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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ६७
(७) गोत्र कर्म
इस कर्म के उदय से जीव में पूज्यता - अपूज्यता के भाव आते हैं। ऊँच या नीच कुल 'में जन्म लेना इसी गोत्र कर्म के कारण होता है। इस कर्म के क्षय से जीव में अगुरु - लघुत्व गुण प्रकट होता है। इस कर्म का स्वभाव कुम्भकार के समान है। इसके दो भेद हैं - एक उच्च गोत्र और दूसरा नीच गोत्र । जहाँ आचरण तथा व्यवहार अहिंसा, सत्य, कुलीनता और शिष्टता आदि से ओतप्रोत हो, वहाँ उच्च गोत्र और इसके विपरीत स्थिति वाला आचरण व व्यवहार नीच गोत्र है । उच्च गोत्र बंध के कारण हैं - (१) जाति, (२) कुल, (३) बल, (४) रूप, (५) तप, (६) श्रुत (ज्ञान), (७) लाभ, (८) ऐश्वर्य आदि का अहंकार न करना और इसकी विपरीत स्थिति में नीच गोत्र बंध बँधता है अर्थात् जाति कुल आदि
का अहंकार करना ।
(८) अन्तराय कर्म
यह जीव की वीर्य शक्ति का घात करता है । यह दान, लाभ, भोग आदि के उत्साह में बाधक बनता है । आत्मा के लब्धि गुण को यह कर्म रोकता है। इसके क्षय से अनन्त शक्ति व विपुल लाभ की प्राप्ति होती है। इस कर्म का स्वभाव कोषाध्यक्ष या भण्डारी के समान है। इसके पाँच भेद हैं
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(१) दानान्तराय,
(२) लाभान्तराय,
(३) भोगान्तराय,
(४) उपभोगान्तराय,
(५) वीर्यान्तराय ।
अन्तराय कर्म के पाँच कारण माने गए हैं
(१) दान में बाधा उत्पन्न करना,
(२) लाभ में रोड़ा अटकाना,
(३) भोग में व्यवधान डालना,
(४) उपभोग में रुकावट पैदा करना,
(५) वीर्य, यानी उत्साह या सामर्थ्य में अवरोध उत्पन्न करना ।