Book Title: Aagam 40 Aavashyak Malaygiri Vrutti Mool Sootra 1 Part 04
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०/४] श्री आवश्यक [मूल] सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित - सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं वृत्तिः निर्युक्ति: ८३० से १९०० ( अंत पर्यन्ताः ) [भद्रबाहुसूरि सूत्रिता निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि रचिता वृत्तिः] [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) -> 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: BIOGIES SS SEEDS RESENSENSTREESOR DEEOSSNIESIDEOSSESSERIES श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे-ग्रन्थाङ्क ८५.. लियगिरिसूरिकृतविवरणयुतं, श्रुतकेवलिश्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसूत्रित्तनियुक्तियुत श्रीआवश्यकसूत्रम् । चतुर्थ-भाग: प्रथमावतायावभागौ पूर्व श्रीमत्यागमोदयसमितिद्वारा मुद्रापितौ प्रकाशितौ च, अस्य तृतीयविभागस्य तु प्रकाशक:-श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धारसंस्थाकार्यवाहक:-जीवनचंद साकरचंद जहेरी। इदं पुस्तकं मोहमय्यां जीवनचंद साकरचंद जह्वेरी इत्यनेन निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभाटवीथ्या २६-२८ तमे गृहे रामचन्द्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । श्रीवीरात २४६२. विक्रमात् १९९२. निस्ताब्दः १९३६. प्रथम संस्करणम् मूल्पम् रू.२-6-. प्रतयः १००० ESHERAISISES S ESSESSERIES SENSESSEENESSSSSSSSSSS S HSEENES ... मूल संपादकीय आवश्यकसूत्रस्य टाईटल-पेज Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आवश्यक- निर्युक्तिः एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास- गाथा श्री भद्रभाहुस्वामिजी की निर्युक्ति पर मलयगिरिसूरिजी रचिता वृत्ति की प्रत सबसे पहले "श्री आवश्यकसूत्र" के नामसे सन १९२८ (विक्रम संवत १९८४) में आगमोदय समिति एवं देवचंद्र लालभाई पुस्तकोद्धार फंड आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी ) महाराज साहेब | की रचना कि है, जो हमारी "आगम सुत्ताणि सटीकं" एवं "सवृत्तिक आगम सूत्राणि" मे मुद्रित हुइ है | द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक पूज्यपाद श्री हरिभद्रसूरिजीने भी आवश्यक सूत्र पर एक विशाल वृत्ति * हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन-निर्युक्ति-भाष्य-मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, निर्युक्ति, भाष्य, सूत्र आदि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम दिया है, उसके साथ इसी प्रत का सूत्रक्रम और 'दीप अनुक्रम' देने की हमारी पद्धत्ति है मगर यहां तो मुख्य तौर पे निर्युक्ति और भाष्य पर हि मलयगिरिजी रचिता वृत्ति है क्यों की ये वृत्ति सिर्फ़ १- अध्ययन तक ही प्राप्त हो रही है इसिलिए बायी तरफ़ सूत्रांक और दीप- अनुक्रमवाले विभाग कि कोइ उपयोगिता नहि रही | यहां मूल संपादक कि बनायी हुइ एक अनुक्रमणिका भी पायी गई है, जो की तिनो [चारो] विभागो की एक साथ हि है, जिसमे निर्युक्ति, भाष्य आदि के क्रम, (प्रत के) पृष्ठांक सहित लिख दिये है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते निर्युक्ति एवं भाष्य तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है । अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ...मुनि दीपरत्नसागर....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं ], नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: आवश्यकस्य मलयगिरीयाया वृत्तेर्भागत्रयस्य विषयानुक्रमः । प्रत विषयः सूत्रांक CONDUSTRIESAKAL दीप विषयः प्रयोजनाणुपन्याससाफल्यम्-(बचनप्रामाण्यम्) ... १ज्ञानपञ्चकक्रमसिद्धिः, एकेन्द्रिये श्रुत्तसिद्धिः, लक्षणादिदूमालपर्चा, नामाविलक्षणानि, द्रव्यमाले नयचर्चा,मङ्गलो- | भेदैर्मतिभुतयोर्भेदः। ... पयोगे मालवा, नामादीनां भिन्नता,नामायेकान्तनिरासः। २ अवप्रहादयो मतिभेदाः ( गा.२)। (संशयादीहाया भेदः) २२ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकविचारः । (महवादिसिद्धसेनमते) । १२ अवप्रहादीनां स्वरूपम् । (गा. ३) व्यञ्जनावमहे ज्ञान, नन्दिनिक्षेपाः। ... ... ... ... १२ ___ चक्षुर्मनसोरप्राप्यकारिता । ... ... .... २३] डानपाकवरूपं ( गा.१) प्रत्यक्षपरोक्षविभागः, आत्मनो अवप्रहादीनां कालमानम् । (गा. ४)। ... ... बातृत्व, इन्द्रियाणां करणत्वेऽपि व्यवधायकता, केवले शब्दादीनां प्राप्ताप्राप्तबद्धपृष्टवादि (गा.५)।(शब्दस्वा शेषशानामावसिद्धि। ... ... ... १३] प्राप्यकारिवानिरासः) ... ... ... २॥ मानपकपाक्यसिद्धिः। .... ... ... १७ शब्दस्याकाशगुणत्वमपास्तम्। ... . अनुक्रम अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: arary.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] sarao मलयगि० १ Jain Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ निर्युक्ति: [ - ], भाष्यं [-], मूल [- / गाथा-] अध्ययन [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ... पत्रातुः ४४ ... ४६ विषयः अष्टाविंशतिर्भेदाः । (द्रव्य क्षेत्रकालभावविचार। ) । मुदज्ञानकथनप्रतिज्ञा । (गा. १६) । यावदक्षरं प्रकृतिः, अशक्तिर्भणने । (गा.. १७-१८ ) ४५ अक्षराचा भेदाः, (गा. १९) ( अक्षरभेदाः) । अनक्षरश्रुतम् (गा. २०) अङ्गानङ्गप्रविष्टविचारः । शाखाभरीति: (गा. २१) । बुद्धिगुणाः (गा. २२ ) । श्रवणविधिः (गा.२३) । अनुयोगविधिः (३गा. २४) । ४९ अवधेः प्रकृतयः, (गा. २५) । ( यावत्प्रकृतिभणनेऽशतिः (गा. २६) । अवध्यादीनि द्वाराणि (गा. २७-२८ ) । अबर्नक्षेपाः, (गा. २९ ) । अवषेर्जघन्यं क्षेत्रम् (गा. ३०) । ... अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: विषय: इन्द्रियविषयाणामात्मा कुलमेयता, प्रकाश्यप्रकाशक विषयमानभेदः । ... २९ ... ३१ ३२ ... ... मिश्रपराघातशब्दश्रवणम् (गा. ६) । शब्दपुद्गलानां ग्रहणनिसर्गो, (गा. ७) । त्रिविधेन शरीरेण ग्रहणं भाषा च, (गा. ८) । भाषाया ग्रहणमोक्षो, भेदाय (गा. ९) । भाषाया लोकव्याप्तिः, पूरणरीतिश्व (गा. १०-११ ) । ( जैनसमुद्घातरीत्या न व्याप्तिः ) । अभिनिवोधिकस्यैकार्थिकानि (गा. १२ ) ... सत्पदादीनि द्वाराणि (गा. १३-१४) । ( सम्यक्त्वे व्यवहारनिद्ययौ ) | ( क्रियानिष्ठयोर्भेदाभेदौ )। (अवगाहस्पर्शनयोर्भेदः ) । *** ... ... पत्राड: ... ३४ ३५ ३८ ३९ ~5~ ... .. ... ५० ५१ --- ५२ ... अनुक्र● ary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] Jain Educ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ निर्युक्ति: [ - ], भाष्यं [-1, मूल [- / गाथा-] अध्ययन [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विषयः अवधेरुत्कृष्टं क्षेत्रम्, (या. ३२ ) । षोढाऽभिजीवावस्था-नम्. सूचिश्रेणिस्त्वादेशः । ... ... अवधेः क्षेत्रकालप्रतिबन्धः (गा. ३२-३५) । कालादिवृद्धि नियमः (गा. ३६ ) क्षेत्रस्य सूक्ष्मता, (गा. ३७) । .... अवघे प्रस्थापकनिष्ठापको (गा. ३८ ) । द्रव्यक्षेत्रवर्गणाः (गा. ३९-४० ) । | गुरुखघ्वादीनि द्रव्याणि (गा. ४१ ) । अवधेर्द्रव्यत्रादिप्रतिबन्धः (गा. ४२-४३ ) । ... परमावधेर्द्रव्यादि (गा. ४४-४५ ) तिश्नरकयोरवधिः, (गा. ४६-४७ ) .... देवानामघस्तिर्यगूर्ध्वमवधिः, (गा. ४८-५१ ।) आयु मानेनावधिः (गा. ५२ ) । अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्यः ... •••मन्त्राइः ... .... ५३ ... ५४ ५७ ... ६१ ६३ ६४ ****: ७० विषयः उत्कृष्टाद्यवधीनां गतिषु सत्ता, संस्थानं च (गा. ५३-५५ ) । ६७ आनुगामिकेतराबवधी, (अन्तगवादिभेदाः), (गा. ५६ )। ६८ क्षेत्रकालद्रव्यपर्यवेष्ववस्थानम् (गा. ५७-५८ ) क्षेत्रकालद्रव्यपर्यायाणां वृद्धिदानी, (गा. ५९ ) । ७१ स्पर्धकावधि:, (प्रतिपात्यप्रतिपातिनौ ) (गा. ६०-६१ ) । ७२ बाह्यान्तरावयोः प्रतिपाद्योत्पाती, (गा. ६२-६३ ) द्रव्यपर्यायप्रतिबन्धः (गा. ६४ ) । साकारादीनि (गा. ६५) । अवरबाह्याः (गा. ६६ ) । ७४ सम्बद्धासम्बद्धाः (गा. ६७) । गत्याद्यतिदेशः । (गा. ६८) । ७५ आमशोषण्याद्याः (६९-७० ) । वासुदेव चत्र्यईतां बलम्, (गा. ७१-५) । ( श्रीरामबायाः ) .६५ | मनःपर्यायस्वरूपम्, (गा. ७६ ) । ... 6~ library.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्रीभाव० मलयगि० મ in Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ निर्युक्ति: [-], भाष्यं [-1, मूल [- / गाथा-] अध्ययन [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विषयः केवलज्ञानस्वरूपम्, (गा. ७७)। ... प्रज्ञापनीयभाषणं द्रव्यमुददा च (गा. ७८ ) । (सि. द्वानां १५ भेदाः) । ... ... १०१ श्रुतेनाधिकारः, प्रदीपददृष्टान्तो ऽनुयोगे, ( पीठिका ), (गा. ७९ ) । आवश्यक निक्षेपाः ( अगीतार्यासंविअस्य रत्नवणिजो ज्ञातो, एकार्थिकानि श्रुतनिक्षेपाः, पघा सूत्राणि, स्कन्धनिक्षेपाः, अर्थाधिकाराः, उपकमादीनां भेदप्रभेदाः, ब्राह्मण्यादीनां दृष्टान्ताः गङ्गाप्रवाइदर्शिकथा पूर्वानुपूर्व्याचाः, प्रमाणागमढोकोत्तरादिभेदाः, अध्ययनादीनां निक्षेपाः, मध्यमङ्गलचर्चा उपोद्घातमङ्गलम् (गा. ८० ) । द्रव्यमावतीर्थे, सुखाबतारादिभेदाः । ... श्रीवीरनमस्कारः, (गा. ८१ ) । । विषयः गणधर द्वंशवाचकवंशप्रवचनानां नमस्कारः, (गा. ८२) । निर्युक्तिकथनप्रतिज्ञा, (गा. ८३ ) । निर्युक्तिविषयाणि शाखाणि । ( ८४-८६ ) । ... १०० गुरुपरम्परागता सामायिकनियुक्ति:, (गा. ८७ ) ( द्रव्यपरम्परायां दृष्टान्तः ) । निर्युक्तत्वेऽप्यर्थानां विभाषणम् (गा. ८८ ) । तपोनियमज्ञानवृक्षः कुसुमवृष्टिर्मन्यनं च (गा. ८९-९० ) । १०४ सूत्रकृतौ देवचः, (गा. ९१)। अर्थभाषका अन्तः सूत्रकृतो गणधराः, (गा. ९२ ) । श्रुतचरणसारः (गा. ९३ ) । ... ... १०६ अचरणस्य न मोक्षः, पोतदृष्टान्तः, सापेक्षे ज्ञानक्रिये । (गा. ९४ - १०३) । ... १०७ ... अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्यः ... ... ... पत्राच ८२ ८३ ८६ ९७ ९९ ~7~ www ... ... ... *** पत्रा अनुक्र० ibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययन [ - ], निर्युक्ति: [-], भाष्यं [-], मूल [- / गाथा-] रत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचितवृ विषयः पत्राहुः विषयः .... ... १३९ क्षये केवलं, उत्कृष्टकर्मस्थितौ नैकमपि, कोटाकोट्यन्वयः । (गा. १०४ - १०६ ) .... ... १११ पस्यादयो दृष्टान्ताः (गा. १०७) । (अस्पबहुबन्धचर्चा ) । ११३ अनन्तानुबन्ध्यादयः, (गा. १०८-१११) । अतिचारे मूलच्छेदे च देववः, । (गा. ११२ ) ... ... ११६ चारित्रपञ्चकम् (गा. ११३ - १५) | ( परिहारे २० द्वाराणि । ... ११८ उपशमश्रेणिः, (गा. ११६) । सूक्ष्मसम्परायः । ( गा. ११७) । ... १२३ कषायसामर्थ्यम्, (गा. ११८-२० ) । ... ... १२५ क्षपक श्रेणिः, (गा. १२१ - २३) । ( गाथात्रयस्था समीचीनता ) । ... १२६ केवलस्याशेषविषयता, (गा. १२४ ) । जिनप्रवचनादीनि (गा. १२५ ) एकार्थिकानि, (गा. १२६-१२८ ) । १२८ अनुयोगनिक्षेपाः, ७ (गा. १२९ ) । ... १३० काष्ठादिदृष्टान्तैर्भाषकाद्याः, (गा. १३२ ) । ... १३८ व्याख्यानविधौ गवादिदृष्टान्ता:, (गा. १३३) शिष्यगुणदोषाः, शैलघनाद्या दृष्टान्ताः (गा. १३४-६) । १४१ उद्देशादीनि उपोद्घातद्वाराणि २६ । (गा. १३७-१३८ ) । १४६ उद्देशनिक्षेपाः ८ ( गा. १३९)। निर्देश निशेपाः (म. १४० ) । निर्देशे नयाः, (गा. १४१) । ... १४८ निर्गमनिक्षेपाः ६, (गा. १४२ ) । ... १५१ नयसारभवः, (गा. १४३-४४ । १-२ ० भा० ) । १५२ कुलकरचकन्यता, हस्तिनो नीवय (गा. १४५ - १६६ ) । ३ मू० भा० ) । *** ... ... १५३ ... 1 अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: ... ... *** ... ... *** ~8~ ... *** पत्राइ ary.org Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक -- दीप अनुक्रम [-] श्रीभाव० मलयगि० Jan Educatio “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ निर्युक्ति: [-], भाष्यं [-], मूल [- / गाथा-] अध्ययन [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विषय: पत्राङ: श्री ऋषभभवाः, २० स्थानकानि, श्रीऋऋषभवक्तव्यता, अभिषेक, १५७ वंशस्थापना (गा. १८५-१८६) वृद्धिः विवाहः, नृपत्वं समायाः, आहाराद्याः (गा. १८७-२३०) १९२ सम्बोधनादीनि २१, लोकान्तिकाः सांवत्सरिकदानं राजानः कुमाराय तपःकर्म ज्ञानक्षणि साधुसाध्वीमानं गणधरा. गणः पर्यायः सर्वायुः । (गा. २३१-२३५ ) । .. २०१ ऋषभदीक्षा नमिविनमी, विद्याधरनिकायाः १६, तापसाः पारणं श्रेयांसवृत्तं पारणकानां स्थानानि दातारः, आदित्यमण्डलं, धर्मचक्रं चक्रोत्पातः मरुदेवीमोक्षः, मरीचिदीक्षा पट्खण्डसाधनं, सुन्दरीदीक्षा, ९९भ्रातृदीक्षा, बाहुबलिदीक्षा, (गा. ३३६-३४९ । ३७ भा. ) । २१५ परिव्राजकता, अवग्रहाः ५, माहना:, तीर्थकृष्ण क्रिदशाई त्वानि चक्रिणो वासुदेवाः, जिनान्तराणि, मरीचिमानः, विषयः • पत्रम ऋषभनिर्वाणं, अष्टापदतीर्थ भरतकेवलं दुर्भाषणं श्रीवीरभवाः । (गा. ३५०-४५७ ) । ... २३३ स्वप्ना अपहारः निश्चलता अभिग्रहः जन्म नाम भीषणं लेखे-शाळा विवाहः प्रियदर्शना दानं लोकान्तिकाः, दीक्षाम-" हः सिद्धनमस्कारपूर्व पापाकरणनियमः कुमारमामे गोपोपसर्ग: कोडाके दिव्यानि ( लोहार्यः ), शूलपाणि: स्वप्नदशकं अच्छन्दकः चण्डकौशिकः प्रदेशिमहिमा कम्बलम्बल पुष्यः, गोशालः, नियतिग्रहः, पाटकदाहः, उपहासः मुनिचन्द्रः, सोमाजयन्त्यौ मनुष्यमांसं पधिकामिः मुखत्रासः, मण्डपदादः मेषः अनार्याटनं नन्दिषेणः, विजयाप्रगल्भे, वाहनं अयस्कारः यक्षः ताली ठोकावधिः पराङ्मुखस्थानं कटपूतना बग्गूर: विलस्तम्बः, वेश्यायनः शङ्खगणराजः आनन्दः अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: ~9~ 9% *%*e 6 अनुक्र● ary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] Jain Educato “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ निर्युक्ति: [-], भाष्यं [-], मूल [- / गाथा-] अध्ययन [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विषयः प्रतिमाः पेढालः सङ्गमकः सुखसातप्रनः कौशाम्बी च मरोत्पातः मेण्टिकः अमिमहः स्वातिदत्तः ऋजुवालुका तप महासेनवनं महिमा (गा. ४५८- ५४२ ... ३४० विषयः एकादशघा कालः, चेतनाचे वनस्थितिः, अद्धाकालभेदाः, यथायुष्ककाल:, (गा. ६६४ ) । उपक्रमाले इच्छाकारायाः सामाचार्य:, इच्छाकारः, (गा. ६८१) । मिथ्याकारः (६८७) तयाकारः, (गा. ६९० ) । आवश्यकी (६९४) नैवैधिकी (६९६) ( १३५ - १३६मा ), आपृच्छायाः (गा. ६९७) । उपसम्पत् (गा. ७०२ ) । ... ... ३४१ प्रमार्जननिषद्याक्षकृतिकर्मादीनि (गा. ७१७ । १३७ भा.) ( हा. १२३) । चारित्रोपसम्पत्, (गा. ७२३ ) । ३५१ अध्यवसानाचा आयुष्कोपक्रमाः, भये सोमिलकथा, दण्डादयो निमित्ते, प्रशस्ताप्रशस्तदेशकालौ, प्रमाणकालः, भावे भङ्गाः । (गा. ७३५) ...... ... ३५५ अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्यः ... ४६-११४ भा. समवसरणादीनि द्वाराणि, करणनियमानियमो देवविधिः|देशनाकाल: प्रतिविम्बानि पर्षदः सामायिकप्र तिपत्तिः तीर्थप्रणामः परमरूपादि संशयच्छेदः वृत्तिदानं बलिः गणधर देशना (गा. ५४३ - ५९० ) । ... गणधराणां नामानि संशयाः परिवारः इन्द्रभूत्युक्तिः, ( १२१-१२६ भा. ) संशयाः सदुपगमाः, (६४१ । १३२ मा. ) । ... ३१२ गणधराणां जन्मभूमिनक्षत्रगोत्रपर्यायायुर्ज्ञानमोक्षतपांसि (गा. ६५९) । ... ३०१ ...३११ *** ... ... प ... २५२ ... ३३७ ~10~ ... ... पत्राइ ary.org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं - नियुक्ति: -, भाष्यं [-1, मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पग्रह प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम धीपाव विषयः अनुक्र० मटयागपुरुपनिझेपाः १०, कारणनिक्षेपाः ४, तद्रव्यान्बद्रव्ये नि. आर्यरक्षितवृत्ते स्वर्णनन्दी पञ्चशैलः इङ्गिनी जीवरस्वामी मितनिमित्तिनौ, समवाय्यसमवायिनी कादि, भावे- प्रभावती गान्धारः गुटिकाशतं युद्धं पर्युषणोपवासःक्षाऽसंयमादि, प्रवृत्तितोऽशरीरत्वान्तं,प्रत्ययेऽवध्यादि लक्षणं मणं, रक्षितस्य विद्यार्थ पाटलीपुत्रे गमनं, दीक्षा, भद्रगुप्त१२ सदशसामान्यादि श्रद्धानादि बा, (गा. ७५३)1३६३ / निर्यापणा वनखामिपाश्र्वेऽध्ययनं फल्गुरक्षितदीक्षा मूलनयाः, स्मात्पदं,अवधारणविधिः, दिगम्बरीयमतसमीक्षा। ३६९ रथावतः कुटुम्बदीक्षा वृद्धानुवत्तनं पुष्पमित्रत्रयं नयानुनिगमलक्षणं, ( भिन्नसामान्यनिरासः), सहव्यवहार सू योगानां पार्यक्य, (गा. १२४ मू. भा.)। मथुरायां शब्दसममिरूदैवम्भूतलक्षणानि, प्रस्थकवसतिप्रदेश | शागमः, गोष्ठामाहिलवृत्तं, (गा. ७७७)। रष्टान्ताः , प्रभेदवत्त्वं। ... ... ३७१, ... ... ३९१ वनखामिवृत्ते शालमहाशाली कौण्डिन्यादयस्तापसाः पुण्ड | निद्ववाधिकारः, १ (१२५-१२६ भा.)२ (१२७-१२८) रीककण्हरीको दीक्षा साध्व्युपाश्रयावस्थितिः, सत्सार ३(१२९-१३०) ४ (१३१-१३२) ५(१३३कल्पः, दृष्टिवादानुमा रुक्मिणीदीक्षा विद्याद्वयम् , उत्त- १३४) ६ (१३५-१४०) (१४१-१४४)। ४०१ रापये सानिस्तारा पुर्यामुत्सवः पुष्पावचयः रामः नोटिकनिरासः (सविस्तर) (१४५-१४८ भा.)। भावकता, (गा. ७७२)। ... ... ... ३८३/ दोषद्वयादि ७८८। ... ... ... ४१८ अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: ~11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] आ.सु. १०२ Educato “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ निर्युक्ति: [-], भाष्यं [-1, मूल [- / गाथा-] अध्ययन [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विषयः ... ४२८ *** अनुमते तपःसंयमादि, सामायिकस्यात्मादि लक्षणं, (गा. १४९ - १५५ ) । व्रतानां द्रव्येष्ववतारः, द्रव्यपर्यायापेक्षया सामायिकं । ४३१ सामायिकस्य भेदाः सम्यत्तत्वादीनां भेदाः ( १५० भा. ) गा. ७९५ । सन्निहितात्मादेः सामायिकम् (गा. ८०३) । सामायिक प्राप्तिहेतुक्षेत्र दिकालगत्यादीनि द्वाराणि अलङ्कारादिद्वारान्तानि, दिभिक्षेप:, (गा. ८२९ ) । द्रव्यपर्यायव्यापिताविचारः, (गा. ८३०) । मनुजत्वादीनां दौर्लभ्ये चोलकादयो दृष्टान्ताः, (गा. ८४० ) । ४५१ आलस्याया धर्मविनहेतवः, यानावरणादिरूपकम् ... ४३३ ... ४३५ ... ४३६ ... ४५१ ... ४८२ ... इत्युपोद्घातनिर्युक्तिः । सूत्रस्य दोषा गुणाः सूत्रस्पर्शिक नियुक्तिनयानां सममनुगमः, (गा. ८८६ ) । उत्पत्यादिफलान्तं नमस्कारे, समुत्थानत्राचनालब्धितः (गा. ८४३ ) । स्वामी निक्षेपास्तेषु नयाः किमादिषट्या सत्पदादिअत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्यः ...४५५ ... ... मनाङ ... ४५६ ... ४५७ विषयः दृष्टानुभवादी सम्यत, ( आनन्दादिभाव कचरित्राणि ) (गा. ८४४ ) । वल्कलचीरिवृत्तम् । अनुकम्पाचा हेतवः, तदृष्टान्ताय वैद्यादयः अभ्युत्थानादय:, (गा. ८४९ ) । कालमानं, प्रतिपद्यमानादयः, अन्तरं, अविरह विरही आकर्षाः स्पर्शना भागः पर्यायाः, दमदम्ताया दृष्टान्ताः (गा. ८७९) । ... ४६९ *** ... ४६० ~12~ ... ... ... पत्राः ... pary.org Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं - नियुक्ति: -, भाष्यं [-1, मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: मनुका प्रत सूत्रांक श्रीआव.la विषयः मलयागि नवपद्या च निरूपणं वस्तूनि आरोपणाचाः प्रकृत्यायाः, कर्मजाया लक्षणं तद्दृष्टान्ताश, (गा. ९४६)। ... ५२६ मार्गाद्या हेतवः, (गा. ९०३)। ... ... ४८५ पारिणामिक्या लक्षणं तदष्टान्ताच, (गा. ९५१)।... ५२७ देशकनिर्यामकमहागोपत्वानि, (गा. ९२७)। ...४९४ तपःकर्मक्षयसिद्धौ सिद्धस्वरूपं समुद्घातः शैलेशी रागद्वपकषायेन्द्रियाणां भेदाः स्वरूपं दृष्टान्ताच, (गा.९२८)।४९७ शाटीदृष्टान्तः पूर्वप्रयोगादयः लोकाप्रप्रतिष्ठितत्वादि ईकपरीषहस्वरूपं, उपसर्गाणां खरूपं दृष्टान्ताश्च । ... ५०८ लाग्मारा अवगाइना संस्थानं देशप्रदेशसना सिद्धानां - |अनेकथाई निरुतयः, नमस्कारफलं च, (गा. ९२६) । ५१० ___ लक्षणं सुखं च पर्यायाः, नमस्कारफलम् , (गा.९९२) । ५३४ | कर्मशिल्पादिसिद्धाः, कर्मसिद्धः, (गा. ९२९) । शिल्प- आचार्यनिक्षेपादि, (ग. ९९९) ... ... ५४९ सिद्धः । (गा. ९३०)। विद्यासिद्धः, (गा. ९३१- उपाध्यायनिक्षेपादि, (गा. १००७। मा. १५१) साधुनिझे-' २)। मने (३३) योगे. (३४) आगमार्ययोः, पादि, (गा.१०१७) उपसंहारा, संक्षेपविवारची, (गा. ३५) यात्रावा (३६) ... ... ५११ (या. १०२०)। .... ... ... ५५० बुद्धिसिद्धस्वरूपं, बुद्धभेदाः, औत्पत्तिक्या लक्षणं दृष्टान्ताय क्र मद्वारं प्रयोजनफले त्रिदंख्यादयो दृष्टान्ताः, (गा.१०२५)। ५५३] (गा. ९४४)। ... ... ... ५१६ सम्बन्धः सामायिकसूत्रं च सन्याख्यान, निक्षेप्यपदानि, वैन बिक्या लक्षणं तदृष्टान्तान (गा. ९४५)। ... ५२३ (गा. १०२९)। ... अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शितः, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: नवलपरला दीप अनुक्रम COORXChh ...५५ ~13~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं -], नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ECRECEIR दीप अनुक्रम पत्राहा पत्राः नामादिकरणानि, (मा. १५२-१७४)। क्षेत्रकाळकर- | सावद्यार्थः, ( गा. १०५१)। द्रव्यमावयोगाः (गा. | जानि, भावेऽत्र मुतवद्धानिशीथास्यानि,(गा. १०३६)। नोभुतकरणम् , (गा. १०३१)! .. . ५५८ कृताकृतादिद्वारसप्तकम् , (नदिष्टोपदेशादिष)। आलोच- प्रत्याश्याने न्याश्मेिदार, (गा. १०५४)। यावच्छ___ माया नयाः, (गा. १०४० । १७५-१८३ भा.)। ५६५ | दार्थः, (गा. १०५५)। |देशसर्वपातिपाते सामायिक, (गा. १०४१)। ... ५७२ | जीवितनिक्षेपाः, ( गा. १०५६ । १८९-१९० भा.)। ५८० | मयनिक्षेपाः, अन्तं पोढा, (१८४-१८५ भा.)। ... ५७२ सामायिकसूत्रस्याः , सामायिकैकार्थाः निक्षेपा एपाम्, प्रत्याख्याने १४७ महाः (गा. १०५७) । त्रिकालपह| (गा. १०४५) ... ... ... ५७४ पम्, (गा. १०५८)। ... ... ... सामायिकस्य पर्यायाः, कर्तृकर्मकरणविचारः, आत्मा का त्रिविपादेरपुनरुकता, (गा. १०५९)। ... ... ५८३ o रकः, (गा. १०४९) ... ... ... ५७५ सर्वस्य निझेपाः, (गा. १०५०) देवसर्यादि. (मा. न्यमावप्रतिक्रमणोदाहरणे, (गा. १०६०)। निन्या. 1 १८६-१८९ मा.)। ... ... ... १७६ / गईयो, (१०६१-१०६२)। ... ... १८४ अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्री आव ० मलयगि० ક Educa “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ निर्युक्ति: [-], भाष्यं [-], मूल [- / गाथा-] अध्ययन [ - ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विषयः पत्राः विषयः पत्राङ्गः ज्ञानक्रियानयवक्तव्यता, (गा. १०६५ - १०६७ ) । ... ५८६ ठोकायचाः, उद्योतक्षेप ४, (गा. १०७४ ) । ... ५९४ धर्मनिक्षेः ४ (गा. १०७५-६ ) । तीर्थनिक्षेगः ४, fresses: पर्यायाः (गा. १०८१) । कर क्षेपाः ६, द्रव्यकराः १८ प्रशस्त भावकरः, १०८२-७ ) ... ५९६ अर्हकीर्तन शितिके त्रलिपदानि (गा. १०८९-९१) । चालनास मावी ।... ऋषभादिगा यात्रार्थः (गा. १०९२-९९ ) ... ५९. ... ५९९ इति चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनम् । इति सामायिकाभ्यनम् XXXXXXXX_ अध्ययन सम्बन्धः, चतुर्विंशत्यादेर्निक्षेपाः, (गा. १०६८ ) । चतुर्विंशतः, (गा. १९२ मा.) स्ववस्य (गा. १९३ ) | भावस्तवमहता, (गा. १९४ - १९५ ) । कूपदृष्टान्तो द्वये, (गा. १९६ भा. ) । ... ५८८ 'लोगस्स' सूत्रव्यारूपा । *** ... १९१ लोकनिक्षेपाः ८ ( गा. १०६९) जीवाजीवनित्यत्वादि, कालभवभावपर्यवलोकाः, (गा. १९७ - २०५ ) । ५९२ ... 1 ... ~15~ ... ५९५ (गा. अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्यः अनुक्र० brary.org Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं नियुक्ति: -, भाष्यं [-1, मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: KEERTEREMIxx-x=x=KEEEEXXXXIXExaxx Sheth Devchand Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund Series: No. 85. प्रत सूत्रांक SRİ AVASYAKA SUTRA दीप Part m WITH NIRYUKTI ( gloss) by ŚRUTAKEVALIN SRI BHADRABAHUSVAMIN ALONG WITH THE COMMENTARY BY ŚRI MALAYAGIRISÜRI. Copies 1000] Price Rs. 2-8-0 [A. D. 1936 mRRENEXTERIAXEXXESXEXEEEXXINHEIXEXXXXX XxxEEXIXEXEEx=x=x=x अनुक्रम *** The original Title page of Aavashyak sootrasy Commentary ~16~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं -, नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीमलयगिरिसूरिसूत्रिताया आवश्यकवृत्तेरुपक्रमः । eceeccee- - विपश्चितो विधाय कृपां समाददत्येतद् मुद्रयित्वाऽप्यमाणमावश्यकीयं श्रीमलबागिर्याचार्यविहितं विवरणं । अन्यविवरणानि-यद्यपि विहितमत्र विवरणं व्याससमासाभ्यां सूरिपुरन्दरैः श्रीहरिभद्रैः, तत्र व्यासविवरणस्य श्रीमलय गिर्याचार्यसत्ताकालतः प्रागेव व्युच्छेदः, तथापि | सार्धद्वाविंशतिसहस्रमान लघु विवेचनं तु श्रीमलयगिरिसत्ताकालेऽपि वरिवर्तमानमभूदेव, यद्यपि मया तथाऽन्यैः कृताऽस्य विवृतिः' इति श्रीहरिभ-| द्रसूरिभिरावश्यकवृत्तरारम्भे उक्तत्वात् अन्याचार्यवर्यविहितानि अभविष्यन् अस्य अन्यानि विवरणानि, तथापि श्रीमलयगिर्याचार्यसमये केवला १ श्रीहरिभद्रसूरिकृतैव वृत्तिः प्रनेति श्रीमलयगिरयोऽस्मिन्नेव २० पत्रे अस्वैवावश्यकस्य मूलटीकायां०४३ पत्रे अस्य मूलटीकाकृत् इत्यायुदाहापुः । आवश्यकस्य स्थान-आद्यन्त्य जिनयतीनां प्रत्यहं नियमेन द्विविधानेन शेषाणामपि कारणे सति अवश्यकरणाद् श्रीमति | शासने जैनेन्द्रे नावश्यकस्थानावश्यकं स्थानं, किंच-अभ्यासक्रमे आदावस्यैव स्थानमिति सामाइयमाझ्याई इकारसंगाई अहि जइत्ति, सामाझ्याइ बिन्दुसारपजत मित्यादिकाः सष्टा उक्तयः, अत एव श्रुतकेवलिश्रीभद्रबाहुस्यामिभिरस्मैवादी आरब्धा नियुक्तिः । हा आवश्यकस्य कर्ता-यद्यपि चेदमावश्यक भगवद्भिर्गणधरैरेव विहितमिति उपोद्घातनियुक्तिगतकारणप्रत्ययद्वारयोः श्रीअनुयोगद्वारगततस्यात्मागमादिप्रकरणस्य च दर्शनादवसीयते स्पष्टं,तथाऽप्यङ्गाबाह्यतयेदं व्यवाहियते, यतो नेदं उप्पन्नेइत्यादिनिषद्यात्रयकाले गणधरपदानुशायाच दीप अनुक्रम ... आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी लिखित अस्या वृत्ते: प्रास्ताविक-उपक्रम ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं -], नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक श्रीआय प्राक कृतं, किन्तु अनुज्ञाकालसायंकालयोर्मध्यभागे, आवश्यकं चावश्यकानुष्ठानं भगवतां गणधराणामपि, तथा चालवाह्यत्वेऽप्यस्य गणधरकृतमलयगि० ताऽव्याहतैव, अत एव चानङ्गप्रविष्टश्रुतलक्षणे ४८ पत्रे एत एव सूरीन्द्राः 'गणधरकृतप्रश्नस्यतिरेकेण शेषकृतप्रश्नपूर्वकं वा भगवतो मुत्कलं व्याकरण'मिति स्पष्ठितवन्तः, अनायाह्यस्य सर्वथा गणधरेतरतबितत्वे गणेत्याद्यविकल्पस्यैवाभावात् , यच कचिन् श्रीभद्रबाहुस्वामिप्रभृतिभिः | स्थविरैः कृतमङ्गबाह्य मावश्यकादीत्युच्यते तद् आवश्यकनियुक्तिमावश्यकत्वेनाभिप्रेत्यैब, एवं च भगवद्भिः श्रीजिनभद्रक्षमाश्रमणैरावश्य-13 कनियुक्तेयाख्याने ऽपि 'आवासयाणुओगं' इत्यूचे, श्रीआचाराङ्गवृत्तौ लोकनिक्षेपाधिकारे च चतुर्विशतिसवस्वारातीयेत्यादिना चतुर्विंशति-11 स्तवत्वेन तन्नियुक्तिरेवाभिप्रेता, कचित्तु अङ्गबाह्याना स्थविरकृतत्वनिदर्शने स्पष्टतयाऽऽवश्यकनियुक्तिरेवोच्यते यथाऽत्रैव ४८ तदनङ्गप्रविष्टं, तथावश्यकनियुक्त्यादि' ततश्चाङ्गप्रविष्टं गणधरकृतमेव स्थविरकृतं वङ्गबाह्यमेवेति निर्णेयं सुधीभिः, एवं चास्यावश्यकस्याङ्गाबाह्यत्वे गणधरकृतखे च न कोऽपि विरोधः । ___ अस्य सूत्रस्य प्रतिदिनमाहतानां द्विरुपयोगित्वादस्याभ्यासक्रमे आदिस्थानात् अस्यैवादी नियुक्तिकरणाच महता विवरणेन परिवारितं पूज्वैः, अस्यैवोपरि नियुक्तिमूलभाष्यभाष्यविशेषावश्यकभाष्यचूर्णिप्रभृतयो विवरणमन्थाः विहिता विपश्चिन्मूर्धन्यैः, एवं चाचार्यश्रीमलयगिरिभि रपि व्यधायि विवरणमस्य, परं केनापि हेतुनेदमपूर्णमेव श्रीकुन्थुनाथस्तव पर्यन्तं दृग्ध, यथा चैतदपूर्णमाचार्याणामेषां तथा श्रीवृहत्कल्प-10 दिभाष्य विवरणमप्यपूर्णमेवास्ति, मुद्रणं स्वेतस्यैतावन्मानं व्यधायि, ततः शेष विवरणं श्रीमत्या आगमोदयसमित्या प्राग मुद्रितायाः श्रीहरिभद्रीय-18 वृत्तेरवधेयं, अपूर्णस्यापि मुद्रणमस्योपयुक्ताने कविषयसमावेशात् विस्तृततया विषरणाच नानुपयुक्तम् । दीप अनुक्रम ॥ ३ ॥ A mastram ... आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी लिखित अस्या वृत्ते: प्रास्ताविक-उपक्रम ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं -], नियुक्ति: -, भाष्यं [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप I ग्रन्थकाराभिधानं-पूर्व प्राचुर्येण साधुमहात्मनां नामानि गृहस्थपर्यायभावीन्येव प्रचारमापुः, प्रवज्यापर्यायेऽपि कचिदेव च श्रीसिद्धसेन दिवाकरकलिकालसर्वज्ञश्रीहेमसूर्यादीनामिव नानः परावोंऽपि, अधुना तु पोडदाशताब्दीतः सागरविजयविमलाविशाखानां | प्रादुर्भावात् सर्वेषां परावर्तोऽभिधाने प्रव्रज्यादिने एव, परं श्रीमतामभिधानं तु पूर्वपर्यायाभिधानेनैव, न तु परावृत्तं, तेन गिर्याख्या काऽपि शाखा तदन्तर्गताश्चैते महात्मान इति न भ्रान्तव्यं भारतीभूपणैः, मलयगिरिवत् सर्वदा मनोहरत्वशीलमुगन्धित्वविनयवस्वशान्ततमत्वकुमततापनिर्णाशनादिकामनुपमा गुणगणततिमुपलभ्य पूज्यानां गौणं वाऽभिधानमेवत् रूढं स्यात्, यतो नेमभिधानं संज्ञारूपं, किन्तूपमारूपमिति विदुषां विश्रुतमेव । सत्तासमय:-यद्यपि पूज्यतममन्था अग्रन्थिरेऽनेके तथापि न कुत्रापि खेषां सत्तासमयो मातापित्रोरभिधानं जन्मभूमिः यावत् पूज्यतमानां स्वगुरूणां गमष्ठस्यापि व नाम निर्दिष्टानि, पूज्यानां सर्वेष्वपि ग्रन्थेपु खरचितत्यं मा दर्शितं प्रेक्ष्यते, नान्यत् किमपि गुरुगच्छाभिधानादिकं, न च वाच्यं तदानींतने समये अन्धावसाने गुरुगच्छदर्शनपरमैतिचं नैवाभूत् , यतः पूज्यप्रवराः कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरीश्वराणां भ्रातरः शिष्याः शिष्यप्राया बा उपसम्पदादिनाऽभूवनिति अस्मिन्नेव ११ पत्रे तथाचाहुः स्तुतिषु गुरव इत्युद्दिश्य गुरुत्वं श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरप्रणीतमन्ययोगव्यवच्छेदस्तुतिगतं काव्यमुल्लिखितं ततो निश्चीयते, कालिकालसर्वज्ञकाले तु परःशता पन्था गुरुगच्छा-18 | भिधानाद्यभिधानालङ्कृताः, अस्मादेव च निर्देशादेतदपि न शक्यं वक्तुमेतत् यद्भुत गुरुपु न ते तथाविधा भक्ति बिभरांचकुरिति, एवं चट यः कश्चिश्वोयचजुरेवं प्रालपत् यदुत श्रीहेमचन्द्रसूरीणां गुरुभ्रातर एते, श्रीहेमचन्द्रसूरिभ्य आचार्यपदं श्रीदेवचन्द्रः परमगुरुमिदत्तमिति मन्युना 'बूढो गणहरसहो' इत्यायुक्त्या नन्यां श्रीदेवचन्द्राचार्य शशापेति तत् निरसं,यतः प्रस्तुतं नन्दीवृत्तिगतनीहारिभद्रीयं वचोऽपि तथैवा अनुक्रम D inesbrary ... आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी लिखित अस्या वृत्ते: प्रास्ताविक-उपक्रम ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्रीआव० मलयगि० ॥ ४ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [-1], निर्युक्ति: [ - ], भाष्यं [-1, मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृि न्यूनमिति तदनुसरतैवोक्तं श्रीमद्भिरपि न च तथाविधानां महवामा शातना कार्येवमुन्मार्गेपोपकै रस्यामयैः वचनैः श्रीमतामने हसि श्रीमतां समन्तभद्राचार्याणामायस्तुतिकारकतया प्रसिद्धिः, तत एव च श्रीमन्तः ११ पत्रे नयास्तव स्यात्पदेतिकाव्य माद्यस्तु विकारोऽप्यवोच दित्येवमादिश्यादिक्षन, भगवन्तः श्रीहेमचन्द्राचार्या अपि स्वोपज्ञश्री सिद्ध है मशब्दानुशासनेऽप्येतदेव काव्यं स्तुतिकारोऽप्याहेत्येवमुक्त्वोदाजहुः, एवं चयः कञ्चन पारंगता दितागममलिम्लुक् परकीयागमपटचरः श्रीमतां समन्तभद्राणां ननत्वं नाटितवांस्तन्न प्रमाणास्पदमित्यवधेयं धीधनैः न चेदतः प्रश्नो न प्राटतादर्शकः पाठः, न च नन्नानां भवतां शुभयतां कथञ्चित्पक्षपातो भविष्यतीत्यपि नोद्यं यतः श्रीमतां भगवतामर्हतां नमस्कारस्य प्रसंगे परिवहनामनप्रसंगे नग्मानां स्पष्टतिरस्कारः सयुक्तिकं विस्तरेण विहितः, नयप्रमाणविचारे चाकलङ्कीयं लघीयाय्यलङ्कारव्याख्यादिकं दूषितमतिशयेन, तथा च नैव भगवन्तः समन्तभद्रा दिगम्बराः, श्रीमतां च समये श्रीमतां समन्तभद्राणां श्वेताम्बरेषु खुतिकारकतया आद्यस्तु विकारकतया च प्रसिद्धिः, तत एवोभयेषां कृतिद्वयेऽपि समान उल्लेखः, यद्यपि भगवन्तः श्रुतकेवलिदेशीयाः श्रीसिद्धसेनदिवाकरा अपि आयस्तुतिसूत्रकाः, उदाहृतं च श्रीहेमचन्द्रैराचार्यैरयोगव्यवच्छेदस्तुतिं चक्राणैः क सिद्धसेनस्तुतयो महार्थं इत्यूचानैस्तेषामनुकरणं, तथापि विशेषतः बादिमुख्यतया तेषां प्रख्यातिः, वास्तवं चेदमभिधानं, यतस्तेषां स्तुतिवृन्दे शतशो वाद स्थानान्यासूत्रितान्यवलोक्यन्तेऽवलोक कैः, श्रीमन्तो मलयगिरयोऽपि अत्रैव १०५ पत्रे वादिमुख्यनान्नैव सस्मरुस्तान् । पूज्यपादानां ग्रन्थाः - पूज्यपादाः श्रीमतामभयदेवसूरिवर्येभ्वः परतोऽभूवन्निति स्थानानादिसूत्राणां व्याख्याभ्योऽनु राजप्रश्रीयाचुपाङ्गानां व्यधुर्व्याख्यां, जम्बूद्वीपप्रज्ञतेरभूत् भगवत्कृतिभूषिता वृत्तिः परं नष्टाऽशेषैव सा शेमुषीमतां भाग्यद्दान्या, स्पष्टं चेदं श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्तेः शान्तिचन्द्रीयायामपि वृत्ती, इमे प्राप्यमाणाः प्रन्याः श्रीमतां— Pur Private & Personal Use Only *** आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी लिखित अस्या वृत्तेः प्रास्ताविक - उपक्रम ~20~ उपक्रमः । ॥ ४ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [-1], निर्युक्ति: [ - ], भाष्यं [-], मूल [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः X १ राजप्रभीयवृत्तिः * ५ चन्द्रप्रज्ञप्तिवृत्तिः x ९ पडशीतिवृत्तिः x १३ पदवृत्तिः X २ जीवाभिगमवृत्तिः ६ श्रीनन्दी सूत्रवृत्तिः X * १० श्रीमलयगिरिव्याकरणं * १४ धर्मसङ्ग्रहणिवृत्ति: * अपूर्णतासूचकं मुद्रिततासूचकं मुद्यमानतासूचकं X ३ प्रज्ञापनावृत्तिः x ७ श्री आवश्यकवृत्तिः * ११ बृहत्कल्पसूत्रवृत्तिः तदेवं परोक्षाणां लोकयन्थानां विधातारः पूज्यपादा इति निश्चितं तथा श्रीमतां पारगदितागमकर्म ग्रन्थव्याकरणादि विविधवाव्ययपारीणतामपि दृष्ट्रा मनीषिमतां मस्तकधूननमेव भवति । मुद्रणेऽस्या वृत्तेः यद्यपि निर्युक्तिमूलभाष्यभाष्यगाथादीनामकारादिक्रमो विवेयः परं श्रीनन्याद्यागमसप्तकानुक्रमे कृतत्वात्तस्य प्रायः समानोऽत्रैष इति नादृतास्तत्र, अत एव च कचिदधिकन्यूनानां गाधानामङ्कव्यत्ययो नाकार्यत्र, शोधनदोषेणापि गाथाङ्कव्यत्ययादि जातमन्त्र तदपि मनीषिभिर्मर्षणीयमेव मुद्रणं चास्याः श्रेष्ठिदेवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धारार्थकद्रव्यव्ययेन तत्संस्थाकार्यवाहकद्वारा विहितमिति स्वल्पमूल्य महार्थे पत्र सुन्दर मुद्रणालय मुद्रणादि स्यादेव । ~21~ x ४ सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिः * ८ श्रीव्यवहारसूत्रवृत्ति: * १२ कर्मप्रकृतिवृत्तिः Pur Private & Psonal Use Only *** आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी लिखित अस्या वृत्तेः प्रास्ताविक उपक्रम निवेदका:-आनन्दसागराः बेटी ( पादलितपुर ) १९९२ माघशुट्टा २ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैद्धान्तिकतार्किकबैयाकरणचक्रवर्तिनः पुण्यस्मरणाः समस्तमुनिमण्डलागमवाचनादातार आगमोद्धारका आचार्यवर्य १००८ श्रीमदानन्दसागरसूरीश्वरपादाः । Cancement For F ate & Pesonal use only ... आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वराणां मूल प्रतिकृति: ~22~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८३०], वि०भा०गाथा H], भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक H ॥ श्रीआवश्यकमलयगिरीयवृत्तौ चतुर्थ-भाग: सम्प्रति केष्विति द्वारं व्याचिख्यासुराहसधगयं सम्म सुए चरित्ते न पजवा सधे । देसविरई पडुच्चा दुण्हवि पडिसेहणं कुज्जा ।। ८३० ।। अथ केषु द्रव्येषु पर्यायेषु वा सामायिकमित्याशङ्कायामुक्तं-सर्वगतं सम्यक्त्वं, सर्वद्रव्यपर्यायरुचिलक्षणत्वात्तस्य, तथा श्रुते-श्रुतसामायिके चारित्रे-चारित्रसामायिके न सर्वे पर्याया विषयाः, श्रुतस्याभिलाप्यपर्यायविषयत्वात् द्रव्यस्य च अभिलाप्यानभिलाप्यपर्याययुक्तत्वात् , चारित्रस्यापि 'पढमंमि सबजीवा' इत्यादिना सर्वद्रव्यासर्वपर्यायविषयतायाः प्रागेव प्रतिपादितत्वात् , देशविरतिं प्रतीत्य द्वयोरपि सकलद्रव्यपर्याययोः प्रतिषेधनं कुर्यात्, न सर्वद्रव्यविषयं नापि सर्वपर्यायविषयं देशविरतिसामायिकमिति भावः, आह-अयं सम्यक्त्वविषयः किंद्वारे प्ररूपित एव ततः किं पुनरभिधानमिति !, उच्यते, प्राग् विषयविषयिणोरभेदेन किं तदिति सामायिकस्य किंद्वार एवं द्रव्यत्वगुणत्वनिरूपितस्य ज्ञेयभावेन विषयाभिधानमित्यदोषः । आह च भाष्यकृत्-नणु सामाइयविसओ किंदारंमिवि परूवितो पुषं । कह न पुणरुत्तदोसो डोज हुई? को विसेसोया? ॥२७५९ ॥ अनोत्तरम्-किं तंति जाइभावेण तत्थ इह नेयभावतोऽभिहियं । इह विसय-1 विसहभेओ तत्थाभयोययारोत्ति ॥ २७६०॥ (विशे.) केष्विति गर्त, सम्प्रति कथमिति द्वारं वक्तव्यं, कथं सामायिकमवाप्यते इति, तत्र चतुर्विधमपि सामायिकं मनुष्यत्वादिस्थानावाप्तौ सत्यामवाप्यत इति तत्क्रमदुर्लभताख्यापनार्थमाह दीप अनुक्रम आ.म.७६४ ... अत्र नियुक्ति: (८३०) अष्ट शताधिक त्रिंशत: आवश्यक-मलयगिरेः वृत्ते: चतुर्थ एवं अंतिम भाग: आरभ्यते ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [], नियुक्ति: [८३१-८३२], विभा गाथा -], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत | केषुद्वारं कथंद्वारे मनुजस्वादि सत्राक ॥४५ ॥ श्रीआव-FI माणुस्स खिस जाई कुल रूवारोग्गमाउअं बुद्धी । सवणुग्गह सद्धा संजमो अलोगम्मि दुलहाई ।। ८३१॥ श्यकमल- मानुष्यं-मनुजत्वं क्षेत्रम्-आर्यक्षेत्रं जाति:-मातृसमुत्था पितृसमुत्थं कुलं, रूपम्-अनूनांगता आरोग्यं-रोगाभावः य. वृत्ती आयुष्क-जीवितं बुद्धिः परलोकमवणा श्रवणं धर्मसम्बद्धं अवग्रहो-धर्मश्रवणावधारणं अथवा श्रवणावग्रहः-साधूनामउपोद्घातेदवग्रहः श्रद्धा-रुचिः संयमः-सम्यगनुष्ठानलक्षणः, एतानि स्थानानि लोके दुर्लभानि, एतदयाप्तौ च विशिष्टसामायिक लाभः, अब चैतानि दुर्लभानि । इंदिअलबी निश्चसणाय पज्जत्ति निरुवहय खेमा धायाऽऽरोग्गं सद्धा गाहग उपओग अहोय ॥अन्यदीया(१९प्र.) । इन्द्रिपलब्धिः निर्वर्तना इन्द्रियाणामेव पर्याप्तिः-स्वविषय ग्रहणसामर्थ्यलक्षणा, 'निस्वय'त्ति निरुपहतेन्द्रियता क्षेम विषयस्य भाल-सुभिक्षं आरोग्य-नीरोगता श्रद्धा-भक्तिः ग्राहकः-कथयिता उपयोगः-तदभिमुखता 'अहो य इति | अर्थः-अर्थित्वं धर्मविषये इति, भिन्नकत केयं शिल गाथेत्यपौनरुक्त्वं ॥ तन्त्र मानुषत्वं यथा दुर्लभं तथा दशभिदृष्टान्तः | प्रतिपिपादविराह चुल्लग १ पासगधने ३ जूरा ४ रयणे ५ असुमिण ६ चक्के ७ अ। चम्म ८ जुगे ९ परमाणू १० दस दिदंता मणुअलंभे॥८३२॥ मानुषत्वं सकृत् लब्ध्या जीवः पुनस्तदेव दुःखेन लभते, अत्र दृष्टान्तः चोल्लको बहादत्तचक्रवर्तिमित्रत्राह्मणभोजनं, तथाहि-बंभदत्तस्स एगो कप्पडितो ओटग्गइ, वहसु आवईलु अवस्थासु य सबत्थ सहायो आसि, बंभदत्तेण य पत्तं दीप अनुक्रम ॥४५शा ... अत्र एका प्रक्षेपा गाथा वर्तते ... अथ मनुष्यभवस्य दुर्लभत्वं दर्शने दश दृष्टांताः वर्णयते ~240 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८३१-८३२], विभा गाथा -], भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - रज, तस्स य बारससंबच्छरिओ अभिसेओ, सो य कप्पडितो तत्थ अल्लियापि न लहइ, तओ णेण उवाओ चिंतितो-16 उधाहणाओ धए बंधिऊण धयवाहगेहि समं पधावितो, रण्णा दिदो, उइनेणं अवगृहितो, अण्णे भणंति-तेण दारवाले सेवमाणेण वारसमे संवच्छरे राया दिट्ठो, ताहे राया तं दट्टण संभंतो, इमो सो वरागो मम सुहदुक्खसहायगो, एत्ताहे करेमि वित्ति, ताहे भणइ-कि देमो ?, सो भणइ-देह घरे घरे करचोलए जाय सबंमि भरहे, जाहे निढियं होज्जा ताहे पुणोऽवि तुझ घरे आढयेऊण भुंजामि, राया भणइ-किं ते एएण?, देसं ते देमि तो सुहं छत्तछायाए हरिथखंधवरगतो हिडिहिसि, सो भणइ-किं मम एदहेण आहखूण ?, ततो से दिण्णतो चोल्लगो, ताहे पढमदिवसे राइणो घरे जिमितो, तेण से जुयलयं दीणारो य दिनो, एवं सो परिवाडीए सधेसु राउलेसु बत्तीसाए रायवरसहस्सेसु तेसिपि जे भोड्या तपभिईसु, तत्थ य नगरे अणेगातो कुलकोडीतो, ततो से नगरस्स कया अंतं काहिइ , ताहे गामाण, ततो भरहवासस्स, अवि सो वोज अंतं न य माणुसत्तणातो भट्ठो पुणो माणुसत्तणं लहइ १॥ BI पासगति द्वितीयो दृष्टान्तः, पाणकरस सुवष्णं नस्थि, ताहे चिंतेइ-केण उवाएण बिडवेजा सुवणं , ततो जंतपा सा कया, केई भणंति-वरदिण्णगा, ताहे एगो दक्खपुरिसो सिक्खावितो, दीणाराणं धालं भरियं, सो भणइ-अहममं कोई जिणइ सो थालं गेण्हउ, अह अहं जिणामि तो एगदीणारं, तस्स इच्छाए जंतं पडइ, ततो न तीरए जिणिउँ, जहा सो न जिप्पड एवं माणुसलंभोऽवि दुल्लहो, अवि नाम सो जिणेजा न य माणुसत्तणाओ भट्टो पुणो माणुसत्तणं लभइ २॥ 'घन'त्ति तृतीयो धान्यदृष्टान्तः, जत्तियाणि भरहखेत्ते धन्नाणि ताणि सवाणि पिंडियाणि, तत्थ पत्थो सरिसवाणं छूढो, दीप अनुक्रम E ~25~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८३१-८३२], वि०भा०गाथा -], भाष्यं [१५०...], मूलं -गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: दल श्रीआव- श्यकमल- या वृत्ती उपोद्घाते सत्राक ॥४५२|| *** ताणि सत्राणि अदुयालियाणि, तत्थेगा जुण्णधेरी सुप्पं गहाय वीणेजा, सा किं पुणोऽवि पत्थर्य पूरेउं चएज्जा ?, अवि सा। देवयापसाएण पूरिज्जा, न च माणुसत्तणातो भट्टो जीवो पुणो माणुसत्तणं लहइ ३॥ चोल्लकादि'जूए'त्ति पूतदृष्टान्तश्चतुधः, स एवं-एगो राया, तस्स सभा खंभसयसंनिविट्ठा, तत्थ अस्थाणियं देइ, एक्केक्को यी खंभो अदुसयंसितो, तस्स रनो पुत्तो रजकंखी, चिंतेइ-थेरो राया मारेऊण रज गिण्हामि, तं च अमच्चेण नायं, तेण रन्नो सिहूं, ततो राया तं पुतं सद्दावित्ता भणइ-अम्हं जो न सहइ अणुक्कम सो जूयं खिल्लइ, जइ जिणइ रज से दिज्जइ, किह | पुण जिणियचं?, तुझं एगो आओ, अवसेसा आया अम्हं, जइ तुम एगेण आएणं सययपयत्तेणं अट्ठसयरस खंभाणमेक्केक्कं अंसियं अट्ठसए बारा जिणसि तो तुज्झ रज्ज, अवि देवया० विभासा ४॥ | 'रयणेसि पञ्चमो रत्नदृष्टान्तः, स चैब-एगो वाणियगो बुडो, रयणाणि से अस्थि, तत्थ य महे महे अण्णे वाणियगा कोडिपडागाओ उभेति, सो न उभेति, तस्स पुत्तेहिं धेरै पउत्थे ताणि रयणाणि नाणादेसियवाणियहत्थे विकीयाणि, बरं अम्हेवि कोडिपडागा उम्भवेमो, ते य वाणियगा समंतओ पडिगया पारसकूलादीणि, थेरो आगतो, सुर्य जहा विक्कीयाणि, ततो ते अंबाडेइ-लहु रयणाणि आणेह, ताहे ते सब तो हिंडिउमारद्धा, किं ते सबरयणाणि पिंडिज्जा ? अविय देवयापभावेण विभासा ५॥ ॥४५॥ | पष्ठः स्वमदृष्टान्तः, स चैव-एगेण कप्पडिएका सुमिणए चंदो गिलिओ, तेण कप्पडियाण कहियं, तेहिं भणिय-संपुषणचंदमंडलप्पमाणं पूयलियं अज्ज भिक्खापविट्ठो लन्भिहिसि, लद्धो य घरच्छायणियाए, अण्णेणवि दिडो तारिसो चेव सुमिणो, AKACRECCC दीप अनुक्रम * X X ~26~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८३१-८३२], वि०भा०गाथा -], भाष्यं [१५०...], मूलं -गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक' नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ECRECREC२ प्रत सूत्रांक - सो व्हाइऊण पुप्फफलाणि गहाय सुमिणलक्खणपाढगस्स कहेइ, तेण भणियं-राया भविस्ससि, इतो य सत्तमे दिवसे राया ट्र तत्थ अपुत्तो मतो, सो य निवण्णो अच्छइ, जा आसो अहिवासिओ आगतो, तेण तं दद्गृण हेसियं पयक्षिणीकतो य, ततो विलइओ पढे, एवं सो राया जातो, ताहे सो कप्पडितो तं सुणेइ, जहा तेणवि एरिसो सुमिणो दिहो, परं सो आएसफलेणका राया जातो, सो चिंतेइ-बच्चामि जत्थ गोरसो तं पिबित्ता सुवामि, जेण पुणोऽवि तं सुमिणं पेच्छामि, अस्थि पुण सो सुविणं पेच्छेजा ?, अविय सो देवयापसाएण विभासा ॥ ___सप्तमश्चक्रदृष्टान्तः, इंदपुरं नगरं, इंददत्तो राया, तस्स इट्ठाणं वराणं देवीणं बाबीसं पुत्ता, अण्णे भणंति एक्काए देवीए, ते सधे पुत्ता राइणो पाणसमा, अन्ना एका अमञ्चधूया, सा परं परिणेतेण दिडिल्लिगा, सा अण्णया बहाया समाणी अच्छइ, रणा दिवा, पुच्छिया य का एसत्ति ?, पासहिएहिं कहियं-देव! तुझं देवी एसा, ताहे ताए समं एक रति HAवसितो, सा य रिउण्हाता, तीसे गम्भो लग्गो, सा य अमञ्चेण पुषामेव भणिइलिया-जया ते गम्भो लग्गइ तया मम साहिज्जासि, ताए तस्स कहियं दिवसो मुहुत्तो जं च राएण उल्लवियं, तेण तं सवं पत्तए लिहियं, सो सारवेइ, नवसु मासेसु वोलीणेसु टदारतो जातो, तस्स य चत्तारि दासचेडाणि तद्दिवसजायाणि, तंजहा-अग्गियओ पवयतो बहुलियो सागरो य, अमच्चेण सो कलायरियस्स उवणीतो, तेण लेहाइयातो गणियप्पहाणातो कलातो गहियातो, जाहे ते घेडे गाहेति आयरिया ताहे। ४ ताणि कोहेति विउहंति य पुग्धपरिचएण ताणि रोडेंति, ताणि न चेव तेण गणियाणि, न गहियातो पडिपुन्नातो कलातो, ते दि अने बाबीसं कुमारा गाहिजता तं आयरियं अवयणाणि य भणति, जइ सो आयरिओ पिट्टेड ताहे गंतूण माऊणं साहेति । २ दीप अनुक्रम २ SmEducational ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्रीआव श्यकमल य० वृत्ती उपोद्घाते ॥४५३॥ Jan Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति:) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [८३१-८३२ ], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५०] मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ताहे ताओ तं आयरियं खिंसंति-कीस आहणासि ?, किं सुलभाणि पुत्तजम्माणि १ ततो ते न सिक्खिया । इतो य महुराए पवयओ राया, तस्स सुया निनुई नाम दारिया, अण्णे भणंति-जियसत्तू राया, तस्स सुया सिद्धिया नाम, सा रण्णो अलंकिया माऊए उवणीया, ताहे राया भणइ जो तुह रोयइ सो सुह भत्तारो, ताए नायं-जो सूरो वीरो विकतो सो मम भत्ता भवउ, सो पुण रज्जं देजा, ताहे सा पभूयं बलवाहणं गहाय गया इंदपुरं नगरं, तत्थ किल इंददत्तस्स रण्णो बहवे पुत्ता इति, इंददत्तो तुट्ठो चिंतेइ नूणमहं अण्णेहिं राईहिंतो लडो आगमितो, ततो णेण ऊसियपडागं नगरं कारियं, सेसा बहवे अप्पाणुगा रायाणो दूयं पेसिऊण आवाहिया, तहा एगंमि अकुखे अट्ट चकाणि कारवियाणि, तेसिं पुरतो ठिया घिउहिया, सा अच्छिमि विधेयवा, ततो इंददत्तो राया सन्नद्धो सह पुत्तेहिं निम्गतो, ताहे सा कण्णा सवालंकारविभूसिया एगंमि पासे अच्छइ, सो रंगो ते रायाणो ते य भडभोइया जहा दोवइए सयंवरमंडवे तहा भाणियवा, तत्थ रण्णो सिरिमालीनाम कुमारो, सो भणिओ-पुत्त ! एसा दारिया रज्जं च घेत्तवं एयं राहावेहं विघेऊण, तो विंध एवं पुत्तलियंति, एवं भणितो सो उक्करिसिओ- नूणमहं सबैहिंतो लडओ, सो य वराओ अकयकरणो तस्स समूहस्स मज्झेणं धणुं चेव गिव्हिडं न तरह, किहवि अणेण गहिअं, तो जतो वच्च ततो वच्चउत्ति मुक्को सरो, सो चक्केसु अव्फिडिऊण भग्गो, एवं कस्सइ एगं अरगं बोलीणो, कस्सइ दुण्णि, कस्सइ तिष्णि, अन्नेसिं बाहिरं चैव निग्गयं, ताहे राया अधितिं चैव पगतो- अहो | अहं एएहिं पुत्तेहिं धरिसिओत्ति, ततो अमत्रेण भणियं देव ! कीस अद्धितिं करेसि ?, राया भणइ-एएहिं अप्पहाणो कओ, अमच्यो भगाइ- अस्थि अण्णो तुम पुत्तो मम धूयाए तणओ सुरिंददत्तो नामेणं सो कयकरणो समत्थो विंधिउं, ताहे राया ~28~ कथंद्वारे चक्रहष्टान्तः ॥४५३ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८३१-८३२], वि०भा०गाथा -], भाष्यं [१५०...], मूलं -गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 20 SAR प्रत सूत्रांक पुच्छइ-कतो मम पुत्तो?, ताहे से अभिण्णाणाणि सिट्टाणि, ततो राया तुढो भणइ-कहिं सो ?, अमच्चेण दरिसिओ सुतो, राइणा उघबूहिऊण भणिओ-सेयं तव एए अट्ठ चक्के भेत्तूण पुत्तलियं अच्छिमि विंघिउं रजसुहं निधुइदारियं च संपावित्तए, ततो कुमारो जहा आणवेहत्ति भणिऊण रण्णो उवज्झायाणं च पणामं करेत्ता ठाणं ठाऊण धणुं गेण्हइ, लक्खाभिमुहं सरं सज्जेइ, ताणि य दासरुवाणि चरहिसिं ठियाणि रोडंति, अण्णे य दो पुरिसा राइणा भणिया, ततो पासं गहियखग्गा चिडति, जा कहवि लकुखस्स चुकिहिसि तो सीसं हिंदियचंति, सो य से उबझाओ पासे ठिओ भयं देइ-मारिजासि जहचकिहिसि, ते वाबीसपि कुमारा एस बिंधिस्सइत्ति सविसेसमुलुटाणि भर्णता विग्धाणि करेंति, ततो तेण चत्तारि दासरूवाणि ते य दो पुरिसे ते य बाबीसं कुमारे अगणं तेणं ताणं रहचकन्तराण समंताणमंतरं जाणिऊण तम्मि अरके निरुद्धाए दिहीए अन्नस्थ मणं अकुणमाणेण सा घिउलिया बामे अछिमि विद्धा, ततो लोगेण उफिटिसीहनायकलयलमिस्सो साहुकारो कतो, जहा तं चकं दुक्सं भेत्तुं एवं माणुसप्तणंपि० ७ ॥ R अष्टमश्चर्मदृष्टांतः, स चैवं-जहा एगो दहो जोयणसहस्सविच्छिन्नो चम्मावणद्धो, एग से मज्झे छिर्नु जस्थ कच्छवगीवा मायइ, तत्थ एगो कर छयो सो बाससए २ गीवं पसारेइ, तेण कहमबि गीवा पसारिया, जाब तेण छिद्देण निग्गयो, तेण| कोमुईए जोइसचकं दिलु पुष्फफलाणि य, सो गतो सयणिज्जाणं दाएमित्ति, ततो सयणयग्गं आणेत्ता सबतो पलोएइ, यण उपेच्छइ, अघिय सो देवयाए पसाएण पेच्छेजा न य माणुसत्तणाओ भटो पुणो माणुसत्तणं लहइ ८॥ दीप अनुक्रम ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८३३-८३५], वि०भा०गाथा -], भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत कथंद्वारे युगह सूत्रांक दीप अनुक्रम श्रीआच-15 नवमो युगदृष्टान्तः, तत्प्रतिपादनार्थमाहश्यकमल- पुवंते होज जुगं अबरंते तस्स होज समिला उ । जुगछिइंमि पवेसो इय संसइओ मणुयलंभो ॥ ८३३॥ य० वृत्ता स्वयम्भूरमणाख्यस्य जलनिघेः पूर्वान्ते युगं भवेत् , अपरान्ते तस्य युगस्य भवेत् समिला, एवं व्यवस्थिते सति यथा उपोद्घायुगच्छिद्रे समिलायाः प्रवेशः संशयित इति-एवं संशयितो मनुजलाभ:-मनुष्यत्वलाभः, दुर्लभ इत्यर्थः। | जह समिला पन्महा सागरसलिले अणोरपारंमि । पविसिजा जुगछिडं कहवि भमंती भमतंमि ॥८३४॥ ॥४५४|| यथा सागरसलिले स्वयम्भूरमणसमुद्रे इमीसे(मा सा)अणोरपारंमित्ति देशीवचनं प्रचुरार्थे उपचारत आराद्भागपरभागरहिते युगात् समिला प्रभृष्टा भ्रमन्ती कथमपि चमति युगे युगच्छिद्रे प्रविशेत् एवं मानुषत्वात् प्रभृष्टः कथमपि मानुषत्वं लभते ।। सा चंडवायवीईपणोल्लिया अवि लभेज जुगछिडुनच माणुसाओ भट्ठो जीवो पडिमाणुसं लभइ ।।८३५॥ II सा समिला चण्डवातवीचिप्रेरिता सती अपिः संभावने लभते युगच्छिद्रं, न च मानुष्यात्-मानुषत्वात् परिभृष्टो जीवः प्रतिमानुष्यं-भूयो मनुजत्वं लभते इति ९॥ दशमः परमाणुदृष्टान्तः-जहा एगो खंभो महप्पमाणो, सो देवेण चुण्णिऊण अविभागिमाणि खंडाणि कतो, ततो नलियाए पक्खित्तो, पच्छा मंदरचूलाए ठिएण फूमिओ, ताणि अविभागिमाणि खंडाणि नढाणि, अत्थि पुण कोई जो तेहिं चेव पुग्गलेहिं तमेव खंभे नियत्तेजा, एस अभावो, एवं माणुसत्तणाओ भट्ठो जीवो नो पुण पाएण माणुसत्तणं लहइ ॥ अहवा |इमो परमाणुदितो-सभा अणेगखंभसयसण्णिविट्ठा, सा कालंतरेण झामिया पडिया, अत्थि पुण कोई जो तेहिं चेव | ॥१५॥ ~30 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८३६-८४०], विभा गाथा -], भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक पुग्गलेहिं करेइ ?, नो इणमटे समहे, एवं माणुसत्तणं दुल्लहं,१०॥ दस विद्वता मणुयलंभे'त्ति एते दश दृष्टान्ता मानुष्यलाभे॥ इय दुल्लहलंभं माणुसत्तणं पाविऊण जो जीवो । न कुणइ पारसहियं सो सोयइ संकमणकाले ॥८३६॥ एवं-उक्तप्रकारेण मानुषत्वं दुर्लभलाभ प्राप्य यो जीवः परत्रहितं धर्म न करोति, पारत्तत्ति दीर्घत्वमलाक्षणिक, स संक्रम-11 L णकाले-मरणकाले शोचति-शोकं करोति ॥ क इवेत्याह-- जह वारिमझ छुढोध गयवरो मच्छउच्च गलगहिओ । वग्गुरपडिओ य मओ संवइओ जहा पक्खी ॥८३७॥ | सो सोयइ मनुजरासमुच्छुओ तुरियनिहपकिखत्तो । तायारमविंदतो कम्मभरपणोल्लितो जीवो ।। ८३८ ॥ । यथेत्युपप्रदर्शने, यथा शोचति तथा दर्यत इति भावः, वारिमध्यक्षिप्तो गजवरो, मत्स्य इव वा गलगृहीतः, यदिवा मृग इव वा वागुरापतितः, संवत-जालं तमितः-प्राप्तो यथा वा पक्षी, 'सो सोयह' इत्यादि, सोऽकृतपुण्यः मृत्युजरासमवस्तृतः-14 मृत्युजराक्रान्तः त्वरितनिद्राप्रक्षिप्त:-मरणनिद्रया अभिभूतःत्रातारम् अविंदान:-अलभमानः कर्मभरप्रणोदितः-कर्मभर|प्रेरितो जीवः शोचति, ही न कृतं किमपि जन्मान्तरसुखनिवन्धनं सुकृतमिति शोकं करोति ॥ स चेत्थं मृतः सन् __ काऊणमणेगाई जम्ममरणपरियट्टणसयाई। दुक्खेण माणुसत्तं जइ लहइ जहिछियं जीवो ॥ ८३९॥ IN कृत्वा अनेकानि जन्ममरणपरिवर्तनशतानि दुःखेन-महता कष्टेन यदि कथमपि लभते जीवो मानुषत्वं, कुशलपक्षकारी | IR पुनः सुखेन मृत्वा सुखेनैव लभते मानुषत्वम् ॥ I तंतह दुल्लभलंभं विजुलयाचंचलं च मणुयत्तं । लण जो पमायइ सो काउरिसो न सप्पुरिसो॥८४० ॥ दीप अनुक्रम RUSSEGUROSES 2-% ~31~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४१-८४३], विभा गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं -गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक यवृत्ती दीप श्रीआव- तत्-मानुपत्वं तथा पूर्वोक्तप्रकारेण दुर्लभलाभ-दुष्प्रापलाभं विशुलतावच्चञ्चलं लब्ध्वा यः प्रमाद्यति-प्रमादं करोति कथंद्वारे श्यकमल-हस कापुरुषो, न सत्पुरुषः, इत्यलं प्रसंगेन, प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्र यथा दशभिदृष्टान्तैर्मानुषत्वं दुर्लभं तथा आर्यक्षेत्रादीन्यपि धर्माकरणं स्थानानि, ततः सामायिकमपि तुष्पापम् , अथवा मानुषत्वे लब्धेऽप्येतेः कारणैः दुर्लभं सामायिकमिति प्रतिपादयन्नाह- आलस्या उपोद्घाते आलस्स मोहऽवण्णा धंभा कोहा पमाय किविणत्ता । भय सोगा अन्नाणा बकखेव कुतूहला रमणा ॥८४॥ दयः एएहिं कारणेहिं लण सुदलहंपि माणुस्सं न लहइ सुई हियकरि संसात्तारिणिं जीवो ॥ ८४२॥ ८३६-४२ ॥४५५॥ IN आलस्यात् न साधुसकाशं गच्छति (शृणोति) वा १ तथा मोहात्-गृहकर्तव्यताव्याकुलत्वात् २, तथा अवज्ञातः-किमेते जानन्तीत्येवंरूपायाः ३ स्तम्भात-जात्याद्यभिमानात् , उत्तमजातीयोऽहं कथमेतेषां भिक्षाचराणां हीनजातीयानां पार्थे गच्छा-31 मीत्यादिलक्षणात् ४, क्रोधात् , तथा च कोऽपि साधुदर्शनादेव कुप्यति ५, तथा प्रमादात्-मद्यादिप्रसक्तिरूपात् ६, कृपणत्वात्-नूनं गतस्तेभ्यः किमपि दातव्यं भविष्यतीत्येवंरूपात् ७ तथा भयात् , साधवो हि नरकादिभयं गतेभ्यो वर्णयन्तीति ८ शोकाद्वा इष्टवियोगजात् ९, अज्ञानात् कुदृष्टिजनितात् कुबोधात् १० व्याक्षेपात्-अन्यान्यवहुप्रयोजनकरणतः आत्मनो व्याकुलीभावसम्पादनात् ११, तथा कुतूहलाद-नदादिविषयात् १२ तथा रमणात्-नानाविधकुक्कुटयोधनादिक्रीडाप्रसक्तिरूपात १३, एभिः कारणैरालस्यादिभिः सुदर्लभमपि मानुष्यं लब्ध्वा न लभते हितकरी संसारोत्तारिणी श्रुतिमिति ॥ व्रतादिसा- ४२५॥ मग्रीयुक्तस्तु कर्मरिपुं विजित्याचिकल चारित्रसामायिकलक्ष्मीमवाप्नोति, यानादिगुणयुक्तयोध इय जयलक्ष्मी, तथा चाह जाणावरणपहरणे जुद्धे कुसलत्तणं सनीई य । वक्खत्तं ववसाओ सरीरमारोग्गया चेव ॥ ८४३ ।। अनुक्रम SmECAnal Clmalbrary.org ... मनुष्यभव प्राप्तोऽपि आलस्य-आदि कारणात् धर्म-श्रवणस्य दुर्लभत्वं ~32~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४४], विभा गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक यानं हस्त्यादि, आवरणं-कवचादि प्रहरणं-खड्गादि यानावरणप्रहरणानि, तथा युद्धे कुशलत्वं-सम्यक् तज्ज्ञता नीतिश्च| निर्गमप्रवेशरूपा दक्षत्वम्-आशुकारिता व्यवसायः-शौर्य शरीरमविकलम् अरोगता-व्याधिवियुक्तता, एतावद्गुणसामग्रीसमन्वित एव योधो जयश्रियमामोति, एष दृष्टान्तः, दार्टान्तिकयोजना त्वियम्-जीवो जोहो जाणं वयाणि आवरणमुत्तमा खंती । झाणं पहरणमिट्ठ गीयत्थत्तं च कोसलं ॥ १॥ दवादिजहोवायाणुरूवपडिवत्तिवत्तिया नीई । दक्खत्तं किरियाणं, जं मकरणमहीण कालंमि ॥ २॥ करणं सहणं च तवोवसग्गदुग्गावतीए ववसातो। एएहिं सुणिरोगो कम्मरि जिणइ सोहि ॥३॥ कर्मरिपुविजयपक्षे जीवो योधो, महानतानि-प्राणातिपातविरमणादीनि यानम् , उत्तमा क्षान्तिरावरणं, ध्यान-धर्मध्यानमिष्टं प्रहरण, कौशलं सम्यग्गीतार्थता, द्रव्यादिषु-द्रव्यक्षेत्रकालभावेषु यथोपायं-श्रुतोक्तोपायानतिक्रमेण याऽनुरूप-14 प्रतिपत्तिवर्तिता, यथा साधूनामेतद् द्रव्यादि एतेनोपायेन देशकालाधुचितेन कर्त्तव्यं, नैतेनेति, सा नीतिः, तथा क्रियाणांप्रत्युपेक्षणवैयावृत्त्यादीनां यत् काले-स्वस्वप्रस्तावे अहीन-परिपूर्ण करणं तद् दक्षत्वं, तथा करणं तपसो द्वादशप्रभेदस्या उपलक्षणमेतत् संयमस्य च, सहनं च उपसर्गेपु समापतत्सु, यदिवा दुर्गापदि समागतायां, एष व्यवसायः, एभिर्यानादिभिः सहितो जीयो योधः मुनीरोगः कर्मरिपुं जयति, विजित्य च समग्रसामायिकश्रियमासादयतीति गाथार्थः ॥ अथवा अनेन प्रकारेणासाद्यते इति दिढे सुयमणुभूए कम्माण खए कए उसमे य । मणवयणकायजोगे पसत्थे लम्भए बोही ॥ ८४४ ॥ दृष्टे भगवत्प्रतिमादौ सामायिकमवाप्यते, यथा स्वयंभूरमणसमुद्रमत्स्येन प्रतिमासंस्थितान् मत्स्यान् प्रतिमासंस्थितानि दीप अनुक्रम SmECIA ~33. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४४], वि भागाथा [-1, भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक ॥४५६ दीप श्रीआव- पद्मानि वा दृष्ट्वा सामायिकमवाप्यते, स्वयंभूरमणे हि मत्स्यानां पद्मानां च सर्वाण्यपि संस्थानानि सम्भवन्ति मुक्त्वैकं वल-टू कथंद्वारे श्यकमल- यसंस्थान, श्रुते चावाप्यते सामायिकं, यथाऽऽनन्दकामदेवाभ्यामवाप्तम्, अब कथानकम्-वाणियगाम नगरं, जियसत्तू योधष्टाया वृत्ती राया, तत्थ आणंदे नाम गाहावती धणकणगसमिद्धे, तस्स सिवानंदा नाम भारिया, तस्स णं वाणियगगामस्स नयरस्स अदू-15 उपोद्घाते रसामंते उत्तरपुरच्छिमदिसीभागे कालए नाम संनिवेसे, तत्थ आणंदस्स बहुओ मित्तनातिवग्गो परिवसति, अन्नया समणे द्या हेतवा भयवं महावीरे वाणियग्गामे नयरे दूइपलासे चेइए समोसढे, जियसनुप्पमुहा परिसा निग्गया भयवंतं पजुवासइ, तए णं ८४३-४ से आणंदे बहुजणरस अंतिए एयमढे निसम्म हाए परमसुइभूए पायविहारेण गंतूण भयवंतं तिपयाहिणीकरेइ, करित्ता बंदइ नमसइ २ पजुवासइ, ततो णं सामी तीसे महइमहालियाए परिसाए आणंदस्स य धम्म परिकहेइ, परिसा निग्गया, आणंदे धम्म सोचा हट्ठतुढे सामि वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं पयासी-सद्दहामि णं भंते! निम्गंथं पावयणं०, किंतु जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए राईसरादओ सर्व रजहिरण्णाइयं परिचज्ज पचयंति, नो खलु (तहा) अहं संचाएमि, अहं णं दुवालसविहं सावगधम्म पडिवजिस्सामि, भयवया भणियं-अहासुहं देवाणुप्पिया!,मा पडिबंध करेह, ततो सामी तस्स साबगधम्म तहाविहं उवदंसेइ जहा उवासगदसासु, ततो सो सावगधम्म पडिवज्जइ, इच्छापरिणामे चत्वारि हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्तातो चत्तारि हिरणकोडीतो वुढिपउत्तातो चत्तारि हिरण्णकोडीतो सेसववहारपउत्तातो बज्जिऊण सेसं हिरण्ण ॥४५६॥ विहीं चत्तारि नियत्तणसतियाई हलसयाई मोत्तूण सेसाणि हलाणि चत्तारि दाससयाई चत्तारि दासीसयाणि चत्तारि दसगोसहस्सपमाणाई पवराई गोकुलाई चत्तारि भंडीसयाई दिसाजत्तियाई चत्तारि भंडीसयाई संबहणियाई चत्वारि पवहण अनुक्रम MEnco |... धर्म-श्रवणात् सामायिकस्य लाभे आनंद गाथापते: दृष्टांत: ~34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४४], विभा गाथा -1, भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सयाई वजिऊण सेसदासदासीगोकुलभंडीपवहणाणि जावज्जीवाए पच्चक्खाइ, एवं तस्स सावगधम्मेण अप्पाणं भावेमाणस्स चोद्दसवासाई अतिकताई, पच्छा एक्कारसउवासगपडिमातो फासेइ, इक्कारसमं पडिम ठियस्स ओहिनाणमुप्पण्णं, तेण पुषदक्षिणपच्छिमासु दिसासु पंच पंच जोयणसयाणि खेत्ततो पासइ, उत्तरेण चुल्लहिमवंतं, उर्दु जाव सोहम्मो कप्पो अहे| जाव लोलुययच्चयं नरगं चुलसीवाससहस्सठिइगं जाणइ पासति, एवं से आणंदे समणोवासगे उत्तमेहि अणुबयसिलक्खावएहिं अप्पाणं भावेत्ता वीसं वासाणि समणोवासगपरियागं पाउणिचा मासियाए संलेहणाए आलोइयपडिकंते समाका हिपत्ते कालं किच्चा सोहम्मावतंसगस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरच्छिमेण अरुणे विमाणे देवत्ताए उववण्णे चउपलिओच-2 मद्विईए, ततो चुए महाविदेहे सिज्झिहिइ ॥ | इदानीं कामदेवस्य कथानकम्-चंपा नयरी, पुण्णभद्दे चेइए, जियसत्तू राया, कामदेवे गाहावई, तस्स भद्दा भारिया, अन्नया पुणभदे चेइए सामी समोसड्डो, एवं जहा आणंदे तेणेव कमेण सावगधम्म पडिवज्जइ, नवरं सो छ हिरण्णकोडी|तो वहिपउत्तातो छ हिरणकोडीओ निहाणपउत्तानो छ हिरण्णकोडीतो सेसववहारपवत्तातो छ हलसयाई नियत्तणसयाई साल दाससयाई छ दासीसयाई छ दसगोसहस्सपमाणाई पवराई गोकुलाईछ भंडीसयाई दिसाजत्तियाई छ भंडीसयाई |संवहणियाई छप्पवहणमयाई पजिऊण सेसाई हिरणहलदासदासीवग्गगोकुलभंडीपषहणाई जावजीवाए पचक्खाति. तहेव वारसवरिसाणंतरं एकारस उवासगपडिमातो फासेइ, एकारसम पडिम पडिवन्नस्स एगेण देवेण पिसायहस्थिपण्ण-| |गरूवेहि बहु उपसागा कया, ते सम्म तेण अहियासिया, सामी समणे आमंतित्ता एवं बयासी-जह ताव अजो ! काम-IN RECRAKASSACREACTS दीप अनुक्रम आ.सू.७७ 4 mastram ... अत्र कामदेव श्रावकस्य कथानकं प्रस्तूयते ~35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४४], वि भागाथा [-1, भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम श्रीआव- देवेणं समणोवासगेण उवसग्गा समं सहिया ता अज्जो ! समणेणं दुवालसंग गणिपिडगं अहिज्जमाणेणं० समणीए वा ददश्रवणे आश्यकमल- अहियासेयबा. तए णं ते समणा निग्गंथा तं उवदेसं सम्मं विणएणं पडिसुणेति, कामदेवोऽवि सामिवंदओ आगतो संतोनन्दाद्याः य० वृत्ती | सामिणा उबवूहितो-धण्णे सिणं तुमं कामदेवा ! जस्स तब निग्गंथे पावयणे इमा एयारूवा पडिवत्ती, तए णं से कामदेवे8 अनुभवे उपोदूपाते| हडतुडे वंदित्ता नमंसित्ता पडिगते, एवं जहा आणंदे तहेव जाव सिज्झिहिद, नवरं अरुणाभे विमाणे इति वक्तव्यं, शेष| तथैव ॥ तथा अनुभूते क्रियाकलापे सत्यवाप्यते, यथा-वल्कलचीरिणा पितुरुपकरणं प्रत्युपेक्षमाणेन, अत्र कथानकम्॥४५७॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपाए नयरीए सुहम्मसामी गणहरो समोसड्डो, कोणितो राया वंदिउं आगतो, कयप्पणामो जंबुणामस्वदंसणविम्हितो गणहरं पुच्छति-भयवं! इमीसे महतीए परिसाए एस साहू घयसित्तपावगोब दित्तो मणोहरसरीरो य किं मण्णे एएण सील सेवियं तवो वा चिन्नो दाणं वा दिन्नं जतो परिसी सरीरे तेयसंपया? इति, ततो भयवया भाणेयं-सुणाहि राय ! जहा तव पिउणा सेणिएण रण्णा पुच्छिएण भगवया महावीरेण कहियं-तेणं कालेणं तेणं समएणं | रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए सामी समोसरितो, सेणिओ राया तित्थयरचंदणासमुस्सुतो निजाइ, तस्स अग्गाणीए दुवे है। पुरिसा कुटुंबसंबद्धकहं कहेमाणा पस्संति एर्ग साहुं एगचलणपरिट्ठियं समूसवियवाहुजुयलं आयावेन्तं, तत्थेकेण भणियंताअहो ! एस महप्पा रिसी सूराभिमुहे तप्पा, एयरस सग्गो मोक्खो य हत्थगतोत्ति, विइएण पञ्चभिन्नातो, ततो भण-C॥४५७॥ ति-किं ! न याणसि ! एस राया पसन्नचंदो, कतो एयस्स धम्मो ?, पुत्तोऽणेण बालो रजे ठवितो, सो मंतीहिं रजातो ४ मोइजइ सोऽणेण विणासितो, अंतेउरंपि न नजइ किं पाविहिइ ?, तं च से वयणं झाणवाघाइयं करेमाणं सुइपहमुव RECENT AMERICAtor ... अत्र वल्कलचिरे: विस्तृत कथानक प्रस्तूयते ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ८४४], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः 16 गयं, ततो सो चिंतिउं पवत्तो-अहो ! ते अणज्जा अमच्चा निच्चं मया संमाणिया पुत्तस्स में विप्पडिवन्ना, जइ अहं होतो तो एवं ते चिट्ठते सुसासिए करेंतो, एवं से संकल्पयंतस्स तं कारणं वट्टमाणमिव जायं, ततो तेहिं समं जुद्धं मणसा चेष काडमारखो, पत्तो य एत्थंतरे तं पएसं सेणिओ राया, तेण सो बंदिओ विणएणं, पेच्छइ णं झाणनिश्चलच्छं, अहो ! अच्छरियं एरिसं तवस्स सामत्थं रायरिसिणो पसन्नचंदस्स, एवं चिंतयंतो पत्तो तित्थयरसमीवं, बंदिऊण विणएण पुच्छइ-भयवं ! पसन्नचंदो अणगारो जंमि समए मया वंदितो जइ तंमि समए कालं करेज्जा का से गई भवइ ?, भगवया भणियंसत्तमा पुढवी, ततो चिंतेइ साहूणं कहं नरगगमणं ?, पुणो पुच्छइ भयवं! पसन्नचंदो जइ इयाणिं कालं करें तो कं गतिं वच्चेज्जा ?, भयवया भणियं-सङ्घट्टसिद्धं महाविमाणं, ततो भणइ-कहमिमं दुविहं वागरणं ?, नरगदेवलोगेसु तवसिणो (गमणे) त्ति, भगवया भणियं-झाणविसेसेण तंपि य, इमंमि समए एरिसी तस्स झाणसंपया होत्था जेण असायसाय कम्मादाणमिति, सो भणइ-कहं ?, भगवया भणियं तव अग्गाणीयपुरिसमुहनिग्गयं पुत्तपरिभववयणं सोऊण उज्झियपसत्थज्झाणो तुमे बंदिज्जमाणो मणसा भिचपराणीपण समं जुज्झइ, ततो सो तंमि समए अहरगतिजोग्गो आसि तुमंमि य अवगते जायकरण (खीणजाणपहरण) सत्ती सीसावरणेण पहरामि परंति लोइए सीसे हत्थं पक्खिवंतो पडिवुद्धो-अहो ! अकजं अहो अकर्ज, रज्जं पयहिऊण परत्थे जजणविरुद्धं मग्गमवतिनोत्ति चिंतिऊण निंदणगरिहणं करेंतो मर्म पणमिऊण तत्थ गतो चेव आलोइयपडिकंतो पसत्थज्झाणो संवृत्तो, ततो णेण पसत्थज्झाणेण संपयं तं सर्व कम्ममसुभं खवियं पुण्णमञ्जियं, | तेण कालविभागेण दुविहाए गतीए निद्देसो कओ, ततो कोणितो पुच्छइ-कहं भयवं ! वालं कुमारं ठवेऊण पसन्नचंदो Por Private & Personal Use Only ~37~ wwjbrary.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्रीआव राया पवइओ ? एवं सोडमिच्छामि ततो भणइ सुहम्मसामी- पोयणपुरे नयरे सोम चंदो राया, तस्स धारिणी देवी, सा श्यकमल- * कयाइ तस्स रण्णो ओलोयणगयस्स केसे रएति, पलियं दण भणति-सामी ! दूतो आगतोति, रण्णा दिट्टी पसारिया, य० वृत्ती ४ न य परसइ अपुषं जणं, ततो भणइ-देवि ! ते दिवं चक्खू, तीए पलियं दंसियं, धम्मदूतो एसत्ति, तं च दण दुम्माणउपोद्घाते सितो राया, तं नाऊण देवी भणइ-लाह बुद्धभावेण ?, निवारिज्जिहि जणो पडहदाणेण ततो भणइ-देवि ! न एवं, वालो कुमारो असमत्थो पयापाळणे इति मे मण्णु जायं, पुत्रपुरिसाणुचिण्णेण मग्गेण न गतोऽहंति विचारों, पसशचंदं कुमारं तुमं सारक्खमाणी अच्छतु, देवी नेच्छइ, ततो निच्छियागमणे पुत्तस्स रजं दाऊण धाइदेविसहितो दिसापोक्खि* यतावसताए दिक्खं पवन्नो, चिरसुन्ने आसमपए ठितो, देवीए पुवाहुत्तो गन्भो परिवहुइ, पसन्नचंदस्स चारपुरिसेहिं निवेॐ दितो, पुन्नसमए पसूया कुमारं, सो वक्कलेसु ठवितोत्ति वक्कलचीरीति नामेण पसिद्धिं गतो, देवी विसूइयारोगेण मया, धाईए वणमहिसीदुद्धेण कुमारो वह्नाविजइ, थोवेण कालेण सावि धाई कालगया, रिसी कढिणेण वहइ वक्कलचीरिं, एवं सो परिवहुइ, पसन्नचंदो राया तस्स पडत्तिं निच्चमेव चारपुरिसेहिंतो पुच्छ, परिवहितो चिन्तकरेहिं लिहिऊण दंसितो, ततो पसन्नधंदेण राइणा सिणेहेण गणियादारिया रिसिरुवधारिणीतो पेसियातो, खंडमय विविहफलेहिं वयणेहिं सरीरफासेण य लोभेहत्ति, ततो गयातो, ततो णं तातो रिसिं पच्छन्नं फलेहिं वयणेहिं सुकुमालपीणुन्नयथणसंपीलणेहि य लोभंति, ततो सो लुद्धो गमणे कयसमवायो (संगारो) जाव अतिगतो तावसभंडं संठवेडं ताव रुक्खारुडेहिं चारपुरिसेहिं तासिं संना दि ण्णा-रिसी आगतोत्ति, तातो दुयमय कंतातो, सो तासिं वीहिमणुसज्जमाणो तातो अपस्समाणो अन्नतो गतो, अडबीए परिभ ॥ ४५८ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ८४४], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः * Pur Private & Personal Use Only ~38~ अनुभवे वल्कलवीरी ॥ ४५८ ॥ janesbrary.org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] Jan Educato आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ८४४], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं [- / गाथा-] नदीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मंतो रहगयं पुरिसं दण-ताय ! अभिवादयामित्ति भणइ रहिणा पुच्छितो- कुमार ! कत्थ गंतवं ? सो भणइ-पोयणं नाम आसमपर्यं तस्थ, रहियपुरिसस्स कत्थ गंतवं ?, ततो भणइ-अहंपि तत्थ वच्चामि तेण समं वच्यमाणो रहिणो भारियं तायेति आलवइ, तीए भणियं को इमो उवयारो ?, रहिणा भणियं सुंदरि ! इत्थिविरहिते आसमपए पचह्नितो, न याणइ विसेसं, न से कुप्पियवंति, तुरगे य भणइ-किं इमे मिगे तात ! वाहिति ?, रहिणा भणिओ कुमार एए एयंमि कज्जे उवउज्जंति, न एत्थ दोसो, तेणवि से दिना मोयगा, सो भणइ - पोयणासमवासीहिं मे कुमारेहिं एयारिसाणि चैव फलाणि दत्तपुवाणि, वचंताण य से एकेण चोरेण सह जुद्धं जायं, रहिणा गाढप्पहारो कओ, ततो सो सिक्खागुणपरितोसितो भणइ-सूर ! मे अस्थि विडलं धणं तं मे गिन्हसुत्ति, तेहिं तिहिवि जणेहिं रहो भरितो, कमेण पत्ता पोयणं, मोहं समपिऊण वक्कलचीरी विसज्जितो, उदयं मग्गसुत्ति, सो भमंतो गणियाघरे पविट्ठो, गणियं भणइ-ताय ! अभिवादयामि, देहि इमेण मोहेण उदगंति, गणियाए भणितो दिज्जइ निवेसत्ति, तीए कासवतो सद्दावितो, सो नेच्छइ नहपरिकम्मं, अवणीयाणि वक्कलाणि, व्हाविउमाढतो, सो भणइ मा मे रिसिवेसं अवणेह, ततो ताहिं भन्नइ-जे उदगत्थी इहमागच्छति तेर्सि एरिसो उवयारो कीरइ, ततो पहावितो, पवराई वत्थाई परिहावितो, विभूसिओ आभरणाईहिं, गणियादारियाए पाणिं गाहितो, ततो ताओ गणियाओ बहूवरं उबगायमाणीतो चिडति । इतो य जो कुमारविलोभणनिमित्तं रिसिवेसो पेसितो जणो सो आगतो, तेण रण्णो कहियं कुमारो अडविं अतिगतो, अम्हे रिसिस्स भएण न तिष्णा सहावेडं, ततो राया विसण्णचित्तो भणइअहो अकज्जं, न य पिउसमीवे जातो नय इहं, न नज्जइ किं पत्तो होहिइति चिंतापरो अच्छइ, सुणइ य मुइंगसद्दं, तं च Pur Private & Personal Use Only ~39~ netrary.org Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्रीआव श्यकमल य० वृत्तौ उपोद्घाते ॥ ४५९ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [८४४], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः से सुइपहदूमणं जायं, भणइ-मए दुक्खिते को मन्ने सुहितो जो एवं गंधवेण रमइत्ति ?, एवं गणियाए हिरण जणेण कहियं सा आगया, पायवडिया राय पसन्नचंदं विनवे देव ! निमित्तसंदेसो मे जातो जो तावसरूवो तरुणो अमुगदि वसे अमुगवेलाए गिहं आगच्छेजा तस्स तस्समयमेव दारियं देजासि, सो उत्तमपुरिसो, तं संसिया विउलसोक्खभागिणी होहित, सो व जहा भणिओ निमित्तिणा अज्ज मे गिहमागतो, तं च संदेसं पमाणं करेंतीए दत्ता से मया दारिया, तन्निमित्तं ऊसवो, न याणं पुण कुमारं पणङ्कं एत्थ मे अवराहं मरिसेहत्ति, रण्णा संदिट्ठा मणुस्सा, जेहिं आरामे कुमारो दिट्ठपुबो तेहिं गएहिं पञ्चभिन्नातो, निवेदितं रण्णो पियं, ततो राया सयमेव गणियाघरं गतो, दिडो कुमारो चंदोब सोमलेसो, ततो परमपीइमुवहंतेण बहुसहितो सहिमाणीतो, सरिसकुलरूवजोबणगुणाण य रायकण्णाण पाणिं गाहितो, कयरज्जसंवि| भागो य जहासुहमभिरमइ, रहिगो य चोरदत्तं दवं विक्किणंतो रायपुरिसेहिं घोरोत्ति गहितो, वक्कलचीरिणा मोइतो पसनचंदविदितं सोमचंदोऽवि रायरिसी आसमे कुमारं अपरसमाणो सोगसागरावडितो जातो, ततो पसन्न चंदसंपे सिएहिं पुरिसेहिं अम्हेहिं वकलचीरी पोयणपुरे रायसमीचे दिट्ठोत्ति निवेदितेहिं कवि संठवितो, तहावि निच्चमेव पुत्तमणुसंभरंतो अंधो जातो, रिसीहिं साणुकंपेहिं कयफलसंविभागो तत्थेव आसमे निवसर, गएसु व बारससु संवच्छरे अडरते पडिबुद्धो पियरं चिंतेडमारद्धो-किह मन्ने तातो मया निम्घिणेण विरहितो अच्छछ ? इति पिउदंसणसमूसुगो पभाए पसन्नचंदसमीवं गंतूण विष्णवेइ-देव ! विसज्जेह मं उक्कंठितो तायस्स, तेण भणियं-समगं वच्चामो, गया आसमपयं, निवेइयं रिसिणो- पसन्न - चंदो पणमइत्ति, चलणोवगतो य अणेण पाणिणा परामडो, पुत्त ! निरामतोसित्ति ?, वक्कलचीरी पुणो अवयासितो, चिरका Pur Private & Personal Use Only ~40~ अनुभवे वल्कलवीरी ॥ ४५९॥ +brary Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४४], विभा गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: -- प्रत सूत्रांक - - दालरियं च से बाहंसुयं पदं, ततो उम्मिल्लियाणि तस्स नयणाणि, पस्सइ ते दोवि जणे परमतुट्टो, पुच्छा य स गयं कालं, वक्कलचीरीवि कुमारो उडवं अतिगतो पस्सामि ताव तायस्स तावसभंडयं अणुवेक्खिजमाणं के रिसं जायंति !, ततो तावसभंडयं उत्तरीयंतेण पडिलेहिउमारद्धो जइविव पत्तं पायकेसरियाए, ततो कत्थ मन्ने मया एरिसं करणं कयपुर्वति विधि-14 मणुसरंतस्स तयावरणकम्मक्खयोवसमेण पुबजाइस्सरणं जायं, सुमरइ य देवमाणुसभवे सामण्णं च पुराकयं, संभरिऊण वेरग्गमग्गसमोइण्णो धम्मज्झाणविसयातीतो विसुज्झमाणपरिणामो विझ्यसुक्कझाणभूमिमइकतो निट्ठवियनाणदंसणच-- रणमोहंतराओ केवली जातो, ततो उडवातो निग्गंतूण पिउणो पसन्नचंदस्स य रपणो जिणप्पणीतो धम्मो परिकहितो, दोविलद्धसम्मत्ता केवलिणो सिरेहिं पणया भणंति-सुट्ठ मे दंसितो मग्गोत्ति, वक्कलचीरी पत्तेयबुद्धो पियरंगहेऊण बद्ध-16 माणसामिणो पासं गतो, पसन्नचंदो य नियपुरं, जिणो य भयवं महाधीरो सगणो विहरमाणो पोयणपुरे मणोरमे उजाणे समोसरितो, पसनचंदो वकलचीरिवयणजणियवेरग्गो परममणहरतित्थयरभासियामयवहिउच्छाहो वालं पुत्तं रजे ठविऊण ४ पचइतो, अहिगयसुत्तत्थो तवसंजमभावियमती मगहपुरमागतो, तत्थ य आयावंतो सायरं सेणिएणं वंदितो, एवं निक्खंतो। इतो य भयवं नरगामरगतीसु उकोसटिइजोग्गय झाणपञ्चयं पसन्नचंदरस वण्णेइ, ताव देवा तंमि पदेसे ओवड्या, पुच्छितो य अरहा सेणिएण-किंनिमित्तो एस देवसंपातो इति?, सामिणा भणियं-पसन्नचंदस्स अणगारस्स नाणुप्पत्तीह-18 रिसिया देवा उवागयत्ति, ततो पुच्छइ-भय ! एयं केवलनाणं कम्मि वोच्छिज्जिहिइ ?, तंमि समए बंभलोगदेविंदसामाणितो विज्जुमाली देवो दुद्धरिसतेजो उज्जोवंतो तेएण दस दिसातो बंदिउमुवागतो, सो दंसितो भयवया, एवमादि जहा --- दीप अनुक्रम -- -- - ~41~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४५-८४६], वि०भा०गाथा -], भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत दिषु सत्राक श्रीआव- वसुदेवहिंडीए तहा भाणियचं, अत्र पुनर्वल्कलचीरिणोऽधिकारः । तथा कर्मणां क्षये सति प्राप्यते सामायिकं, यथा- क्षयादिषु श्यकमल- प्राप्तं चंडकौशिकेन, उपशमे सत्यवाप्यते यथा अङ्गर्षिणा, तथा मनोवाक्काययोगे प्रशस्ते लभ्यते बोधिः-सामायिकमिति अनुकम्पाया वृत्तीगाथार्थः॥ अथवाऽनुकम्पादिभिरवाप्यते सामायिक, तथा चाहउपोद्घाते अणुकंप १ऽकामनिज्जर २ वालतवो ३ दाण ४ विणय ५ विभंगे । दृष्टान्ता संजोग विप्पओगे ७ वसणू ८ सव ९इहि १० सकारे ११ ॥ ८४५ ॥ ॥४६॥ वेजे १ मिठे २ इंदयनागय ३ कयपुन्न ४ पुष्फसालसुए। सिव ६ दुमहुर वणि ७ भाउय ८ आभीर ९दसनि १० लापुत्ते ११॥ ८४६ ॥ अनुकम्पाप्रवणचित्तो जीवः सामायिक लभते, शुभपरिणामयुक्तत्वात् , वैद्यवत् १, हेतुः सर्वत्रायमेव परिभावनीयः,11 प्रतिज्ञादृष्टान्तान्यत्वं तु प्रतियोगं भणिष्यामः, अकामनिर्जरावान् जीवः सामायिक लभते शुभपरिणामयुक्तत्वात् मेण्ठवत् २, तथा लभते कोऽपि बालतपोयुक्तोऽपि सामायिकं शुभपरिणामत्वादिन्द्रनागवत् ३, तथा सुपात्रप्रयुक्तयथा-| शक्तिश्रद्धादानो लभते सामायिकं कृतपुण्यवत्४, आराधितविनयो लभते सामायिक पुष्पशालसुतवत् ५, अवाप्तविभगोऽपि लभते कोऽपि सामायिक शिवराजर्पिवत् ६, दृष्टद्रव्यसंयोगविप्रयोगो लभते कश्चित् सामायिक मथुराद्वयवासिवणि- ॥४६॥ द्वयवत् ७, अनुभूतव्यसनो लभते कोऽपि सामायिक भ्रातृदयशकटचक्रव्यापादितउहुंडीलब्धमानुषत्वस्त्रीगर्भजातप्रियद्वेब्यापुत्रद्वयवत् ८, अनुभूतोत्सवोऽपि लभते कोऽपि सामायिकमाभीरवत् ९, दृष्टपरमहर्धिकोऽपि लभते कश्चित्सामा दीप अनुक्रम Aaimastram ... अनुकंपादि कारणात् सामायिक-प्राप्ते: द्रष्टांता: ~42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक -- दीप अनुक्रम [-] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ८४५ - ८४६ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५० ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः चिकं दशार्णभद्रराजवत् १०, सत्कारकाणेऽप्यब्धसत्कारः कोऽपि लभते सामायिकमिलापुत्रवत् ११ ॥ इयमक्षरगमनिका । साम्प्रतमुदाहरणानि प्रदर्श्यन्ते चारमती नगरी, तत्थ कण्हो वासुदेवो, तस्स दो बेजा-धन्नंतरी वेयरणी य, धन्नंतरी अभवितो, वेयरणी भवितो, सो साहूण गिलाणाण पिएण साहइ, जस्स जं काय तस्स तं फासुएण पडोयारेण साहइ, जइ अप्पणो संति ओसहाणि तो देइ, धन्नंतरी पुण जाणि सावजाणि ताणि साहइ, असाहुप्पओग्गाणि ततो साहुणो भणति अम्हं कत्तो एयाणि १, ताहे भणइ-न मए समणाणं अट्ठाए अज्झाइयं वेजसत्थं, ते दोऽवि महारंभा महापरिग्गहा य सबाए बारवतीए तिगिच्छं करेंति, | अण्णया कण्हो वासुदेवो तिस्थयरं पुच्छति एए बहूणं ढंकादियाणं वह काउं कहिं गमिस्संति ?, ताहे सामी भणइ एस धन्नंतरी अप्पड्डाणे नरए उववज्जिहिति, एस पुण वेयरणी कालंजरवत्तिणीए गंगाए महानईए विंझरस य अंतरा वानरत्ताए पञ्चायाहिति, ताहे सो वयपत्तो सयमेव जूहवइसणं काहिति तत्थऽण्णया साहुणो सत्थेण समं विईवइस्संति, एगस्स य साहुस्स पाए सहो लग्गिहिति, ताहे ते भांति अम्हे पडिच्छामो, सो भणइ सबे मरामो, वच्चह तुज्जो, अहं भतं पञ्चक्खामि, ताहे निबंध काउं ठितो, सोऽवि न तीरइ सलोनीणे, पच्छा थंडिलं पावितो छायं च ताहे सो वानरजूहवई तं पएस एइ जत्थ सो साहू, जाव तं पुरिहेहिं दण किलिकिलाइयं, ततो तेण जूहाहिवेण तेसिं किलिकिलाइयं सदं सोऊण रूसितेणागंतूण दिट्ठो सो साहू, तस्स तं साहुं दद्दण ईहापोहा, कहिं मए एरिसो दिट्ठोत्ति ?, सुभेण परिणामेण तयावरणिज्जकम्मक्खओवसमतो जाई संभरिया, बारवर्ति संभर, ताहे तं साहू बंद, तं च से सह पासइ, ताहे सो तिगि ~43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४७], विभा गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक व० वृत्ती दीप श्रीआव- च्छ सर्व संभरइ, ततो सो गिरि विलग्गिऊण सद्धरणि संरोहणिं च ओसहिं गहाय आगतो, ताहे सल्लुद्धरणिं पाए अनुकंपायां श्वकमल- अलियावेति, ततो सल्लो एगंते पडितो, संरोहणीए पउणावितो, ताहे तस्स साहुस्स पुरतो अक्खराणि लिहइ-जहाऽहं| वैतरणी वेयरणीणाम वेजो पुवभवे बारवईए आसि, तेहिवि सो सुयपुबो, ताहे सो साहू धर्म कहेइ, ततो सो भत्तं पच्चक्खाइ, वैद्यः उपोदयाते तिन्नि राईदियाणि जीवित्ता सहस्सारं गतो । एतदेवाह सो वानरजूहबई कंतारे सुविहियाणुकंपाए । भासुरवरवोंदिधरो देवो वेमाणिओ जाओ ॥ ८४७॥ ॥४६१॥ । सोऽनुकम्पाकारित्वेन भगवदरिष्ठनेमिकथिततया वाऽतिप्रसिद्धो वानरयूथपतिः कान्तारे सुविहितस्थ-सुसाधोरनुक-15 म्पया परमभक्त्यपरपर्यायया भास्वरवरबोंदिधरो देवो वैमानिको जातः । सहस्सारं देवलोगं गतो य ओहिं पउंजइ जाव पेच्छइ तं सरीरगमप्पणो तं च साहुं, ताहे आगंतूण साहुस्स देवहिं दाएइ, भणइ य-तुम्ह पसाएण देबिड्डी लद्धा, ततो तेण सो साहू साहरितो तेसिं साहूणं सगासे, ते पुच्छंति किहमागतो सि?, ताहे साहइ, एवं तस्म वानरस्स सम्मत्तसामाइयसुयसामाइयचरित्ताचरित्तसामाझ्याण अणुकंपाए लाभो, इहरा निरयपाउग्गाणि कम्माणि करेत्ता निरयं गतो होतो, ततो चुयस्स चारित्तसामाइयं भविस्सइ भबिस्सइ सिद्धी य॥ | अकामनिजराए वसंतपुरे नयरे एगा इभवहुगा नदीए पहाइ, अन्नो य तरुणोतं दहण भणइ-सुण्हायं ते पुच्छइ एस नदी |मत्तवारणकरोरु । एए य नदीरुक्खा वयं च पाएसु ते पणया ॥१॥ साऽवि तं पइ भणई-सुभगा होतु नदीतो चिरं च ४जीवंतु जे नदीरुक्खा । सुण्हायपुच्छगाणं पत्थीहामो पियं काउं॥२॥ प्रियं कर्नु यतिष्यामहे इत्यर्थः, ताहे सो तीए घरं अनुक्रम RECRACKERAL E mastrineorg ~44~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] Jam Educato आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [८४७], वि० भा०गाथा [ - ], भाष्यं [ १५०...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वारं वा न याणइ, चिंतेइ अन्नपानै हरेद्वालान्, यौवनस्थान् विभूषया । वश्यां स्त्रीमुपचारेण, वृद्धान् कर्कश सेवया ॥ १ ॥ | तीसे विइजगाणि चेडरुवाणि रुक्खे पलोएन्ताणि अच्छंति, तेण तेसिं पुष्पाणि फलाणि दिन्नाणि, पुच्छियाणि य-का एसा ? कस्स वा ? ताणि भणति अमुगस्स सुण्हा, ताहे सो चिंतेइ केण उवारण तीए समं संपओगो हवेज्जा ?, ताहे एगा चरिगा भिक्खट्टाए सवत्थ अडंती दिट्ठा अबलोइया, चिंतियं कुसुंभसदृशप्रभं तनुसुखं पटं प्रावृता, नवागुरुविले. पना शरदि चन्द्रलेखा इव । यथा हसति भिक्षुकी सुललितं विटैर्वन्दिता, ध्रुवं सुरतगोचरे चरति गोचरान्वेषिणी ॥ १ ॥ ततो तं ओलग्गड़, सा तुट्ठा भणड़-किं करेमि ?, अमुगस्स सुन्हं संपादेहि, सा गया तीए सगासं, भणिया य-जहा अमुगो एवंगुणजाइओ ते पुच्छइ तीए रुडाए पलुगाणि धोवंतीए मसिलित्तेण हत्थेण पट्ठीए आहया, पंचंगुली तो जायातो, वारेण य निच्छूढा, सा आगया साहह-नामपि न सहद, तेण नायं जहा कालपंचमीए अहं हकारितो, ताहे पंचमी दिवसे पुणरवि पट्टविया पबेसजाणणानिमित्तं, ताहे सजाए आहणिऊणं असोगवणियाछिड्डियाए निच्छूढा, सा आगया साहइ जहा नामपि न सहइ, आहणित्ता अवदारेण धाडिया, तेण णाओ पवेसो, तेणेव अवदारेण सो अतिगतो, असोगवणियाए सुत्ताणि, ससुरेण दिट्ठाणि, तेण नायं जहा न मम पुत्तोत्ति, पच्छा से पायाओ णेउरं गहियं, चेइयं च तीए, भणिओ सो अणाए-नास लहुं सहायकिजं करेजासु परछा इयरी गंतूण भत्तारं भणड - धम्मो एत्थं, असोगवणियं जामो, गयाणि, सुत्ताणि य, जाहे सो मुत्थं सुत्तो ताहे उत्ता भणति तुज्झ एवं कुलाणुरुवं ? जं मम पायातो ससुरो नेउरं गेव्हर, सो भणइ-सुयाहि पभाए उमिहिसि, घेरेण सिद्धं, सो रुट्ठो भणति विवरीओ सि थेरा!, सो Pur Private & Personal Use Only ~45~ whelbrary.org Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४७], विभा गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक श्रीआव-दाभणइ-मए अन्नो दिट्ठो, ताहे विवादे सा भणति-अहं अप्पाणं सोहेमि, एवं करेहि, ताहे पहाया जक्खघरं गया, तत्था अकामश्यकमल- जो कारी सो दोण्हं जंघाणं अंतरेण बोलंततो लग्गइ, अकारी मुच्चइ, जवावधरं गच्छंती य तेण पुरिसेण पिसायरूवं|निर्जरायां य० वृत्ती काऊण अंतरा अवगृहिता, ततो सा तत्थ गंतूण जक्खं भणइ-जा मम मायापिईहिं दिष्णिलतो तं च पिसायं मोत्तूण जइमेण्ठः उपोद्घाते अण्णं जाणामि तो मे तुम जाणसित्ति भणंती झडत्ति अंतरेण बोलीणा, जक्खो विलक्खो चिंतेइ-पेच्छ केरिसं जायं ?, अहयंपि वंचितोऽणाए, नत्थि सतित्तणं धुत्तीए, लोगेण उक्किठिकलयलो कतो सुद्धा सुद्धा एमत्ति थेरो सबेण लोगेण हीलि॥४६॥ ४ातो, तस्स ताए अद्धितीए निद्दा नट्ठा, एवं रण्णा परंपरएण सुयं जहा थेगे न सुबइ, ततो हकारेऊण अंतेउरपालओ दकतो, अभिसेकं च हस्थिरयणं रण्णो वासघरस्स हेट्ठा बद्धं अच्छइ, देवी य हस्थिमेंठे आसत्तिया, नवरं रत्तिं हस्थिणा हत्थो पसारितो सा ओयरिया, पुणरवि पभाए पडिबिलइया, एवं वच्चइ कालो, तंमि दिणे अतिचिरं जायंति इस्टिमेंटेण हत्थिसंकलाए आहया, सा भणइ-सो पुरिसो न सुयह मा रूसह, तं थेरो पेच्छइ, सो चिंतेइ-जइ एयातोपि एरिसीतो किंन । तातो अतिभदियातो इति निचिंतो सुत्तो, पभाए सबो लोगो उद्वितो, सो न उदुइ, रणो सिटुं, राया भणइ-सुवउ, सत्तमे दिवसे उद्वितो, रण्णा पुच्छितो, कहियं जहा एगा देवी, न याणामि कयरत्ति, सा एवं ववहरइ, ततो रण्णा भिंडमयो हत्थी कारावितो, सबातो अंतेउरियाओ भणियातो-एयरस अच्चणियं करेत्ता उलंडेह, सबाहिं उहंडितो, सा नेच्छइ, भण ॥४६॥ लइ--अहं बीहेमि, ताहे राइणा उप्पलेण आहया, मुच्छिया किल पडिया, ताहे से उवगयं जहा एसा कारित्ति, भणिया य मत्त गयमारुहंतीए भिंडमयस्स गयस्स बीहंतीए। इह मुच्छिय उप्पलाहया तत्थ न मुच्छिय संकलाहया ॥शा जा पिट्टी से निभा MESSINGER 04 दीप अनुक्रम SMEnication mastrina ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४७], वि भागाथा [-1, भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक लिया जाव संकलप्पहारा दिट्ठा, ताहेरण्णा सा देवी हत्थी मिठो य तिण्णिवि छिन्नकडए विलइयाणि, मेंठो भणिओ-एत्थ अप्पतइओ गिरिप्पवायं देहि, हथिस्स दोहिवि पासेहिं वेलुग्गाहा ठविया, जाव एगो पादो आगासे कतो ताव जणो भण-है WI-किं एस तिरिओ जाणइ ?, एयाणि मारेयवाणि, तहावि राया रोसं न मुयइ, ततो दो पाया आगासे कया, तइयवाराए| तिणि पाया आगासे कया, एगेण पाएण ठिओ,लोगेण अकंदो कतो-किं एयं हत्थिरयणं विणासेह य, रणो चित्तं ओल्लिदाय, आर्द्र जातमित्यर्थः, भणितो-तरसि नियत्तेउं ?, भणइ-जइ अभयं देह, दिन्नं, तेण नियत्तितो अंकुसेण, जहा भमित्ता थले ठितो, ताणि ओयारिता निबिसयाणि कयाणि, एगत्थ पच्चंतगामे सुण्णघरे ठियाणि । तत्थ य गामेलयपारद्धो चोरो तं सुण्णघरं अतिगतो, ते भणंति-बेढिउं अच्छामो, मा कोइ पविसउ, गोसे घेत्थामो, सोऽवि चोरो लुकतो, किवि तीसे फासो वेइतो, सा दुक्का भणइ-को सि तुमं?, सो भणइ-चोरोऽहं, तीए भणियं-तुम मम पती होहि जेण एवं साहामो, जहा एस चोरोत्ति, तेण पडिवन, पभाए लोगेण मेंठो गहितो, सूलाए भिन्नो, सा चोरेण समं बच्चइ जाव अंतरा नदी, सा तेण भणिया-एत्थ सरत्थंवे अच्छ जाव अहं एयाणि वत्थाणि आभरणाणि य उत्तारेमि, सो गतो, उत्तिन्नो पधावितो, सा भणइपुण्णा नदी दीसह कायपेजा, सर्व पियाभंडग तुझ हत्थे । जहा तुम पारमतीतुकामो, धुवं तुम भंड गहाउकामो ॥१॥ सो भणइ-चिर संथुतो वाऽलिअसंधुएण, मेल्लेवि तावं धुव अडुर्वण । जाणप्पि तुज्झ प्रकृतिस्वभावं, अन्नो नरो को तुह पीससेज्जा ॥१॥