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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १७५ *
के रूप में रहता है जो निर्देश करता है। पहले चार साधु छह महीने तक उपवास; बेला, यानी दो दिन तक लगातार उपवास; तेला, यानी तीन दिन तक लगातार उपवास; चौला, यानी चार दिन तक लगातार उपवास; पचोला, यानी पाँच दिन तक लगातार उपवास तथा आयंबिल आदि तप करते हैं फिर सेवा करने वाले छह माह तक यह तप करते हैं और तप करने वाले साधु सेवा करते हैं। फिर गुरु पद या आचार्य पद पर रहा हुआ साधु भी छह माह तक तप करता है। इस प्रकार अठारह माह में इस परिहार का कल्प पूरा होता है।
परिहार विशुद्धि चारित्र छठे और सातवें गुणस्थानों में होता है। (४) सूक्ष्म संपराय चारित्र
यह चारित्र का चौथा भेद है। इस चारित्र में सूक्ष्म संपराय शब्द जुड़ा हुआ है। सूक्ष्म का अर्थ है अल्प और संपराय का अर्थ है कषाय। कषाय चार प्रकार के होते हैं-एक क्रोध कषाय, दूसरा मान कषाय, तीसरा माया कषाय और चौथा लोभ कषाय। कषायों की सूक्ष्मतम, यानी अल्पतम स्थिति सूक्ष्म संपराय कहलाती है। कषायों में लोभ कषाय सबसे बाद में नष्ट होता है, शेष तीनों पहले नष्ट हो जाते हैं। यानी क्रोध, मान व माया का नौवें गुणस्थान में उपशम या क्षय हो जाने पर केवल सूक्ष्म संज्वलन रूप लोभ कषाय ही शेष रह जाता है। ऐसी समुज्ज्वल अवस्था सूक्ष्म संपराय चारित्र कहलाती है। यह चारित्र दसवें गुणस्थान में होता है। इससे नीचे के गुणस्थानों में नहीं होता है। (५) यथाख्यात चारित्र ___ यह चारित्र का पाँचवाँ भेद है। इस चारित्र का अर्थ है सर्वथा विशुद्ध चारित्र अर्थात् अतिचार से रहित चारित्र। इसमें कषायों का अंश बिलकुल भी नहीं होता है। इसमें आत्मा के शुद्ध-निर्मल परिणाम होते हैं। चूँकि यह विशुद्ध चारित्र है। अतः इसे वीतराग चारित्र या क्षायिक चारित्र भी कहते हैं। यथाख्यात चारित्र में पापकर्मों का आस्रव सर्वथा रुक जाता है। यह चारित्र दो प्रकार का होता है-एक उपशान्त मोह यथाख्यात चारित्र और दूसरा क्षीण मोह यथाख्यात चारित्र। दूसरे प्रकार के चारित्र वाले साधु उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। यह चारित्र ग्यारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थानों तक अर्थात् चार गुणस्थानों में ही होता है। यद्यपि ग्यारहवें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभकषाय की सत्ता रहती तो है पर वहाँ वह उदय में नहीं आती है।