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________________ * ८४ * तेरहवाँ बोल : दस प्रकार का मिथ्यात्व ------------------ अभाव है और दूसरे में अयथार्थ श्रद्धान है। पहला तो मूढ़ दशा में भी हो सकता है जबकि दूसरा विचार दशा में ही होता है। मूढ़ता की स्थिति में उसे तत्त्वों आदि का बोध ही नहीं है, इसलिए वहाँ श्रद्धान-अश्रद्धाने का प्रश्न ही नहीं है किन्तु विचार की शक्ति जब विकसित होती है और अभिनिवेश के कारण किसी एक दृष्टि या पक्ष को पकड़ लिया जाता है और कदाग्रहपूर्वक उस पर ही श्रद्धान रखा जाता है तो वह दृष्टि सर्वांगीण न होकर मिथ्यात्व से युक्त होती है। मिथ्यात्व सदा एकपक्षीय होता है। उसमें निष्पक्षता का अभाव होता है जबकि पदार्थ-स्वरूप की यथार्थता के लिए सर्वांगीण दृष्टिकोण का होना या निष्पक्षता का होना अनिवार्य है। मिथ्यात्व के कारण स्व-पर का भेदविज्ञान नहीं होता। पदार्थों के स्वरूप में संशय बना रहता है। यह सुख की हनि तो करता ही है साथ ही आत्म-स्वरूप की ओर रुचि भी नहीं होने देता। सत्य प्रतीति या सम्यक्त्व की प्राप्ति में मिथ्यात्व सबसे प्रबल अवरोधक है। आत्मा पर पड़ा मिथ्यात्व का आवरण जब तक हट नहीं जाता तब तक आत्मा कर्ममल से मुक्त नहीं हो सकती अर्थात् शुद्ध व निर्मल अवस्था में नहीं आ सकती। मिथ्यात्व के सन्दर्भ में कहा गया है कि मिथ्यात्वी भौतिक उन्नति चाहे कितनी भी कर ले किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से वह दरिद्र ही रहता है। जैसे शराबी को हित-अहित का ध्यान ही नहीं रहता, ठीक वैसे ही मोह की मदिरा से उन्मुक्त बने हुए मिथ्यात्वी को हित-अहित का ध्यान ही नहीं रहता है। मिथ्यात्वी धर्म-अधर्म, मार्ग-कुमार्ग, जीव-अजीव, साधु-असाधु, मुक्त-अमुक्त आदि के यथार्थ स्वरूप से अविज्ञ है। मिथ्यात्व के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए इसके अनेक भेद-प्रभेद हैं। कहीं पाँच तो कहीं दस, कहीं पच्चीस तो कहीं तीन सौ तिरेसठ भेदों आदि का उल्लेख है। .. प्रस्तुत बोल में मिथ्यात्व के दस भेदों का उल्लेख है। धर्म, मार्ग, जीव, साधु और मुक्त इन पाँच तत्त्वों के आधार पर ये दस भेद हैं। इन पंच तत्त्वों से अध्यात्म का प्रासाद (भवन) स्थिर व मजबूत रहता है जिसकी मूल भित्ति है जीव। जीव के अभ्युदय के साधन हैं धर्म और मार्ग। धर्म और मार्ग की विधिवत् शिखर तक साधना साधु अवस्था में ही सम्भव है इसलिए साधु अभ्युदय का कार्यक्षेत्र है और इस कार्यक्षेत्र अर्थात् साधना का अन्तिम लक्ष्य या फल-प्राप्ति मुक्ति (मोक्ष) है। इस प्रकार जीव मिथ्यात्व को मिटाकर सम्यक्त्व को जगाता हुआ धर्ममार्ग पर चलकर साधक बनकर अपनी साधना को अन्तिम और अभीष्ट लक्ष्य (मोक्ष) तक पहुँचता है।
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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