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* ९४ : चौदहवाँ बोल : नव तत्त्व के एक सौ पन्द्रह भेद
(१३) अभ्याख्यान पाप (झूठा कलंक लगाना), (१४) पैशुन्य पाप ( दूसरे की चुगली करना), (१५) पर- परिवाद पाप (निंदा आदि),
(१६) रति - अरति पाप (इष्ट पदार्थों पर प्रीति और अनिष्ट पदार्थों पर अप्रीति),
(१७) माया - मृषा पाप ( कपट सहित मिथ्या बोलना ),
(१८) मिथ्यादर्शनशल्य पाप (कुदेव, कुगुरु और कुधर्म पर श्रद्धान) । (५) आस्रव तत्त्व ( Karmic Element — कार्मिक एलीमेण्ट )
आस्रव कर्मों के आने के द्वार हैं। इन द्वारों के माध्यम से कर्म आत्म- प्रदेश में आते हैं। यह संसार का कारण है। इससे संसार की अभिवृद्धि होती है। अव्रत, इन्द्रिय, आस्रव, योग और अयतना के आधार पर आस्रव तत्त्व के बीस भेद किये गये हैं । अव्रत, यानी हिंसा, झूठ, कुशील, चोरी और परिग्रह इनका पालन करना ये पाँच अव्रत रूप आस्रव हैं । पाँचों इन्द्रियों की प्रवृत्तियों को बहिर्मुख रखना अर्थात् राग-द्वेष रूप रखना अर्थात् उन पर कोई संयम आदि न रखना इन्द्रियजन्य आस्रव है । क्योंकि ये कर्मबन्ध में निमित्त बनती हैं। तीसरा आधार है आस्रव। इसके पाँच भेद हैं- पहला मिथ्यात्व आस्रव है, जिसमें विपरीत श्रद्धान तथा तत्त्वों के प्रति अरुचि होती है । दूसरा अविरति आस्रव है। इसमें असंयम की प्रवृत्ति बढ़ती है। तीसरा प्रमाद आस्रव है। इसमें धर्म के प्रति अनुत्साह होता है । विषय, विकथा, आलस्य, निद्रा आदि के प्रति जीवों में रुचि होती है। चौथा कषायजन्य आस्रव है । इसमें क्रोध, मान, माया और लोभ की ओर जीव की प्रवृत्तियाँ रहती हैं। पाँचवाँ मन आदि का योग होता है। ये पाँचों आस्रव रूप हैं। मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं - एक शुभ और दूसरी अशुभ। दोनों ही कर्मबन्ध के कारण हैं अर्थात् आस्रव हैं। यद्यपि शुभ योग से निर्जरा होती है, आत्मा उज्ज्वल बनती है इस अपेक्षा से यह शुभ योग आस्रव नहीं है किन्तु यह शुभ बन्ध का कारण भी है इसलिए यह शुभ योग आस्रव भी है। आस्रव भेद का अन्तिम आधार है अयतना । अयतनापूर्वक, यानी अविवेकपूर्वक पदार्थों को रखना, उठाना भी आस्रव बन्ध का कारण है, जैसे- रजोहरण, भाण्डोपकरण, तृण, सुई आदि अन्य कोई भी पदार्थ अविवेकपूर्वक रखना या लेना ।