याग नहीं कर सकता वह तो केवल त्रस जीवों की और उनमें भी निरपराध जीवों की हिंसा का त्याग कर सकता है, यानी संकल्पी हिंसा का वह पूर्ण रूप से त्याग करता है | श्रावक ऐसी कोई भी प्रवृत्ति नहीं कर सकता जिसमें स्थूल हिंसा की सम्भावना हो । उसकी अहिंसा तीन योग व दो करणपूर्वक होती है। अहिंसाणुव्रती श्रावक में "मेत्ती मे सव्वभूएस वेरं मज्झ न केणइ ।” अर्थात् सब प्राणियों के साथ मेरी मित्रता रहे। किसी के साथ द्वेष या वैर भावना न हो, • ऐसे सद्विचार सदा सजग रहते हैं । इससे परस्पर वैमनस्य व विरोध का अन्त होता है। दया, करुणा व सद्भावना समाज में व्याप्त रहती है। अतः अहिंसाणुव्रत का धर्म के साथ-साथ सामाजिक और राष्ट्रीय महत्त्व भी है। अहिंसाणुव्रत का शुद्ध रूप से पालन करने के लिए जैनशास्त्रों में पाँच दोषों से बचने के लिए श्रावकों को बताया है
(१) किसी जीव को मारना, पीटना, त्रास देना,
(२) किसी को अंग-अंग करना, अपंग बनाना, विरूप करना,