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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ४७ *
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कि वैक्रियक शरीर देवों और नारकों में होता है। उनके तो आहारक शरीर सम्भव ही नहीं है क्योंकि आहारक शरीर केवल चौदह पूर्वो के धारक संयमी साधक के ही हो सकता है। इसी आधार पर तिर्यंच जीवों और सामान्य मनुष्यों के भी आहारक शरीर सम्भव नहीं होता है। इसी प्रकार चौदह पूर्वो के धारक संयती श्रमणों को वैक्रियक और आहारक-लब्धि प्राप्त तो होती हैं किन्तु इनमें से वे एक ही शरीर बना सकते हैं। चाहे वह शरीर वैक्रियक हो या आहारक शरीर हो। इन दोनों शरीरों को एक साथ न रहने का जो कारण जैनागम में बताया गया है वह है प्रमाद। वैक्रियक शरीर सदा प्रमत्त दशा में बनता है। जब तक यह शरीर रहता है तब तक प्रमत्त दशा बनी रहती है। यद्यपि आहारक शरीर की निर्माण-प्रक्रिया तो प्रमाद अवस्था में ही होती है लेकिन संयती श्रमण शीघ्र ही अप्रमत्त दशा में आरोहण कर जाते हैं और जब तक आहारक शरीर का संहरण नहीं कर लेते तब तक अप्रमत्त दशा में ही बने रहते हैं। __ जीव के साथ जो निरन्तर दो शरीर होते हैं वे हैं-तैजस और कार्मण। जीव के एक साथ जो तीन शरीर होते हैं उसके दो रूप हैं-एक तैजस्, कार्मण और औदारिक; दूसरा तैजस्, कार्मण और वैक्रियक। जीव के एक साथ जो चार शरीर होते हैं उसके भी दो रूप हैं-एक तेजस्, कार्मण, औदारिक एवं वैक्रियक शरीर और दूसरा तैजस्, कार्मण, औदारिक और आहारक शरीर।
(आधार : स्थानांग ५)
प्रश्नावली १. शरीर से क्या तात्पर्य है? यह कितने प्रकार का है? २. आत्मा के साथ-साथ शरीर को भी महत्त्व दिया गया है। क्यों? ३. क्या आहारक शरीर और वैक्रियक शरीर एक साथ हो सकते हैं? यदि नहीं,
तो क्यों? ४. तैजस् शरीर और कार्मण शरीर में मुख्य अन्तर क्या है? ५. आहारक शरीर की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। ६. एक संसारी जीव में एक साथ कम से कम और अधिक से अधिक कितने और
कौन-से शरीर होते हैं? ७. इस बोल में स्थूल और सूक्ष्म शरीर से क्या अभिप्राय है? यह स्थूलता और
सूक्ष्मता किस अपेक्षा से है? स्पष्ट कीजिये।