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________________ चौथा बोल : इन्द्रिय पाँच (इन्द्रियाँ और उनके ग्राह्य विषय) (१) श्रोत्रेन्द्रिय, (२) चक्षुरिन्द्रिय, (३) घ्राणेन्द्रिय, (४) रसनेन्द्रिय, (५) स्पर्शनेन्द्रिय। 'इन्द्रिय' शब्द के मूल में ‘इन्द्र' है। ‘इन्द्र' ऐश्वर्य आदि का प्रतीक है। जीव ही एक मात्र ऐसा है जो तीनों लोकों के ऐश्वर्य से सम्पन्न है। इसलिए जैनदर्शन में इन्द्र शब्द जीव या आत्मा के लिए प्रयुक्त हुआ है। संसारी जीव की पहचान कैसे हो? संसारी जीव की पहचान कराने वाला एक मात्र साधन या माध्यम है इन्द्रिय। इस प्रकार जिसके द्वारा संसारी जीव की पहचान हो वह इन्द्रिय (Sense organ-सेन्स ऑर्गन) है। संसार का कोई भी जीव ऐसा नहीं है जो संसार-दशा में हो और इन्द्रियों से रहित हो। यह तो सम्भव है कि किसी में कम और किसी में अधिक इन्द्रियाँ हों। संसारी जीव में कम से कम एक और अधिक से अधिक पाँच इन्द्रियाँ ही होती हैं। पाँच से अधिक इन्द्रियाँ किसी भी जीव में नहीं होती हैं। सांख्य आदि दर्शनकारों ने तथा पाश्चात्य विद्वानों ने दस इन्द्रियों का जो उल्लेख किया है वह पाँच ज्ञानेन्द्रिय (Sense organs-सेन्स ऑर्गन्स) तथा पाँच कर्मेन्द्रिय (Activity organs-एक्टिविटी ऑर्गन्स) की अपेक्षा से किया है किन्तु जब हम गहराई के साथ विचार करते हैं तो इन पाँचों कर्मेन्द्रियों का स्पर्शनेन्द्रिय में ही समावेश हो जाता है। जैसे वाक् (बोली) एक कर्मेन्द्रिय है। वाक् को स्पर्शनेन्द्रिय में सम्मिलित किया जा सकता है क्योंकि वाक् नली (Vocal cord-वोकल कॉर्ड), कण्ठ, तालू आदि बोलने में जो सहायक इन्द्रिय है वह है स्पर्शन। इसी प्रकार पाणि (हाथ), पाद (पैर), पायु (गुदा) और उपस्थि (जननेन्द्रिय) के प्रयोग में स्पर्शनेन्द्रिय का ही सहयोग रहता है, बिना स्पर्शनेन्द्रिय के सहयोग के इन पाँचों कर्मेन्द्रियों का प्रयोग असम्भव है। अस्तु ये
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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