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इक्कीसवाँ बोल : राशि दो (जीव और अजीव का वर्णन)
(१) जीव राशि, (२) अजीव राशि।
प्रस्तुत बोल में राशि का वर्णन किया गया है। राशि का आशय है-समूह, समुदाय, वर्ग आदि। सम्पूर्ण लोक राशियों से भरा पड़ा है। बिना राशियों के लोक का कोई अस्तित्व नहीं है। जब तक राशियाँ हैं, तब तक लोक है। जहाँ राशियाँ नहीं, वहाँ लोक भी नहीं। ये राशियाँ दो प्रकार की हैं-एक जीव राशि और दूसरी अजीव राशि। लोक में जितने भी पदार्थ हैं वे इन दोनों में ही अन्तत हैं।
जीव राशि चेतन पदार्थों का समूह है जबकि अजीव राशि अचेतनं या जड़ पदार्थों का समूह है। लोक में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो चेतन और अचेतन (जड़) पदार्थों में न समा सके। लोक में जितने भी चेतनायुक्त पदार्थ हैं या प्राणवान जीव हैं चाहे वे संसारी हों या सिद्ध-मुक्त जीव हों, वे सब जीव राशि में ही समाहित हैं। इसी प्रकार धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य आदि समस्त जड़ पदार्थ या तत्त्वादि अजीव राशि में परिगणित हैं। यानी जैनदर्शन के षड्द्रव्य और नव तत्त्व इन्हीं दो राशियों में गर्भित हैं। ये इनसे पृथक् नहीं हैं।
लोक के स्वरूप, उसकी स्थिति आदि का जब हम चिन्तन करते हैं तब इन राशियों की संख्या में विस्तार हो जाता है फिर ये राशियाँ दो नहीं, छह हो जाती हैं जिन्हें षड्द्रव्य भी कहा जाता है किन्तु आत्मा के अस्तित्व, इसके मुक्त और बद्ध होने आदि के बारे में हमारी जिज्ञासा जब बढ़ने लगती है तब इन राशियों की संख्या दो से नौ तक पहुँच जाती है। इससे एक बात स्पष्ट है कि जीव और अजीव इन दो राशियों को समझे बिना न तो हम लोक को समझ सकते हैं और न लोक में होने वाले क्रिया-कलाप या कार्य-संचालन को ही जान सकते हैं। इस दृष्टि से इन दोनों राशियों की महत्ता सर्वोपरि है। छह राशियाँ इस प्रकार हैं
(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय,