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६६ : दसवाँ बोल : कर्म आठ
(३) असत्य वचन बोलना, (४) कूट तोल - माप करना ।
मनुष्यायुबंध के कारण
(१) भद्र व सरल प्रकृति का होना,
(२) विनीत स्वभावी होना,
(३) दयालु होना,
(४) ईर्ष्या - द्वेष न करना तथा मरते समय संक्लेश परिणामी न होना ।
वायुबंध के कारण
( 9 ) सरागसंयमी होना,
(२) संयमासंयमी होना,
(३) बालतपस्वी होना अर्थात् तप का आश्रय मिथ्यात्व हो, (४) अकामनिर्जरा करना ।
(६) नाम कर्म
यह कर्म जीव के विभिन्न प्रकार की गति, जाति, शारीरिक संरचना आदि का कारण है । इस कर्म के उदय से ही जीव को शरीर मिलता है और इसके क्षय से आत्मा का अमूर्त्तत्त्व गुण प्रकट होता है । इस कर्म की तुलना चित्रकार से की गई है। नाम कर्म के मुख्य रूप से बयालीस भेद हैं तथा इसके उपभेद कुल मिलाकर तिरानवें हो जाते हैं।
शुभ - अशुभ की अपेक्षा से नाम कर्म के दो भेद हैं- एक शुभ नाम कर्म और दूसरा अशुभ नाम कर्म ।
शुभ नाम कर्म के चार कारण हैं
(१) दूसरों को ठगने वाली शारीरिक चेष्टा न करना,
(२) दूसरों को ठगने वाली मानसिक चेष्टा न करना, (३) दूसरों को ठगने वाली वचन की चेष्टा न करना, (४) कथनी-करनी में विसंवाद न करना ।
इन सभी कार्यों को करना अशुभ नाम बंध के कारण हैं।