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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ९३ *
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उज्ज्वल बनाने वाली शुभ प्रवृत्ति का परिणाम धर्म है। मिथ्यात्वी शुभ क्रिया करता है उससे उसके कर्म अलग होते हैं। कर्म अलग होने से आत्मा उज्ज्वल बनती है उसकी यह शुभ क्रिया धर्म है। यदि ऐसा न माना जाये, अर्थात् मिथ्यात्वी की आत्मा को उज्ज्वल होती नहीं माना जाये तो फिर आत्मा उज्ज्वल हुए बिना मिथ्यात्वी, मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्वी कैसे बन सकता है ? इसी प्रकार लोग प्रायः धर्म और पुण्य को एक मान लेते हैं जबकि धर्म आत्मा का उज्ज्वल परिणाम है और पुण्य पौद्गलिक है, भौतिक सुख का कारण है। (४) पाप तत्त्व (Sin Element-सिन एलीमेण्ट)
पुण्य का उल्टा पाप है, यानी अशुभ कर्मों का उदय पाप है। अशुभ योग से बँधने वाले कर्म पाप कहलाते हैं। पापकर्म आत्मा को आध्यात्मिक पतन की
ओर ले जाते हैं। पाप जब उदय में आते हैं तब वे जीव को दुःख और पीड़ा पहुँचाते हैं। पापकर्म करते समय सुख तथा भोगते समय दुःख का अनुभव होता है। पाप नीच गति का कारण बनता है। इसके त्याग से ही जीव को उच्च गति मिलना सम्भव है। इसलिए पाप कभी भी उपादेय नहीं हो सकता, यह तो सर्वथा हेय ही है। पाप तत्त्व के अठारह भेद हैं। यद्यपि ये भेद नहीं हैं अपितु ये पाप बन्ध के कारण हैं। कारण में कार्य का उपचार मानकर ही ये भेद किए गये हैं
(१) प्राणातिपात पाप (हिंसा), (२) मृषावाद पाप (झूठ), (३) अदत्तादान पाप (चोरी), (४) मैथुन पाप (व्यभिचार), (५) परिग्रह पाप (ममताभाव), (६) क्रोध पाप, (७) मान पाप (अहंकार), (८) माया पाप (छल प्रपंच), (९) लोभ पाप (लालच-तृष्णा), (१०) राग पाप (इष्ट वस्तु के साथ स्नेह), (११) द्वेष पाप (इष्ट वस्तु के साथ द्वेष), (१२) कलह पाप (क्लेश, झगड़ा आदि),