SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ३१ * मन को नोइन्द्रिय या अनिन्द्रिय अर्थात् इन्द्रिय नहीं परन्तु कार्य में इन्द्रिय-जैसा कहा गया है। इसका कारण यह है कि यद्यपि मन भी ज्ञान का साधन होने से इन्द्रिय ही है परन्तु रूपादि विषयों में प्रवृत्त होने के लिए उसको नेत्र आदि इन्द्रियों का अवलम्बन लेना ही पड़ता है। इसी पराधीनता के कारण उसे अनिन्द्रिय आदि कहते हैं। .. शरीर में मन कहाँ रहता है ? यह जिज्ञासा किसी की भी हो सकती है। स्पर्शनादि पाँचों इन्द्रियों के अवगाहन का तो शरीर में एक विशेष स्थान होता है किन्तु मन का कोई विशेष स्थान नहीं है। वह तो सर्वत्र विद्यमान है। उसकी यह विद्यमानता मन की गति का शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों में वर्तमान इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गये सभी विषयों में होने से है जो उसे शरीरव्यापी बनाती है। इसलिए तो कहा जाता है कि “यत्र पवनस्तत्र मनः।" अर्थात् शरीर में जहाँ-जहाँ पर पवन है वहाँ-वहाँ पर मन है। जैसे पवन सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है वैसे मन भी सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। - संसार के अन्य जीवों की अपेक्षा मनुष्य में मन सर्वाधिक विकसित होता है। इसका एक कारण यह है कि मनुष्य का नाड़ी तन्त्र (Nervous system-नर्वस सिस्टम) अन्य जीवों की अपेक्षा अधिक विकसित है। अमुक जीव में मन है कि नहीं? इसकी पहचान के लिए जैनागम में स्पष्ट कहा गया है कि जिन जीवों में संज्ञा होती है, उन जीवों में मन होता है। संज्ञा का तात्पर्य है. गुण-दोष आदि की विचारणारूपी विशिष्ट प्रवृत्ति। • मनोविज्ञान मन को तीन भागों में विभक्त करता है। यथा (१) चेतन मन (Conscious-कॉन्सस), (२) चेतनोन्मुख मन (Sub-conscious-सबकॉन्सस), (३) अचेतन (Unconscious-अन्कॉन्सस)। मन के जिस भाग से मन की समस्त क्रियाएँ, जैसे-चलना, फिरना, बोलना आदि संचालित होती हैं ,वह चेतन मन कहलाता है। चेतनोन्मुख मन में अप्रकाशित किन्तु चेतना के स्तर पर आने के लिए तत्पर इच्छाएँ, भावनाएँ, स्मृतियाँ व वेदनाएँ रहती हैं। अचेतन मन में भावनाएँ व विचारों आदि की न तो हमें जानकारी ही रहती है और न सहज रूप से चेतना के स्तर पर ये बाहर ही आती हैं। प्रयत्न-विशेष से ही ये चेतना के स्तर पर आती हैं।
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy