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* ९२ : चौदहवाँ बोल : नव तत्त्व के एक सौ पन्द्रह भेद
अजीव तत्त्व
धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय
स्कन्ध देश प्रदेश स्कन्ध देश प्रदेश स्कन्ध देश प्रदेश
आकाशास्तिकाय
काल
पुद्गलास्तिकाय
स्कन्ध देश प्रदेश परमाणु
(३) पुण्य तत्त्व (Merit Element - मेरिट एलीमेण्ट ) शुभ कर्मों का उदय पुण्य है। शुभ कर्म जब फलित होते हैं तो वे पुण्य कहलाते हैं। पुण्य भोगते समय जीव को सुखानुभूति होती है किन्तु पुण्य को बाँधते समय जीव को कठिनाई होती है । आत्मा के विकास में पुण्य के निमित्त मिलने से यह पुण्य उपादेय है परन्तु साधना की उच्चतम अवस्था में यह पुण्य भी हेय है। इसके नौ भेद हैं- (१) अन्न पुण्य, (२) पान पुण्य, (३) लयन पुण्य, (४) शय्या पुण्य, (५) वस्त्र पुण्य, (६) मन पुण्य, (७) वचन पुण्य, (८) काय पुण्य, (९) नमस्कार पुण्य । पुण्य के ये नौ भेद वास्तव में भेद नहीं हैं अपितु पुण्य के कारण हैं । कारण भी उपादान नहीं है, निमित्त मात्र है जिनसे जीव पुण्य को बाँध सकता है।
धार्मिक क्रिया के अभाव में पुण्य का उदय नहीं हो सकता। मन, वचन व काय से जीव जो शुभ प्रवृत्ति करता है वह उसकी धार्मिक क्रिया है। उससे आत्मा विशुद्ध बनती है लेकिन इसके साथ ही साथ शुभ कर्मों का संचय भी होता जाता है। शुभ कर्मों का संचय पुण्य बन्ध कहलाता है । जब यह शुभ कर्मों का संचय उदय में आता है और फल देता है तब वह पुण्य कहलाने लगता है। सामान्यतः शुभ योग की प्रवृत्ति को अर्थात् क्रिया को भी पुण्य मान लेते हैं। किन्तु क्रिया पुण्य का कारण तो हो सकती है, स्वयं पुण्य नहीं । पुण्य तो क्रियाजनित फल है और वह भी प्रासंगिक है। मुख्य फल तो आत्मा की उज्ज्वलता अर्थात् कर्म निर्जरा है। जैसे खेती का मुख्य फल धान है, पलाल नहीं, उसी प्रकार शुभ योग की प्रवृत्ति पुण्य के लिए नहीं आत्मा की उज्ज्वलता अर्थात् निर्जरा के लिए होती है । अनेक लोगों की धारणा है कि मिध्यात्वी धर्म नहीं कर सकता परन्तु पुण्य बाँधता है। इसका समाधान यह है आत्मा को