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________________ *१०२ * पन्द्रहवाँ बोल : आत्मा आठ पुनर्जन्म कहा जाता है। यद्यपि आत्मा तो वही है किन्तु शरीर वही नहीं है। उसने नया शरीर धारण किया है। अतः इस अपेक्षा से कह दिया जाता है कि आत्मा पुनर्जन्म धारण करता है, यानी आत्मा प्रतिक्षण अपनी क्रिया करता रहता है। वह अपनी पूर्व अवस्थाओं को छोड़ता हुआ उत्तर अवस्थाओं को प्राप्त करता है, किन्तु अपने अस्तित्व को बचाए-बनाए रखता है। उसे नहीं त्यागता है। उसमें जो चैतन्य गुण है, वह सदा विद्यमान रहता है। चाहे वह पशु योनि में जाए और चाहे मनुष्य योनि में। यह आत्मा पर लगे कर्म-संस्कारों पर निर्भर करता है कि उसे कौन-सी योनि, पर्याय या देह मिलती है। . ___ जैनदर्शन के अनुसार आत्मा स्वदेह परिमाण वाली है, यानी देह का जो भी परिमाण मिलता है उसी अनुरूप वह उस देह में समा जाती है। आत्म-प्रदेशों का जो यह संकोच-विस्तार गुण है वह आत्मा को छोटा-बड़ा कैसा भी शरीर मिले वह उस शरीर में व्याप्त हो जाने देता है। जैसे एक दीपक है। इसका प्रकाश अनेक परिमाण का होता है। यदि यह दीपक खुले आकाश में रख दिया जाए तो उसका प्रकाश खुले आकाश में फैल जाएगा। यदि इसे कोठरी में रख दिया जाए तो प्रकाश कोठरी में समा जाएगा। यदि इसे एक घड़े के नीचे रख दें तो इसका प्रकाश घड़े में समा जाएगा और यदि इसे ढकनी के नीचे रख दें तो यह ढकनी में समा जाएगा। इसी प्रकार कार्मण शरीर के आवरण से आत्म-प्रदेशों का भी संकोच और विस्तार होता रहता है। इस प्रकार आत्मा का चैतन्य गुण आत्मा को अपनी पहचान देता है। कोई भी जीव ऐसा नहीं होगा जिसमें चैतन्य गुण न हो। चाहे वे जीव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव हों, समनस्क हों या अमनस्क हों, सभी में न्यूनाधिक यह गुण सदा विद्यमान रहता है। आत्मा का यह चैतन्य गुण जानने या अनुभव करने की एक विशेष शक्ति है जो प्रत्येक आत्मा के अस्तित्व को दर्शाती है। जब तक यह पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो जाती है तब तक आत्मा संसारी अवस्था या बद्ध अवस्था में रहती है। पूर्ण विकसित हो जाने पर यह मुक्त भी हो जाती है। जितना-जितना कर्मों से यह अनावृत्त होती जाएगी, उतना-उतना वह ऊर्ध्वगमन होती जाएगी। ऊर्ध्वगमन आत्मा की स्वाभाविक गति है। इस प्रकार आत्मा चेतनायुक्त है। चेतना उसका गुण है, धर्म है और उपयोग आत्मा का लक्षण है। चेतना कभी भी एक समान नहीं रहती। उसमें सदा-सर्वदा रूपान्तरण होता रहता है। यह रूपान्तरण ही पर्याय-परिवर्तन कहलाता है क्योंकि जो भी द्रव्य होगा वह बिना गुण और पर्याय के नहीं रह सकता है।
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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