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* १२२ ÷ अठारहवाँ बोल दृष्टि तीन
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कल्पना करने लगता है। ऐसा जीव मिथ्या दृष्टि कहलाता है। मिश्र मोहनीय कर्म के उदय से जीव में सत्य और असत्य मिश्रित स्थिति पैदा होने लगती है, यानी एकाध तत्त्वों के प्रति उसका श्रद्धान सन्देह या मिथ्यापरक होता है और शेष तत्त्वों के प्रति उसका श्रद्धान यथार्थमुखी रहता है। जीव की ऐसी दृष्टि सम्यक् मिथ्या दृष्टि कहलाती है, यानी इसमें जीव की रुचि मिश्र होती है अर्थात् न पूर्णरूपेण तत्त्वों के प्रति श्रद्धा और न पूर्णरूपेण अतत्त्व श्रद्धा ही होती है।
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सम्यक् दृष्टि में सम्यक् शब्द प्रधान है। यह सम्यक् शब्द यथार्थता तथा मोक्ष अभिमुखता के लिए प्रयुक्त है। जीव में यथार्थ श्रद्धान सत्य और तथ्य पूर्ण होने के साथ-साथ जब मोक्षाभिमुख हो, यानी जीव की प्रवृत्ति मोक्षान्मुख हो तो वह जीव सम्यक्त्वी कहलाता है। उसका दर्शन सम्यक् दर्शन होता है। सम्यक् दर्शन में जो वस्तु जैसी है, जिस रूप में है उस पर वैसा ही श्रद्धान रखा जाता है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप में कोई - किसी भी प्रकार की शंका नहीं होती है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप, सत्य या आत्म-प्रतीति में शंका या बाधा उत्पन्न करने वाला मिथ्यात्व होता है। मिथ्यात्व के समाप्त होते ही उसी क्षण आत्म-ज्योति जगमगाने लगती है। इसी स्थिति में जीव में सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है जिससे उसमें आनन्द की अनुभूति होने लगती है । सम्यक्त्वी जीव की वृत्ति और प्रवृत्ति को इस दृष्टान्त से समझा जा सकता है- धाय अर्थात् बालक या शिशु का लालन-पालन करने वाली स्त्री इतनी सावधानी और जागरूकता के साथ बालक का लालन-पालन करती है कि बाह्य रूप से उसके और बालक की माता के व्यवहार में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता है । लोग धाय को ही माता समझने लगते हैं। लेकिन वह धाय हृदय से अन्तरंग से बालक को कभी अपना पुत्र नहीं समझती अपितु उसे वह पराया पुत्र ही मानती है । उसी प्रकार सम्यक्त्वी जीव भी अपने कुटुम्ब का पालन-पोषण करता है, अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करता है किन्तु यह सब वह कर्त्तव्य भावना के साथ करता है। कभी भी वह कुटुम्ब को अपना नहीं मानता। उसकी दृष्टि में अपना कोई है तो वह है अपनी आत्मा, शेष सब पर - पदार्थ हैं। उसकी दृष्टि में भेदविज्ञान समाया रहता है जिसके कारण वह पर - पदार्थों और पर - भावों के प्रति अन्तरंग और बहिरंग दोनों से विरक्त रहता है क्योंकि वह जानता है कि ये पर-पदार्थ क्षणभंगुर हैं, नाशवान हैं, फिर इनमें क्यों आसक्ति रखी जाए, क्यों बंधन में बँधा जाए? उसका यह दृढ़ विश्वास उसमें भेदविज्ञान या सम्यक्त्व के जगने के कारण होता है।