सा भणइ-किं जाहि १, सो भणइ-जहा एसी मारावितो एवं ममंपि कहंचि मारावेहिसि । इयरोऽवि IM मेंठो तत्थ सूलाए विद्धो उदगं मग्गइ, तत्थेगो सहो, सो भणइ-जइ नमोकारं करसि तो देमि, सो उदगस्स अट्टाए गतो, ANGACASSEKX दीप अनुक्रम ORECARSACRACKERAXX ~47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४७], विभा गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक श्रीआव- जाय तंमि अपत्ते चेव सो नमोकारं करेंतो कालगतो वाणमंतरो जातो, सड्डोऽवि आरक्खियपुरिसेहिं गहितो, सो देवोदा अकामश्यकमल- ओहिं पउंजइ, पेच्छद सरीरगं सहूं च बद्धं, ताहे सो सिलं विउबिना मोएड, तं च पेच्छइ देवि सरत्यंबे विलुक, ताहे से निर्जरायां य० वृत्तौ दिघिणा उप्पन्ना, सियालरूवं विउवित्ता मंसपेसीए गहियाए दगतीरेण बोलेइ जाव नदीतो मच्छो उच्छडिऊण तडे पडितो,31 मेण्ठः उपोद्घातेततो सो मंसपेसिं मोत्तण मच्छरस पहावितो, सो पाणिए पडितो, मंसपेसीवि सेणेण गहिया, ताहे सियालो झायद, ताए! बालतपसी॥४६३॥ भन्नइ-मंसपेसि परिचज, मच्छं पत्थेसि जंबुया !। चुक्को मंसं च मच्छं च, कलुणं झायसि कोल्हुया !॥१॥ तेण द्रनागः भण्णइ-पत्तपुडपडिच्छण्णे, सरस्थंबेण पाउए! चुका पतिं च जारं च, कलुणं झायसि बंधकी ॥१॥ एवं भणिया विलक्खा| जाया, ताहे सो सयं रूवं दंसेइ पनवेइ य-धुत्ता! पचयाहि, सा भणइ-पमोह अवणं, ताहे सो राया तजिओ, तेण द्रापडियन्ना, सकारेण निक्खंता, देवलोगं गया, एवं अकामनिजाराए मेंठस्स २॥ | बालतवेणं-वसंतपुरं नगरं, तस्थ से द्विधरं मारीए उच्छाइयं, तत्थ इंदनागो नाम दारओ, सो गिलाणो पाणियं मग्गइ, भाजाव सवाणि मयाणि पेच्छइ, चारपि लोगेण कंटियाए घट्टियं, ताहे सो सुणयछिद्दुतण निगंतूण तंनि नगरे खप्परेण मिक्वं हिंडइ, लोगो से देइ भूयपुरोत्तिकालं, एवं सो बहुइ । इत्तो य-एगो सत्यवाहो रायगिह जाउकामो घोसणं घोसावेइ, तेणी सुयं, सत्येण सम पस्थितो, तत्थ तेण सत्थे कूरो लद्धो, सो जिमितो, न जिष्णो, वितियदिवसे अच्छइ, सत्यवाहेण दिट्ठो,' चिंतेइ-नूर्ण एस उपवासितो, सो य अवत्तलिंगी, विड्यदिवसे हिंडितस्स सेटिणा बहुं निद्धं च दिलं, सो तेण दुवे दियसे | अजिण्णेण अच्छद, सस्थवाहो जाणइ-एस छद्रेण खमइ, तस्स महती आस्था जाता, सो तइयदिवसे हिंडन्तो सत्यवाहेण दीप अनुक्रम GAYEmastram ~48-~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४७], विभा गाथा -1, भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: MAAD प्रत सूत्रांक AAKAACADARASADARA दीप अनुक्रम सासदावितो कीस कडं नागतो, तुहिको अच्छा, जाणइ-जहा इट कपडयं, ताहे से दिपणं, तेणवि अण्णे दो दियसे। अच्छावितो, लोगोऽवि पणतो, अण्णस्ल निमंतंतस्सविन गेण्डइ, अण्णे भणति-एसो एगपिंडितो, तेण तं अट्ठपयं लद्धं, सत्थवाहेण भणितो-मा अण्णस्स खणं गेण्हिासि, जाव नगरं गम्मद ताव अहं देमि, गया नगरं, तेण से णियघरसनीये तामढोकतो, ताहे सीसं मुंडावेइ, कासायाणि चीवराणि गेण्हा, ताहेजहियसं से पारणयं तदिवसं लोगो आणेइ भत्तं, एगस्स पडिच्छइ, ततो लोगो न याणइ-करस पडिच्छियंति, ताहे लोगेण जाणणानिमित्तं भेरी कया, जो देह सो ताडेइ, दाताहे लोगो पविसइ, एवं वच्चइ कालो, सामी समोसरितो, ताहे साह संदिसायंता भणिया-मुहुतं अच्छह, अणेलणा, तंमि जिमिए भणिया-ओयरह, गोयमो भणिो -मम घयणेणं भणिजासि-भो! अणेगपिंडिया एगपिंडितो ते दहमिच्छा, ताहेर जागोयमसामिणा भणितो रुट्ठो, तुज्झे अणेगाणि पिंडसयाणि आहारेह, आई एग पिंडं भुंजामि, अहं चेव एगपिंडितो, मुहु तरेण उपसंतो चिंतेइ-न एए मुसं वयंति, किह होज्जा ?, लद्धा सुती, होनि अणेगपिंडितो, जदिवस मम पारणगं तद्दिवसं अणेगाणि पिंडसयाणि करेंति, एए पुण अकयकारिअं भुंजंति, सच्चं भणंति, एवं चिंतेंतेण जाईसंभरिया, पत्तेवबुद्धो जातो, अग्झयणं भासह 'इंदणागेण अरहा वुत्तं' सिद्धो य, एवं बालतबेण सामाइयं उद्धं तेण ३ ॥ 1 दाणेण जहा-एगाए वच्छवालीए पुत्तो, लोगेण ओसवे पायसी उयक्खडिया, तत्थासन्नघरे दारगरुवाणि पायसं जेमं ताणि पासइ, ताहे सो मायरं वड्डेइ-ममवि पायसं रंधेहि, ताए भणिओ सो-णस्थित्ति, सा अद्धिईए परुण्णा, ताओ सयझियाओ पुच्छति, निबंधे कहियं, ताहि अणुकम्पयाए अण्णाएवि अण्णाएवि आणियं खीरं सालि तंदुला य, ताहे घेरीए ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४७], विभा गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: दाने कतपुण्यः प्रत श्रीआव- श्यकमल२० वृत्ती उपोद्घाते ॥४६॥ सत्राक पायसो रद्धो, ततो तस्स दारगस पहायस्स घयमहुसंजुत्तं थालं भरेऊण घहियं, परिवेपितमित्यर्थः, साहू य मासक्खमण- पारणए आगतो, जाव थेरी अंतो वाउला ताव तेण धम्मोऽवि मे होउत्ति तस्स पायसस्स तिभागो दिनो, पुणो चिंतियंअतिथोवं, बिइओ भागो दिनो, पुणोऽवि अणेण चिंतियं-एत्थ जइ अण्णं अंबक्खलगाइ छुब्भइ तो विणस्सइ, ताहे तइतो भागो दिनो, ततो तेण तस्स दबसुद्धेण दायगसुद्धेण गाहगसुद्धेण तिविहेण तिकरणसुद्धेण भावेण देवाउयं निबद्धं, ताहे| माया से जाणइ-जिमितो, पुणरवि भरिय, अतीव रंकत्तणेण पोट्टं पडिपुन्नं भरियं, ताहे रत्तिं विसूइयाए मतो, देवलोगं गतो, ततो चुतो रायगिहे नयरे पहाणस्स धणावहस्स सेहिस्स पुत्तो भद्दाए भारियाए जातो, लोगो य गन्भगए भणति कयपुण्णो जीवो जो उववण्णो, ततो से जायस्स नाम कयं कयपुन्नोत्ति, वहितो, कलातो गाहितो, परिणीतो, मायाए दुल्ललि| यगोडीए समपितो, तेहिं गणियाघरं पावितो, बारसहिं वरिसेहिं निद्धणं कुलं कयं, तोऽपि न निग्गच्छद, मायापियाणि से मयाणि, भजा य से आभरणाणि चरमदिवसे पेसेइ, गणियामायाए नायं-निस्सारो कतो, ताहे ताणि अण्णं च सहस्सं पडिविसजिय, गणिय माया भणइ-निच्छुभउ एसो, सा नेच्छइ, ताहे चोरियं नीणिओ, घरं सजिज्जइ, तहावि स उइण्णो वाहिं अच्छइ, दासीए भण्णइ-निच्छूढोऽवि अच्छसि?, ताहे निययघरं गतो,तं च सडियपडियं पासइ, ताहे सा भज्जा ससंभमेण उडिया, ततो से सबं तीए कहियं, सोगेण अप्फुण्णो, भणइ-अस्थि किंचि जेण अन्नहिंगमित्तावबहरामि?, ताहे जाणि आभरणाणि गणियामाऊए सहस्सं च कप्पासमोल्लं दिणं ताणि से दंसियाणि, सत्थो य तंमि दिवसे चलितो. सो तं भंडमोल्लं गहाय तेण सत्येण समं पधावितो, वहिं देउलियाए खट्टे पाडिऊण मुत्तो, अण्णस्स य वाणियगमायाए सुर्य, जहा दीप अनुक्रम ~50 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४७], विभा गाथा -1, भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ASSROO तव पुत्तो वहणे मिन्ने मतो, तीए तस्स दर्ष दिन्नं, मा कस्सइ कहेज्जासि, तीए चिंतिय-मा दबजायं राउले पविसिहिद मे अपुत्ताए, ततो रत्तिं तं सत्थं एइ, जा कंचि अणाहं पवेसेमि, ताहे तं पासइ, पडिवोहित्ता पवेसितो, ताहे घरं नेऊण रोप्रवेइ-चिरनट्ठगत्ति पुत्ता !, सुण्हाणं चउण्हं ताणं कहेइ-एस देवरो चिरनद्वतो, तस्स लाइयातो, तत्धवि वारस वरिसाणि |अच्छइ, तत्थ एकेकाए चत्तारि चेडरूवाणि जायाणि, घेरीए भणियं-एत्ताहे निच्छुब्भउ, तातो न तरंति धरिउं, ताहे ताहिं संबलमोयगा कया, अंतो रयणाण भरिया, चिरं से एयं पाउग्गं होउ, ताहे वियर्ड पाएत्ता ताए चेव देउलियाए उसीसए है संबलं ठवित्ता पडिगया, सोऽवि सीयलएणं पवणेणं संबुद्धो पभायं च, सोऽवि सत्थो तद्दिवसमागतो, इमाएवि गवेसतो |पेसितो, ताहे उदृवित्ता घरं नीतो, भज्जा से संभमेण उद्विया, संबलं गहियं, पविट्ठो, अभंगादीणि कारइ, पुत्तो य से तदा गन्भिणीए जातो, सो एकारसवरिसो, लेहसालाए आगतो, रोवइ-देहि मे भत्तं मा उवज्झाएण हम्मिहामित्ति, ततो संबलथगियातो मोयगो पणामितो, खायंतो तस्थ रयणं पासइ, लेहचेडएहिं दिहुँ, तेहिं कंचुझ्यस्स दिण्णं दिवे दिवे अम्ह पोलियातो सादेहित्ति, इमावि से भजा जिमिए मोदगे भिंदइ, तेण दिवाणि, भणइ-सुंकभएण कयाणि, तेहिं तहेव पवित्थरितो ॥ सेय णतोगंधहत्थी नदीए तंतुएण गहितो, राया अद्दण्णो, अभओ भणइ-जलकतो अस्थि तो छुट्टइ, सो य रायउले अइबहुयतणतो रयणाणं चिरेण लब्भइत्तिकाऊण पडहतो निष्फेडितो-जो जलकंतं देइ तस्स राया रजस्स अद्ध धूयं च देइ, ताहे | अपूपिपण दिन्नो, नीतो उदगसगासं, उदगं पगासिय, तंतुओ जाणइ-थलं नीतो, मुक्को, नट्ठो, राया चिंतेइ-कतो कंदुयस्स जलकंतरयणसंपत्ती, पुच्छइ-कतो एस अलकतो तुज्झ?, निब्बंधेण सिटुं-कय पुन्नगपुत्तेण दिन्नो, राया तुट्टो, कस्स दीप अनुक्रम JMEducation ~51 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४७], विभा गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक श्रीआव- अनस्स होहिइ ?, रण्णा सद्दावेऊण कयपुन्नगो धूयाए विवाहावितो, विसओ य से दिनो, भोगं भुंजइ, गणियाधि आगया, दाने कृतश्यकमल- भणइ-एचिरकालं अहं वेणीबंघेण अच्छिया, सबट्ठाणाणि तुमंअट्टाए गबेसावियाणि, एत्थं सि दिवोत्ति ॥ कयपुण्ण- पुण्यः य० वृत्ती गो अभयं भणइ-एत्थ मम चत्तारि महिलातो सडरूवाओ, तं घरं च न याणामि, साहेचेश्यघरं कयं, लेप्पगजक्लो याबिनये पुउपोद्घाते कयपुन्नगसरिसो कतो, तस्स अच्चणिया घोसाबिया, दो य दाराणि कयाणि, एगेण पवेसो एगेण निफेडो, तत्थ अभओपिशाल हाकयपुनगो य एगत्थ बारब्भासे आसणवरगया अच्छंति, ताहे कोमुदी आणत्ता, जहा अज पडिमापबेसोत्ति अच्चणियं सुतः ॥४६५॥ हैकरेत, नयरे य घोसावियं-सबमहिलाहिं सचेडरूयाहिं आगंतवं, ताहे लोगो एइ, तातोऽवि आगचातो, चेडरूपाणि बप्पोत्ति | उच्छंगे निवेसंति, एवं तातो नायातो, थेरी अंबाडिया अभएणं, तातोऽधि आणीयातो, पच्छा जहासुहं भोगे मुंजइ सत्त४ाहिवि सहितो । वद्धमाणसामी समोसरितो, कयपुनगो सामि बंदिऊण पुच्छइ अप्पणो संपत्तिं विपत्सिं च, भगवया कहियं पायसदाणं, संवेगेण पबइतो, एवं दाणेण सामाइयं लभइ ४॥ I इदाणी विणएणं, जहा मगहाविसए गोबरगामे पुष्फसालो गाहावती, भद्दा भारिया, पुत्तो से पुप्फसालसुतो, सो| मायापियरं पुच्छइ-को धम्मो ?, तेहि भण्णइ-दो चेव देवयाओ माया पियरो य जीवलोगम्मि । तत्वबि पिया विसिट्टो जस्स बसे वट्टई माया॥१॥ताहे सो ताण पायमुहधोवणाई विभासा, देवयाणि व सुस्टूसइ, अक्षया गामभोइओ आगतो, ४६५ ॥ ताणि संभंताणि पाहुणं करेंति, सो चिंतेइ-एयाणबि एस देवयं, एवं पूएमि तो धम्नी होहिद, तस्स सुस्सूया पकया, अन्नया तस्स भोइयस्स अन्नो महलो दिट्ठो जाव सेणितो राया, ओलग्गिउमारद्धो. सामी समोसहो, सेणिओ शहीए गंतूण| दीप अनुक्रम ~52~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४७], विभा गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम बंदइ, ताहे सो सामी भणइ-अहं तुभे ओलग्गामि?, सामिणा भणियं-अहं रयहरणपडिग्गहमायाए ओलग्गिजामि, ताणं सुणणाए सुबुद्धी, एवं विणएणं सामाइयं लभइ ५॥ विभंगेण जहा-हत्थिणारे नगरे सिबो नाम राया, तस्स धारिणी देवी, सिवभद्दे नाम पुत्ते, तस्स गं सिवस्स रणो अण्णया पुधरत्तावरचकालसमयंसि रजधुरं चिंतेमाणस्स इमे एयारूवे संकप्पे समुपजित्था-अस्थि मे पुराकयाणं कम्माणं | 151 कलाणे फलयित्तिबिसेसे जेणं हिरणेणं यहामि, एवं रजेणं रद्रेणं धणेणं धनेणं जाय पुत्तेहिं वहामि, ता कि अहं पुणोऽबि पुग्नं | दिन करेमित्ति कलिऊण बीयदिवसे विपुलं भोयणं सधजणजोगं कारावियं, लोगो जेमावितो, दाणं च दिषण, महयाए इड्डीए सिवभद्दो पुत्तो रजे ठवितो, ततो लोहीलोहकडाहकडुच्छुयं तंबियं ताबसभंडयं भिक्खाभायणप्पभिई घडावित्ता तं गहाय दिसापोक्खियतावसत्ताए तावसो जातो, छछटेणं अणि क्खितेणं तयोकम्मेणं उहुं वाहातो पगिझिय २ सूराभिमुहमायादिवेमाणे जावजीवाए विहरह, तत्थ पढमछट्टपारणदिवसे य आयावणभूमीतो पच्चोरुहद, ततो नियत्थवकलबत्थे जेणेव सए| उडवे तेणेवागंतूण तंषियं भायणं गिण्हइ, तत्थ उदगं घेत्तण पुरथिमं दिसं पोक्खेइ, भणति य-पुरथिमाए दिसाए सोमोर महाराया सो पत्थाणपस्थियं सिवं रायरिसिं अभिरक्खउ, जाणि य तत्थ कहाणि मूलाणि जाव हरियाणि अगुजाणउत्तिभणिऊण पुरथिमं दिसिं पसरइ, ततो कंदाईणि पिण्हइ, दम्भे य समिद्धातो य, ततो सयमुडवमुवगच्छद, तत्व उवलेवणसंमज्जणं करेड, ततो आयंते चोक्खे दम्भसगम्भकलसहत्थगते उदगं गेण्हइ, ताहे दग्भेहिं बालुयाए य बेदिंरएइ, रइत्ता अरणिं महिऊण अग्गि पाडेइ, तत्थ समिहाकट्ठा पक्खियति, महुणा घएण य तंदुलेहिं अग्गिम्मि हुणति, वलिं विस्सदेवं करेइ अतिथि RECROCIENCERIA ~53. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [८४७], वि०भा०गाथा [-] भाष्यं [ १५०...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः • वृत्ती दूधाते आव ७ पूर्व च ततो पच्छा अप्पणा आहारेह, ततो दो दुक्खमणपारणगे दाहिणं दिसं पोक्खइ, तत्थ जमे नाम महाराया, कमल- सेसं तं चैव सर्व भाणियवं तच्चछट्ठक्खमणपारणगे पच्छिमं दिसं पोक्खड़, तत्थ वरुणे नाम महाराचा, सेसं तं चैव च उत्थछट्ठक्खमणपारणगे उत्तरं दिसं पोक्खर, तत्थ बेसमणे महाराया, एवं तस्स रायरिसिस्स छणं अणिक्खित्तेणं दि साचकवालएणं तवोकम्मेणं सूरा मिमुहे आयावेमाणस्स अण्णया कथाइ तयावरणिजाणं कम्माणं खयोवसमेणं विभंगण्णाणं * समुप्यण्णं, सो तेण अस्सिं लोगे पासइ सत्त दीवे सत्त समुद्दे, तेण परं न याणइ न पास, तते गं से सिवे रायरिसी हल्थिनाउरे नयरे लोगग्गे एवमाइक्खड़ एवं खलु देवाणुप्पिया !, असि लोए सत्त दीवा समुद्दा, तेण परं दीवा समुद्दा य नत्थि । तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसडो, गोयमसामी भिक्खमडमाणे बहुजणस्स अंतिए एवं निसामेइ- अस्सिं लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं दीवसमुद्दा नत्थित्ति, ततो भयवं गोयमे जातसंसए सामिं पुच्छइ, सामी सदेवमणुयाए सभाए वागरेइ-गोयमा ! जं सिवे रायरिसी भणइ तं मिच्छा, अस्सिं तिरियलोए असंखेज्जा जंबुदीवाइया दीवा असं| खेज्जा लवणाइया समुद्दा संठाणतो एग विहाणा वित्थरतो अणेगविहाणा, दुगुणा दुगुणबुडीए, तते णं सा परिसा एयमहं सोच्चा हट्टतुट्ठा भयवंतं वंदइ नमसइ, ततो सट्टाणं पडिगया, ततो णं बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ - जहा भयवया एवं वागरिथं जहा असंखेज्जा जंबुद्दीवाइया दीवा इच्चाइ तमेव भाणियबं, ततो णं से सिवे रायरिसी एयमहं सोच्चा सकिए जाए, विभंगनाणंच से खिप्पामेव परिवडियं, ततो तस्स एवं संकप्पो जातो- समणे खलु भयवं महावीरे सबण्णू सबदरिसी सहसंबवणे उज्जाणे विहरइ, तं गच्छामि णं सामिं वंदामि पज्जुवासामि, एयं णे इहभवे य परभवे य हियत्ताए० भविस्सइ, Fur Private & Pimal Use Only ४६६॥ ~54~ विभंगे शिवराजर्षिः ॥ ४६६ rary.org Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक -- दीप अनुक्रम [-] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ८४७ ], वि० भा० गाथा [ - ], भाष्यं [ १५०...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः एवं संकप्पिऊण सर्व भंडोवगरणं गहाय जेणेव भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, भयवंतं बंदइ नमसइ, धम्मं सोचा जायपरमसंवेगो उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागमवक्कमिऊणं सर्व भंडोवगरणं एडेइ, ततो सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, ततो भयवतो समीवे गंतूण चारितं पडिवज्जइ, एकारस अंगाई पढइ, ततो विसुद्धपरिणामस्स केवलनाणं समुप्पण्णं सिद्धो य ६ ॥ संयोगवियोगतोऽविलम्भइ, जहा दो महुरातो दाहिणा उत्तरा य, तत्थुत्तरातो वाणितो दक्खिणं गतो, तत्थ एगो वाणियगो तप्पडिमो, तेण से पाहुण्णं कथं, ताहे निरंतरं ते मिता जाया, अम्हं थिरतरा पीती होउत्ति जइ अम्हं पुत्तो धूया य जायइ तो संजोगं करिस्सामो, ताहे दक्खिणेण उत्तरस्स धूया वरिया, दिन्ना, एत्यंतरे दक्खिणमहरावाणितो मतो, पुत्तो से तंमि ठाणे डितो, अष्णया सो पहाइ, चउद्दिसिं चत्तारि सोबन्निया कलसा ठबिया, ताण वाहिँ रुपिया, ताण वाहिं तंबिया, ताण चाहिं मट्टिया, अण्णया ण्हाणविही रइया, ततो तस्स पुरतो पुवाए दिसाए सोवन्निओ कलसो नट्ठो, एवं वउद्दिसिं सबे नड्डा, उडियस्स पहाणपीढमवि नहं, अद्धिती जाया, जाव घरं पविट्ठो, ताहे भोयणविही उबट्टविया, ताहे सोवणियरुपमयाणि थालाणि रइयाणि, तत्थ एक्केकं भायणं नासेडमारद्धं, सो य पेच्छइ नासंते जाव से मूलपत्तीवि णासिउमारद्धा, ताहे तेण गहिया, जत्तियं गहियं तत्तियं ठियं, सेसं न, ततो गतो सिरिघरं जोएइ जाव तंपि रित्तयं पेच्छर, जंपि निहाणपडसं तंपि नहं, जंपि आभरणं तंपि नस्थि, जेसिंपि पित्तं तेवि भणति तुमं न याणामो, जो दासीवग्गो सोऽवि नहो, ताहे चिंतेइ अहो अहं अहन्नो, ततो चिंते-पवयामि, पपइतो, सामाइयाईणि एकारस अंगाणि पढाइ, ततो तेण खंडेण हत्थगएण कोउहलेण हिंडर जइ पेच्छेज्जामि, विहरंतो उत्तरमधुरं गतो, ताणिवि रयणाणि ससुर Por Private & Personal Use Only ~55~ wbrary.org Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्रीआव श्यकमल य० वृत्तौ उपोद्घाते ॥ ४६७ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ८४७ ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः कुलं गयाणि, ते य कलसा, तहाहि सो उत्तरमाहुरो वाणितो उबगिर्जतो अन्नया कयाइ मज्जइ, तरस मज्जमाणस्स ते कलसा आगया, ततो सो तेहिं चैव मज्जितो, भोयणवेलाए तं सर्व भोयणभंडं उवडियं, सोऽवि साहू भिक्खं अडंतो तं घरं पविट्टो, तत्थ सत्थवाहस्स धूया पढमजोवणे वदमाणी वीयणयं गहाय अच्छइ, ताहे सो साहू तं भोयणभंडं पेच्छइ, सत्थवाहेण भिक्खा नीयाविया, दिण्णेऽवि अच्छा, ताहे पुच्छइ किं भववं ! एवं चेडिं पलोवेह ?, ताहे सो भणइ, न मम चेडीए पओयणं, एवं भोयणभंडगं पलोएमि, ततो पुच्छइ-कतो ते एयस्स आगमो ? सो भणइ-अज्जयपज्जया गयं, तेण भणियं सम्भावं साह, तेण भणियं मम व्हायंतस्स एवं चैव पहाणविही उबडिया, एवं सवोऽवि जेमणवेलाए भोयणविही, सिरिघराणिवि भरियाणि दिट्ठाणि, अदिट्ठपुवा य वाणियगा आणेत्ता देति, ताहे सो भणइ एवं सवं मम आसि, सो पुच्छर- किह ?, ताहे साहू कहे पहाणादि, जइ न पत्तियसि भोयणपत्तीखंड पेच्छ जाव ढोइयं, झडत्ति लग्गं, पिडो नामं साहइ, ताहे नायं एस सो जामाउओ, ताहे सो उट्ठित्ता अवयासेऊण परुष्णो, पच्छा भणइ एवं सवं तत्र तदव त्थं अच्छइ, एसा ते पुवदिना चेडी, पडिच्छ पंति, सो भणइ पुरिसो वा पुवं कामभोगे विष्वजहह, कामभोगा वा पुरिसं पुढं विप्पजर्हेति, ताहे सोऽवि संवेगमावन्नो, ममंषि एमेव विश्वजहिस्संतित्ति, पञ्चइतो, तत्थ एगेण विपओगेण सामाइयं लद्धं, एगेण संजोगेण रुद्धंति ७ ॥ इयाणिं बसणेणं, दो भाउया सगडेण वच्चंति, तत्थ चकवुंडा सगडबडाए लोलड, महल्लेण भणियं वत्तेह मंडिं, इयरेण वाहिया भंडी, सा सन्नी सुणेइ, ताहे चकेण छिन्ना, मया, इत्थी य जाया हस्थिणउरे नगरे, सो नहहतरागो पुर्व मरित्ता Por Private & Personal Use Only ~56~ संयोगवि योगे मधुरावणिजी ॥४६७॥ brary.org Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४७], विभा गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दतीसे पोट्टे आयातो, पुत्तो जातो, इयरोऽवि मतो, तीसे चेव पोट्टे आयातो, जंचेव सो उववण्णो तंचेव सा चिंतेइ-सिलं व हाविज्जामि, गम्भपाडणेहिवि न पडइ, एवं सो जातो ताहे दासीए हत्थे दिन्नो, छडेहि, सो सिट्टिणा दिट्ठो निजतो, तेण घेत्तूण अन्नाए दासीए दिनो, सो तस्थ संबहुइ, तत्थ महल्लगस्स नामं रायमिलितो, इयरस गंगदत्तो, सो महलो जं जं किंचि लभइ तत्तो तस्सवि देव, माऊए पुण अणिछो, जहिं पेच्छइ तहिं करेण व पत्थरेण वा आणइ, अन्नया ईदमहो जातो, ताहे पियरेण अप्पसागारियं आणेऊण आसंदस्स ओहाडियतो कतो जेमाविज्जा, तीए कहवि दिडो, ततो हत्थं घे-18 चूण कहितो, चंदणियाए पक्खित्तो, ताहे सो त्यइ, पिउणा पहावितो, एत्यंतरे साहू भिक्खड्डुमतिगया, सेठिणा पुच्छिया-भ-% यवं ! माऊए पुत्तो अणिट्ठो हवइ ?, हंता हवइ, कहिं पुण ?, ताहे भणति-"यं दृष्ट्वा वद्धते क्रोधः, स्नेहश्च परिहीयते । स विज्ञेयो मनुष्येण, एप मे पूर्ववैरिकः॥१॥ यं वा वद्धते स्नेहः, क्रोधश्च परिहीयते । स विज्ञेयो मनुष्येपण, एप में पूर्व-14 बान्धवः ॥२॥" ताहे सो भणइ-भयवं पनावेह ?, बादंति, विसज्जितो, पबइओ, तेसिं आयरियाण सगासे भायावि सिणे-4 हाणुरागेण पवइतो, ते साहू जाया, ईरियासमिया०, अणिस्सियं तवं करेंति, ताहे सो तत्थ नियाणं करेइ-जइ अस्थि इमस्स तबस्स नियमस्स संजमस्स य फलं तो आगमिस्से य काले जाणमणनयणाणंदो भवामि, घोरं च तवं करेचा देवलोग। गओ, ततो चुतो वसुदेवपुत्तो वासुदेवो जातो, इयरो बलदेवो, एवं गंगदोण बसणेण सामाइयं लद्धं ८॥ HI ऊसवे जहा एगंमि पञ्चंतियग्गामे आभीराणि, ताणि साहूण पासे धम्मं सुगंति, ताहे देवलोग भणंति, एवं तेर्सि अस्थि धम्मे युद्धी, अग्नया कयाइ इंदमहे वा अन्नमि वा ऊसवे नगरं गयाणि, जारिसा वारवती, तत्थ लोग पेच्छंति मंडियप-11 RECORRECANSACAR दीप अनुक्रम wimesbrine ~57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४७], विभा गाथा [-], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक का दीप अनुक्रम श्रीआय- साहियं सुगंधिविचित्तनेवत्थं, ताणि तं दहण भणंति-एस देवलोगो जो से तया साहहिं वन्नितो, एत्ताहे जइ वच्चामो तोव्यसनोत्सश्यकमल- सुंदरतरं करेमो जेण अम्हे वि देवलोगे उबवज्जामो, ताहे ताणि गंतूण साहूण साहेति-जो तुदभेहिं अम्हं कहितो देवलोगो वर्धिषु गंग सो पचक्खो अम्हे हिं दिट्ठो, साह भणति-न तारिसो देवलोगो, अतो अण्णारिसो अणंतगुणो, ततो ताणि अमहियजाय- दत्ताभीरउपोद्घाते|हाविम्हयाणि पबइयाणि, एवं उसपेण सामाझ्यलभो ९॥ दादशार्णाः ॥४६८॥ 'इहित्ति, दसन्नपुरे नगरे दसन्नभद्दो राया, तस्स पंच देवीसयाण अंतेउरं, एवं सो स्वेण जोषणेण बलेण वाहणेण ॥ ४ाय पडिबद्धो, एरिसं नस्थि अण्णस्सत्ति चिंतेड, दसन्नकडे पचए सामी समोसरितो, ताहे सो चिंतेइ-तहा कहं बंदामि | | जहा ने अनेण बंदियपुषो, तं च अभत्थियं सको नाऊण चिंतेइ-वरागो अप्पाणं न याणइ, ततो राया महया समुदएण निग्गतो, वंदितो सबिड्डीए, सक्को य देवराया एरावणं विलग्गो, तस्स अट्ठ मुहे विउबइ, मुहे मुहे अट्ठ अट्ठ दंते, दंते दंते अट्ठ अट्ठ पुक्खरिणीतो, एक्केक्काए पुक्खरिणीए अट्ठ अट्ट पउमे, पउमे पउमे अट्ठ अट्ठ पत्ते विउबइ, एकेकमि पत्ते अट्ट अट्ठ बत्तीसइपत्तवद्धाणि दिवाणि नाडगाणि विउबइ, एवं सो सबिड्डीए उवगिजमाणो आगतो, ततो एरावणं बिलग्गो चेव तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, ताहे सो हत्थी अग्गपाएहिं भूमीए ठितो, ताहे तस्स हत्थिस्स दसन्नकूडे पबए देवयाए पभावेण पायाणि उट्ठियाणि, ततो से नामं खाय-गयग्गपदगोत्ति, ताहे सो दसन्नभद्दो चिंतेइ-एरिसा कतो अम्हाणं इड्डी, ॥४६८॥ अहो कपडतो अणेण धम्मो, अहमपि करेमि, ताहे सो सवं छड्डेऊण पवइतो, एवं इड्डीए सामाइयं लहइ १०॥ इयाणि सकारेण, एगो धिज्जाइतो तहारूवाणं घेराणं अंतिए धम्म सोच्चा पबतिओ समहिलिओ, उग्गं पवजं करेंति, ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] आ. सू. ७९ Jan Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [८४७], वि०भा०गाथा [-] भाष्यं [ १५०...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः नवरमवरोप्परं पीती न ओसरइ, महिला मणागं धिजाइणीति गवमुबह, मरिऊण देवलोगं गयाणि, जहाउयं भुक्तं ॥ इ तो य इलावद्धे गरे इलादेवया, तं एगा सत्यवाही पुत्तकामा ओलग्गह, सो चऊण पुत्तो से जातो, नामं च से कयं इलापुतोति, इयरीवि गधदोसेण ततो चुया लंखगकुले उप्पन्ना, दोवि जोधणं पत्ताणि, अन्नया सा तेण लंखगचेडी दिडा, पुवभवरागेण अज्झोववण्णो, सा मग्गिजंतीवि न लग्भइ, जत्तिएण तुठति तत्तिएणवि सुवण्णेण, ताणि भणति - एसा अम्हाणमकूखयनिही, जइ सिप्पं सिक्खेइ अम्हेहि य समं हिंडइ तो देमो, सो तेहिं समं पहिंडितो सिक्खिओ य, ताहे विवा हनिमित्तं रण्णो पेच्छणयं करेहत्ति भणितो, वेण्णातडं गयाणि, तत्थ राया सअंतेउरो पेच्छइ, इढापुत्तो य खेड्डातो करेइ, राया अहे दिट्ठी दारियाए, रायाणए य अदंते अण्णेऽवि न देति, साहुसकाररवो वहति, भणिओ राइणा-लेख ! पडणं करेह, तं च किर एवं वंससिहरेक कएलयं अच्छति, तत्थ य दो कीलगा, सो पाउगातो आविधति, तातो य पाडयातो मूले विंधियातो, ततो सपाउगो असिखेडगहत्थगतो आगासं उप्पइत्ता बंससिहरे कट्टे आरहिऊण सत्त करणाई अग्गिमे अड्डे काऊण पाडयातलियाए खीलगो पवेसियो, ततो सत्त करणारं पच्छिमद्धे दाऊण तत्थवि खीलगो पाउयानालियाए बेत्तवो, जइ फिडिइ तो फिडितो संतो पडितो सतधा खंडिज्जइ, तेण तं कथं, रायावि दारिथं पढोपर, लोगेण कलयलो कतो, न य देइ, राया न देइत्तिकाउं, चिंतेइ - जइ एस मरइ तो अहं एवं दारियं परिणेमि, भणड़-न दिई, पुणो करेह, तत्थवि न दिट्टं, तइयंपि वारं कथं, चउत्थियाए वाराए भणितो- पुणो करेह, रंगो विरतो, ताहे सो इलापुत्तो वसग्गे ठितो चिंतेइ घिरत्थु भोगाणं, एस राया एसियाहिं महिलाहिं न तितो, एयाए रंगोवजीबियाए दग्गिडं मग्गइ, Por Private & Personal Use Only ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८४८-८४९], विभा गाथा [२७६२], भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत दयः सत्राक ॥४६९॥ श्रीआव- एयाए कारणेण ममं मारिउमिच्छइ, सो य उन्भद्वितो, एगस्थ सिट्ठिघरे साहुणो पडिलामिज्जमाणे पासह, सबालंकार- सम्यक्त्वाश्यकमल- विभूसियाहिं इत्थीहिं, साहू य पसंतचित्तेण पलोएमाणो पेच्छइ, ताहे चिंतेइ-अहो धन्ना निःस्पृहा विषयेषु, अहं सेहि- दिलाभे अया वृत्तौ सुतो सयणवग्गं परिचइत्ता आगतो, एथवि मे एसा अवस्था, तत्थेव विरागं गयस्स केवलनाणमुप्पण्णं, ताएवि चेडीएभ्युत्थानाउपोद्घाते विरागे विभासा, अग्गमहिसीएऽवि, रपणोऽवि पुणरावती बेरग्गपरिणामो, एवं ते चत्तारि केवली जाया सिद्धा य ॥ एवंदा सक्कारेणवि सामाइयं लभइ ॥ अहवा इमेहि कारणेहिं लंभो अन्भुट्ठाणे विणए परकमे साहुसेवणाए य । सम्मइंसणलंभो विरयाविरई' विरईए ॥ ८४८॥ अभ्युत्थाने सति सम्यग्दर्शनलाभो भवतीति क्रिया, विनीतोऽयमिति साधूनां धर्मकथनप्रवृत्तः, तथा विणये अंजलिप्रगहादिरूपे, तथा पराक्रमे कषायजयं प्रति क्रियमाणे, साधुसेवनायां च क्रियमाणायां कथंचित्तक्रियोपलब्ध्यादेः, सम्यग्द-* र्शनलाभो भवतीति क्रियाशेषः, तथा विरताविरते-देशविरते, विरते:-सर्वविरतेलाभः, कथमिति द्वारं गतम् । तच्चेत्थं लभ्यं सत् कियन्तं कालं जघन्यत उत्कर्षतश्च भवतीति प्रतिपादयन्नाहसम्मत्तस्स सुअस्स य छावट्ठी सागरोवमाई ठिई। सेसाण पुषकोडी देसणा होड उकोसा ॥ ८४९॥ * ॥४६९॥ ICI सम्यक्त्वस्य श्रुतस्य च-श्रुतज्ञानस्य च लब्धिमङ्गीकृत्य स्थितिः पट्पष्टिः सागरोपमाणि, कथमिति चेत्, उच्यते--1 दो वारे विजयाइसु गयस्स तिन्नऽच्चए अहव ताई। अइरेगं नरभविअं नाणाजीवाण सबद्धा ॥१॥ (वि. २७६२) नरजजम्मपुषकोडीपुहुत्तमुकोसतो अहियं ।। शेषयोः देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोरुत्कृष्टा स्थितिर्देशोना पूर्वकोटी, सप्तमासा दीप अनुक्रम ... सम्यक्त्व-श्रुतादि प्राप्ति अनन्तर जीवस्य संसारे स्थिति: वर्णयते ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८५०], वि भागाथा H, भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ४१ दाधिकवर्षाष्टकोना पूर्वकोटीतियावत , जघन्यतस्त्वाद्यसामायिकत्रयस्य स्थितिरन्तमुहर्स, सर्वविरतिसामायिकस्य एकः समयः, चारित्रपरिणामारम्भसमयानन्तरमेव कस्याप्यायुष्कक्षयसम्भवात् , देशविरतिप्रतिपत्तिपरिणामस्त्वान्तमौहर्तिक एव, द्विविधत्रिविधादिभङ्गबहुलप्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपत्वात् , ( सर्वविरतिश्रवणपूर्वकं आसक्त्यशक्तिमानेन ग्रहणपरिणामात् ग्रह-11 णाच तस्याः) सर्वजीवापेक्षया तु सर्वाणि सर्वदा ॥ द्वारम् ।। सम्प्रति कतीति द्वारं, कति-कियन्तो नाम वर्तमानसमये 8 Vा सम्यक्त्वादिसामायिकानां प्रतिपत्तारः प्राक् प्रतिपन्नाः प्रतिपतिता वा?, तत्र प्रतिपद्यमानकेभ्यः प्राकप्रतिपन्नाः प्रति पतिताश्च सम्भवन्तीति तानेव प्रतिपादयन्नाह| सम्मत्तदेसविरआ पलिअस्स असंखभागमित्ताओ। सेढीअसंखभागो सुए सहस्सग्गसो विरई ॥ ८५०॥ सम्यक्त्वदेशविरताःप्राणिनः सम्यक्त्वं देशविरतिं च प्रतिपद्यमानाः प्राणिनः पल्यस्य क्षेत्रपल्योपमस्य असंख्यभाग-18 मात्राः, इयं भावना-क्षेत्रपल्योपमस्य असङ्ख्येये भागे यावन्तः प्रदेशास्तावन्त एकस्मिन् विवक्षिते समये उत्कर्षतः सम्य-12 दक्त्वसामायिकं देशविरतिसामायिकं च प्रतिपद्यमानाः प्रत्येकं लभ्यन्ते, किन्तु देशविरतिसामायिकपतिपत्नुभ्यः सम्यक्त्व-IR प्रतिपत्तारोऽसङ्ख्येयगुणाः प्रतिपत्तव्याः, जघन्यतस्तूभयेऽपि एको द्वी वेति, 'सेडीअसखभागो सुए' इति इह संवर्त्ति४ातचतुरस्त्रीकृतस्य लोकस्य सप्तरज्जुप्रमाणा एकैकप्रदेशा पतिः श्रेणिः, तस्या असख्येयभागः श्रुते-सामान्यश्रुतेऽक्षरा-12 त्मके प्रतिपत्तारो, लभ्यन्त इति शेपः, किमुक्तं भवति ?-यथोक्तरूपायाः श्रेणेः खल्बसण्येयतमे भागे यावन्तो नभःप्रदेशास्तावन्त एकस्मिन् विवक्षिते समये उत्कर्षतः सामान्यश्रुतेऽक्षरात्मके सम्यक्त्वमिथ्यात्वानुगते प्रतिपद्यमाना भवन्तीति, दीप अनुक्रम ~61 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८५१-८५२], विभा गाथा [२११५,२०७२], भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक दीप अनुक्रम श्रीआव- जघन्यतस्त्वेको द्वौ वा, 'सहस्सग्गसो विरती' इति सहस्रशो विरतिमधिकृत्य उत्कर्षतः प्रतिपत्तारो, ज्ञेया इत्यध्याहारः, सम्यक्त्वाश्यकमल- जघन्यतस्त्वेको द्वौ घेति ॥ सम्प्रति प्राकप्रतिपन्नान् प्रतिपतितांश्च प्रतिपादयवाह दिप्रतिपद्ययवृत्ती BI सम्मत्तदेसविरया पडिवना संपई असंखिज्जा । संखिजा य चरित्ते तीसुवि पडिआ अणंतगुणा ॥८५१॥ मानादयः उपोद्घाते 'सम्यक्त्वदेशविरताः' सम्यग्दृष्टयो देशविरताश्च 'प्रतिपन्नाः' प्राक्प्रतिपन्नाः 'सम्प्रति' विवक्षिते वर्तमानसमये उत्क॥४७॥ सातो जघन्यतश्चासङ्ख्येयाः, प्राप्यन्ते इति शेषः, किन्तु जघन्यपदादुत्कृष्टपदे विशेषाधिकाः, एते च प्रत्येकं प्रतिपद्यमान-1 || केभ्योऽसख्येयगुणाः, 'संखेज्जा य चरित्ते' इति चरित्रे प्राक्प्रतिपन्नाः सङ्ख्येयाः, एतेऽपि स्वस्थाने प्रतिपद्यमानकेभ्यः18 |संख्येयगुणाः, उक्तंच-"सट्ठाणे सट्ठाणे पुधपवना पवज्जमाणेहिं । होति असंखेजगुणा संखेजगुणा चरित्तस्स ॥१॥” (वि. २११५) तीसुवि पडिया अणंतगुणा' इति पूर्वप्रतिपन्नेभ्यश्च चरणप्रतिपतिता अनन्तगुणाः, तेभ्यो देशविरतिप्रतिपतिता|21 असख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि सम्यक्त्वप्रतिपतिता असख्येयगुणाः, त्रिभ्योऽपि-चरणदेशसम्यक्त्वेभ्यः एतानेव चर-18 दाणादिगुणान् प्राप्य ये प्रतिपतिताः ते अनन्तगुणाः तत्र सम्यग्दृष्ट्यादिभ्यः प्रतिपद्यमान केभ्यः, आह च भाष्यकृत् "चरणपडिया अणंता तदसंखगुणा य देसविरईतो । संमादसंखगुणिया ततो सुयातो अणंतगुणा ॥१॥” (दि. २७७२) तदेवमत्र श्रुतवर्जसामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपतिताश्चोक्काः, अथ श्रुतस्य तानाह ४७०॥ | सुअपडिवन्ना संपइ पयरस्स असंखभागमित्ताओ। सेसा संसारत्था सुअपरिवडिआ हु ते सवे ।। ८५२॥ सम्यग्मिथ्यारूपस्य सामान्येनाक्षरात्मकस्य श्रुतस्य ये पूर्वप्रतिपन्नास्ते सम्पति-वर्तमानसमये प्रतरस्यासङ्ख्येयभाग SMEnication M astramyam ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८५३], विभा गाथा [२७६८], भाष्यं [१५०...], मूलं गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक COR पू मात्राः प्राप्यन्ते, किमुक्तं भवति ?-सप्तरजप्रमाणा श्रेणिःश्रेण्या गुणिता प्रतरं, तस्य प्रतरस्यासङ्ख्येयतमे भागे याः श्रेण योऽसङ्ख्येयास्तासु यावन्तो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाणा विवक्षितसमये श्रुतप्रतिपन्ना इति, उक्तंच-“सा सेढी सेढिगुणार पयरं तदसंखभाग सेढीणं । संखाईयाण पएसरासिमाणासु य पवन्ना ॥१॥” (वि.२७६८) श्रुतप्रतिपन्नप्रतिपद्यमान केभ्यस्तु ये शेषाः संसारस्था जीवाः, भाषालब्धिरहिता पृथिव्यादय इत्यर्थः, ते सर्वेऽपि व्यावहारिकराश्यनुगता भाषालब्धि प्राप्य प्रतिपतितत्वात् श्रुतप्रतिपतिता मन्तव्याः, ते च सम्यक्त्वप्रतिपतितेभ्योऽनन्तगुणाः॥ गतं कतिदारम्, अधुना सान्तरद्वारं वक्तव्यम् , सकृदवाप्तमपगतं पुनः सम्यक्त्त्वादि कियता कालेनावाप्यते ?, तत्र श्रुतस्याविशिष्टस्याक्षरात्मकस्यान्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहतम् , उत्कर्षतःपाह कालमणंतं च सुए अद्धापरिअओ य देसूणो। आसायणबहुलाणं उक्कोसं अंतरं होई ॥ ८५३ ॥ श्रुते-श्रुतस्य सामान्यतोऽक्षरात्मकस्य उत्कृष्टमन्तरं भवति कालोऽनन्त एच, चशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , उभयत्राप्यनुस्वारोऽलाक्षणिका, स चानन्तः कालोऽसख्यातपुद्गलपरावर्तमानः प्रतिपत्तव्यः, तथाहि-यदा कश्चित् द्वीन्द्रियादिः श्रुतलब्धिमान् मृत्वा पृथिव्यादिषूत्पद्य तत्रान्तर्मुहर्त स्थित्वा झटिति पुनरपि द्वीन्द्रियादिष्यागच्छति तदा स भूयोऽपि श्रुतलब्धिमान् भवतीति तस्यान्तरं जघन्यमन्तमहर्तप्रमाणं, यदा तु द्वीन्द्रियादिः कश्चिन्मृतो वनस्पतिषूत्कृष्टं कालं पर्य-15 टिति तस्योत्कृष्टमन्तरं, वनस्पतिकालश्चासख्येयपुद्गलपरावर्तमान इति, सम्यक्त्वादिसामायिकेषु त्रिषु जघन्यतोऽन्तमु-6 हत, सम्यक्त्वादिभ्यश्श्युतस्य पुनरप्यन्तर्मुहर्तेन सम्यक्त्वादिप्रतिपत्तिभावात् , उत्कृष्टं स्वाह-'अद्धापरियद्दओ य देसूणो' दीप अनुक्रम SMEnication ~63~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८५४-८५५], विभागाथा , भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत यवृत्ती सत्राक श्रीव- अर्द्ध:-अपार्द्धः पुद्गलपरावती देशोनः उत्कृष्टमन्तरं सम्यक्त्वादिसामायिकानां त्रयाणां भवति, केषामित्याह-आशात-सिम्यक्त्वाश्यकमल-1 नाबहुलाना, उक्तं च-"तित्थयर पवयण सुयं आयरियं गणहरं महिद्धीयं । आसायंतो बहसो अर्णतसंसारिओ होइ ॥१॥"INदिषु अवि पुद्गलपरावर्तस्वरूपं पंचसाहटीकातो वेदितव्यं, तत्र सविस्तरमभिधानात् ॥ गतमन्तरद्वारम्, अभिधातव्यं कियन्तं कालमउपोदयात विरहेण एको यादयो वा सामायिकं प्रतिपद्यन्ते इति ?, तबाह सम्ममुअमगारीणं आवलिअअसंखभागमित्ताओ। अह समया चरित्ते सवेसिं जहन्न दो समया ॥८५४॥ ॥४७१॥ ९ सम्यक्त्वश्रुतागारिणां-सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिसामायिकानां नैरन्तर्येण एकैकस्मिन् धादिषु वा प्रतिपद्यमानेषु आव लिकाया असख्येयभागमात्राः समयाः प्रतिपत्तिकालः, किमुक्तं भवति ?-सर्वस्मिन्नपि लोके सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिकदेशविरतिसामायिकानामुत्कर्षत आवलिकाया असख्येयभागवर्तिनः समयान् यावदविरहितमेकैको ब्यादयो वा प्रतिपत्तारःप्राप्यन्ते, ततः परं त्रयाणामपि प्रतिपत्तेरुपरमादवश्यं विरहकालो भवति, तथा चारित्रे निरन्तरं प्रतिपत्तिका-18 लोऽष्टी समयाः, ततः परमवश्यं विरहा, जघन्यतस्तु सर्वेष्वपि सामायिकेष्वविरहेण प्रतिपत्तिकालो द्वौ समयौ । इह विर हकालो द्वारगाथायामनुद्दिष्टोऽपि अविरहकालस्य प्रतिपक्षभूतत्वात् सूचितो द्रष्टव्यः, ततः सम्प्रति सम्यक्त्वादिप्रतिपत्तिदूविरहकालमानमाह सुअसम्म सत्तगं खलु विरयाविरईइ होइ यारसगं । विरईइ पन्नरसगं विरहिअकालो अहोरसो ॥ ८५५ ॥ सम्यक्त्वश्रुतयोः सर्वस्मिन्नपि लोके प्रतिपत्तिविरहकाल उत्कर्षतः 'सत्तग'मिति अहोरात्राणां सप्तकमेव, खलुशब्दोऽव 964-6564560564545625 दीप अनुक्रम R ॥४७१॥ 4-56 ~64~ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [८५६-८५७ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५०] मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः धारणार्थः, ततः परमवश्यं क्वचित्प्रतिपद्यते, जघन्यतस्त्वेकः समयः, विरताविरते:- देशविरतेरुत्कृष्टः प्रतिपत्तिविरहकालो द्वादशकम् - अहोरात्राणि द्वादश, जघन्यतस्तु त्रयः समयाः, उक्तं च चूण- "विरताविरतीए जहनेणं तइओ समओ, उक्कोसेणं वारस अहोरत्ता" इति 'विरतेः' सर्वविरतेरुत्कर्षतः प्रतिपत्तिविरहकालः पञ्चदशकमहोरात्राणां जघन्यतस्तु समय त्रयं ॥ द्वारम् ॥ साम्प्रतं भवद्वारं वक्तव्यम्, तत्र कियतो भवानेको जीवः किं सामायिकं लभते इति प्रतिपादयन्नाह - सम्मत्तदेसविरया पलिअस्स असंखभागमित्ताओ । अट्ट भवा उ चरिते अनंतकालं च सुअसमए ॥ ८५६ ॥ सम्यक्त्ववन्तो देशविरतिमन्तश्च स्वं स्वं सामायिकं पल्योपमासङ्ख्येयभागमात्रान् भवान् यावत् लभन्ते इयमत्र भावना- सम्यक्त्व सामायिकं देशविरतिसामायिकं च प्रत्येकं जघन्यत एकं भवम् उत्कर्षतः क्षेत्रपल्योपमस्या सख्येयतमे भागे यावन्तो नभः प्रदेशास्तावतो भवान् यावदेको जीवः प्रतिपद्यते, नवरं सम्यक्त्वभवासङ्ख्येयकादेशविरतिभवासदूख्येयकं लघुतरं द्रष्टव्यमिति, चारित्रे विचार्ये उत्कर्षतो भवा-आदानभवा अष्टौ ततो नियमतः सिद्ध्यति, जघन्यतरत्वेको भवः, 'अनंतकालं च सुयसमए' इति अनन्तकालम् - अनन्तभवरूपं यावत् श्रुतसमये - सामान्यश्रुतसामायिके प्रतिपन्ना भवंति उत्कर्षतो जघन्यतस्त्वेकं भयं यथा मरुदेवीति । गतं भवद्वारम् अधुना आकर्षद्वारमाह तिन्ह सहसपुत्तं सयप्पुहुत्तं च होइ बिरईए । एगभवे आगरिसा एवइआ हुंति नायवा ।। ८५७ ॥ आकर्षणमाकर्षः, प्रथमतया मुक्तस्य वा ग्रहणमित्यर्थः, ते च द्विधा-एकभविका नानाभविकाश्च तत्र प्रथमत एकभविका उच्यन्ते- 'त्रयाणां सम्यक्त्वश्रुतदेशविर तिसामायिकानामेकभवे सहस्रपृथक्त्वमाकर्षाणामुत्कर्षतो भवति, विरते: ... सम्यक्त्व आदि प्राप्तेः अनन्तर भव-संख्या गणना Por Private & Personal Use Only ~65~ wbrary.org Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८५८-८५९], विभा गाथा , भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम श्रीआव- सर्वविरतेस्त्वेकभवे शतपृथक्त्वमाकर्षाणामुत्कर्षतः, पृथक्त्यमिति द्विप्रभृतेरानवभ्यः, एवमेते उत्कर्पत एकभविका आकर्पा सम्यक्त्तवाश्यकमल- भवन्ति ज्ञातव्याः, जघन्यतस्तु चतुर्णामप्येक एवैकस्मिन् भवे, उकं च चूर्णी-"सुयसामाइयं एगभवे जहन्नेणं एकसि दिषु भवाय० वृत्ती आगरिसेइ, उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्तं वारा, एवं संमत्तस्सऽवि देसविरतीए य, सबविरतिं पुण जहन्नेण एकसिं उक्कोसेणं सयपु- कर्षों उपोद्घाते दत्तं वारा" इति । सम्प्रति (तान् ) नानाभवगतान् प्रतिपादयति॥४७२॥ तिण्ह सहस्तमसंखा सहसपुरत्तं च होइ विरईए । नाणभवे आगरिसा एवइआ हुंति नायवा ।। ८५८ ॥ त्रयाणां-सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिसामाचिकानां नानाभवेष्वाकर्षाणामुत्कर्षतो भवन्त्यसइख्येयानि सहस्राणि, यतस्त्र-15 याणामप्येकस्मिन् भवे सहस्रपृथक्त्यमाकोणामुक्त, भवाश्च क्षेत्रपल्योपमासङ्ख्येयभागगतनभःप्रदेशतुल्याः, 'संमत्तदेसविरया पलियस्सासंखभागमेत्ताओ' इति वचनात् , ततः सहस्रपृथक्त्वं तैर्गुणितं असइख्येयानि सहस्राणि भवन्ति, सहस्रपृथक्त्वं नानाभवेष्वाकर्षाणामुत्कर्षतो भवति विरतेः-सर्वविरते, तस्या हि खल्वेकभवे शतपृथक्त्वमाकर्षाणामुक्त, भवाचाष्टी, ततः शतपृथक्त्वमष्टभिर्गुणितं सहस्रपृथक्त्वं भवति, एतावन्तो नानाभवेष्वाकर्षा भवन्ति ज्ञातव्याः, अन्ये पठन्तिदोण्ह सहस्समसंखा' इति, तत्रापि श्रुतसामायिकं सम्यक्त्वसामायिकनान्तरीयकत्वादनुक्तमपि प्रतिपत्तव्यं, सामान्यश्रुत | स्थ त्वक्षरात्मकस्य नानाभवेष्वाकषों अनन्तगुणाः । गतमाकर्षद्वारं, सम्प्रति स्पर्शद्वारमाहII सम्मत्तचरणसहिआ सर्व लोगं फुसे निरवसेसं । सत्त य च उदसभागे पंच य सुअदेसविरईए ॥ ८५९॥ 'सम्यक्त्वदरणसहिताः' सम्यक्त्वचरणयुक्ताः प्राणिन उत्कर्षतः सर्व लोकं स्पृशंति, किं तर्हि व्याप्तिमात्रेण ?, नेत्याह ॥४७२। Manisminssansar KASACRACK 466~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८५८-८५९], विभा गाथा , भाष्यं [१५०...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक H निरवशेष-प्रतिप्रदेशव्याप्त्या, समस्तमप्यसङ्ख्यातप्रदेशात्मकं, एते च केवलिसमुद्घातावस्थायां केवलिनः प्रत्येतच्याः, जघन्यतस्त्वसम्ख्येयभाग स्पृशन्तीति स्वयमेव द्रष्टव्यम्, एकजीवत्य लोकासख्येवभागेऽवस्थानात् , तथा 'सत्त याट मोदसे' त्यादि श्रुतसामायिकसहिताः सप्त चतुर्दशभागान् स्पृशन्ति, देशविर त्या सहिताः पञ्च चतुदेशभागान् , इयमन्त्र भावना-इह लोकश्चतुर्दशभागः क्रियते, तद्यथा-सप्त भागा अधः सप्त भागा उपरि, तत्र रक्षप्रभाया उपरितलादारभ्य यावत् तातस्या अधोऽवकाशान्तरमेतावत्प्रमाणः प्रथमो भागः, ततः शकरामभाया उपरितलादारभ्य यावदधस्तस्या अवकाशान्त रमेतावान् द्वितीयो भागः, एवं शेपास्वपि पृथिवीषु भावनीयम् , एपोऽधः सप्तभागानां विधिः, उपरितनसप्तभागानामयं । विधि:-रजप्रभाया उपरितलादारभ्य यावत् सौधर्मः कल्पः एष प्रथमो भागः, सौधर्मकल्पस्योपरितलात् परतो यावन्महे-18 INन्द्रकल्प एष द्वितीयः, माहेन्द्रकल्पविमानानामुपरि यावत् ब्रह्मलोकलान्तकपर्यन्तस्तावान् तृतीयः, ततः परो महाशुक्र सहस्रारपर्यन्तश्चतुर्थः, ततः परं थावदच्युतकल्पः एष पञ्चमः, ततः परो प्रैबेयकपर्यन्तः पठः, ततो लोकान्तः सप्तमः, उक्तं च चूर्णी-“लोगो चउद्दसभागे कीरइ, हेट्ठा उवरिपि सत्त सत्त चेव, कहं ?, रयणप्पभातो आरम्भ जाव से उवासंतरं एयं सचं पढमो भागो, एवं सेसासुवि पुढवीसु, पते अहे सत्त भागा, उवरिं इमो भागविही-रयणप्पभाए उवरिमतलातो आरद्धं 15जाव सोहम्मो कप्पो एस पढमो भागो, सोहम्मगाणं विमाणाणं उवरिं आरजं जाव सर्णकुमारमाहिंदा एस बिइतो, एवं ततिओ ताजाय वंभलोगलंतगा, चउत्थो जाव महासुकसहस्सारा, पंचमो आणयाई चउरो कप्पा, छट्ठा गेवेज्जा, सेसा जाब लोगतो सत्तमो"त्ति, तत्र सम्यक्त्वचरणसहितः प्रकृष्टतपस्वी श्रुतज्ञानोपेतो यदाऽनुत्तरसुरेबिलिकागत्या समुत्पद्यते तदा लोकस्य easinamainamunaxeximansamaste CIRCESSPACK AGEMERA दीप अनुक्रम ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८६०], विभा गाथा H], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक श्रीआव-1 सप्त चतुर्दशभागान् स्पृशति, 'सत्त ये त्यत्र चशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वादधः पञ्च चतुर्दशभागान् श्रुतज्ञानी स्पृशतीति क्षेत्रस्पर्शश्यकमल- प्रतिपत्तव्यं, तथाहि-सम्यग्दृष्टिः श्रुतज्ञानी पूर्व नरकेषु बतायुष्कः षष्ठपृथिव्यां तमःप्रभायामिलिकागत्या समुत्पद्यमानःना भागय० वृत्तौ पञ्च चतुर्दशभागान् लोकस्य स्पृशतीति, देशविरतस्त्वच्युतदेवलोके समुत्पद्यमानः पञ्च लोकस्य चतुर्दशभागान् स्पृशतीति स्पर्शना च उपोद्घाते प्रतिपत्तव्यम् , अधस्तु देशविरतो 'घण्टलाला' न्यायेनापि परिणाममपरित्यजन्नोत्पद्यते, ततोऽधोभागेषु न चिन्तितः, आह ॥४७३॥ च चूर्णिकृत्-"देसविरतो हेद्वान उबवज्जइ तेण पंच, उवरिं अचुयं जायत्ति भणिय" मिति ॥ तदेवं क्षेत्रमधिकृत्य स्पर्शना प्रोक्ता, अथ भागस्पर्शना वक्तव्या, किं सामायिकं श्रुतादि कियद्भिर्जीवैः स्पष्टं, प्राप्तपूर्वमिति भावः, इत्येतदुपदर्शयन्नाह सबजीवहिं सुअं सम्मचरित्ताई सबसिद्धेहिं । भागेहिं असंखिजेहिं फासिया देसविरईओ ॥ ८६०॥ सर्वजीवैः सांव्यवहारिकराश्यन्तर्गतः श्रुतं-सामान्येनाक्षरात्मकं श्रुतं स्पृष्टं, द्वीन्द्रियादिभावस्य तैः सर्वैरप्यनन्तशः स्पृष्टत्वात् , तत्र च सामान्य श्रुतसद्भावात् , सम्यक्त्वचारित्रे सर्वसिद्धैः स्पृष्टे, तदनुभवमन्तरेण सिद्धत्वायोगात्, भागैर-1 सख्येयैः स्पृष्टा देशविरतिः, इयमत्र भावना-सर्वसिद्धानामसख्येया भागा बुद्ध्या क्रियते, तत्रैकमसङ्ख्येयं भागं मुक्त्वा है शेषैः सर्वैरप्यसहख्येयैर्भागैर्देशविरतिः स्पृष्टा, एकेन त्वसङ्ख्येयेन भागेन न स्पृष्टा, यथा मरुदेव्या भगवत्या, उक्तं च, चूर्णी-असंखेजेहिं भागेहिं देसविरतिं कार्ड पच्छा चारित्तं पडिवजित्ता सिद्धी पत्ता, जे पुण सुद्धाई चेव सम्मत्तचरित्ताई हाफासेऊण मोक्खं गया ते देसविरतिसिद्धाणमसंखेजहभागो" इति ॥ गतं स्पर्शनाद्वारम्, इदानीं निरुक्तिद्वारम्.151 दीप अनुक्रम XPRESS RECENT ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं आवश्यक'- मूलसूत्र-१ +वृत्ति:) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८६१-८६३], विभा गाथा H, भाष्यं [१५०...], मूलं [- /गाथा-]मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक -54 दीप अनुक्रम तत्र चतर्विधस्यापि सामायिकस्य क्रियाकारकभेदपर्यायैः शब्दार्थकधनरूपं निर्वचनं निरुक्तिः, तत्र सम्यक्त्वसामायिक-1 निरुक्तिमभिधित्सुराह___ सम्मण्डिी अमोहो सोही सम्भावदसणं योही । अविबजओ सुदिहित्ति एबमाई निरुत्ताई ॥ ८६१॥ । सम्यगिति प्रशंसायां, सम्यक्-प्रशस्ता मोक्षाविरोधित्वात् दृष्टिः-दर्शनम्, अर्थानां जीवादीनामिति गम्यते, सम्यग-18 दृष्टिः १ तथा मोहनं मोहो-वितथग्रहः न मोहोऽमोहः अवितथग्रहः २ शोधनं शुद्धिः मिथ्यात्वमलापगमात, तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं ३ तथा सत्-जिनाभिहितं प्रवचनं तस्य भावो-यथावस्थितं स्वरूपं सद्भावस्तस्य दर्शनम्-उपलभः सद्भावदर्शनं ४ बोधनं योधिः-परमार्थावगमः ५ अतथा अतस्मिन् तदध्यवसायो विपर्ययः, न विपर्ययः अविपर्ययः, तत्त्वाध्यवसाय इति भावः६ तथा सुशब्दः प्रशंसायां, शोभना दृष्टिः सुदृष्टिः, एवमादीनि सम्यग्दर्शनस्य निरुक्तानि-क्रिया कारकभेदैः पर्यायाः॥ सम्प्रति श्रुतसामायिकनिरुक्तिप्रदर्शनार्थमाह★ अक्खर सन्नी सम्म साइयं खलु सपजवसि च । गमियं अंगपविट सत्तवि एए सपडिवक्खा ॥ ८६२॥ प्रयं च पीठिकायामेव व्याख्यातेति भूयो न व्याख्यायते ॥ देशपिरतिसामायिकनिरुक्तिप्रतिपादनायाह विरयाविरई संवुडमसंवुडे बालपंडिए चेव । देसिवादेसविरई अणुधम्मोऽगारधम्मो अ॥ ८६३ ॥ है विरमणं विरतं, भावे क्तप्रत्ययः, न विरतिः अविरतिः, विरतेन युक्ता अविरतिविरताविरतिः, तथा संवृताः स्थगिताः, कापरित्यक्ता इत्यर्थः, असंवृता-अपरित्याकाः, संघृताच असंवृताश्च संवतासंवृताः सावधयोगा यस्मिन् सामायिके तत् संव 064-5-456 ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८६४], वि भागाथा H, भाष्यं [१५०...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप श्रीआव-दातासंवृतम्, अनोत्तरपदलोपो यथा भीमसेनो भीम इत्यत्र, तथा बालव्यवहारयोगात् बालं पण्डितव्यवहारयोगात् पण्डितं, कारागापण्डतसम्यक्त्वाश्यकमल वालं च तत् पण्डितं च बालपण्डितं, तथा देशः-स्थूलप्राणातिपातादिः एकदेशो वृक्षरछेदनादिस्तयोविरतिः-विरमणं यस्यां दिनिशक्तिः य० वृत्तानिवृत्तौ सा देशैकदेशविरतिः, तथा गरीयान् साधुधर्मः, सकलपापनिवृत्यात्मकत्वात्, तदपेक्षयाऽणु:-अल्पो धर्मों देश-15 उपोद्घाते विरतिलक्षणः अणुधर्माः, तथा न गच्छन्तीत्यगा-वृक्षास्तैः कृतमा समन्तात् राजते इत्यागारं-गृहं तत्र स्थितानां धर्मोन ॥४७४॥ गारधर्मः, मयूरव्यंसकादित्वात् मध्यमपदलोपी समासः ॥ सम्प्रति सर्वविरतिसामायिकनिरुक्तिप्रदर्शनार्थमाह सामाइ समइ सम्मावाओ समास संखेवो । अणयजं च परिन्ना पचक्रवाणे असे अ॥ ८३४॥ समो-रागद्वेषयोरपान्तरालवी मध्यस्थः, इण गती, अयनं अयो, गमनमित्यर्थः, समस्य अयः समायः-समीभूतस्य सतो मोक्षाध्वनि प्रवृत्तिः, समाय एव सामायिकं, विनयादेराकृतिगणत्यात् 'विनयादिभ्य' इति स्वार्थिक इकण प्रत्ययः, एकान्तोपशान्तगमनमिति भावः १, 'समयिक'मिति सम्यकशब्दार्थे समित्युपसर्गः, सम्यक् अयः समयः-सम्यग्दयापूर्वक जीवेषु प्रवर्तनं, समयोऽस्यास्तीति 'अतोऽनेकस्वरा'दिति मत्यर्थीय इकप्रत्ययः२, तथा सम्यग्-रागद्वेषपरिहारेण वदनं ४ वादः सम्यग्वादः, रागादिपरित्यागेन यथावद्धदनमित्यर्थः ३, तथा 'असू क्षेपणे' असनं आसः, क्षेप इत्यर्थः, सम्शब्दः प्रशंसार्थः, शोभनमसनं समासः, संसाराद्वहिर्जीवस्य जीवात् कर्मणो वा क्षेपणं ४ तथा संक्षेपणं सक्षेपः-स्तोकाक्षरं महार्थ HD॥४७४॥ च सामायिक, तत्र स्तोकाक्षरं कतिपयाक्षरात्मकत्वात् महार्थ द्वादशाङ्गपिण्डार्थत्वात् ५, 'अणवजं चेति अवयं-पापं नास्त्यवद्यमस्मिन्नित्यनवचं सामायिकं ६, तथा परि-समन्तात् पापपरित्यागेन ज्ञानं परिशा सामायिकं ७, तथा परिहर-12 अनुक्रम -CONSCIES ~70~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८६१], विभा गाथा H], भाष्यं [१५०...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: EKAR प्रत सूत्रांक हणीय वस्तु प्रति आख्यानं-गुरुसाक्षिकनिवृत्तिकथनं ८, एते अष्टौ सामायिकपर्यायाः । अथ सामायिकपर्यायाणामभिधानं किमर्थं १, उच्यते, असम्मोहप्रतिपत्त्यर्थम् , तथाहि-यथा चन्द्रः शशी निशाकरोरजनीकर उडुपतिरित्येवमादिषु चन्द्रपर्यायेषु आदित्यः सविता भास्करो दिनकर इत्येवमादिषु सूर्यपर्यायेष्यभिहितेषु चन्द्रसूर्यपर्यायाऽभिज्ञस्य सत एकस्मिन् शशिपर्याये केनाप्युक्त समस्तसूर्यपर्यायव्युदासेन चन्द्रपर्यायेषु यदिवा सूर्यपर्याये एकस्मिन् केनाप्युक्त समस्तचन्द्रपर्यायपरित्या-15 गेन समेषु सूर्यपर्यायेषु सम्प्रत्ययो भवति, नतु मुह्यति, एवं चतुर्णामपि सामायिकानां पृथक् पर्यायेष्वभिहितेषु तदभिज्ञस्य सत एकस्य सामायिकस्यैकस्मिन् पर्यायेऽमिहिते शेषसामायिकपर्यायव्युदासेन विवक्षितसामायिकपर्यायेषु सर्वेषु प्रत्ययो| भवति, न तु मोहं यातीति ॥ साम्प्रतं सर्वविरतिसामायिकपर्यायार्थानामष्टानामप्यनुष्ठातून यथासङ्ख्यमष्टाय दृष्टा-17 न्तभूतान् महात्मनः प्रतिपादयन्नाह दमदंते १ मेअज्जे २ कालगपुच्छा ३ चिलाय ४ अत्तेअ५।। धम्मरुइ ६इला ७ तेयलि ८ सामइए अट्टदाहरणा ॥ ८६५ ॥ सामायिके-सर्वविरतिसामायिकेऽष्टानामपि पर्यायार्थानां यथाक्रमममून्यष्टावुदाहरणानि, तद्यथा-सामायिकशब्दार्थानुष्ठाने दमदन्तो महर्षिः, समयिकशब्दार्थानुष्ठाने मेतार्यः, सम्यग्वादशब्दार्थानुष्ठाने कालकाचार्यपृच्छा, समासशब्दार्थानुछाने चिलातिसुतः, सोपशब्दार्थानुष्ठाने आत्रेयः, अयं चोपलक्षणं कपिलादीनां, अनवद्यशब्दार्थानुष्ठाने धर्मरुचिः,ाट दीप अनुक्रम 925 आ.सू.८० ... सर्वविरति सामायिकस्य अष्ट पर्याय नामानि एवं प्रत्येक नाम्न: कथानक: ~71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्रीआव श्यकमल य० वृत्तौ उपोद्घाते ॥ ४७५ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ८६५ ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ १५१], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः परिज्ञाशब्दार्थानुष्ठाने इलापुत्रः प्रत्याख्यानशब्दार्थानुष्ठाने तेतलिसुतः, एष गाथासमासार्थः ॥ भावार्थस्तु कथानकेभ्योऽयसेयः, तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति दमदन्तानगारचरितवर्णनमद्य कालमनुष्याणां संवेगोत्पादनाय क्रियते - हविसीसयं नगरं तत्थ दमदंतो राया । इतो य-हथिणाउरे नयरे पंच पंडवा, तेसिं च तस्स य परोप्परं वरं, जतो तेहिं पंचहिं पंडवेहिं दमदंतस्स जरासंघमूलं रायगिहं गयस्स तस्स संतिओ उ सबो विसओ दहो लूडितोय, अन्नया दमदंतो आगतो, तेण हत्थिणापुरं रोहियं, ते भएण न निंति, तो दमदंतेण भणिया-सीयाला चेव तुम्भे, सुण्णगविसए जहिच्छि यमाहिंडह, जाय अहं जरासंघसगासं गतो ताव मम विसयं लूडेह, इयाणिं निष्फिडह, ते न निंति, ताहे सविसयं गतो, अण्णया निविण्णकामभोगो पवइतो, ततो एगलविहारं पडिवन्नो, विहरंतो हत्थिणारं गतो, तस्स चाहिं पडिमं ठितो, जुहिडिलेण अणुजसानिग्गएण वंदितो, पच्छा सेसेहिवि चउहिं पंडवेहिं वंदितो, ताहे दुज्जोहणो आगतो, तस्स मणुस्सेहिं कहियं जहा सो एसो दमदंतो, तेण सो माडलिंगेण आहतो, पच्छा खंधावारेण एतेण पत्थरं पत्थरं खिवंतेण पत्थररासीकतो, जुहिट्ठिलो नियन्त्तो पुच्छे एत्थ साहू आसि, से कहियं-एस सो पत्थररासी दुज्जोहणेण कतो, ताहे सो अंवाडितो, ते य पत्थरा अवणीया, तेल्लेण अभंगितो खामितो य, तस्स किर भगवतो दमदंतस्स दुजोहणे पंडवेसु य समो भावो आसि, | एवं काययं । अमुमेवार्थ प्रतिपादयशाह निक्वंतो हत्थिसीसाओं दमदंतो कामभोगमवहाय । नवि रज्जइ रत्तेसुं दुट्ठेसु न दोसमाजे ॥ १५१ ॥ (भा०) हस्तिशीर्षानगरात् निष्क्रान्तः प्रव्रजितो दमदन्तो राजा कामभोगानपहाय, काममत्राना भोगाः शब्दादयस्तान् परि- ४ ~72~ सामायिके दमदन्तः ॥ ४७५ ॥ brary.org Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [८६६-८६८ ], वि०भा०गाथा [-] भाष्यं [ १५९] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः त्यज्य स च नापि रक्तेषु-अनुरक्तेषु रज्यते प्रीतिं करोति, नापि द्विष्टेषु दोषमापद्यते, वर्त्तमानकालनिर्देशस्तरकालापेक्षणा, युक्तं चैतत् यतो मुनय एवंविधा एव भवन्ति ॥ तथा चाह वंदिजमाणा न समुकसंति, हीलिज़माणा न समुज्जलंति । दतेण चित्तेण वरंति घीरा, मुणी समुग्धाइ अरागदोसा || ८६३ ॥ वन्द्यमाना मुनयो न समुत्कर्षन्ति न समुत्कर्षं यान्ति, नापि हील्यमानाः - निन्द्यमानाः समुज्वलन्ति - कोपानिं प्रकटयन्ति, किन्तु दान्तेन-उपशान्तेन चित्तेन धीरा मुनयः समुद्घातितरागद्वेपाश्चरन्ति ॥ तो समणो जड़ सुमणो भावेण य जह न होइ पावमयो। सयणे य जणे असमो समो अ माणायमाणेसु ॥ ८६७॥ इह समण इति न केवलं श्रमण उच्यते, किन्तु प्राकृतशैल्या समनाः, अपिच समनाः 'तो'ति ततः तदा भण्यतेयदि शोभनं धर्म्मध्यानादिप्रवृत्तं मनो यस्यासौ सुमना भवति, तथा भावेन- आत्मपरिणामलक्षणेन न भवति पापमनाः, निदानप्रवृत्तपापमना न भवतीति भावना, तथा खजने च भ्रात्रादिके जने वा अन्यस्मिन् सम:-तुल्यः, समक्ष मादा|पमानयोः ॥ तदा हि यथावस्थितमनोयुक्ततया समवा इति वक्तुं शक्यते ॥ नत्थि अ से कोइ बेसो पिओ अ सबेसु वेव जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पजाओ ॥ ८६८ ॥ नास्ति 'से' तस्य साधोर्बदि कश्चनापि द्वेप्यः प्रियश्च सङ्घट्टनपरितापनोपद्रवणादिक्रियातो निवृत्ततया, सर्वेष्वेव जीवेषु Por Private & Personal Use Only ~73~ netbrary.org Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्रीभव श्यकमल य० वृत्तौ उपोद्घाते ॥ ४७६ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [८६६-८६८ ], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१] मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः सर्वेषामपि जीवानां तत एतेन कारणेन भवति समनाः एषः, प्राकृतशैल्या समण इत्यस्यान्यः पर्यायः, अपिः सम्भावने, | एवमन्येऽपि तत्तदर्थंघटनात् पर्यायाः सम्भावनीयाः ॥ सम्प्रतिमेतार्थकथानक - साकेते नगरे चंदवडंसओ राया, तस्स दुबे पत्तीओ-सुदंसणा य पियदंसणा य, तत्थ सुदंसणाए दुबे पुत्ता-सागरचंदो मुणिचंदो य, पियदंसणाएवि दो पुत्ता-गुणचंदो वालचंदो य, सागरचंदो जुवराया, मुणि चंदस्स | उज्जेणी दिन्ना कुमारभोत्तीए ॥ इओ य-चंडवडिंसतो राया माहमासे पडिमं ठितो वासघरे, सागारं करेइ, जाब दीवगो जलइत्ति, तस्स सेज्जावाली चिंतेइ दुक्खं सामी अंधकारे अच्छिहिति, ताए बीए जामे विज्झायंते दीवगे तेलं छूढं, सो ताव जलितो जाब अद्धरतो, ताहे पुणोऽवि तेलं छूढं, ततो ताव जलितो जाव तइओ पहरो, पुणोवि तेलं छूटं, ततो सुकुमारसरीरो विहायंतीए रयणीए वेयणाभिभूतो कालगतो, पच्छा सागरचंदो राया जातो, अन्नया सा माइसवत्तिं भणइगेह रज्जं पुत्ताण ते भवउत्ति, अहं पवयामि सा नेच्छइ, एएण रजं आयत्तंति, ततो सो अइजाणनिजाणेसु रायं रायलच्छीए दिष्पतं पासिऊण चिंतेइ-मए पुत्ताण रज्जं दिजंतं न इच्छियं तेऽवि एवं सोभंता, इयाणि मारेमि, छिद्दाणि मग्गइ सो य राया छुहालुतो, तेण सूयस्स संदेसतो दिन्नो-एतो चैव पुचहियं पट्टवेज्जासि, जह विरावेमि, सूपण सीहकेसरतो मोयगो चेडीए हत्थे विसज्जितो, पियदंसणाए दिट्ठो, भणइ-पेच्छामि णंति, तीए अपितो, पुत्रमणाए विसमक्खिया हत्था कया, तेहिं सो विसेण मक्खितो, पच्छा सा भणइ-अहो सुरही मोयगोत्ति, पडि अप्पितो चेडीए, ताए गंतूण रण्णो समप्पितो, तेऽवि दो कुमारा रायसगासे अच्छंति, तेण चिंतियं-किह अहं एएहिं छुहाइएहिं खाइस्सं ?, तेण Pur Private & Personal Use Only ~74~ समयिके मेतार्यः ॥ ४७६ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [८६६-८६८ ], वि०भा०गाथा [-] भाष्यं [ १५९] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः दुहा काऊण तेसिं दोन्हवि सो दिन्नो, ते खाइडमारद्धा, जाव विसवेगा आगंतुं पवत्ता, राइणा संभंतेण वेज्जा सङ्घाविता, | सुवण्णं पाइया, सज्जा जाया, दासी सद्दाविया, पुच्छिया भणइ-न केणवि दिट्ठो, नवरमेयाणं मायाए परामुट्ठो, सा सहाविया, नाया जहा एसा कारित्ति, ताहे अंबाडिया, भणिया य-जहा पावे! तया नेच्छसि रज्जं दिज्जंतं, इयाणिमहं अकयपर लोगर्सबलो संसारे छूढो होतोति, ततो तेसिं रज्जं दाऊण पवइतो | अण्णा संघाडतो साहूण उज्जेणीतो आगतो, सो पुच्छितोतत्थ निरुवसग्गं ?, ते भणति-निरुवसग्गं, नवरं रायपुत्तो पुरोहियपुत्तो य वाहेति पासंडत्ये साहुणो य, ततो सागरचंदमुणी अमरिसेणं तत्थ गतो, साहूहिं विस्सामितो, ते य साहू संभोइया, तेहिं भिक्खावेलाए भणितो- आणिजड, सो भण‍-अहं अत्तलामितो, नवरं ठवणकुलाणि साहह, तेहिं से चेहतो दिन्नो, सो तं पुरोहियघरं दंसित्ता आगतो, इमोऽवि तत्थेव पविडो, बड्डेणं सद्देणं धम्मलाभेइ, अंतेउरियातो निग्गयातो हाहाकारं करेंतीतो, सो वडवसद्देणं भणइ किं एवं साविए ! इति ?, ते निग्गया बाहिं, बारं बंधंति, पच्छा भणंति-नच्चसु, सो पडिग्गहं ठवित्ता पणश्चितो, ते न याणंति वाए, भणंति- जुज्झामो, दोऽवि एकसराए आगया, मम्मेसु आया, जहा अंताणि तहा खलखलाविया, ततो निसङ्कं हणिऊण वाराणि उग्घाडित्ता गतो, उज्जाणे अच्छइ, राइणो कहियं, तेण मग्गावितो, साहू भांति - पाहुणतो आगतो, न याणामो, गवेसंतेहिं उज्जाणे दिट्ठो, राया आगतो, तेण खामितो, नेच्छइ मोत्तुं, जइ पद्ययंति तो मुयामि, ताहे पुच्छिया, पडिस्सुयं, ततो एगस्थ गहाय चालिया, जहा सहाणे ठिया संघिणो, लोयं काऊण पद्याविया, रायपुत्तो सम्मं करेइ-मम पित्तिउत्ति, पुरोहियस्तो दुर्गुछइ, अम्हे एएण कवडेण पद्याविया, दोषि मरिऊण देवलोगं गया, संगार करेंति, संगारो नाम सङ्केतः, Pur Private & Personal Use Only ~75~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८६६-८६८], विभागाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: समविके प्रत सुत्रांक दीप श्रीआव- जो पढम चवइ तेण सो संबोहियथो, पुरोहियसुसो चइकण तीए दुगुंछाए रायगिहे मेईए पोहे आगतो, तौसे सेडिणी क्वंदी श्यकमल- | सिया, सा एसा मंसं विकिणइ, तीए भष्णइ-मा अण्णत्थ हिंडाहि, अहं सर्व किणामि, एवं दिवसे दिवसे जाणेह, एवं मेतार्यः य० वृत्तौटा तासिं पीई घणा जाया, ताहे तीसे सेट्ठिणीए घरस्स समोसिया ठिया, समोसिया नाम पातिवेसनी, साब सेहिणी मिंदू उपोद्घाते ततो मेदीए रहस्सियं चेव पुत्तो दिनो, सेट्टिणीए धूया मया जाया, सा मेईए गहिया, पच्छा सा सेट्ठिणी तं दारगं मेहिए पाएम पाडेइ-सुज्झ पभाषेण जीवउत्ति, तेण से नाम कयं मेयनोत्ति. संवड़ितो. कलातो गहियातो, संबोहिन्जतो देवेव मया ॥