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________________ अठारहवाँ बोल : दृष्टि तीन (सम्यक्त्व के लक्षण, दूषण और भूषण) (१) सम्यक् दृष्टि, (२) मिथ्या दृष्टि, (३) सम्यक् मिथ्या (मिश्र) दृष्टि। सामान्यतः दृष्टि का अर्थ है देखना। किन्तु जैनदर्शन में दृष्टि शब्द श्रद्धान (Belief-बिलीफ) के लिए प्रयुक्त है। यह श्रद्धान, विश्वास-रुचि तत्त्वों के प्रति होती है। संसार में जितने भी जीव हैं उनमें कोई न कोई दृष्टि अवश्य होती है। जीवों में तत्त्वों के प्रति जो श्रद्धान होता है, वह तीन प्रकार का होता है। इसी आधार पर दृष्टि के भी तीन प्रकार हो जाते हैं। यथा (१) सम्यक् दृष्टि, (२) मिथ्या दृष्टि, (३) सम्यक् मिथ्या (मिश्र) दृष्टि। जिस जीव का तात्त्विक श्रद्धान सम्यक्त्व (Right faith-राईट फेथ) पर आश्रित हो, वह सम्यक् दृष्टि जीव है (Right faith soul राईट फेथ सोल) और जिसका श्रद्धान मिथ्यात्व (Wrong faith-रौंग फेथ) पर टिका हो वह मिथ्या दृष्टि जीव है (False believer-फाल्स बिलीवर) और जिसका श्रद्धान सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्र रूप हो, वह सम्यक् मिथ्या दृष्टि जीव है। (Soul having right and wrong faith mixed-सोल हेविंग राईट एण्ड रौंग फेथ मिक्स्ड)। इस प्रकार सम्यक्त्वी की दृष्टि सम्यक् दृष्टि, मिथ्यात्वी की दृष्टि मिथ्या दृष्टि तथा सम्यक् मिथ्यात्वी की दृष्टि सम्यक् मिथ्या दृष्टि कहलाती है। तीनों दृष्टियों के उद्गम का मूल स्रोत है मोहनीय कर्म। मोहनीय कर्म का जब क्षय या उपशम या क्षयोपशम होता है तब आत्मा के परिणामों में शुद्धता आती है जिससे तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप के प्रति यथार्थ श्रद्धान जगने लगता है। जीवों की यह दृष्टि सम्यक् दृष्टि कहलाती है। इसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जीव में तत्त्वों के प्रति मिथ्यात्व बना रहता है, यानी वह अदेव में देव या देव में अदेव, अधर्म में धर्म या धर्म में अधर्म और अगुरु में गुरु या गुरु में अगुरु की
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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