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* ८६ * तेरहवाँ बोल : दस प्रकार का मिथ्यात्व
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मिथ्यात्व का पाँचवाँ और छठा भेद है साधु को असाधु और असाधु को साधु समझना। साधु का लक्षण है जिनेन्द्र मार्ग पर चलने वाला साधक। ऐसा साधक व्रतों, समितियों व तीन गुप्तियों का पालक होता है। ऐसे साधुओं पर जो श्रद्धान रखता है, उन्हें नमन करता है वह सम्यक्त्वी होता है और इसके विपरीत लक्षणों से युक्त साधुओं पर जो श्रद्धान रखता है वह मिथ्यात्वी है। मिथ्यात्वी साधु को असाधु समझकर उसके साथ अशोभनीय व्यवहार करता है तथा असाधु को साधु मानकर उसे ही नमन व वन्दन करता है।
मिथ्यात्व का सातवाँ और आठवाँ भेद है संसारमार्ग को मोक्षमार्ग समझना और मोक्षमार्ग को संसारमार्ग समझना। दो ही मार्ग हैं-एक संसार का मार्ग और दूसरा मोक्ष का मार्ग । पहला मार्ग भोग या विषय-वासनाओं का मार्ग है। इसमें जीव की समस्त चित्तवृत्तियाँ बहिर्मुखी होती हैं। संसार का मार्ग आवागमन का मार्ग है। कर्म-कषायों को प्रश्रय देने का मार्ग है जबकि मोक्षमार्ग आध्यात्मिक विकास का मार्ग है। इसके चार उपमार्ग हैं-एक ज्ञान, दूसरा दर्शन, तीसरा चारित्र और चौथा तप। इन चारों को मोक्षमार्ग न समझना और इससे भिन्न मार्ग को मोक्षमार्ग मानना मिथ्यात्व है। संसार का मार्ग कुमार्ग और मोक्ष का मार्ग सुमार्ग कहलाता है। इस प्रकार सुमार्ग को कुमार्ग और कुमार्ग को सुमार्ग समझना और मानना तथा उस पर चलना ये तीनों ही मिथ्यात्व हैं।।
मिथ्यात्व का नवाँ और दसवाँ भेद है मुक्त को अमुक्त और अमुक्त को मुक्त समझना। मुक्त का अर्थ है कर्मों से रहित होना। प्रत्येक जीव संसार अवस्था में कर्मों से आबद्ध रहता है। ये कर्म मुख्यतः आठ हैं
(१) ज्ञानावरणीय कर्म, (२) दर्शनावरणीय कर्म, (३) मोहनीय कर्म, (४) अन्तराय कर्म, (५) वेदनीय कर्म, (६) नाम कर्म, (७) गोत्र कर्म, (८) आयुष्य कर्म।
संवर और निर्जरा द्वारा इन कर्मों से मुक्ति पाना मुक्त आत्मा का लक्षण है। इस प्रकार कर्मों से रहित आत्मा मुक्त और कर्म सहित आत्मा अमुक्त है। मुक्त