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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १४१ *
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सान्त मानता है जबकि डी. सीटर आदि इसको अपरिमित और अन्तरहित मानते हैं। इन दोनों की मान्यताओं को यदि लोक और अलोक की दृष्टि से देखा जाए तो जैनदर्शन में वर्णित आकाश के स्वरूप में पर्याप्त समानता है। आइन्स्टीन का लोक जैनदर्शन का लोकाकाश और डी. सीटर का लोक जैनदर्शन का अलोकाकाश है। (४) काल द्रव्य
सभी द्रव्यों के परिणमन में यह उदासीन सहायक कारण है। इसके द्वारा पुराने पदार्थ नए और नए पुराने होते हैं अर्थात् प्रतिक्षण पदार्थों की जो पर्याय बदल रही है उसका निमित्त या सहकारीकरण काल है। काल के सूक्ष्मतम अन्त्य अणु कालाणु हैं जो रत्न राशिवत् परस्पर स्वतंत्र हैं, अतः यह अस्तिकाय नहीं है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा से काल के पाँच भेद हैं
(१) द्रव्य से एक, (२) क्षेत्र से अढाई द्वीप प्रमाण, (३) काल से आदि-अन्तरहित, (४) भाव से वर्ण, गंध, रस, स्पर्शरहित, अरूपी, शाश्वत, अढाई
द्वीपवर्ती, (५) गुण से वर्तनागुण, नए को पुराना और पुराने को नया करने वाला।
जैनागम में काल के दो रूप बताए गए हैं-एक निश्चय काल और दूसरा व्यवहार काल। वर्तना लक्षण को निश्चय काल कहते हैं। मुहूर्त, रात-दिन, घड़ी, मिनट, घण्टादि समय से जाना जाने वाला काल व्यवहार काल है। यह केवल मनुष्यलोक में ही व्याप्त है। इसका आधार सूर्य और चन्द्रमा की गति है। काल के इस विभाजन की पुष्टि वैज्ञानिक ऐडिंग्टन ने भी की है। काल के विभाग द्वारा ही आयुष्य आदि की गणना की जाती है। गणना की दृष्टि से काल के तीन भेद हैं-एक संख्येय काल, दूसरा असंख्येय काल और तीसरा अनन्त काल। जिस काल की गणना ज्ञात संख्या द्वारा की जा सकती है वह संख्येय काल, जिस काल की गणना अज्ञात संख्या से की जा सकती है वह असंख्येय काल है, जैसे-पल्योपम, सागरोपम आदि तथा जिस काल की गणना ही नहीं हो सकती वह अनन्त काल है।