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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ८९ *
जैनदर्शन में तत्त्वों का विशिष्ट महत्त्व है । अन्य विषयों का ज्ञान हो अथवा न हो, तत्त्वों का ज्ञान व श्रद्धान होना परमावश्यक है। बिना तत्त्वों को जाने-समझे और उन पर श्रद्धान किए कोई भी जीव मुक्त नहीं हो सकता अर्थात् मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता ।
तत्त्वों के नौ भेद हैं। संसार के जितने भी तत्त्व - पदार्थ हैं वे सब इन नौ तत्त्वों में ही अन्तर्निहित हैं । ये तत्त्व इस प्रकार हैं - (१) जीव, (२) अजीव, (३) पुण्य, (४) पाप, (५) आस्रव, (६) संवर, (७) निर्जरा, (८) बंध, (९) मोक्ष। इनमें जीव और अजीव ये ही दो तत्त्व प्रमुख हैं, शेष सात तो इनसे ही सम्बन्धित हैं और इन्हीं का ही विस्तार है। इनमें जीव चेतन है और अजीव अचेतन या जड़ है। पुण्य सुख की अनुभूति और पाप दुःख की अनुभूति कराता है। आस्रव शुभाशुभ कर्मों का आगमन द्वार है । संवर आस्रव का निरोध है । कर्मों का आत्मा से अलग होना निर्जरा है । बंध आत्मा और कर्म - पुद्गलों का एकमेव या सम्बद्ध हो जाना है और मोक्ष सम्पूर्ण कर्मों का क्षय है । इस प्रकार जीव और अजीव का मिलन संसार है । आस्रव और बन्ध संसार के कारण हैं। पुण्य और पाप संसार के सुख-दुःख का अनुभव कराते हैं। मोक्ष संसार से मुक्त होने की अवस्था है । संवर और निर्जरा मोक्ष के साधन हैं । इस प्रकार जीव और अजीव बंध ज्ञेय, यानी जानने योग्य तत्त्व हैं। पाप, आस्रव हेय, यानी छोड़ने योग्य तत्त्व हैं तथा पुण्य मोक्ष की दृष्टि से हेय किन्तु अशुभ से निवृत्ति के लिए उपादेय, यानी ग्रहण करने योग्य तत्त्व है। संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तीनों तत्त्व उपादेय हैं।
इस बोल में नव तत्त्वों के कुल एक सौ पन्द्रह भेद निरूपित हैं जिनका संक्षेप में वर्णन किया जा रहा है।
(१) जीव तत्त्व ( Soul Element - सोल एलीमेण्ट )
इन्द्रियों के आधार पर जीवों को मुख्यतः पाँच भागों में बाँटा गया है। इनके भी जीवों के जन्म के समय मिलने वाली पौद्गलिक रचना, यानी पर्याप्ति की दृष्टि से भेद-प्रभेद कर जीव के कुल चौदह भेद किये गये हैं। पर्याप्ति की योग्यता समस्त जीवों में समान रूप से नहीं होती है । पर्याप्तियों के आहारादि छह भेद होते हैं। छह पर्याप्तियों में जिसकी जितनी पर्याप्ति होनी चाहिए और वे पूर्ण हों तो वे पर्याप्त जीव हैं और पूर्ण न हों तो वे अपर्याप्त जीव हैं। इसी प्रकार जिनके मन हो वे संज्ञी और जिनके मन न हो वे असंज्ञी जीव होते हैं ।