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आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल + ८५ *
मिथ्यात्व का पहला भेद है जीव को अजीव समझना। जीव को जीव और अजीव को अजीव जानना और मानना सम्यक्त्व है परन्तु जीव को अजीव समझना, उस पर श्रद्धान रखना मिथ्यात्व है। जैनदर्शन में जीव और अजीव के स्वरूपादि को बड़ी गहराई के साथ विभिन्न दृष्टिकोणों से समझाया गया है। क्योंकि इन दोनों तलों को समझे बिना इन पर श्रद्धान करना कैसे सम्भव है? जीव का प्रधान लक्षण है चेतना, जो जीव को अजीव से पृथक रखती है। यानी जिसमें चेतना हो वह जीव और जिसमें इसका अभाव हो वह अजीव है। यह सत्य जब अन्तरंग से अनुभूत हो उठता है तो कोई भी जीव को जीव और अजीव को अजीव ही मानेगा। जब तक यह प्रतीति नहीं होगी तब तक वह जीव को अजीव ही मानता रहेगा। उसका यह श्रद्धान या विश्वास जीव और अजीव के सन्दर्भ में मिथ्यात्व कहलायेगा।
मिथ्यात्व का दूसरा भेद है अजीव को जीव समझना। यह नेगेटिव रूप है। यानी इसमें विचारणा शक्ति मिथ्यात्व का सहारा लेती है और श्रद्धान या विश्वास में विपरीतता लाती है। मिथ्यात्व के कारण जो मतिज्ञान आदि है, वह दुराग्रह से युक्त रहता है जिसके कारण पदार्थ में जो गुण है उसको न मानकर विपरीत गुण को ही महत्त्व देता है। ऐसा मिथ्यात्वी अजीव को अजीव नहीं मानता। वह तो अजीव में जीव की ही कल्पना करता है और उसी पर ही अपना श्रद्धान रखता है। __मिथ्यात्व का तीसरा और चौथा भेद है धर्म को अधर्म समझना और अधर्म को धर्म समझना। इसको समझने के लिए हमें धर्म के लक्षण-स्वरूप को पहले समझना होता है। धर्म का लक्षण है स्वभाव। आत्मा का स्वभाव है विकारों से ऊपर उठना अर्थात् कर्म कषायों से निरावृत्त होना। प्रत्येक संसारी आत्मा कर्मों के आवरणों से आच्छादित है। इनको हटाने के लिए दो उपाय या साधन बताये गये हैं-एक संवर और दूसरा निर्जरा। संवर के माध्यम से नवीन कर्मों को रोका जाता है और निर्जरा के माध्यम से पुराने-संचित कर्मों का नाश किया जाता है। इस प्रकार संवर-निर्जरा के द्वारा आत्मा को निर्मल व उज्ज्वल बनाया जाता है। संवर और निर्जरा के जितने भी साधन हैं, जैसे-संयम, तप, सुपात्र दान, ध्यान आदि सब धर्म के अंग हैं। धर्म के इस यथार्थ स्वरूप को या धर्म के मर्म को जब आत्मसात कर लिया जाता है तो धर्म को धर्म समझा जाता है। धर्म को अधर्म या अधर्म को धर्म नहीं माना जाता है। सम्यक्त्व प्रकाश में धर्म को धर्म और अधर्म को अधर्म समझा जाता है। किन्तु इसके अभाव में जीव धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म मानता है। उसका ऐसा मानना मिथ्यात्व है।