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* ११८ सत्रहवाँ बोल : लेश्या छह
(६) शुक्ल लेश्या
इसका वर्ण शंख, अंकमणि कुन्द पुष्प, दुग्धधारा, चाँदी व मुक्ताहार के समान श्वेत-धवल होता है। ऐसे जीवों को मिश्री - जैसा आस्वाद अनुभव होता है। तेजो, पद्म व शुक्ल इन तीनों लेश्याओं वाले जीवों की गंध, सुगंध तथा स्पर्श नवनीत - जैसा कोमल या सुकुमार होता है। शुक्ल लेश्या वाला जीव राग-द्वेष से रहित, शोक और निंदा से परे, समदर्शी, आत्मा में लीन, अपने भीतर के परमात्मा को जगाने वाला निर्विकल्प ध्यानी होता है। इसकी मनोवृत्ति अत्यन्त विशुद्ध होती है। यह अशुभ प्रवृत्तियों से दूर अप्रमत्त रहता है।
जब आत्मा परम विशुद्ध हो जाती है अर्थात् चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश कर जाती है तब वहाँ कोई किसी भी प्रकार की लेश्या नहीं होती है। इस प्रकार लेश्या - विचार के द्वारा कोई भी जीव अशुभ से शुभ और शुभ से प्रशस्त शुभ या शुद्ध होता हुआ अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है अर्थात् पहली तीन लेश्याओं का त्याग करते हुए बाद की तीन लेश्याओं को उपादेयी मानते हुए अन्त में इन षड्लेश्याओं से भी मुक्त होकर जीव अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है अर्थात् मोक्ष पद पर प्रतिष्ठित हो सकता है।
किसमें कितनी लेश्या ?
जैनागम में किन जीवों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? इस पर भी चिन्तन हुआ है। नरकगति के जीवों में तीन लेश्याएँ बतायी गई हैं। यथा
(१) कृष्ण लेश्या,
(२) नील लेश्या
(३) कापोत लेश्या ।
पहले नरक से लेकर सातवें नरक तक के जीवों में क्रमशः अशुभ से अशुभतम लेश्याएँ, यानी कापोत से कृष्ण लेश्या होती चली गई हैं। चूँकि नारकों के संक्लेशी परिणाम पहले से सातवें नरक तक में बढ़ते चले गये हैं अतः उनकी लेश्याएँ भी अशुभतम होती गई हैं। जैसे पहले नरक में कापोत लेश्या है तो दूसरे में कापोत तो है ही, पर यह पहले की अपेक्षा अधिक संक्लेश वाली है। तीसरे में कापोत और नील लेश्या है तो चौथे में केवल नील लेश्या ही है । पाँचवें में नील और कृष्ण लेश्या है। छठे में कृष्ण लेश्या है तो सातवें नरक में भी कृष्ण लेश्या है किन्तु तीव्रतम संक्लेश वाली है। चारों प्रकार के