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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल ५७
जबकि श्रुतज्ञान अतीत, विद्यमान तथा भावी इन त्रैकालिक विषयों में प्रवृत्त होता है। इसके अतिरिक्त मतिज्ञान में शब्दोल्लेख नहीं होता है जबकि श्रुतज्ञान
होता है। यानी जो ज्ञान इन्द्रियजन्य और मनोजन्य होने पर भी शब्दोल्लेख सहित है वह श्रुतज्ञान और जो शब्दोल्लेखरहित है वह मतिज्ञान है । मतिज्ञान यदि सन है तो श्रुतज्ञान रस्सी है। दोनों ही ज्ञान निमित्तों पर आधारित होने से परोक्ष ज्ञान हैं। श्रुतज्ञान के दो भेद हैं- एक द्रव्यश्रुत और दूसरा भावश्रुत। भावश्रुत ज्ञानात्मक है और द्रव्यश्रुत शब्दात्मक | जैनागम द्रव्यश्रुत है ।
तीसरे प्रकार का ज्ञान है अवधिज्ञान | यह ज्ञान प्रत्यक्ष है अर्थात् इन्द्रिय और मन के सहयोग के बिना आत्मिक शक्ति के द्वारा द्रव्यं, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा-सीमा से जो ज्ञानरूपी पदार्थों या पुद्गलों को जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान सूक्ष्म से सूक्ष्म पुद्गलों को जानने की शक्ति रखता है। यह ज्ञान देव और नारकों में जन्मजात होता है ।
मनुष्य और तिर्यंचों के कर्मक्षयोपशम के कारण
चौथा ज्ञान मनःपर्यवज्ञान है । यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष है । मन और इन्द्रियों के सहयोग के बिना आत्म-शक्ति द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा या सीमा से जो ज्ञान समनस्क या संज्ञी जीवों की चित्तवृत्तियों को, उनके मनोभावों को जानता है वह मनः पर्यवज्ञान है । यह ज्ञान निर्मल अन्तःकरण वाले संयमी साधक में होता है। यद्यपि ये दोनों ज्ञान अपूर्ण हैं फिर भी असाधारण हैं । इस ज्ञान की तुलना टेलीपैथी या Mind reading (माइण्ड रीडिंग) से नहीं की जा सकती है। आधुनिक विज्ञान जिसे Clair voyance (क्लेयर वोयेन्स) कहते हैं वह मनः पर्यवज्ञान का अंग नहीं कहा जा सकता।
पाँचवें प्रकार का ज्ञान है केवलज्ञान । जो ज्ञान बिना किसी बाह्य निमित्त के त्रिकाल व त्रिलोकवर्ती समस्त वस्तुओं को एक साथ जानने या देखने की क्षमता और सामर्थ्य रखता है, वह ज्ञान केवलज्ञान है। इस ज्ञान के प्रकट होने पर जीव सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और परम चिन्मय बन जाता है । केवलज्ञान परिपूर्ण होने के कारण इसमें उपरोक्त अन्य ज्ञानों की अपेक्षा कोई, किसी प्रकार का भेद नहीं होता है, कोई भिन्नता नहीं होती है । मति, श्रुत और अवधि; ये तीनों ज्ञान मिथ्यात्व के संसर्ग से मिथ्याज्ञान भी हो सकते हैं किन्तु मनः पर्यव और केवलज्ञान सदा सम्यक् ही होते हैं ।