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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : १९
परन्तु वे स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देते हैं, जबकि त्रसकाय के जीव में सुखदुःख विरोध आदि की अभिव्यक्ति अपेक्षाकृत स्पष्ट रूप से होती है।
किसी के मन में यह प्रश्न उद्भूत हो सकता है कि एक स्थान पर स्थिर रहने वाले जीव स्थावर तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने वाले जीव त्रस हैं तो पेड़-पौधों में भी ऐसी गति देखी जा सकती है। पौधों की जड़ें गति करती हैं, पत्थर आदि आने पर मुड़ भी जाती हैं, जिधर नमी हो उधर विस्तार पा लेती हैं। एक दृष्टि से देखा जाये तो पौधे सभी दिशाओं में गति करते हैं। जड़ के रूप में वे नीचे की ओर बढ़ते हैं। तने के रूप में ऊपर की ओर शाखाओं- टहनियों आदि के रूप में आठों तिर्यक् दिशाओं में बढ़ते हैं। अपना आकार-प्रकार फैलाते हैं। जहाँ तक इनमें सुख-दुःख की अभिव्यक्ति का प्रश्न है, वहाँ लाजवन्ती और छुईमुई के पौधे इसके साक्षात् उदाहरण हैं। सूरजमुखी सूर्य की गति के अनुसार दिशा बदलता रहता है । प्रातः पूर्व दिशा में और सायं पश्चिम दिशा में अपना मुख कर लेता है। ऐसे ही अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं तो फिर ये सकाय जीव क्यों माने गये हैं? वायु, अग्नि, जलादि जीवों के सन्दर्भ में भी सोचा जा सकता है कि इनमें भी एक प्रकार से गतिशीलता है। तो फिर ये स्थावर जीव कैसे हुए? इस सन्दर्भ में जैनधर्म में यह स्पष्ट उल्लेख है कि लब्धि के अनुसार अर्थात् स्थावर नामकर्म के उदय से पृथ्वी, जलादि समस्त एकेन्द्रिय जीव स्थावर कहलाते हैं और त्रस नामकर्म के उदय से द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव सकाय जीव हैं ।
जैनदर्शन में यह भी उल्लेख है कि परस्पर विरोधी स्वभाव वाली या समान स्वभाव वाली जातियाँ एक-दूसरे के लिए घातक होती हैं, इससे उनका नाश होता है। वे उनके लिए एक प्रकार से स्वकाय या परकाय शस्त्र हैं। उदाहरण के लिए, विरोधी स्वभाव वाले दो भिन्न मिट्टियों के जीव एक-दूसरे के घातक हैं । तैजस्काय जीव अप्काय जीवों के लिए शस्त्र है, उसी प्रकार अप्काय जीव तैजस्काय जीवों के लिए शस्त्र है। इस प्रकार के शस्त्र परकाय शस्त्र कहलाते हैं किन्तु सचित्त वायु से सचित्त वायु का नाश होना, सचित्त मिट्टी से सचित्त मिट्टी का नाश होना आदि -आदि स्वकाय शस्त्र हैं ।
(१) पृथ्वीकाय
जैनदर्शन ही एक मात्र ऐसा दर्शन है जो पृथ्वी, मिट्टी, पत्थर आदि को सजीव मानता है। इनमें जीवन है इस बात की पुष्टि इस बात से होती है कि