४७७॥ वसंबुझाइ, ताहे अट्ठण्हं इन्भकन्नगाणं एगदिवसेणं पाणिं माहितो, सिबियाए नगरं हिंडा, देवोऽवि मेयं अणुपविझे रोविन मारद्धी, जइ मम धूवा जीवन्ती तीसेवि अज्जविवाहो कतो होतो, भतं च मेयाण कयं होतं, ताहे साए मेहए जहावस सिटुं, ततो रुट्ठो देवाणुभावणं गंतुं सिबियातो पाडितो, भणितो-तुमं असरिसीतो परिणेसि, खड्डाए छूढो, ताहे देवो भपति-15 किह श्याणि ?, सो भणति-महंतो अवनो जातो, तो एतो मोएहि, तो कंचि कालं अच्छामि, (केत्तियं, वारस परिताणित ठातो भणइ-किं करेमि !, भणति-रण्णो धूयं दवाषेहि, तओ) सबातो किरियातो बोहाडियातो भविस्संति, ताहेसे गलतो | दिनो, सो रयणाणि वोसिरह, तेण रयणाणं थाल भरिब, तेण पिया अणितो-रण्णो धूयं वरेह, रवणाणं बार भरिप्ताह गतो, किं मम्गसि !, धूय, निच्छदो, एवं दिवसे दिवसे थालं रयणाणं भरिऊण गच्छाइ, राया गेण्हइ, अभओ मण-कमोर हारयणाणि ', सो भणइ-छगलतो हदह, अमओ मणइ-अम्हं दिजड, आणीतो, मडगंधाणि वोसिरह, अमतो चिंता-देवा-1 दाणुभावो एसो, किंतु परिक्खिजउ, ततो भणितो-राया दुक्ख वेभारपवयं सामि वंदसो जाइ, रहमागं करेह, सो कतो CAR अनुक्रम SMEnicational ~764 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८६९], विभा गाथा H], भाष्यं [१५१...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अज्जावि दीसइ, भणितो-पागारं सोवणं करेह, कतो, पुणोऽवि भणितो, जइ समुद्दमाणेसि, तत्थ पहातो सुद्धो होहिसि तो भाते दाहामो, आणीतो, वेलाए हाविओ, दिण्णा धूया, कतो विवाहो य सिबियाए हिंडतेण, तातोऽवि से अण्णातो आ णीयातो, एवं भोगे भुंजइ, बारस वरिसाणि, पच्छा बोहितो, महिलाहिवि वारस वरिसाणि मग्गियाणि, दिनाणि, चउवीसाए वासेहिं सवाणिवि पवइयाणि, नवपुवी जातो, एकल्लविहारपडिमं पडिवन्नो, तत्थेव रायगिहे हिंडइ, सुचण्णकार गिहमइगतो, सो य सेणियस्स सोवणियाणं जवाणं अदुसयं करेड़, आइयच्चणियाए, ते परिवाडीए कारेइ, तिसंश, तस्स CIगिहं साह अतिगतो, तस्स एगाए वायाए भिक्खा निनीणिया, ततो सो मज्झे गतो, ते य जवा कोंचगेण गिलिया, सो या आगतो, न पेच्छइ, रण्यो य चेइयच्चणियाए बेला दुकाइ, अज अट्ठ खंडाणि कीरामित्ति, साई संकति, पुच्छइ, तुहिको अग्छइ, ताहे सीसाबेढेण बंधइ, भणितो य-साह केण गहिता!, ताहे तहा आवेढितो जहा भूमीए अच्छीणि पडियाणि, कुंचगो दारुं फोडेन्तेण सिलिकाए आहतो गलए, तेण ते जवा वंता, लोगो भगाइ-पाव! एते ते जवा, सोवि भयवं तं अयणं अहियासंतो कालगतो सिद्धो य, लोगो आगतो, दिडो मेषजो, रणो कहिये, वज्झाणि आणताणि. घरं पाता। 181 पपइयाणि भणति-सावग! धम्मेण वहाहि, मुक्काणि, भणइ-जइ उप्पषयह तो ते कबालीए कडेमि, एवं समइयं अपने परे दाय कायर्ष ॥ तथा च कथानकार्थे देशप्रतिपादनार्थमाह जो कुंचगावराहे पाणिदया कुंचगं तु नाइक्खे । जीवियमणुपेहतं मेअजरिसिं नमसामि ॥ ८६९॥ यः क्रौञ्चकस्वापराघे सति प्राणिदयया हेतुभूतया सूत्रे विभक्तिलोप आर्यत्वात् , कोलकं माचष्टे एव, तुझम्ब एक दीप अनुक्रम टाका ~77~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८७०], विभा गाथा ], भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक श्रीआव- कारार्थो भिन्नक्रमश्च, अपितु स्वप्राणत्यागं व्यवसिता, तमनुकम्पया जीवितमात्मनोऽनपेक्षमाणं मेतार्याष नमस्यामि ॥18 मेतार्यकाश्यकमल- निप्फेडिआणि दुन्निवि सीसावेढेण जस्स अच्छीणि । न य संजमाओं चलिओ मेअजो मंदरगिरिव ॥ ८७०॥ लकाचार्यय० वृत्तौ निःस्फेटिते-निष्कासिते भूमौ पातिते इति, अत्र हे अपि शीर्षावेढेन-शिरोबन्धनेन यस्याक्षिणी, स एवमपि कदीमानो-1 कथानके सपोदयातनकम्पया न च-नैव चशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , संयमाञ्चलितो मेतायों मंदरगिरिवत स्वस्थानाद वातादिभिरतस्तं मेतार्यर्षि। नमस्यामीति सम्बन्धः । द्वारम् । इदानी सम्यग्वादे कथानकम्-तुरुमिणीए णगरीए जियसत्तू राया, तत्थ भद्दा नाम ॥४७८॥ दूधिजाइणी, पुत्तो से दत्तो, मामगो से दत्तस्स अज्जकालगो, सो य पचहतो, सो य दत्तो जयपसंगी मज्जपसंगी ओलग्गि-1 उमारद्धो, पहाणदंडो जातो, कुलपुत्तए भिंदित्ता रायाधाडितो, सोराया जातो, जण्णा अणेण सुबहू जट्ठा, अण्णया तं मामगं पेच्छइ, तुट्ठो भणइ-धम्मं सुणेमि, ततो पुच्छइ-जण्णाणं किं फलं ?, सो भणइ-किं धम्म पुच्छसि ?, धर्म कहेइ, पुणोऽवि द्रपुच्छइ, नरगाणं पंथं पुच्छसि ?, अधम्मफलं कहेइ, पुणोऽवि पुच्छइ, असुभाणं कम्माणं उदये पुच्छसि ?, तंपि परि-13 कहेइ, पुणोऽवि पुच्छइ, ताहे भणइ-नरया फलं जण्णाणं, रुट्टो भणइ-को पञ्चतो, आयरितो भणइ-जहा तुम सत्तमेल | दिवसे सुणगकुंभीए पञ्चिहिसि, एत्थऽवि को पच्चतो?, जहा तुमं सत्तमे दिवसे सन्ना मुहे गमिस्सइ, रुहो भणइ-तुझ को मच्चू ?, भणइ-अहं सुइरं कालं पब काउं देवलोगं गच्छिस्सामि, रुहो भणइ-रुभह, ते दंडा निविण्णा, तेहिं सो चेव ॥४७८॥ राया आवाहितो-एहि जेण एवं बंधिचा अपेमो, सो य पच्छन्नो अच्छइ, तस्स दिवसा विस्सरिया, ससमे दिवसे राय-द पहं सोहावेइ, मणुस्सेहिं रक्खावेइ, एगो य देवकुलिगो पुप्फकरंडगहत्थगतो पचूसे पविसति, सण्णा बोसिरित्ता पुप्फेहिं । दीप अनुक्रम SMEducation ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८७१], विभा गाथा H], भाष्यं [१५१...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: HASHI ACCESS प्रत सूत्रांक ओहाडेर, रायापि सत्तमे दिवसे आसचडगरेण नीइ, जामि तं समणगं मारेमि, जाव अण्णेणं आसकिसोरेण सह पुष्फेहि। उक्खिविया खुरेण सन्ना, पादो भूमीए आहतो, ताहे तेण सन्ना मुहमतिगया, तेण णायं-जहा मारिजामि, ततो दंडाण 131अणापुच्छाए नियत्तिउमारद्धो, ते दंडा जाणंति-नूर्ण रहस्सं भिन्नं, जाव घरं पविसइ ताव गेण्हामो, गहितो, इयरो राया आणीतो, तेण कुंभीए सुणए तं च छुभित्ता दारं दिन्नं, हेट्ठा अग्गी पज्जालितो, ते सुणया ताविजता खंडखंडेहिं| [छिदंति, एवं सम्मावातो कायवो जहा कालगज्जेणं ॥ तथा चामुमेवार्थमभिधित्सुराह| दत्तेण पुच्छिओ जो जन्नफलं कालओ तुरमणीए । समयाइ आहिएणं सम्मं बुइ भयंतेणं ॥ ८७१।। दत्तेन धिगजातिनृपतिना यः कालको मुनिः पृष्टो यज्ञफलं तुरमिण्यां नगर्या, तेन भदंतेन-परमकल्याणयोगिना सम-18 तया आहितेन-मध्यस्थतया गृहीतेन इहलोकभयमनपेक्ष्य सम्यक् उक्तं, मा भूद्धचनादधिकरणप्रवृत्तिः ॥ द्वारम् ॥ समा-पट सद्वारमिदानी, तत्र कथानकम्। एगो पिज्जाइतो पंडियमाणी, सासणं खिंसइ, सो वाए पइन्नाए उग्गाहिऊण पराजिणित्ता पवावितो, पच्छा देवयाए| चोइयस्स उवागयं, दुगुंछ न मुंचति, सन्नायगा य से उवसंता, आगारी से नेहं न छड्डुइ, कम्मणं दिन्नं, कहं मे बसे होज्जा ?, मतो, देवलोगे उववो, सावि तण्णिवेदेण पञ्चइया, अणालोइय चेव काल काऊण देवलोगे उपवना, ततो सो| चइऊण रायगिहे नगरे धणसत्यवाहो, पंच से पुत्ता, तस्स चिलाइया चेडी, तीसे पुत्तो उववन्नो, नाम च से कयं चिलाइ-I गोत्ति, इयरीवि तस्सेव धणस्स पंचण्हं पुत्ताणमुवरि दारिया जाया, सुसमा से नाम कर्य, सो य चिलागो तीए बाल-| दीप अनुक्रम MAX*X*KSANAK SmECatoniraathi ~79~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८७१], विभा गाथा H], भाष्यं [१५१...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: CXX प्रत सुत्रांक श्रीआय- I गाहो दिनो, अणालीओ करेइ, ताहे निच्छ्रढो, सीहगुहं चोरपल्लिमतिगतो, तत्थ अग्गपहारी णिस्संसो य, चोरसेणावती चिलातिश्यकमल-18 मतो, सो सेणावती जातो, अन्नया चोरे भणइ-रायगिहे घणो नाम सस्थवाहो, तस्स धूया सुसमा नाम दारिया, तहिं पुत्रकथा य० वृत्तौदावच्चामो, धणं तुम्भं सुसमा मज्झं, ततो ओसोयर्णि दाई णामं साहंता आगया, धणो सह पुत्तेहिं आधरिसिओ, तेऽवि तं उपोद्घाते घरं पविसित्ता चेडिं गहाय पहाविया, धणेण नगरगोतिया सद्दाविया मम धूयं नियत्तेह, दबं तुझं, चोरा भग्गा, लोगो ॥४७९॥ साधणं गहाय नियत्तो, इयरो सह पुत्तेहिं चिलायस्स मग्गतो लग्गो, चिलातोषि दारियं गहाय नस्सइ, जाहे सरीरेण न तरह। हसुसमं वहिर्ड, इमेऽवि दुक्का, ताहे सुसमाए सीसं गहाय पत्थितो, इयरे धाडिता नियत्ता, छुहाए परिताविति, ताहे धणोद्र पुत्ते भणइ-ममं मारेत्ता खाह, ताहे नगरं वञ्चह, ते नेच्छंति, जेहो भणइ-ममं मारित्ता खाह, एवं जाव डहरतो, ताहे पिया से भणइ-मा अन्नमन्नं मारेमो, एएणं चिलाएणं ववरोवियं सुसमं खामो, एवं ते आहारिया पुत्तिमंसं, एवं सघसाहुहै स्सवि आहारो पुत्तमंसोवमो कारणितो, उक्तं च-"प्रणलेपाक्षोपाङ्गवदसङ्गयोगभरमात्रयात्रार्थम् । पन्नग इवाभ्यवहरेदाहारं द्र पुत्रपलवच्च ॥१॥"( प्रशमरतौ ) तेण आहारेण नगरं गया, पुणरवि भोगाण आभागी जाया, एवं साहूवि नेवाणसुहस्स, सोऽवि चिलातो तेण सीसेणं हत्थगतेणं दिसामूढो जाब एग साहुं आयावेतं पेच्छद, तं भणति-मम संखे-10 वेण धर्म कहेहि, मा एवं ते सीसं पाडिस्सामि, साहुणा भणितो-उयसमो विवेगो संवरो य, एयाणि गहाय एर्गतं गतो, तत्थ चिंतिउमारद्धो-उवसमो काययो कोहाईणं, अहं च कुद्धो, सहा विवेगो धणसयणस्स कायबो, ततो तं सीसं असिं दूच एडेइ, तहा संवरो इंदियसंवरो णोइंदियसंवरो य सो कायबो, एवं झायइ, जाव लोहियगंधेण तं कीडियातो खाइउमा-18 दीप अनुक्रम ॥४७॥ **** ~80~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८७२-८७५], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं -गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक _ दीप रद्धातो, सो ताहिं जहा चालणी तहा कतो, पायसिराहिंतो जाव सीसकरोडी ताव गयातो, तहवि न झाणातो चलितो। तथा चामुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाहजो तिहिं पएहि सम्मं समभिगओ संजमं समारूढो । उवसम-विवेग-संवर चिलाइपुत्तं नमसामि ॥ ८७२॥ ____ यः त्रिभिः पादः 'सम्मति सम्यक्त्वं समभिगतः-प्राप्तः, तथा संयम समारूढः, कानि त्रीणि पदानीत्यत आह-उपशमोद विवेकः संवर इति, तत्रोपशम:-क्रोधादिनिग्रहः विवेकः-स्वजनसुवर्णादित्यागः, संवरः-इन्द्रियनोइन्द्रियगोपन, तमित्थंभूतमुपशमविवेकसंवरलक्षणपदवयश्रवणतः संयमसमारूढं चिलातीपुत्रं नमस्यामि ॥ अहिसरिआ पाएहिं सोणिअगंधेण जस्स कीडीओ। खायंति उत्तमंगं तं दुक्करकारयं बंदे ॥ ८७३ ।। अभिमृताः-प्रविष्टाः पादाभ्यां शोणितगन्धेन यस्य अविचलिताध्यवसायस्य कीटिका भक्षयति उत्तमा, शोणितगन्धेन यस्य पादशिराभिः प्रविश्य कीटिका मध्यभागं भक्षयन्त्यस्तावद् गता यावदुत्तमाङ्गम् , उपरिष्टाचालनीव काणितमित्यर्थः, तमित्थं दुष्करकारकं वन्दे, चिलातीपुत्रमिति वर्तते ॥ धीरो चिलाइपुत्तो मूइंगलियाहिं चालिणिव कतो । सो तहवि खजमाणो पडिवन्नो उत्तम अटुं ॥ ८७४ ।। धीरः-सत्त्वसम्पन्न चिलातीपुत्रः 'भूइंगलियाहिं' इति कीटिकाभिर्भक्ष्यमाणश्चालनीवत् कृतः यस्तथापि-तेनापि प्रकारेण खाद्यमानः सन् प्रतिपन्न उत्तमार्थ, शुभपरिणामापरित्यागात् ॥ __ अदाइजेहिं राइदिएहिं पत्तं चिलाइपुत्तेणं । देविंदामरभवणं अच्छरगणसंकुलं रम्मं ॥ ८७५ ॥ RECARRIES SEKCAREESARKARIRECRCHCAL अनुक्रम ___ SmER sinestraining ~81 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] श्रीआव श्यकमल य० वृत्ती उपोद्घाते ॥ ४८० ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [८७६] वि० भा०गाथा [-] भाष्यं [१५१...], मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अर्धतृतीयै रात्रिंदिवैः-अहोरात्रैः प्राप्तं चिलातीपुत्रेण देवेन्द्रस्येव अमरभवनं देवेन्द्रामरभवनम् अप्सरोगणसङ्कुलं रम्यमिति ॥ द्वारम् ॥ सङ्गेयद्वारमधुना सयसाहस्सा गंधा सहस्स पंच य दिवद्धमेगं च । ठविआ एगसिलोगे संखेबो एस नायवो ॥ ८७६ ॥ चत्तारि घालत वस्सी सयसाहस्से गंधे काउं जियसत्तुं रायाणमुवट्टिया - अम्ह सत्थाणि सुणेहि, तुमं पंचमो लोगपालो, तेण भणियं-केत्तियं १, ते भांति चत्तारि संहियातो सयसाहस्सीतो, सो भणइ एचिरेण कालेणं मम रज्जं सीयइ, ततो अद्धं अर्द्ध कथं, तहवि राया न पडिच्छर, एवं अर्द्ध अद्धमोसारिजंतं जाब एक्केको सिलोगो ठितो, तंपि न सुणइ, ताहे तेहिं चउहिं नियमयपद रिसणसहियो एको सिलोगो कतो, स चायम्-“ जीर्णे भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनां दया । बृहस्पतिर विश्वासः पाञ्चालः स्त्रीषु माईचम् ॥ १ ॥" आत्रेय एवमाह-जीर्णे भोजनं सेवनीयमारोग्यार्थिना, एवं प्रत्येकं योजना कार्या, एवं सामायिकमपि चतुर्दश पूर्वार्धसङ्ग्रहात् सङ्क्षेपो वर्त्तते इति ॥ गतं सङ्क्षेपद्वारम्, इदानीमनवद्यद्वारं, तत्र कथानकम् - वसंतपुरे नगरे जियसत्तू राया, धारिणी देवी, तीसे पुत्तो धम्मरुई, सो य राया थेरो, अन्नया ताव सो पक्षइडकामो धम्मरुइस्स रज्जं दाउमिच्छइ, सो मायरं पुच्छर-कीस तातो रज्जं परिचयइ ?, सा भणइ-रज्जं संसारवद्धणं, सो भणइ-ममवि न कळं, ततो सोऽवि सह पियरेण तावसो जातो, तत्थ अभावासा होहित्ति गंडओ घोसेइ आसमेसु-कलं अमावसा होहि, इतो पुप्फफलाणं संगह करेह, कलं न वट्टेइ छिंदिरं, धम्मरुई चिंतेइ सबकालं न छिंदेजा तो सुंदरं होज्जा, अण्णया साहू अमावासाए तावसासमस्त अदूरेण वोलंति, ते धम्मरुई पेच्छिकण भणति भयवं । किं तुज्झं अणा Por Private & Personal Use Only ~82~ आत्रेयधमरुची ॥ ४८० ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८७७-८७८], विभा गाथा H, भाष्यं [१५१...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक कुट्टी नस्थि ?, तो अडविं जाह, ते भणति-अम्हं जावजीवं अणाकुट्टी, सो संभंतो चिंतिउमारद्धो, साहूवि गया, जाई | संभरिया, पत्तेयबुद्धो जातो ॥ अमुमेवार्थमभिधित्सुराह सोऊण अणाउहि अणभीओ बजिऊण अणगं तु । अणवजयं उवगओ धम्मरुई नाम अणगारो ।। ८७७ ॥ हा श्रुत्वा-आकण्य आकुट्टनमाकुट्टिा-छेदनं, हिंसेत्यर्थः, न आकुट्टिरनाकुट्टिः तां सर्वकालिकीमाकर्ण्य 'अणभीतः' अणवणेति दण्डकधातुः, अणति-गच्छति तासु तासु योनिषु जीवोऽनेनेति अणं-पापं तङ्गीतः वर्जयित्वा अणगंतु,परित्यज्य सावद्ययोगमि त्यर्थः, वर्जनीयो वर्यः अणस्य वयः अणवळः तद्धावस्तत्ता तां अणवय॑तामुपगतः-प्राप्तः, साधुः संवृत्त इति भावः, धर्मरुदाचिर्नामानगारः॥गतमनवद्यद्वारम् , सम्प्रति परिज्ञानद्वारम् , तत्र कथानकमिलापुत्रस्य, तच्च प्रागेवाभिहितमिति गाथोच्यते- श परिजाणिऊण जीवे अज्जीवे जाणणापरिन्नाए । सावजजोगकरणं परिजाणइ सो इलापुत्तो॥ ८७८॥ Kा परिज्ञाय जीवान् अजीवांश्च 'जाणणापरिणापत्ति ज्ञपरिज्ञया सावद्ययोगकरणं पडिजाणइ सो इलापुत्तो, सावद्ययोगहै क्रियां परिजाणइत्ति प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिजानाति स इलापुत्रः ॥ गतं परिज्ञानद्वारम् , इदानीं प्रत्याख्यानद्वारम् , तत्र कथानकम्-तेतलिपुरं नगरं, कणगरहो राया, पउमावती देवी, राया भोगलोलो जाए जाए पुत्ते बियंगेइ, तेतलिसुतो अमच्चो कलादो, तेण मूसियारो सेड्डी तस्स धूया पोट्टिला आगासतले दिट्ठा, मग्गिया लद्धिया, अमच्चो पउमावती य परोप्परं भणतिदएणं कहवि कुमारं संरक्खामो, सो तव मम य भिक्खाभायणं भविस्सति, मम उदरे पुत्तो एवं रहस्सगयं सारवेमो, संपत्तीए पोहिला देवी य समं चेव पसूया, पोट्टिलाए दारिया देवीए दिन्ना, देवीए कुमारो पोटिलाए, सो संवद्धइ, कलातो य आ. सू.८१ दीप अनुक्रम Hanendranand ~834 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८७७-८७८], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक श्रीआय-गिण्हइ, अन्नया पोटिला तेतलिस्स अणिट्ठा जाया, नाममवि न गेण्हइ, अन्नया सा पवइयातो पुच्छा-अस्थि किंचि जाणह अनवद्यपश्यकमल-हाजेण अहं पिया होजा, तातो भणति-न बट्टइ एवं कहेउं, धम्मो कहितो, संबेगमावण्णा पुच्छह-पषयामि, भणइ- ज रिज्ञाप्रत्याय० वृत्तौ संबोहेसि, ताए पडिस्सुयं, सामन्नं कार्ड देवलोगं गया, सो य राया मतो, ताहे पउरस्स दसेइ कुमारं रहस्सं च भिंदेइख्यानानि उपोद्घातेताहे सो रज्जे अहिसित्तो, माया कुमारं भणइ-तेयलिसुयस्स सुहु बडेजासि, तस्स पहावेण तं राया जातो, तस्त नाम कयं हतितलिकथा ॥४१॥ कणगज्झतो, ताहे सबट्ठाणेसु अमचो ठावितो, देवो तं बोहेइ, न संवुज्झइ, ताहे रायाणगं विपरिणामेइ, जतो ठाइ ततो दराया परम्मुहो ठाइ, भीतो घरमागतो, सोऽवि परियणो नाढाइ, सुट्टयरं भीतो, ताहे तालपुडं विसं खाइ, न मरद, कंको असी खंधे वाहितो, न छिंदइ, उबंधइ, रज्जू छिन्ना, पच्छा पाहाणं गलए बंधित्ता अत्याहं पाणियं पविसइ, तत्थवि थाहो जातो, ताहे तणकूडे अग्गि काउं पविहो, तत्थवि न डाइ, ततो नगरीतो निष्फिडित्ता अडविं पविसइ, तत्थ जाव खणमेसं जाइ तो हत्थी वेगेण आगच्छइ, पुरतो महती पवायखड्डा, उभतो बहलंधयारेण अचक्खूफासो, मज्झे य सरा पडति, ताहे तत्थ ठितो चिंतेइ-पोटिला जइ म निथारेजत्ति, एवं बयासी-हा पोट्टिले ! आउसो पोट्टिले ! कसो वयामो?, आलावगे भणइ, जहा तेतलिणाए, ताहे सा भणइ-भीयस्स भो ! खलु पञ्चजा ताणं, आउरस्स भेसज्जकिच्छ, संतस्स है वाहणकिच्चं, महाजले वहणकिचं, एवमादी आलावगा, तं दट्टण संवुद्धो, भणइ-रायाणं उवसामेहि,मा भणिहिति-रठ्ठो पब-४॥४८१॥ इतो, ताए साहरियं, ताव समंततो मग्गिजइ, रण्णो कहियं, सह मायाए निग्गतो, खामेत्ता पवेसितो, निक्खमणं, सिबियाए। नीणितो, पबइतो य॥ चूर्णिकारस्त्वेवं कथितवान्-"भीयस्स खलु भो! पधज्जा ताणं आउरस्स मेसज्जकिच्चमिच्चाइ आ दीप अनुक्रम ~84~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८७९], विभा गाथा H], भाष्यं [१५१...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: CARRASKAR प्रत सूत्रांक दलावगे दोघंपि तचंपि वइत्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया, ततो णं तस्स अणुचिंतेमाणस्स सुभेणं 8 परिणामेणं जातिस्सरणं समुप्पण्णं, एवं खलु अहं जंबुद्दीवे महाविदेहे पुक्खलावइविजए पोंडरगिणीए नयरीए महापउमे नाम राया होत्या, थेराणं अंतिए पचइए, सामाइयमाइयाई चउद्दस पुबाई अहिन्जित्ता बहूई चासाई सामन्नपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालं किच्चा महासुके कप्पे देवत्ताए उववन्ने, तए णं तओx चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तेतलिपुरे नयरे तेतलिस्स अमच्चस्स दारए जाते, तं सेयं खलु मम पुबदिट्ठाई महयाई सयमेव उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, ततो जेणेव पमयवणो उजाणो तेणेव उवागम्म असोगवरपायवस्स हेट्ठा सुहनि सन्ने, तत्थ तस्स अणुचिंतेमाणस्स पुषाधीयाई चोद्दसपुवाई सयमेव अभिसमज्ञागयाई, तते णं से सुमेण अज्झवसाहोणेणं केवली जाते, अहासंनिहितेहिं देवेहिं महिमा कया, इमीसे कहाए लद्धडे समाणे कणगझओ राया मायाए समं | हसबद्धीए आगंतूण खामेइ, धम्म कहेइ, सावगे जाते, भयवं केवली अज्झयणं भासइ, एवं तेण पञ्चक्खाणेण समया कया, सावद्ययोगाः प्रत्याख्यानपरिज्ञाता इत्यर्थः । अत्र गाथा पञ्चक्खे इव द९ जीवाजीचे य पुषण-पावं च। पञ्चक्खाया जोगा सावजा तेअलिसुएणं ॥ ८७९ ॥ प्रत्यक्षानिव दृष्ट्वा जीवाजीवान पुण्यं पापं च सम्यक् चतुर्दशपूर्वस्मरणात् प्रत्याख्याता योगाः सावद्याः तेतलिसुतेन । गतं निरुक्तिद्वारम् ॥ समाप्ता उपोद्घातनियुक्तिः॥ SAMACHAKRAMADHA दीप अनुक्रम SCAMARG ... अत्र आवश्यक सूत्रस्य उपोद्घात-निर्युक्ति: समाप्ता: ~-85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८८०-८८४], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सूत्रगुणदोषा: प्रत सत्राक दीप श्रीआव- अथ सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यबसरः, सा च प्राप्तावसराऽपि नोच्यते, यस्मादसति सूत्रे कस्यासाविति, ततः सूत्रानुगमे तां श्यकमल- वक्ष्यामः, आह-यद्येवं किमिति तस्याः खल्विहोपन्यासः, उच्यते-नियुक्तिमात्रसामान्यात् । सम्पति सूत्रानुगमोऽवस-IN यगिरीय-18|रप्राप्तः, तत्र सूत्रमुच्चारणीयं, तच्च किंभूतमिति लक्षणगाथावृत्तौ सूत्रा- अप्पागंथमहत्थं बत्तीसादोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्ठहि य गुणेहिं उववेयं ॥ ८८०॥ नुगमः 1 अल्पग्रन्धं च तत् महार्थं चेति विशेषणसमासः, अल्पग्रन्थमहार्थं यथा 'उत्पादव्ययधीच्ययुक्त सदित्यादि सूत्रम्, अधिकृतसामायिकसूत्र वा, यच्च द्वात्रिंशद्दोपविरहितं तत् सूत्रम् , के ते द्वात्रिंशदोषाः ?, उच्यते॥४८२॥ अलिय १ मुवधायजणयं २ निरस्थ ३ मवत्थयं ४ छलं ५ दुहिलं ६। निस्सार ७ महिय ८ मूणं ९ पुणरुत्तं १० वाहय ११ मजुत्तं १२॥ ८८१॥ कमभिन्न १३ वयणभिन्न १४ विभत्तिभिन्नं १५ च लिंगभिन्न १६ च । अणभिहिय १७ मपय १८ मेव य सभावहीणं १९ ववाहियं च २०॥ ८८२ ॥ काल २१ जति १२च्छविदोसो २३ समयविरुद्ध २४ च वयणमेत्तं २५ च । अस्थावत्ती दोसो २६ य होइ असमासदोसो २७ य ।। ८८३ ॥ उवमा २८ रूवगदोसो २९ निद्देस ३० पयत्ध ३१ संघिदोसो ३२ य । एए उ सुत्तदोसा बत्तीसं होंति नायवा ।। ८८४ ॥ अनुक्रम ॥४८२ | ... सूत्र संबंधी दोषा: एवं गुणानाम् वर्णनं आरभ्यते । ~86 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८८०-८८४], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं -गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक तत्रालीकं द्विधा-अभूतोद्भावनं भूतनिह्नवश्च, तत्र अभूतोद्भावनं यथा प्रधानं जगतः कारणमित्यादि, भूतनिहवो यथा नास्त्यात्मेत्यादि १ उपघातजनक-सत्त्वोपघातजनकं, यथा वेदविहिता हिंसा धर्माय इत्यादि २ वर्णक्रमनिर्देशवत् निर-16 र्थकम् , आरादेशादिवत् डित्यादिवद्वा ३, पौर्वापर्यायोगाद् असम्बद्धार्थमपार्थकं यथा दश दाडिमानि षडपूपाः कुण्डमजाजिनं पललपिण्डः त्वर की टिके दिशमुदीची स्पर्शनकस्य पिता प्रतिशीन इत्यादि ४ अर्थविकल्पोपपत्त्या वचनविघातः छलं, वाक्छलादि, यथा नवकम्बलो देवदत्त इत्यादि ५, द्रोहस्वभावं दुहिलं, यथा-'यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, हत्वा सर्वमिदं जगत् । आकाशमिव पङ्केन, नासौ पापेन युज्यते ॥१॥ ६ कलुपं वा दुहिलं, येन समता पुण्यपापयोरापद्यते, यथा-"एताटवानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे! वृकपदं पश्य, यद्वदन्ति बहुश्रुताः॥१॥” इति, निस्सारं-परिफल्गु, यथा ४ वेदवचनं ७, अधिक-वर्णादिभिरभ्यधिकं ८, तैरेव हीनभूनं ९, अथवा हेतूदाहरणाधिकमधिकं, यथा-अनित्यः शब्दः कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वाभ्यां घटपटवदित्यादि ८, ताभ्यामेव हीनमून, यथा अनित्यः शब्दो घटवत् , अनित्यः शब्दः कृतकत्वादिति ९, शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पौनरुक्त्यमन्यत्रानुवादात्, अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं च, तत्र शब्दपुन-15 रुक्तमिन्द्र इन्द्र इति, अर्थपुनरुक्तमिन्द्रः शक्र इति, अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं यथा-देवदत्तो दिवा न भुते बलवान् पट्विन्द्रियश्च, अर्थादापन्नं रात्री भु इति, तत्र यो ब्रूयात्-दिवा न भुङ्क्ते रात्री भुते स पुनरुक्तमाह १०, व्याहतं नाम यत्र पूर्वेण परं व्याहन्यते, यथा 'कर्म चास्ति फलं चास्ति, कत्ता नास्ति च कर्मणा' मित्यादि ११ अयुक्तम्अनुपपत्तिक्षम, यथा-'तेषां कटतटभ्रष्टैगजानां मदबिन्दुभिः । प्रावर्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी ॥१॥' इत्यादि १२, दीप SCSCALCCESS अनुक्रम ~-87 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८८०-८८४], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं -गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक श्रीआव- क्रमभिन्न यत्र यथासङ्ख्यमनुदेशो न क्रियते यथा 'स्पर्शनरसनघाणचक्षुःश्रोत्राणामर्थाः स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दा' इति श्यकमल- | वक्तव्ये स्पर्शरूपशब्दगन्धरसा इति श्रूयादित्यादि १३, वचनभिन्नं यत्र वचनव्यत्ययो, यथा वृक्षावेती पुष्पिता इत्यादि। यगिरीय- दि|१४, विभक्तिविभिन्नं च यत्र विभक्तिव्यत्ययः, यथैष वृक्ष इति वक्तव्ये एष वृक्षमित्याह १५, लिङ्गभिन्नं यत्र लिङ्ग-1 वृत्तौ सूत्रा- व्यत्ययः, यथा इयं स्त्रीति वक्तव्ये अयं स्त्रीत्याह १६, अनभिहितं-स्खसिद्धान्तेऽनुपदिष्टं, यथा सप्तमः पदार्थो दशमं द्रव्यं नुगमः वा वैशेषिकस्य, प्रधानपुरुषाभ्यधिकं साङ्ख्यस्य, चतुःसत्यातिरिक्तं शाक्यस्येत्यादि १७ अपदं यत्र पये विधातव्येऽन्य च्छन्दोऽभिधानं, यथा आर्यापादे वैतालीयपादाभिधानं १८', स्वभावहीनं यद्वस्तुनः प्रत्यक्षादिप्रसिद्धं स्वभावमतिरिच्या ॥४८३॥ न्यथावचनं यथा शीतोऽग्निः मूर्तिमदाकाशमित्यादि १९, प्यवहितं नाम अन्तर्हितं, यत्र प्रकृतमुत्सृज्याप्रकृतं विस्तरतोऽभिधाय पुनः प्रकृतमधिक्रियते, यथा हेतुकथामधिकृत्य सुप्तिङन्तपदलक्षणप्रपञ्चमर्थशास्त्रं चाभिधाय पुनर्हेतुवचनं २०, का-12 |लदोपः अतीतादिकालव्यत्ययः, यथा रामो वनं प्राविशदिति वक्तव्ये प्रविशतीत्याह २१, यतिदोषः अस्थानविच्छेदः। अकरणं वा २२, छविः अलंकारविशेषता तेन शून्यता छविर्दोषः २३, समयविरुद्धं-स्वसिद्धान्तविरुद्धं, यथा साङ्ख्यस्या सत् कारणे कार्य सबैशेपिकस्य इत्यादि २४ वचनमात्रमहेतुकं, यथा विवक्षिते भूप्रदेशे इदं लोकमध्यमिति २५ अर्धापत्तिदोषो 8 है यत्रार्थादनिष्टापत्तिर्यथा ब्राह्मणो न हन्तव्य इत्यादब्राह्मणघातापत्तिः २६ असमासदोषो नाम समासब्यत्ययो, यदिवा ॥४८३॥ १ यद्यपि सर्पजातीनामपीति श्रद्धा इति छन्दोऽनुशासनवचसा सर्वेषां छन्दसां संकरः स्यात्, परं स एकप्रकरणोक्तानां शेयः, इमे | आर्यावतालीये भिन्नप्रकरणगते इति दोषबत्ता । ROCHROGROCESEXRAKACADCALCALS दीप अनुक्रम ~88 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८८५-८८६], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं -गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यकनियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक CALEGACASSACCEKACSCCU यत्र समासविधी सत्यसमासवचनं, यथा राजपुरुषोऽयमित्यत्र तत्पुरुष समासे कर्तव्ये विशेषणसमासकरणं यहबीहिकरणं वा, यदिवा असमासकरणं राज्ञः पुरुषोऽयमिति २७ उपमादोपो हीनाधिकोपमामिधानं, यथा मेरुः सर्पपोपमः, सर्षपो 8मेरुसमा, विन्दुः समुद्रोपमः समुद्रो बिन्दूपम इत्यादि २८, रूपकदोपो नाम स्वरूपावयवब्यत्ययो, यथा पर्वते पर्वतरू&ापावयवानामनभिधानं समुद्रावयवानां चाभिधानमित्यादि २९, निदेशदोषो यत्र उद्दिश्यपदानामेकवाक्यभावो न क्रियते, यथा देवदत्तः स्थाल्यामोदनं पचतीति वक्तव्ये पचतिशब्दानभिधानं ३०, पदार्थदोषो यत्र वस्तुपर्यायवाचिनः पदार्घस्यार्थान्तरपरिकल्पनाश्रयणं यथा द्रव्यपर्यायवाचिना सत्तादीनां द्रव्यादर्थान्तरपरिकल्पनमु लूकस्य ३१, सन्धिदोषो-विश्लिष्ट-1 संहितत्वं सन्ध्यभावो वा ३२, एते द्वात्रिंशत् सूत्रदोषा भवन्ति ज्ञातव्याः, एभिर्वियुक्तं द्वात्रिंशद्दोपरहितं लक्षणयुकं सूत्रं तत् इति वाक्यशेषः, द्वात्रिंशद्दोषरहितं यच्चेति वचनाद्धि तच्छब्दनिर्देशो गम्यत एव, तथाऽष्टभिगुणै रुपेतं यत् तलक्ष-12 णयुक्तमिति वर्तते । ते चाष्टौ गुणा इमे निदोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलंकियं । उवणीयं सोययारं व, मियं महरमेव य॥८८५॥ । निर्दोष नाम प्रागुक्तसमस्तदोषरहितं, सारयत्-बहुपर्यायं, सामायिकशब्दवत् , अन्ययव्यतिरेकलक्षणा हेतवस्तैर्युक्त हेतुयुक्तं, अलङ्कतम्-उपमादिभिरुपेतं, उपनीतम्-उपनयोपसंहृतं, सोपचारम्-अग्याम्याभिधानं, मितं-नियतवर्णादिपरि-13 माणं, मधुरं-श्रवणमनोहरं ।। अथवेदं सर्वज्ञभाषितसूत्रलक्षणं अप्पक्खरमसंदिद्धं सारवं विस्सतोमुहं । अत्थोभमणवजं च, सुत्तं सवन्नुभासियं ॥ ८८६ ॥ दीप अनुक्रम MEncा ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [८८५-८८६ ], वि० भा० गाथा [१००९-१०१०, २८०१ ] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः नुगमः ॥ ४८४ ॥ श्रीआवअल्पाक्षरं नाम मिताक्षरं यथा सामायिकसूत्रं, असन्दिग्धं यत् सैन्धवशब्दवत् लवणपटघोटकाद्यनेकार्थसंशयकारि न श्यकमल- भवति, सारवत् - बहुपर्यायं प्रतिमुखमनेकार्थाभिधायकं वा, विश्वतोमुखं-अनेकमुखं, प्रतिसूत्रमनुयोगचतुष्टयाभिधानात्, यगिरीय अस्तोभकं चवावैहहिकारादिपदच्छिद्रपूरणस्तोभकशून्यं, स्तोभका निपाता इति पूर्ववैयाकरणेषु प्रसिद्धेः, अनवद्यम् - अगवृत्ती सूत्रार्ह्यमहिंसाप्रतिपादकं न 'पट् शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनात् न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः ॥ १ ॥ ' इत्यादिवचनमिव हिंसाभिधायकं, एवंभूतं सूत्रं सर्वज्ञभाषितमिति ॥ ततः सूत्रानुगमात् सपदच्छेदसूत्रोच्चारणरूपात् सूत्रेऽनुगते, किमुक्तं भवति ?, अनवद्यमिति निश्चिते सूत्रपद निक्षेपलक्षणः सूत्रालापकन्यासः प्रवर्त्तते, तदनन्तरं सूत्रस्पर्शि कनियुक्तिः चरमानुयोगद्वारा विहिता नयाश्च भवन्ति, समकं चैतत्प्रतिसूत्रमनुगच्छति, तथा चाह भाष्यकृत् सुत्तं सुत्तागमो सुत्ताला वगकतो य निक्खेवो। सुत्तष्फासियनिवृत्ति नया य समगं तु वच्चति ॥ १ ॥ (वि. २८०१) सूत्रानुगमादीनां त्वयं विषयविभागः सपदच्छेदं सूत्रमभिधाय भवति सूत्रानुगमोऽवसितप्रयोजनः, सूत्रालापकन्यासोऽपि नामादिनिक्षेपमात्रमेवाभिधाय, सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तिस्तु पदार्थविग्रहविचारप्रत्यवस्थानाद्यभिधाय तच्च प्रत्यवस्थानादि प्रायो नैगमादिनयमतविषयमतो वस्तुतस्तदन्तर्भाविन एव नया इति, न चैतत् स्वमनीपिकाविजृम्भितम्, यत आह भाय्यकारः - होइ कयस्थो वोतुं सपयच्छेयं सुयं सुयाणुगमो । सुत्तालावगनासो नामादिन्नासविणिओगं ॥१॥ (वि.१००९) सुत्तष्फासिय निज्जुत्तिनियोगो सेसओ पयत्यादी । पायं सोचिय नेगमनयाइमयगोयरो होइ ॥ २॥ (वि. १०१० ) आह- यद्येवं क्रमस्ततः किमित्युत्क्रमेण निक्षेपद्वारे सूत्रालापकन्यासोऽभिहितः १, उच्यते, निक्षेपसामान्यात्, एवं हि Por Private & Personal Use Only ~90~ सूत्रगुणाः विषयवि भागाः ॥ ४८४ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८८७], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रतिपत्तिलाघवं भवतीत्यलं प्रसङ्गेन ॥ तदेवं विनेयजनानुग्रहार्थ नयानुगमादीनां प्रसङ्गतो विषयविभागः प्रदर्शितः, अधुना प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्र प्रकृतमिदं-सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयम् , तच्च पञ्चनमस्कारपूर्वक तस्याशेष श्रुतस्कन्धान्तर्गतत्वात्, ततोऽसावेव सूत्रादौ व्याख्येयः, सूत्रादित्वात् , सर्वसम्मतसामायिकसूत्रादिवचनवत्, सूत्रादिता चास्य नियुक्तिकृता तसूत्रादौ व्याख्यायमानत्वादवसेया, अन्ये तु व्याचक्षते-मङ्गलत्वादेवायं सूत्रादौ व्याख्यायते, तथाहि-त्रिविध मङ्गल-आदी मध्येऽवसाने च, तत्र आदिमङ्गलार्थ नन्दी व्याव्याता, मध्यमङ्गलार्थ तीर्थङ्करादिगुणाभिधायकः 'तित्थयरे भयवंते' इत्यादिगाथासमूहा, नमस्कारस्त्ववसानमङ्गलार्थ इति, एतच्चायुक्तं, शास्त्रस्यापरिसमाप्तत्वेनावसानत्वायोगात्, न चादिमङ्गलत्वमप्यस्योपपन्नं, तस्य कृतत्वात् , करणे चानवस्थाप्रसङ्गात् , यदिवा कृतं परवुद्धिमान्धप्रदर्शनेन, न खल्वेष सतां न्यायः, ततो गुरुवचनात् यथावधारितं तत्त्वार्थमेव ब्रूमः, सूत्रादिनमस्कारः, अतस्तमेव प्राग्व्याख्याय सूत्रं व्याख्यास्यामः, स चोत्पत्त्याद्यनुयोगद्वारानुसारतो व्याख्येय इति नमस्कारनियुक्तिप्रस्तावनीमिमामाह गाथां नियुक्तिकार: उपपत्ती १ निक्खेवो २ पयं ३ पयत्यो ४ परूवणा ५ वत्थू ६। अक्खेव ७ पसिद्धि ८ कमो ९पओअण १० फलं ११ नमुक्कारो ॥ ८८७॥ उत्पदनमुत्पादः प्रसूतिरुत्पाद इत्यर्थः, सोऽस्य नमस्कारस्य नयानुसारतश्चिन्तनीयः, तथा निक्षेपणं निक्षेपो-न्यासः, स चास्य कार्यः, पद्यतेऽनेनेति पदं, तच्च पञ्चधा-नामिक नपातिकं औपसर्गिकमाख्यातिकं मित्रं च, तत्र अश्व इत्यादि नामिक, च वा ह अह इत्यादि नैपातिक, प्र परा इत्यादि औपसर्गिकं, पठति भुङ्क्ते इत्याद्याख्यातिकं, संयत इत्यादि मिश्रं, तदस्य अनुक्रम SKSSASASSASSASS 454645-7-5-2-9754551 मू. (१) नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहणं ___एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं मूलसूत्र -(१) “नमस्कार सूत्र" हमने पूज्यपाद आचार्य सागरानंदसूरीश्वरजी संपादित “आगममंजुषा" पृष्ठ-१२०५ के आधार से यहां लिखा है | ~91~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआव श्यकमलयगिरिय - वृत्ती नम स्कारे ॥ ४८५ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ८८८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | यथासम्भवं वाच्यं तथा पदस्यार्थः पदार्थः, स चास्य वाच्यः, तथा किमाद्यनुयोगद्वारैश्च प्रकर्षेण रूपणा प्ररूपणा, सा च दुविहा परूवणेत्यादि विधेया, तथा वसन्त्यस्मिन् गुणा इति वस्तु तत् नमस्कारार्थं वाच्यम्, आक्षेपणमाक्षेपः, आशङ्केत्यर्थः, सा चास्य कार्या, तथा प्रसिद्धिः- तत्परिहाररूपा वक्तव्या क्रमः - अर्हदाद्यभिधेयपरिपाटी, प्रयोजनम् - अर्हदादिक्रमस्य कारणं, अथवा येन प्रयुक्तो नमस्कारे प्रवर्त्तते तत् नमस्कारस्य प्रयोजनमपवर्गाख्यं वक्तव्यं, फलं - नमस्कारक्रियानन्तरभावि स्वर्गादिकं निरूपणीयं, अन्ये तु व्यत्ययेन प्रयोजनफलयोरर्थ प्रतिपादयन्ति, नमस्कारः खल्वेभिद्वरैिश्चिन्तनीयः, | एष गाथासमुदायार्थः ॥ तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायमाश्रित्य प्रथमत उत्पत्तिद्वारनिरूपणार्थमाह उपन्नापन्नो इत्थ नयाऽऽइणेगमस्सऽणुपन्नो । सेसाणं उप्पन्नो जइ कत्तो ? तिविहसामित्ता ॥ ८८८ ॥ उत्पन्नश्चासावनुत्पन्नश्च उत्पन्नानुत्पन्नः ' मयूरव्यंसकादय ' इति विशेषणसमासः यथा कृताकृतं भुङ्कमभुङ्कमित्यादि, एवंप्रकारश्च समासः स्याद्वादिनामेव युक्तिमियर्त्ति, न शेषस्य एकान्तवादिनः, एकत्रैकदा परस्परविरुद्धधर्मानभ्युपगमात्, अथ स्याद्वादिनोऽपि कथमेकत्रैकदा परस्परविरुद्धधर्माध्यास इत्यत आह-'एत्थ नया' इति, अन्न उत्पत्त्यनुत्पत्तिविषये नयाः प्रवर्त्तन्ते, ते च नैगमादयः सप्त, नैगमो द्विभेदः - सर्वसङ्ग्राही देशसङ्ग्राही च तत्र सर्वसङ्ग्राहिणो नैगमस्य सामान्यमात्रावलस्थित्वात् सामान्यस्य चोत्पादव्यय रहितत्वात् नमस्कारस्यापि च तदन्तर्गतत्वादनुत्पन्नो नमस्कारः, शेषाणां देशसङ्ग्राहिनैगमप्रभृतीनां उत्पन्नः शेषा हि विशेषग्राहिणः विशेषाश्चोत्पादव्ययशून्यस्य वान्ध्येयादेरिवावस्तुत्वात्, नमस्कारश्चायं वस्त्विति विशेषत्वादुत्पन्न इति । आह- शेषा देशसङ्ग्राहिनैगमसङ्ग्रहादयः, सङ्ग्रहस्य च विशेषग्राहित्वं न विद्यते, ततः कथमुक्कं शेषा Por Private & Personal Use Only ~92~ उत्पत्तिद्वारं ॥ ४८५ ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८८९], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम वामपक्ष इति 1, नैप दोषः, तस्य सर्वसवाहिनैगम एवान्तर्भावविवक्षणात् । 'जह कत्तो'त्ति यदि उत्पन्नस्तहि कत हत्या ह-'तिविहसामित्ता' इति, त्रिविधं च तत् स्वामित्वं च त्रिविधस्वामित्वं तस्मात् त्रिविधस्वामित्वात् , त्रिविधस्वामिभावात् । 1 त्रिविधकारणादित्यर्थः, आह च-एवमप्येकत्रैकदा परस्परविरुद्धधर्माध्यासदोषस्तदवस्थ एव, तदयुक्तम् , अशेपस्यापि वस्तु-15 नस्तत्त्वतः सामान्यविशेषात्मकत्वाभ्युपगमे नमस्कारस्यापि सामान्यविशेषात्मकत्वात् , तत्र च सामान्यधर्मः सत्त्वादिमिरनु-14 त्पादात् विशेषधम्मरानुपूर्व्यादिभिरुत्पादादिति ॥ साप्रतं यदुक्तं 'त्रिविधस्वामित्वादिति तत् विविधस्वामित्वमपदर्शयति-14 समुट्ठाणवायणालद्धिओ य पढमे नयत्तिए तिविहं । उज्जुसुअ पढमवजं सेसनया लद्धिमिच्छति ॥ ८८९ ॥ समुत्थानतो वाचनातो लब्धितश्च नमस्कार, समुत्पद्यते इति वाक्यशेषः, तत्र सम्यक् सङ्गतं प्रशस्तं वा उत्थानं यस्मात् तत् समुत्थानं, किं तदिति चेत्, उच्यते, अन्यस्याश्रुतत्वात् तदाधारतया प्रत्यासन्नत्वात् शरीरमत्र परिगृह्यते, शरीरं हि नमस्कारकारण, तद्भावे भावसम्भवात् , ततः समुत्थानतः, तथा वाचनं वाचना-परतः श्रवणमधिगम उपदेश इत्यनान्तरं, सा च नमस्कारकारणं, तद्भावभावित्वादेव च, ततो वाचनातः, तथा लब्धिः-तदावरणकर्मक्षयोपशमलक्षणा साऽपि कारणं तद्भावभावित्वादेव, ततो लब्धितः, चशब्दः पदत्रयान्तप्रयुक्तो नयापेक्षया त्रयाणामपि प्राधान्यख्यापनार्थः, अत एवाह-'पढमे नयत्तिए तिविहं प्रथमे नयत्रिके त्रिविधं, अशुद्धनैगमसङ्घहव्यवहाराख्ये विचार्ये समुत्था-18 नादिकं त्रिविधमपि नमस्कारकारणं, आह-प्रथमे नयत्रिकेऽशुद्धनैगमसङ्ग्रहो कथं त्रिविधं कारणमिच्छतः?, तयोः सामान्यमात्रावलम्बित्वात् , नैष दोषः, अशुद्धनगमसङ्ग्रहयोर्नयत्रिकग्रहणेनाग्रहणात् , तन्मतेन नमस्कारस्योत्पत्तेरेवाभावात् ,12 MEROGRESCORRECTRISEXAASHASANCHAR [१] A njanentraining ~93 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८९०/१], विभा गाथा -1, भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत निक्षेपाः सत्राक दीप श्रीआव-दाएतच्च प्रागेव 'नैगमरसऽणुप्पो' इत्यत्र चर्चितम् , 'उज्जुसुय पढमवर्जति ऋजुसूत्रः प्रथमवर्ज-समुत्थानाख्यकारणश्यकमल- शून्यं शेष कारणद्वयमेवेच्छति, समुत्थानस्य व्यभिचारित्वात् , तद्भावेऽपि वाचनालब्धिशून्यस्यासम्भवात, 'सेस नया यगिरिय- लद्विमिच्छन्तीति शेपनयाः-शब्दादयस्ते लब्धिमेबैकं कारणमिच्छन्ति, वाचनाया अपि व्यभिचारित्वात् , तथाहि-सवृत्तौ नम- त्यामपि वाचनायां नोपजायते लब्धिरहितस्य गुरुकर्मणोऽभव्यस्य वा नमस्कारः, सत्यां तु लब्धाववश्यमुपजायते, ततोऽस्कारे न्वयव्यतिरेकाव्यभिचारात्सबैका कारणमिति, गतमुत्पत्तिद्धारम् । इदानीं निक्षेपः स चतुर्धा, तद्यथा-नामनमस्कारः। स्थापनानमस्कारो द्रव्यनमस्कारो भावनमस्कारश्च, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यनमस्कारोऽप्यागमतो नोआगमतश्च, ॥४८६॥ तत्रागमतो ज्ञशरीरद्व्यनमस्कारो भव्यशरीरद्रव्यनमस्कारो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यनमस्कारश्च ॥ सम्पति ज्ञशSIरीरभव्यशरीरद्रव्यनमस्कारप्रतिपादनार्थमाह निण्हाइ दव भावोवउत्त जं कुन्ज सम्मदिट्टीओ। * निहवानाम् , आदिशब्दात् पोटिकानामाजीविकानां, यदिवा द्रव्यनिमित्तं यो मंत्रदेवताराधनादौ नमस्कारः स द्रव्य-द नमस्कारः, तत्र द्रव्यनमस्कारे उदाहरणम्-वसंतउरे नगरे जियसत्तू राया, धारणी देवी, सो अन्नया देवीए सहितो ओलोयणहितो दमगं पासइ, अणुकंपा दोण्हवि जाया, देवी भणइ-नदिसरिसा रायाणो, भरियाई भरंति, रण्णा आणावितो, |कयालंकारो दिनवत्थो तेहिं उयणीतो, सो य कच्छूए गहितल्लतो ओलग्गाविजइ, कालंतरेण राइणा से रज दिन्नं, पेच्छइ दंडभडभोइए देवताययणपूयातो करेमाणे, सो चिंतेइ-अहं कस्स करेमि ?, रण्णो आययणं करेमि, तेण देवउलं अनुक्रम ॥४८६॥ ~94~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८९०/१], विभा गाथा -1, भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक कारियं, तस्थ रण्णो देवीए य पडिमा कया, पडिमापवेसे राया देवी य आणीया, ताणि पुच्छंति-किं एवं ?, सो साहइ,18 तुट्ठो राया, सविसेसं सक्कारेइ, सो तिसंझं पडिमातो अच्चेइ, राया पडियरइ, ततो तुटेण राइणा से सबढाणगाणि विइन्नाणि, अन्नया राया दंडजत्साए गतो तं सबंतेउरहाणेसु ठविऊणं, तत्थवि अंतेउरियाओ निरोहमसहमाणीतो तं चेव उवचरंति, सो नेच्छइ, ताहे तातो भत्तगं नेच्छंति, पच्छा सणियं पविट्ठो विहालितो य, राया आगतो, सिट्टे विणासितो, रायसमाणो 3 आतित्थयरो, अंतेउरत्थाणीया छकाया, अहवा न छकाया, किन्तु संकादयो पमाया, मा सेणियादीणधि दबनमोकारो भवि-16 ४ास्सति, दमगत्थाणीया साहू, कच्छूथाणीयं मिच्छत्तं, दंडो संसारे विणिवातो, एस दधनमोकारो, "भावोवउत्त जं कुज | सम्मदिट्टीओ' भावनमस्कारो मनोवाकार्यरुपयुक्तः सन् यत्सम्यग्दृष्टिः करोति शब्द क्रियादिकं ॥ अत्र च नामादिनिक्षेपाणां 8 योनयो यं निक्षेपमिच्छति तद् उपदयते-गमसहव्यवहारऋजुसूत्राश्चतुरोऽपि निक्षेपान् मन्यन्ते, शब्दसमभिरूढेवंभूतास्तु 18 भावनिक्षेपमेव केवलम् , आह च भाष्यकृत-"भावं चिय सद्दनया सेसा इच्छंति सबनिक्खेवे॥ अन्ये पुनरेवंग लव्याचक्षते नैगमश्चतुरोऽपि निक्षेपानिच्छति, सहव्यवहारो स्थापनावान् त्रीन् निक्षेपान् , ऋजुसूत्रः स्थापनाद्रव्यवों द्वारा निक्षेपो, तद्यथा-नामनिक्षेपं भावनिक्षेपंच, त्रयः शब्दा भावनिक्षेपमेव केवलमिच्छन्ति, न शेषान् त्रीन्, तथा च तेषां हो ग्रन्धः-'चउरोऽवि नेगमनयो ववहारो संगहो ठवणवज । उजुसुत्त पढमचरिमे इच्छति भावं तु सहनया ॥१॥ तदेतदयुकं, युक्तिविरोधात्, तथाहि-गमनयो यदि सामान्यग्राही विशेषग्राही च निर्विवादमविशेषेण स्थापनामिच्छति ततः13 सामान्यग्राही सहनयो विशेषावलम्बी च व्यवहारनयः कथं स्थापनां नेच्छेत् ?, सर्वदेशसवाहिनैगमनयमतापेक्षया सनआ. सू.८२ CRECRRORBA अनुक्रम [१] CHC ~95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८९०], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक श्रीआव-IM हव्यवहारनयमतयोरविशेषात् एतच्यावसीयते, तत्र तत्र प्रदेशे सर्वसङ्क्राहिणो नैगमस्य सङ्ग्रहे देशसङ्क्राहिणो व्यवहारेऽन्तर्भा- द्रव्ये द्रमश्यकमल- 1वविवक्षणात्, यदप्यवादीत्-स्थापनाद्रव्यवजों द्वौ निक्षेपाविच्छति ऋजुसूत्र इति, तदप्यसमीचीनं, सम्यक् तत्त्वानभिज्ञा- का निक्षेपे यगिरिय- नात्, तथाहि-स्थापना नाम द्रव्यस्याकारविशेषः, द्रव्यं च ऋजुसूत्रनयोऽवश्यमिच्छति, केवलं न पृथक्त्वं, अतीतानागतयोवृत्तौ नम- विनष्टानुत्पन्नत्वेन परकीयस्यानुपयोगित्वेनावस्तुत्वाभ्युगमात् , उक्त चानुयोगद्वारेषु-"उज्जुसुयस्स एगे अणुवउत्ते आग-दापदायी स्कारे मतो एगं दवावस्सयं, पुहुत्तं नेच्छइ" इति, तद् यदि द्रव्यं सुवर्णादिकं पिण्डाद्यवस्थायां तथाविधकटककेयूराद्याकाररहित-12 ॥४८७॥ तया निराकारमपीच्छति, भविष्यत्कुण्डलादिपर्यायलक्षणभावहेतुत्वात् , ततः साक्षात्तत् साकारं (कथं) नेच्छेत् ?, तस्य ननु सुतरामभ्युपगमः, तस्मात् ऋजुसूत्रोऽपि नैगमनय इव चतुरोऽपि निक्षेपानिच्छतीति प्रतिपत्तव्यमित्यलं परमान्धप्रकाशनेन । गत निक्षेपद्वारम् , तत्र पञ्चसु नामिकादिषु पदेषु यन्नमस्कारे पदं तदुपदर्शयन्नाह नेवाइयं पदं दवभावसकोअणपयत्थो॥ ८९०॥ | निपतत्यहंदादिपदपर्यन्तेष्विति निपातः, निपाते भवं नैपातिकम्, अध्यात्मादित्वादिकण, यदिवा निपात एव नैपातिकं, . विनयादेराकृतिगणत्वात् स्वार्थिक इकण, तत्र नम इति नैपातिकं पदं । गतं पदद्वारम् , अधुना पदार्थद्वारमाह-'दबभा-12 IN||४८७॥ है संकोयणपयत्थो नम इति 'णमू प्रहत्वे' नमनं नमः, औणादिकोऽसूप्रत्ययः, अस्यार्थ:-पूजा द्रव्यभावसकोचनलक्षणा, तत्र द्रव्यसङ्कोचन करशिरःपादाद्यवयवसङ्कोचा, भावसङ्कोचनं विशुद्धस्य मनसो व्यापारः, सूने चैवं समासः-द्रव्यभावस-1 कोचनात्मकः पदार्थों द्रव्यभावसङ्कोचनपदार्थः, शाकपार्थिवादिदर्शनात् मध्यपदलोपी समासः, एष चात्र भावार्थः-नमो RECENTRASES दीप अनुक्रम [१] BAR AR ~964 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८९१-८९२], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: II हङ्ग्य इति किमुक्तं भवति ?-द्रव्यभावसङ्कोचलक्षणां भगवतामहतां पूजां करोमि, द्रव्यभावसङ्कोचनविषये च भङ्गचतु-13 अष्टय, द्रव्यसङ्कोचनं न भावसङ्कोचनमित्येको भङ्गो, यथा पालकस्य, भावसङ्कोचनं न द्रव्यसङ्कोचनमिति द्वितीयो, यथाऽनुत्तरविमानवासिनां देवानां, द्रव्यभावयोः सङ्कोचन मिति तृतीयो यथा शांवस्य, न द्रव्यसङ्कोचनं न भावसङ्कोचनमिति शून्यो भङ्गा, इह भावसङ्कोचनं प्रधान, द्रव्यसङ्कोचनं तु तद्बुद्धिनिमित्तं प्रधानं, केवलं तु विफलमेव ॥ गतं पदार्थद्वारम् , अधुना प्ररूपणाद्वारमतिपादनार्थमाह18|दुविहा परूवणा छप्पया य नवहा य छप्पया इणमो। किं कस्स केण व कहिं केवचिरं कहविहो अ भवे ॥८९१॥ द द्विविधा-द्विप्रकारा प्ररूपणा-वर्णना, द्वैविध्यमेव दर्शयति-पट्पदा च नवधा-नवप्रकारा, नवपदेति तात्पर्यार्थः, चश ब्दात् पञ्चपदा च, तत्र पट्पदा इणमो-इयं, किं कस्याः केन वा क वा कियच्चिरं कतिविधो वा भवेन्नमस्कारः ॥ तत्र द्विारप्रतिपादनार्धमाहहै कि, जीयो तप्परिणओ (१) पुवपडिवन्नओ उ जीवाणं । जीवस्स व जीवाण व पडुच्च पडिवजमाणं व (तु)॥८९२॥ किंशब्दः क्षेपप्रश्ननपुंसकव्याकरणेषु, तत्रेह प्रश्ने, अयं च प्राकृतेऽलिङ्गः, सर्वादिः, नपुंसकनिर्देशः, सर्वलिङ्गैः सह ४ यथायोगममिसम्बध्यते, किं सामायिकं ? को नमस्कारः, तत्र नैगमादिनयानामविशुद्धानां मतमधिकृत्याजीवादिव्युदा-15 है सेनाह-जीवो, नाजीवः, स च सहनयापेक्षया मा भूदविशिष्टः स्कन्धः, स्कन्धो नाम सर्वास्तिकायसङ्घातः, यदाहुस्तन्म तावलम्बिनः-"पुरुष एवेदं निं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यं उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति" इत्यादि, तथा तनयथि अनुक्रम [१] ~97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआव श्यकमल यगिरिय आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ८९१-८९२ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः शेषापेक्षयैव मा भूदविशिष्टो ग्रामस्ततो नोस्कन्धो नोग्राम इति वाक्यशेषो द्रष्टव्यः तथाहि सर्वास्तिकायमयः स्कन्धः, तदेकदेशो जीवः, स चैकदेशत्वात् स्कन्धो न भवति, अनेकस्कन्धापत्तेः, प्रतिजीवं स्कन्धत्वाभ्युपगमात्, अस्कन्धोऽपि न भवति, स्कन्धान्तर्वर्त्तित्वाद्, अन्यथा स्कन्धाभावप्रसङ्गात् प्रत्येक मस्कन्धत्वात्, अनभिलाप्योऽपि न भवति, वस्तुविवृत्तौ नम-शेषत्वात्, तस्मात् नोस्कन्धः, स्कन्धैकदेश इति भावः, स्कन्धदेशविशेषताद्योतको नोशब्दः, एवं नोग्रामोऽपि भावनीयः, स्कारे ॥ ४८८ ॥ नवरं ग्रामो नाम चतुर्दशभूतग्रामसमुदायः, स चतुर्द्दशभूतग्रामः पर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियादयः, यद् वक्ष्यति - "एगिंदिय सुहुमियरा सन्नियरपणिंदिया य सबितिचऊ । अपज्जत्ता पज्जत्ता भेदेण चउदसग्गामा ॥ ( प्रति सं. ) ॥ १ ॥” कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्र सामान्येनाशुद्धनयानां नैगमादीनां जीवोऽनुपयुक्तोऽपि तज्ज्ञानलब्धियुक्तो योग्यो वा नमस्कारः, नमस्कारनमस्कारवतोरभेदोपचाराच्चैवं निर्देशः, सम्प्रति शब्दादिशुद्धनयमतमधिकृत्याह- 'तप्परिणतो' इति, जीव इति वर्त्तते, शब्दादिनयाः प्राहुः - जीवस्तत्परिणतो- नमस्कारपरिणत एव नमस्कारो भवति, नापरिणतः, उक्तं च- "तपरिणामोच्चिय ततो सद्दाईणं तथा नमोकारो । सेसाणमणुवउत्तो व लद्धिसहितोऽह्या जोगो ॥ १ ॥” एकत्वानेकत्वचिन्तायां तु नैगमस्य सामान्य ग्राहिणः सङ्ग्रहे विशेषग्राहिणो व्यवहारेऽन्तर्भावविवक्षणात् सङ्ग्रहादिभिरेव षड्विर्नयैर्विचारः, तत्र सङ्ग्रहस्य नमस्कारजातिमात्राक्षेपादेको नमस्कारः, व्यवहारस्य व्यवहारपरतया व्यक्तिभेदेन बहवो नमस्काराः, ऋजुसूत्रादयस्तु स्वकीय वर्त्तमानमात्राभ्युपगमपरतया प्रत्येकमेकमेव नमस्कारमिच्छन्ति, तमपि चोपयुक्तमिति, उक्तं च- "संगहनतो नमोकारजातिसामन्नतो सया एगं । इच्छइ बवहारो पुण एगमिगं बहू बहवो ॥ १ ॥ उज्जुसुयाईणं पुण जेण सयं संपयं च Por Private & Personal Use Only ~98~ षट्पदायां किंद्वारं ॥ ४८८ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ८९१-८९२ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः बत्युंति । पत्तेयं पत्तेयं तेण नमोकारमिच्छति ॥ २ ॥ अत्र 'एगमिहेग' मित्यादि, एकं-नमस्कारवन्तमिह जीवलोके एकं नमस्कार मिच्छति, बहून् नमस्कारवतो जीवान् बहून्नमस्कारानिति, गतं किमिति द्वारं । सम्प्रति कस्येति द्वारम्, तत्र प्राक्प्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकाङ्गीकरणतः प्ररूपणामाह-'पुछपडिवनतो उ जीवाण' मित्यादि, इह यदा पूर्वप्रतिपन्न एवाधिक्रियते तदा व्यवहारनयमतमाश्रित्य जीवानां विज्ञेयो, बहुजीवस्वामिक इत्यर्थः, प्रतिपद्यमानं तु प्रतीत्य जीवस्य जीवानां वा नमस्कारः, यदा एको जीवो नमस्कारं प्रतिपद्यते तदा जीवस्येति यदा तु बहवो जीवास्तं प्रतिपद्यन्ते तदा जीवानामिति अक्षरगमनिका, भावार्थरत्वयम् सङ्ग्रहनयस्य पूर्वप्रतिपन्न चिन्तायां प्रतिपद्यमानकचिन्तायां च एकस्वामिक एव नमस्कारो, जातिमात्राभ्युपगमात् शेषनयानां तु व्यवहारादीनां प्रतिपद्यमानको नमस्कारस्यैको वा जीवोऽनेके वा, पूर्वप्रतिपन्नास्तु नियमेनानेके, तेषां गतिचतुष्टयेऽपि मार्गणायामसख्येयानां सदैव लाभात्, आह च- 'पडिवज्जमाणतो पुण एगोऽणेगे व संग मोतुं । इट्ठो सेसनयाणं पडिवन्ना नियमतोऽणेगा ॥ १ ॥” इह ऋजुसूत्रादयोऽविशुद्धाः प्रतिपत्तव्याः, अनेकाभ्युपमात्, अन्यथा परकीयानभ्युपगमेनानेकाभ्युपगमानुपपत्तेः, अथ नमस्करणं नमस्कारः, नमस्करणक्रिया च सकमिका, ततः संशयः - किमसौ नमस्कारो नमस्कृतिक्रियानिष्पादकस्य कर्त्तुः उत नमस्कार्यस्य पूज्यस्य ?, उच्यते, अत्र नयैर्विचारः, तत्र नैगमव्यवहारनयमतं नमस्कार्यस्य नमस्कारो, न नमस्कर्तुः, तस्य तदुपभोगाभावात्, तथाहि यद्यपि नाम नमस्कारक्रियानिष्पादकः कर्त्ता तथापि नासौ तं नमस्कारमुपभुङ्क्ते, किन्तु नमस्कार्य एव, ततो यथा भिक्षानिष्पादकोऽपि दाता न तामुपभुङ्क्ते इति तस्य न भिक्षा, किन्तु भिक्षोः, एवं नमस्कारोऽपि नमस्कार्थस्यैव नतु नमस्कर्तुरिति, नमस्कार्यं तु वस्तु Por Private & Personal Use Only ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआव श्यकमलयगिरिय वृत्तौ नम स्कारे ॥ ४८९ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ८९१-८९२ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः द्विविधं - जीवरूपमजीवरूपं च, जीवरूपं जिनादि अजीवरूपं तत्प्रतिमादि, जीवाजीवपदाभ्यां चैकवचनबहुवचनाभ्यामष्टौ भङ्गाः, तद्यथा - जीवस्य १ अजीवस्य २ जीवानां ३ अजीवानां ४ जीवस्याजीवस्य च ५ जीवस्याजीवानां च ६ जीवानाम. जीवस्य च ७ जीवानामजीवानां च ८, अत्रोदाहरणानि - 'जीवस्स सो जिणस्स उ अज्जीवस्स उ जिनिंदपडिमाए । जीवाण जईणंप व अजीवाणं तु पडिमाणं ||१|| जीवस्साजीवरस य जइणो विस्स वेगतो समयं । जीवस्साजीवाण य जइणो पडिमाण वेगस्थ ||२|| जीवाणमजीवस्त य जईण बिंबस्स वेगतो समयं । जीवाणमजीवाण य जईण परिमाण वेगत्थ ॥ २ ॥ ] ननु प्राकू सर्वनयमताभिप्रायेणेदमुक्तं- 'जीवो नमस्कारः' केवलं केषांचिन्नयानामभिप्रायेण सामान्येन जीवः अपरेषां नमस्कारक्रियापरिणतः, अत्र तु विपरीतार्थकथनमिति कथं न विरोधः १, नैष दोषः, नमस्कारो हि प्रागुक्तयुक्तिभिः सर्वनयमताभिप्रायेण जीव एव, जीवादन्यस्य नमस्कारक्रियाकर्तृत्वायोगात्, केवलं स जीवकर्तृकोऽपि सन् कस्यावुपयोगद्वारेणाभवतीति स्वामित्व चिन्तामात्रमत्र क्रियते, ततो न कश्चिद्दोषः, आह च भाष्यकृत् -"जीवोत्ति नमोक्कारो नणु समयं कहं पुणो भेओ ! । इह जीवस्सेव सतो भन्नइ सामित्तचितेयं ॥ १ ॥” सङ्ग्रहनयस्तु सामान्यमात्रग्राही, अत एव अयं स्वः अयं परः अयं जीवः अथमजीव इति विशेषणनिरपेक्षो नमस्कारं नमः सामान्यमात्रमेकस्य स्वामिमात्रस्य जीवाजीव विशेषणरहि तस्याभिमन्यते, न बहूनां नापि बहुप्रभेदान्नमस्कारान्, न खलु स जीवस्यायं नमस्कारोऽयमजीवस्यायं स्वस्थ अयं परस्येति स्वामिभेदान् कर्तृमेदान् वा नमस्कारस्यानुमन्यते, सामान्यमात्राक्षेपात् उक्तं च- "सामन्नमेत्तगाही सपर जियेयरविसेसणोऽभिन्नो । न य भेयमिच्छइ सया स नमोसामन्नमेत्तस्स ॥ १ ॥" अथवा स सङ्ग्रहनयः सर्ववस्तूनां सर्वेषामपि च Por Private & Personal Use Only 100~ षट्पदायां कस्यद्वारं ॥ ४८९ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८९३], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दाधर्मधम्मिणामभेदमात्रमेवेच्छति, न भेदं, ततः कस्यासौ नमस्कार इति स्वामित्वचिन्तैव तन्मतेन नोपपद्यते, केवलं नम-12 स्कारक्रियानिष्पादको जीवो, जीवाजीवानां च भेद इति, जीवो नमस्कार इति सर्वदेव तदभिप्रायेण तुल्याधिकरणता, ४. अशुद्धतरो वा कश्चित् सग्रहो नमस्कार सम्बन्धितयाऽभिमन्यमानो जीवस्येति प्रतिपद्यते, नाजीवस्य नापि जीवानामिसत्यादि, आह च-"जीवो नमोत्ति तुल्लाहिगरणयं वेइ नउ स जीवस्स । इच्छइ वाऽसुद्धयरो तं जीवस्सेव नऽनस्स ॥१॥" ऋजुसूत्रमतं तु नमस्कारस्य ज्ञानक्रियाशब्दरूपत्वात् तेषां च कर्तुरनर्थान्तरत्वात् कर्तृस्वामिक एव नमस्कारो, न पूज्यस्वा8 मिकः, आह च-"उज्जुसुयमयं नाणं सहो किरिया व जं नमोकारो । होज नहि सबहा सो जुत्तो तकत्सुरन्नस्स ॥१॥" शब्दादिनयाः प्राहुः-ज्ञानमेव नमस्कारो, न शब्दक्रिये, व्यभिचारात्, तथाहि-शब्द क्रियाविरहेऽपि भवति नमस्कारोपयोगमात्रादिष्टफलसिद्धिः, न तदभावे शब्दक्रियासद्भावेऽपीति, ततस्तन्मतेनोपयुक्तस्य कर्तुरेव नमस्कारो, न बाद्यस्य, आह च-"जं नाणं चेव नमो सद्दाईणं न सद्दकिरियातो । तेण बिसेसेण तयं बज्झस्स न तेऽणुमन्नंति ॥१॥" कस्येतिद्वारं गतम् , अधुना केनेति द्वारमुच्यते-केन साधनेन साध्यते नमस्कारः, तत्रेयं गाथा नाणावरणिजस्त य दंसणमोहस्स सह खओवसमे । जीवमजीवे अहसु मंगेसु अ होइ सवत्थ ॥ ८९३॥ । 8 ज्ञानावरणीयस्येति सामान्योक्तावपि मतिज्ञानावरणीयस्य श्रुतज्ञानावरणीय चेति द्रष्टव्यं, नमस्कारस्य मतिश्रुतज्ञाना न्तर्गतत्वात् , ज्ञानं च सम्यग्दर्शनमृते न भवति, तत आह-'दर्शनमोहस्य' दर्शनमोहनीयस्य च यःक्षयोपशमस्तेन साध्यते नमस्कारः, तद्वशादवाप्यते नमस्कार इति भावः, तस्य च आवरणस्य द्विविधानि स्पर्द्धकानि भवन्ति-सर्वोपघातीनि अनुक्रम SCA%A9-9 ~101 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआव श्यकमल यगिरिय वृती नम कारे ॥४९० ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ८९३ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृि | देशोपघातीनि च सर्व स्वावार्थ गुणमुपनन्तीत्येवंशीलानि सर्वोपघातीनि स्वाचार्यस्य गुणस्य देशमुपघ्नन्तीत्येवंशीलानि देशोपघातीनि तत्र सर्वेषु सर्वघातिषु स्पर्द्धकेषु उद्घालितेषु देशोपघातिनां च स्पर्द्धकानां प्रतिसमयशुद्ध्यपेक्षमनन्तेर्भागैः क्षयमुपगच्छद्भिर्विमुच्यमानः क्रमेण नमस्कारस्य प्रथमं नकारलक्षणमक्षरं लभते, एवमेकैकवर्णप्राया समस्तं नमस्कारं लभते “मइसुयनाणावरणं दंसणमोहं च तदुवघातीणि । तप्फड्डगाई दुविहारं सवदेसो वधाईणि ॥ १ ॥ सबै घाइ | देसोवधाइयाणं च । भागेहिं मुच्खमाणो समए समय अनंतेहिं ॥२॥ पढमं लहइ नकारं एकेक बन्नमेवमनंपि । कमसो विसुज्झमाणो लभइ समत्तं नमोक्कारं ॥ ३ ॥ क्षयोपशमस्वरूपं चैवम् - उदयावलिकाप्रविष्टस्यांशस्य क्षयः, शेषस्य तूपशमः, उक्तं च - "खीणमुद्दन्नं सेसयमुवसंतं भन्नए खतोवसमो ॥" गतं केनेति द्वारम् । अधुना कस्मिन्निति द्वारावसरः, तत्र कस्मिन्निति सप्तमी अधिकरणे, अधिकरणं चाधारः, स च चतुर्भेदः, तद्यथा-व्यापक औपश्लेषिकः सामीप्यको वैषयिकश्च, तत्र व्यापको यथा तिलेषु तैलं औपश्लेषिको यथा कटे आस्ते, सामीप्यको यथा गङ्गायां घोषः, वैषयिको यथा रूपे चक्षुः, तत्राद्योऽभ्यन्तरः, शेषा बाह्याः, अत्र नयैर्विचारः, तत्र नैगमध्यवहारौ बाह्यमिच्छतः, तम्मतानुवादि साक्षादिदं गाथाशकलं 'जीवमजीवे' त्यादि, जीवमजीव इति प्राकृतशैल्या अभूतस्यैवानुस्वारस्यागमः, तत्त्वत एष भावार्थ:-जीवेऽजीवे इ- है त्यादिष्वष्टसु भङ्गेषु भवति, सर्वत्र नमस्कार इति गम्यते, नमस्कारो हि जीवगुणत्वात् जीव एव, स च यदा गजेन्द्रादौ तदा जीवे, यदा कटादौ तदा अजीवे, यदा बहुषु पुरुषेषु तदा जीवेषु ३ यदा बहुषु कटादिषु तदा अजीवेषु ४ यदा एकस्मिन् घोटके आस्तरणे च तदा जीवेऽजीवे च ५ यदा एकस्मिन्नेव घोटके बहुष्यास्तरणेषु तदा जीवेऽजीवेषु ६ यदा बहुषु पुरुषेषु ॥ ४९० ॥ Pur Private & Personal Use Only पट्पदायां केनद्वारं 102~ कस्मिन् - द्वारं च Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८९४], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक हवाहकेष्वेकस्मिन् वाहने शिविकादी तदा जीवेष्वजीवे च यदा बहुषु पुरुषेषु वाहकेषु बहुषु च वाहनाङ्गेषु तदा जीवेष्वजीवेषु च ८ । आह-पूज्यस्य नमस्कार इति नैगमव्यवहारी, स एव च किमित्याधारो न भवति येन पृथगिष्यते ?, उच्यते, नावश्यं यत् यस्य सम्बन्धि तस्य स एवाधारः, अन्यथापि दर्शनात् , यथा देवदत्तस्य धान्यं क्षेत्रे, ततोऽत्रापि पृथगाधार इत्यटभङ्गी, तुशब्दात् शेषनयाक्षेपः, स विनेयजनानुग्रहाय सङ्केपतो दयते, तत्र सङ्गहनयः सामान्यमात्रग्राहितया स्वपर जीवेतरविशेषणरहित इति नमस्कारमाधारमाने अविशिष्टे इच्छति, आह च-"सामन्नमेत्तगाही सपरजिएयरबिसेसनिर-16 18वक्खो । संगहनओऽभिमशाइ आहारे तमविसिट्ठमि ।। १॥" अपरस्तु जीवधम्मो नमस्कार इति जीवे एवाधारे, नाजीवे इति प्रतिपन्नः, यदिवाऽन्योऽन्यत्र वर्तते इति व्यधिकरणं सङ्ग्रहनयो मूलत एव नाभ्युपगच्छतीति तन्मते नाधिकरण-18 [चिन्ता, ऋजुसूत्रस्तु ज्ञानं शब्दः क्रिया वा नमस्कार इति प्रतिपन्नवान् , ज्ञानादयश्च जीवादनन्य इति जीव एव मन्यते | नमस्कारं, नान्यत्र, ननु ऋजुसूत्रोऽन्यमष्याधारमिच्छत्येव 'आकाशे वसतीति वचनात् , सत्यमेतत् , केवलं द्रव्यविवक्षा यां न गुणविवक्षायामित्यदोषः, शब्दादयस्तु ज्ञानरूपमेव नमस्कारमिष्टवन्तः, न शब्द क्रियारूपं, अतो ज्ञानरूपे जीव Iपवेच्छति, नान्यत्र, गतं कस्मिन्निति द्वारम् । अधुना कियश्चिरमसौ भवतीति निरूपयन्नाह उवओग पहुंचंतोमुहुत्त लद्धीइ होइ उ जहन्नो। उक्कोस हिई छावट्टि सागर (बार) अरिहाइ पंचविहो (द्वारं६) ८९४ ___ इह नमस्कारस्य कालचिन्ता द्विधा-उपयोगतो लब्धितश्च, तत्रोपयोगं प्रतीत्य स्थितिजघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहुर्तमेव, 'लद्धीए' इत्यादि, लब्धेस्तु तदावरणक्षयरूपाया जघन्यतः स्थितिः अन्तर्महरीमेव, उत्कर्षतः षट्पष्टिसागरोपमाणि, साति अनुक्रम RECAPSARASACREG4 SMEducato INI ~103 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८९५-८९६], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत कालवस्तुनी नवप सत्राक दीच स्कारे दीप 4 श्रीआव-हारेकाणीति गम्यते, सम्यक्त्वकालो हि नमस्कारकालः, सम्यक्त्वकालश्चोत्कर्षतो लब्धिमधिकृत्य नरभवातिरेकाणि पक्षष्टिः श्यकमल- सागरोपमाणीति, एषा चचिंता एकं जीवमधिकृत्य, नानाजीवान् प्रति पुनः सर्वकालमिति ॥द्वारम् । सम्प्रति 'कतिविहो - यगिरिय-15 त्यस्य प्रश्नस्य निर्वचनार्थों गाथावयवः, 'अरिहाइ पंचविहो' इति, अहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधुपदानामादी सन्निपाता-1 वत्तीनम- दर्हदादिपञ्चविधार्थसम्बन्धात् पञ्चविधो नमस्कारः, द्वारम् । एतेन अर्थान्तरेण तत्त्ववृत्त्या नम इति पदस्थाभिसंवन्धमाह ॥ लगता षट् पदमरूपणा । सम्पति नवपदप्ररूपणाया अवसरः, तत्रेयं गाथा संतपयपरूवणया १दवपमाणं च २ खित्त ३ फुसणा य ४। ॥४९१॥ कालो य५ अंतर ६ भागो ७ भावे ८ अप्पावहुंचेव ॥ ८९५ ॥ सदिति सद्भुतं, विद्यमानार्थमित्यर्थः, सञ्च तत्पदं च सत्पदं तस्य प्ररूपणा सत्पदग्ररूपणा, कार्येति वाक्यशेषः, यतश्च नमस्कारो जीवद्रव्यादभिन्न इति द्रव्यप्रमाणं वक्तव्यं, कियन्ति नमस्कारवंति जीवद्रव्याणि ?, तथा क्षेत्रमिति कियति | क्षेत्रे नमस्कारः, एवं स्पर्शना च कालश्च अन्तरं च वक्तव्यं, तथा भाग इति नमस्कारवन्तः शेषजीवानां कतिभागे | वर्तन्ते इति भागो वकव्यः, तथा "भावेति कस्मिन् भावे नमस्कारो वर्तते इति वाच्यम्, 'अप्पाबहुं चेय'त्ति अल्प-17 बहुत्वं च वक्तव्यं, प्राक्प्रतिपनप्रतिपद्यमानकापेक्षयेति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थ तु प्रतिद्वारं वक्ष्यति, तत्राद्यं द्वारमभिधित्सुराहसंतपयं परिवन्ने पडिवळते य मग्गणं गइसुइंदिय २ काये ३ जोए ४ वेए ५ य कसाय ६ लेसालु ७॥८९६॥ अनुक्रम -06- ४९१॥ SAMEducationa l ... नमस्कार संबंधे 'संतपद' आदि नव द्वाराणाम् प्ररुपणा क्रियते ~104 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८९७-८९८], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम सन्मत्त ८ नाण ९दसण १० संजय ११ उवओगओ १२ य आहारे १३। भासग १४ परित्त १५ पज्जत्त १६ सुहुम १७ सन्नीय १८ भव १९ चरिमे २०॥ ८९७ ॥ सत्पदस्य-विद्यमानार्थस्य नमस्कारलक्षणस्य, सूत्रे च द्वितीया पछ्यर्थे वेदितव्या प्राकृतखात्, पूर्वप्रतिपन्नान् प्रतिपद्यमानकांश्चाश्रित्य मार्गणा-अन्वेषणा कर्तव्या, क्वेत्याह-गतिषु चतसृष्वपि, तद्यथा-नमस्कारः किमस्ति किं वा नास्तीति, तत्रास्तीति गमः, तथाहि-चतुष्प्रकारायामपि गतो नमस्कारस्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः, प्रतिपद्यमानकास्तु विवक्षितकाले भाज्याः, कदाचिद् भवन्ति कदाचिन्नेति, एवमिन्द्रियादिषु चरमान्तेषु द्वारेषु यथा पीठिकायां मतिज्ञानस्य सत्पदनरूपणा कृता तथा नमस्कारस्यापि कर्तव्या, तयोरभिन्नस्वामिकत्वेनैकवक्तव्यत्वात् ॥ तदेवं गतं सत्पदप्ररूपणाद्वारम्, अधुना ! द्रव्यप्रमाणक्षेत्रस्पर्शनारूपं द्वारत्रयमभिधित्सुराहपलियासंखिज्जाइमो पडिकन्नो होज खित्त लोअस्स । सत्तसु चउदसभागेसु हुज्ज फुसणावि एमेव ॥८९८॥ इह नमस्कारस्य प्रतिपद्यमानकाः कदाचिद्भवन्ति कदाचिन्न, यदापि भवंति तदापि जघन्यत एको द्वौ वा, उत्कर्षतः सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमस्य असख्येयभागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणाः, “पलियमसंखेजइमो पडिवन्नो'त्ति पल्यो-2 पमस्य-सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमस्य असङ्ख्येयो भागः, पूर्वप्रतिपन्नाः जघन्यतः सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमासण्येयभागप्रदेशप्रमाणाः,18 है उत्कर्षतोऽप्येतावत्प्रमाणा एव, नवरं जघन्यपदादुत्कृष्टपदमधिकमवसातव्यमिति द्वारम् ॥ क्षेत्रद्वारमाह-'खेत्त लोगस्सेहा त्यादि, क्षेत्रमधिकृत्य चिन्तायां लोकस्य सप्तसु चतुर्दशभागेषु भवेन्नमस्कारः, इयमूर्ध्वलोकमधिकृत्य चिन्ता, अधोलोक ~105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [८९९-९००], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत RECE सत्राक -- दीप अनुक्रम [१] श्रीआव-दचिन्तायां तु पञ्चसु चतुर्दशभागेषु द्रष्टव्यम् , तथाहि-नमस्कारवान् जीव ऊर्ध्वमनुत्तरसुरेषु गच्छन् लोकस्य सप्तसु सत्पदप्ररूश्यकमल- चतुर्दशभागेषु भवति, अधस्तु षष्ठपृथिव्यां गच्छन् लोकस्य पंचसु चतुर्दशभागेष्विति । 'फुसणावि एमेवत्ति, एवमेव पणादयः यगिरिय स्पर्शनाऽपि वक्तव्या, नवरं सर्शनाचिन्तायां पर्यन्तवर्तिनोऽपि प्रदेशान् स्पृशतीति क्षेत्रात् स्पर्शनाया भेदेनाभिधानं ॥ वृत्तौ नम- सम्प्रति कालद्वारप्रतिपादनार्थमहस्कारे एगं पटुच्च हिट्ठा तहेव नाणाजियाण सम्बद्धा । ॥४९॥ एक नमस्कारवन्तं जीवं प्रतीत्य यथैवाधस्तात् 'उवओग पडुच्चंतोमुहुत्त लद्धीउ होइ उ जहण्णा' इत्यादिना काल उक्तः तथैवेहापि वक्तव्यः, नानाजीवानां पुनर्नमस्कारचिन्तायां सर्वाद्धा-सर्वः कालः, लोकेऽस्याऽऽकालमविच्छेदेन जाभावात् । गतं कालद्वारम् , अधुनाऽन्तरद्वारं भावसारं चाह अंतर पडुच्चमेगं जहन्नमंतोमुटुत्तं तु ॥ ८९९ ॥ उक्कोसेणं चेवं अद्भापरियहओ य देसूणो । नाणाजीवे नत्थि उ भावे य भवे खओवसमे ॥९००॥ नमस्कारात् परिभ्रष्टस्य पुनर्नमस्कारलाभे यदपान्तरालं तत् एकं जीवं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहर्त्तम्, उत्कर्षतस्त्वे-1 तदेव दर्शयति-'अद्धा परियदृतो उ देसूणों' अर्धः पुदगलपरावर्तों देशोना, प्राप्तभावनमस्कारस्योत्कर्षतोऽप्येतावन्मात्र-18 संसारभावात् , नानाजीवान् प्रति पुनर्नास्त्यन्तरं, न खलु स कश्चनापि कालोऽस्ति यत्र सर्वथा न कस्यापि लोके नमस्कारसंभव इति, द्वारम् । भावे तु विचार्यमाणे नमस्कारो भवेत् क्षायोपशमिके, एतच्च प्राचुर्यमङ्गीकृत्योक्तम्, अन्यथा RAGNREGROSSHCOOCK ॥५२॥ । ~106 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९०१-९०२], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक द्राक्षायिकौपशमिकयोरप्येके वदन्ति, तत्र क्षायिके यथा श्रेणिकस्य, औपशमिके श्रेण्यन्तर्गतानामिति, इह यद्यपि 'उद्देश-18 क्रमेण निर्देश' इति भागद्वारव्याख्यानानन्तरं भावद्वारच्याख्यानमुचितं तथापि 'विचित्रा सूत्रगति'रिति न कश्चिद्दोषः ।। सम्प्रति भागद्वारं व्याचिख्यासुराह जीवाणणंतभागो पडिवन्नो सेसगा अणंतगुणा। जीवानामनन्ततमो भागो नमस्कारस्य प्रतिपन्नः प्राप्यते, शेषास्तु नमस्कारमप्रतिपन्ना मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः, गतं| भागद्वारम् । अल्पवहत्वद्वारम्-यथा पीठिकायां मतिज्ञानस्य तथा भावनीयं ॥ तदेवं कृता नवपदमरूपणा, सम्प्रति चशब्दाक्षिप्तां पञ्चविधप्ररूपणामभिधाय पश्चिमार्धन वस्तुद्वारं निरूपयति . वत्थु अरहंताई पंच भवे तेसिमो हेऊ ।। ९०१॥ वस्तु दलिकं द्रव्यं योग्यमर्हमित्यनन्तरं, तत्र वस्तु-नमस्कारस्य योग्यमर्हदादयः पञ्च भवन्ति, तेषां च वस्तुत्वे-नम&स्काराहत्वेऽयं वक्ष्यमाणलक्षणो हेतुः ॥ साम्प्रतं चशब्दसूचितां पञ्चविधा प्ररूपणां प्रतिपिपादयिषुराह आरोवणा य भयणा पुच्छण तह दावणा य निजवणा।। आरोपणा भजना पृच्छा 'दायण'त्ति दर्शना दापना वा निर्यापना च, तत्र किं जीव एवं नमस्कारः आहोविन्नम-15 दि स्कारो वा जीव ? इत्येवं यत्परस्परमवधारणाऽऽरोपणं पर्यनुयोगरूपमेपा आरोपणा, उक्कं च-"किं जीवो होज नमो बा. सू.८३४ नमो व जीवोत्ति ? जे परोप्परतो । अज्झारोवणमेसो पजणुजोगो मयाऽऽरुवणा ॥॥' अत्र जीव एव नमस्कार इति प्रत्य REACARE ROCREASEOCESCREESAMSUCCESS अनुक्रम [१] SMEducation and ~107-~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआव श्यकमल यगिरीय वृत्तौ नम स्कारे ॥ ४९३ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९०२ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः 15 वस्थानं भजना, तथाहि जीव एवं नमस्कार इत्युत्तरपदावधारणं, अजीवात् व्यवच्छिद्य जीव एवं नमस्कार इत्यवधारणात्, जीवस्वनवधारितो नमस्कारो वा स्यादनमस्कारो वा, यथा द्रुम एव चूत इत्युक्ते द्रुमभूतोऽचूतो वा तत एतत्प्रत्यवस्थानमेकपदव्यभिचाराद्भजना, आह च-"जीवो नमो नमो वा नमो व नियमेण जीव इइ भयणा । जह चूतो होइ दुमो दुमो उ चूतो अचूतो वा ॥ १ ॥” एवं भजनायां कृतायां शिष्यः प्राह-यदि नाम न सर्वो जीवो नमस्कारः तर्हि स किंस्वरूपो जीवो नमस्कारः ? किंस्वरूपो वा अनमस्कारः ? इति पृच्छा, अत्र प्रतिव्याकरणं दापना, नमस्कारपर्यायपरिणतो जीवो नमस्कारो, नापरिणत इति, निर्यापणा त्वेष एव नमस्कारपर्यायपरिणतो जीवो नमस्कारः, नमस्कारोऽपि जीवपरिणाम एव, नाजीवपरिणाम इति, अथ दापनानिर्यापनयोः कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते-दापना प्रश्नार्थव्याख्यानं, निर्यापना तस्यैव निगमनम् ॥ अथवेयमन्या चतुर्विधा प्ररूपणा नमुकresनमोकारो नोआइजुए व नवहा वा ॥ ९०२ ॥ इह चातुर्विध्यं प्ररूपणायाः प्रकृत्यकारनोकारोभयनिषेधसमाश्रयणात् प्रतिपत्तव्यम्, तत्र प्रकृतिर्नाम शुद्धतास्वभावो यथा नमस्कार इति, स एव नत्रा सम्बन्धादकारसम्भवेऽनमस्कारः, स एव नोशब्दोपादानात् नोनमस्कारः, उभयनिषेधातु नोअनमस्कारः, तत्र नमस्कार : अनमस्कार इति भङ्गकद्वयं साक्षादुपात्तं, 'नोआदिजुते' इति नोशब्देन आदिर्युक्तो ६ ॥ ४९३ ॥ यस्य नमस्कारस्य इतरस्य वा अनमस्कारस्य स नोआदियुक्तः, अनेन शेषौ द्वौ भङ्गावाक्षिप्तौ नोनमस्कारो नोअनमस्कार इति, तत्र नमस्कारो नाम नमस्कारपरिणतो जीवः, अनमस्कारस्त्वपरिणतो लब्धिशून्यो वा नोनमकारो Por Private & Personal Use Only भागाल्पव हृत्वे वस्तु पंचपदाच 108~ simeterary org Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९०३], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक | विवक्षया नमस्कारदेशोऽनमस्कारो वा, देशसर्वनिषेधपरत्वानोशब्दस्य, नोअनमस्कारोऽपि अनमस्कारदेशो वा नमस्कारो वा, एपा चतुर्विधा प्ररूपणा । अर्थतेषु भङ्गेषु मध्ये को नया कान् भङ्गकानिच्छतीति निरूप्यते, तत्र शब्दादयस्त्रयः शब्दनयाः सम्पूर्णमेव प्रदेशरहितमखण्ड वस्त्वभ्युपगच्छन्तीति तन्मतेन द्वावेव भङ्गो-नमस्कारोऽनमस्कार इति, नैगमादयस्तु चत्वारो नया देशप्रदेशानपि वस्तुनोऽभ्युपगच्छन्तीति तन्मतापेक्षया चत्वारोऽपि भङ्गाः, तदेवं प्रागुक्ता पञ्चविधा प्ररूपणा इयं चतुर्विघेति सङ्कलने प्रकारान्तरेण नवविधा प्ररूपणा प्रतिपादिता द्रष्टव्या, गतं प्ररूपणाद्वारम् । इदानी वत्थु तऽरहंताई पंच भवे तेसिमो हेऊ' इति गाथाशकलोपन्यस्तं वस्तुद्वारमवसरप्राप्तं विस्तरतो व्याख्यायते, तच्चानन्त-12 रोक्कं गाथाशकलं मागेय व्याख्यातं, नवरं तत्र यदुक्तं 'तेपां वस्तुत्वे अयं हेतु' रिति स इदानीं हेतुरुच्यते, तत्रेयं गाथा-18 मग्गो अविप्पणासो आयारे विणयया सहायत्तं । पंचविहनमुकारं करेमि एएहिं हेऊहिं ॥ ९०३॥ ६] मार्गः अविप्रणाश आचारः विनयता सहायत्वं यथाक्रममहदादीनां नमस्काराहवे इमे हेतवः, तथा चाह-पञ्चविधनमस्कार करोम्येतैर्हेतुभिरिति । इयमत्र भावना-अर्हतां नमस्काराईत्वे मार्गः सम्यग्दर्शनादिलक्षणो हेतुः, तथाहि-असी मागों भगवद्भिरेव प्रदर्शितः तस्माच मुक्तिपदावाप्तिः ततः परम्परया मुक्तिहेतुत्वान्नमस्कारास्तेि इति, सिद्धानां नमस्काराहेत्वेऽविप्रणाशा-शाश्वतत्वं हेतुः, यतस्तदविप्रणाशमवगम्य प्राणिनः संसारबैमुख्येन मोक्षाय घटन्ते, तथा आचार्याणां नमस्काराहत्वे आचारो हेतुः, तथाहि-तानाचारयत आचारख्यापकांश्च प्राप्य प्राणिन आचारपरिज्ञानानुष्ठाननिमित्तं यतन्ते, उपाध्यायानां तु नमस्कारार्हत्ये बिनयो हेतुः, यतस्तान् स्वयं विनीतान प्राप्य कर्मविनयसामर्थ्यधिनयवन्तो भवन्ति देहिनः HORRORRESEARCR अनुक्रम ... नमस्कार-करणे हेतव: ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९०४-९०६], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं [-/गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक हेतवः स्कारे 18 दीप श्रीआय- साधूनां नमस्कारार्हत्वे हेतुः सहायत्वं, यतस्ते सिद्धिवधूसङ्गमैकनिष्ठानां साधूनां तदवाप्तिक्रियासाहायकमनुतिष्ठन्ति, एवंटू श्यकमल- तावत् समासेन अहंदादीनां नमस्कारार्हत्वद्वारेण मार्गप्रणयनादयो गुणा उक्ताः॥सम्प्रति प्रपञ्चेनार्हतां गुणानुपदर्शयन्नाह नमस्कारे यगिरीय- हा अडवीज देसिअत्तं तहेच निजामया समुद्दम्मि । छक्कायरक्खणट्ठा महगोवा तेण चुचंति ॥ ९०४॥ वृत्तौ नम- अटव्यां देशकत्वं कृतमहद्भिः, तथैव निर्यामकाः समुद्रे, तथा भगवन्तः एव षट्कायरक्षणार्थ यतः प्रयतं कृतवंतस्त- मातस्ते महागोपा उच्यन्ते, इति गाथासमासार्थः ॥ अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं वक्ष्यति, तत्र आद्यद्वारावयवार्थप्रतिपादनार्थमाह-I ॥४९४॥ अडविं सपचवायं वोलिन्ता देसिओवएसेणं । पावंति जहिटपुरं भवाडम्पिी तहा जीवा ॥ ९०५ ॥ पावंति निवइपुरं जिणोवइटेण चेव मग्गेण । अडवीइ देसिअत्तं एवं नेयं जिर्णिदाणं ॥९०६॥ | अटवी प्रतीतां सप्रत्यपायां-व्याघ्रादिप्रत्यपायपहला वोलित्वा-उल्लल्य देशकोपदेशेन-निपुणमार्गज्ञोपदेशेन प्रामुवन्ति यथा इष्टपुरं-इष्टं पत्तनं, तथा जीवा अपि भवाटवीं, अपिशब्दो भिन्नक्रमः, स च यथास्थानं योजितः, उल्लयति वर्तते, |फिः?, प्राप्नुवन्ति निर्वृतिपुरं-सिद्धिपुरं जिनोपदिष्टेनैव, नान्योपदिष्टेन, अन्येषामसर्वज्ञतया सम्यग्मार्गपरिज्ञानासम्भवात् , |मार्गेण, एवमटच्या देशकत्वं ज्ञेयं जिनेन्द्राणामिति गाथाद्वयसमासाघः॥ व्यासार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-एत्थ अडवी दुविहा-दवाडवी भावाडवी य, तस्थ दवाडवीए ताव उदाहरणं-वसंतपुरं नगरं, धणो सत्थवाहो, सो पुरं गंतुकामो ॥४९४॥ घोसणं करेइ, जहा नंदिफलनायए, तत्थ बहये तडियकप्पडिगादयो संपविट्ठा, सो तेसिं मिलियाणं पंथगुणे कहेइ, एगो । पंथो उजुगो १ एगो को २, जो सो को तेण मणागं सुहेण गम्मइ, बहुणा य कालेण इच्छियं पुरं पाविजइ, अवसाणे का अनुक्रम SMEducational ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९०४-९०६], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दय सो उज्जुगं चेव ओयरइ, जो पुण उल्लुगो तेण लहुं चेव गम्मइ, परं किच्छेण, जतो सो अतीव विसमो सण्हो य, तत्थ ओयारे चेव दुवे महाघोरा बग्घसिंघा परिवति, ते ततो पाए चेव लग्गति, अमुयंताण य पंथं न पवहंति, अवसाणं च जाव अणुवटुंति, रुक्खा य तत्थ एगे मणोहरा, तेर्सि पुण छायासु न वीसमियचं, मारणप्पिया खु सा छाया, अवरे पुण परिसडियपंडुपत्ता, तेसिं पुण अहो मुहुत्तगं वीसमियर्थ, मणोहररूवधारिणो महुरवयणा य एत्थ मग्गतडविया चेव बहवे पुरिसा हक्कारेंति, तेसिं वयणं न सोयवं, सत्थिगा खणंपि न मोत्तवा, एगागिणो नियमा भयं दुरंतं, थोवो दवग्गी ४ अप्पमत्तेहिं उल्हवेयबो, अणोल्हविजतो य नियमेण डहइ, पुणो य दुग्गुच्चओ पवतो उवउत्तेहिं चेव लंघेयबो, अलंघणे नियमा मरिजइ, पुणो महती आइगुविला वंसकुडंगी सिग्धं लंघेयबा, मिट्टियाणं बहू दोसा, ततो लहुगो खडो लग्गो, तस्स समीवे मणोरहो नाम वंभणो, निचं सन्निहितो अच्छइ, सो भणइ-मणार्ग पूरेहि एयंति, तस्स वयणं न सोयचं, न सो पूरियबो, सो खु पूरिजमाणो महल्लतरगो हवति, पंधातो य भजिज्जिइ, तहा एत्थ किंपागदुमाणं फलाणि पंचपगाराणि दिवाणि नेत्ताइसुहकराणि ण पेक्खियबाणि न भोचबाणि, बावीसं च णं एत्य घोरा महाकराला पिसाया खणं खणमभिदवंति, तेऽवि णं न गणेयवा, भत्तं पाणं च एत्व विभागतो विरसं दुलहं वत्ति, अपयाणगं च न कायवं, अणवरयं च गंतवं, रत्तीएवि जामदुवे सुवियचं, सेसदुगे य गंतवमेव, एवं च गच्छंतेहिं देवाणुप्पिया! खिप्पामेव अडवी लंधिजइ, लंघित्ता य तमेगंतदोगच्चवजियं पसत्वं सिवपुरं पाविजइ, तत्थ य पुणो न होति केइ किलेसा इति, ततो तत्थ केई। | तेण समं पयट्टा, जे उजुगेण पहाविया, अण्णे पुण इयरेण, ततो सो पसत्थे दिवसे उच्चलितो, पुरतो वञ्चंतो मग्गसिलाइसु ACANCERAMACRECE अनुक्रम MEducatoriH ~111 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९०७-९०९], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं [-/गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत अटवीदेशकोदाहरणं सत्राक दीप अनुक्रम [१] श्रीआव- HI(विसम) आहणइ, पंथस्स दोसगुणपिसुणगाणि अक्खराणि लिहति, एत्तियं गयं एत्तियं सेसंति विभासा, एवं जे तस्स निहेसे श्यकमल- वट्टिया ते तेण समं अचिरेण तं पुरं पत्ता, जेऽवि लिहियाणुसारेण सम्मं गच्छति तेऽवि पावंति, जे न घट्टिया न या वट्ठति यगिरीय- छायादिपडिसेविणो य ते न पत्ता न यावि पावेंति, एयं दबाडवीदेसगनायं, इदाणि भावाडवीदेसगं जोइज्जइ, सत्थवाहवृत्तौ नम- त्थाणीया अरहंता, उग्घोसणाधाणीया धम्मकहा, तडिगाइथाणीया जीवा, अडवीथाणितो संसारो, उजुगो साहुमग्गो, स्कारे बको य सावगमग्गो, पप्पपुरत्थाणीतो मोक्खो, वग्घसीहत्याणीया रागद्दोसा, मणोहररुक्खच्छायाथाणियातो इस्थिया-1 दाइसंसत्तवसहीतो परिसडियाइथाणियातो अणवज्जवसहीतो, मग्गतडत्थहकारणपुरिसत्याणिगा पासत्यादी अकल्लाणमित्ता, ॥४९५॥ सत्थिगाथाणिया साह, दवमादिथाणीया कोहादओ कसाया, फलथाणीया विसया, पिसायथाणीया बावीसं परिसहा, भत्तपाणाणि एसणिज्जाणि, अपयाणगथाणितो निरुजामो, जामदुगे सज्झातो, पुरपावणं च मोक्खसुहंति, एत्थ य तं पुरं गंतुकामो जणो उवदेसणादिणा उघगारी सत्यवाहोत्ति नमसति, एवं मोक्खत्थीहिवि भययं पणमेयबो, तथा चाहजह तमिह सत्यवाहं नमइ जणो तं पुरं तु गंतुमणो। परमुवगारित्तणतो निबिग्घल्धं च भत्तीए ॥ ९०७॥ अरिहो उनमोकारस्स भावओ खीणरागमयमोहो। मोक्खत्थीणपि जिणो तहेव जम्हा अतो अरिहा ॥९०८॥ __ यथा च तत् विवक्षितं पुरं गन्तुमना जनः परमोपकारित्वात निर्विघ्नार्थ च भक्त्या तं सार्थवाहमिह लोके नमति. तथैव जिनो भावतः क्षीणरागमदमोहः-प्रध्वस्तरागद्वेषमोहो नमस्कारस्यार्थी-योग्यो यस्मादतोऽर्हन् । संसाराअडवीए मिच्छत्तनाणमोहिअपहाए । जेहिं कय देसियत्तं,ते अरिहंते पणिवयामि ॥९०९॥ MASSACX ~112 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१०-९११], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [१] संसाराटव्यां, किंविशिष्टायामित्याह-मिथ्यात्वाज्ञानमोहितपथायां-मिथ्यात्वाज्ञानाभ्यां मोहितः पन्था यस्यां सा तथा|3 तस्यां, यैः कृतं देशकत्वं तानहतः प्रणिपतामि-नमस्करोमि ॥ तच्च देशकत्वं दृष्ट्वा ज्ञात्वा च सम्यक्पन्थानमासेव्य च कृतं, तथा चाह सम्मइंसणदिवो नाणेण य तेहि सुट्ठ उबलद्वो। चरणकरणेहिं पहतो नेवाणपहो जिणिदेहिं ॥९१०॥ आ सम्यग्दर्शनेन-अविपरीतेन दर्शनेन दृष्टो, ज्ञानेन च सुहु-यथावस्थितस्तैरहेदितिः , चरणं च करणं च चरणकरणं, समाहारत्वादेकवचनं, तेन प्रहतः-आसेवितो निर्वाणमाग्गों जिनेन्द्रः, तत्र चरणं-प्रतादि करणं-पिण्डविशुद्ध्यादिः, यथो-| क्तम्-"वय ५ समणधम्म १० संजम १७ वेयावच्चं १० च बंभगुत्तीतो ९ नाणातितियं ३ तब २ कोहनिग्गहाई चरण-| मेयं ॥१॥ पिंडविसोही ४ समिती ६ भावण १२ पडिमा १२ य इंदियनिरोहो ५ । पडिलेहण २५ गुत्तीओ ३ अभिग्गहा ४ चेव करणं तु ॥२॥" न केवलं प्रहत एव, किन्तु ते खल्वनेन पथा निर्वृतिपुरमेव प्राप्ताः॥ तथा चाह सिद्धिवसहिमुबगया नेवाणसुहं च ते अणुप्पत्ता । सासयमवाचा पत्ता अयरामरं ठाणं ॥ ९११ ।। हा सिद्धिवसति-मोक्षालयम् उपगता:-सामीप्येन कर्मविगमलक्षणेन प्राप्ताः, अनेन एकेन्द्रियव्यवच्छेदमाह, केषाश्चित् ६ सुखदुःखरहिता एष तत्र तिष्ठन्तीति दर्शनं तत्राह-निर्वाणसुखं च ते अनुप्राप्ताः, निरतिशयसुखं प्राप्ता इत्यर्थः, ते च दर्श-13 नपरिभवादिनेहागच्छन्तीति केपाश्चिद्दर्शनं तनिषेधार्थमाह-शाश्वतं-नित्यं अव्याबाधं-य्यावाधारहितं अजरामरं-जरामर-16 णरहितं स्थानं माप्ताः । सम्पति द्वितीयं द्वारं व्याचिख्यासुराह ... अरिहंत-नमस्कार करणस्य हेतवः ~113 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१२], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत निर्याम कता सुत्राक दीप अनुक्रम श्रीआव- पावंति जहा पारं सम्म निजामगा समुदस्स । भवजलहिस्स जिर्णिदा तहेव जम्हा अओ अरिहा ।। ९१२॥ श्यकमल- प्रापयन्ति-नयन्ति यथा-येन प्रकारेण पारं-पर्यन्तं सम्यक्-शोभनेन विधिना निर्यामकाः प्रतीताः समुद्रस्य, तथैव है यगिरीय- भवजलधेः-भवसमुद्रस्य पारं जिनेन्द्राः प्रापयन्तीति, यस्मादेवमतस्तस्मादाँ नमस्कारस्य, एष सङ्केपार्थः ॥ भावार्थः पुनरेवृत्तौ नम- वम्-एत्थ निजामगा दुविहा, तंजहा-दबनिजामया भावनिजामया य, तत्थ दबनिजामए उदाहरणं-तहेव घोसणर्ग स्कारे विभासा, एत्थ अट्ट वाया वण्णेयबा, तंजहा-पादीणवाए पडीणवाए उदीणवाए दाहिणवाए, जो उत्तरपुरच्छिमेणं वातो ॥४९६॥ दूसो सत्तासुयो, जो दाहिणपुषेणं सो तुंगारो, जो दाहिणावरेणं सो वीयावो, अवरुत्तरेणं गजभो, एवमेते अट्ठ वाया, 5 अन्नेऽवि दिसासु अट्ठ, तंजहा-उत्तरसत्तासुओ पुरस्थिमेणं सत्तासुओ य, तहा पुरिमतुंगारो दाहिणतुंगारो दाहिणबीयावो य अवरबीयावो य अबरगज्जभो उत्तरगज्जभो य, इयमत्र भावना-चत्वारः शुद्धदिग्वाताः, तद्यथा-प्राचीनवातः प्रतीची- CIनवातः उदीचीनवातो दक्षिणयातच, तत्र यः प्राच्या दिशः समागच्छति स प्राचीनवातः, एवं शेषदिग्बातभावनाऽपि कायों,18 चत्वारः शुद्धपिदिगवाताः, तद्यथा-उत्तरपूर्वस्या सक्तामुको, दक्षिणपूर्वस्यां तुंगारो, दक्षिणापरस्यां वीजावापः, अपरोत्त3] रस्यां गर्जाभः, एवमष्टौ शुद्धदिग्विदिग्वाताः, अष्टावन्ये दिग्विदिगपान्तरालवर्तिनः, तद्यथा-उत्तरस्या उत्तरपूर्वस्याश्चापा-1 हैन्तराले उत्तरसक्तासुकः १ उत्तरपूर्वस्याः पूर्वस्याश्चापान्तराले पूर्वसक्तासुकः २ पूर्वस्या दक्षिणपूर्वस्याश्चापान्तराले पूर्वतुङ्गारः18 P३ दक्षिणपूर्वस्या दक्षिणायाश्चान्तरा दक्षिणतुङ्गारः ४ दक्षिणस्याः दक्षिणापरस्याश्च दक्षिणबीजापः ५ दक्षिणापरस्या अपर स्याश्चापरवीजापः ६ अपरस्या अपरोत्तरस्याश्चापरगर्जाभः ७, अपरोत्तरस्या उत्तरस्थाश्चापान्तराले उत्तरगर्जाभः ८, एवमेते | ॥४९६॥ SNElication ~114 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१३-९१७], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक षोडश, सप्तदशश्च कालिकावातः, तत्र यथा जलधौ कालिकावातरहिते अनुकूले गर्जभवाते निपुणनिर्यामकसहिता निश्छिद्राः पोता ईप्सितं पत्तनं प्राप्नुवन्ति ॥ एवम्मिच्छत्तकालिआवायविरहिए सम्मत्तगजहपवाए। एगसमयेण पत्ता सिद्धिचसहिपट्टणं पोआ॥९१३ ॥ मिथ्यात्वमेव कालिकावातो मिथ्यात्वकालिकावातस्तेन विरहिते भवाम्भोधी, तथा सम्यक्त्वमेव गर्जाभः प्रवातो यत्र स तथा तस्मिन् , एकसमयेन प्राप्ताः सिद्धिवसतिपत्तनं पोता:-जीवबोहिस्थाः अर्हन्निर्यामकोपकारात्॥ततो यथा सांयात्रिका सर्वः प्रसिद्धनिर्यामकं चिरगतमपि यात्रासिद्ध्यर्थ पूजयन्ति, एवं अन्धकारोऽपि सिद्धिपत्तनं प्रति प्रस्थितोऽभीष्टयात्रासिद्धये |निर्यामकरलेभ्यस्तीर्थकृन्यः ॥ स्तवचिकीर्षयेदमाहनिजामगरयणाणं अमूढनाणमयकपणधाराणं । वंदामि विणयपणओ तिविहेण तिदंडविरयाणं ॥९१४॥ I निर्यामकरलेभ्योऽर्हड्योऽमूढज्ञाना-यथावस्थितज्ञाना मननं मतिः-संवित् सैव कर्णधारो येषां ते तथाविधास्तेम्यो, चन्दे विनयप्रणतस्खिविधेन त्रिदण्डविरतेभ्यः 'शक्तादिभिबहुल मिति चतुर्थी ॥ सम्प्रति तृतीयं द्वारं व्याचिख्यासुराहपालंति जहा गावो गोवा अहिसावयाइदुग्गेहिं । पउरतणपाणिआणि य वणाणि पावंति तह चेव ॥ ९१५ ।। जीवनिकाया गावो जं ते पालंति ते महागोवा । मरणाइभयाउ जिणा निवाणवणं च पार्विति ॥९१६॥ तो उबगारित्तणओ नमोऽरिहा भविअजीवलोगस्स । सवस्सेह जिणिंदा लोगुत्तमभावतो तहय ॥९१७॥ यथा गोपा गाः पालयन्ति-रक्षन्त्यहिन्यापदादिदुर्गेभ्यः वनानि च प्रचुरतृणपानीयानि प्रामुवन्ति, तथैव च जीवनिकाया अनुक्रम [१] ~115 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक श्रीआव- इयकमल- यगिरीय- वृत्तौ नम- स्कारे दीप अनुक्रम ॥४९७॥ व-पृथिव्यादिषड्जीवनिकाया एव गावः जीवनिकायगावः तान् , ते भगवन्तोऽर्हन्तो जिना महागोपाः पालयन्ति-रक्षन्ति महागोपता मरणादिभयेभ्यो, निवोंणवनं च प्रापयन्ति, एवं ते जिनेन्द्रा इह-अस्मिन् जीवलोके उपकारित्वहेतोः सर्वस्य भव्यजीव- रागाद्यरिलोकस्य नमोऽही लोकोत्तमभावतः, तथा च एवं तावदुक्तेन प्रकारेण नमोऽहत्त्वे पंच हेतवो-गुणाः प्रतिपादिताः ॥ माम्प्रतं | नामनं प्रकारान्तरेण नमोऽर्हत्त्वहेतुगुणाभिधित्सयाऽऽह रागहोसकसाए, इंदियाणि य पंचवि । परीसहे उवसग्गे, नामयन्तो नमोऽरिहा ॥९१८॥ रागद्वेषकपायान् इन्द्रियाणि पश्चापि परिषहान् उपसर्गान् नामयन्तो नमोऽहाः ॥ तत्र 'रञ्जी रागे' रज्यतेऽनेनास्मिन् वा रञ्जनं या रागः, स च नामादिभेदाच्चतुष्पकारः, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यरागो द्वेधा-आगमतो नोभागमतच, तत्रा-1 गमतो रागपदार्थज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदतखिविधा, ज्ञशरीरभव्यश|रीरे प्रतीते, व्यतिरिक्तो द्विधा-कर्मद्रव्यरागो नोकर्मद्रव्यरागश्च, तत्र कर्मद्रव्यरागश्चतुर्विधः, तद्यथा-रागवेदनीयपुदगला योग्या १ बध्यमानकाः २ बद्धाः ३ उदीरणावलिकाप्राप्ताश्च ४, बन्धपरिणामाभिमुखा योग्याः, बन्धपरिणाम प्राधा |वध्यमानकाः, निवृत्तबन्धपरिणामाः सत्कर्मतया स्थिता जीवेनात्मसात्कृता बद्धाः, उदीरणाकरणेनाकृष्योदीरणावलि-IN काप्रविष्टा उदीरणावलिकामाक्षा, नोकर्मद्रव्यरागः-कर्मरागैकदेशः तदन्यो वा, तत्र तदन्यो द्विविधा-प्रायोगिको An४९॥ वैश्रसिकश्च, प्रायोगिकः कुसुम्भरागादिः, वैश्रसिकः सन्याभरागादिः, भावरागोऽपि द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो रागपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतो रागवेदनीयफर्मोदयप्रभवः परिणामविशेषः, स च द्विधा-प्रशस्तः अग्र [१] 56458 Nk SOME ~116 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९९१८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः शस्तश्च तत्राप्रशस्तस्त्रिविधः, तद्यथा दृष्टिरागो विषयरागः स्नेहरागश्च तत्र त्रयाणां त्रिषष्यधिकानां प्रवादिशता| नामात्मीयात्मीयदर्शनानुरागो दृष्टिरागः, उक्तंच - “ असीयसयं किरियाणं अकिरियवादीणमाहु चुलसीती । अण्णाणिय | सत्तडी वेणइयाणं च बत्तीसा ॥ १ ॥ जिणवयणवाहिरमती मूढा नियदरिसणाणुरागेण । सवन्नुकहियमेते मोक्खपहं न उ पवज्जति ॥ २ ॥” विषयरागः- शब्दादिविषयगोचरः, स्नेहरागो - विषयादिनिमित्तविकलोऽविनीतेष्वपत्यादिषु भावी, तत्रेह | रागे उदाहरणम् - खिइपइट्टियं नयरं, तत्थ दो भाउया - अरण्णतो अरिहमित्तो य, महंतस्त्र भारिया अरहमित्ते अणुरत्ता, सो नेच्छइ, ततो सा बहुसो उवसग्गेइ, भणिया अणेण किं न पेच्छसि भाउगंति ?, ततो तीए नायं, जहा मम भत्तारस्स बीहइ, ततो भत्तारो मारितो, सा पच्छा भणइ-इयाणिपि नेच्छसि ?, तेण नायं एतीए दुट्ठसीलाए मम भाउगो नियमचारो मारितो, तेण निघेएण पवइतो, साहू जातो, सावि अट्टवसट्टा मया सुणिया जाया, साहुणो य तं गामं गया, सो साहू | भिकूखं पविट्टो सुणिगाए दिडो, लग्गा मग्गामग्गि उवसग्गेइ, विरत्तीए नहो, तत्थवि मया अडवीए मक्कडी जाया, तेऽवि | साहुणो कम्मधम्मसंजोगेण तीसे अडवीए मज्झेणं वञ्चंति, तीए दिट्टो, लग्गा कंठे, तत्थवि किलेसेणं पलातो, तत्थवि मया जक्खिणी जाया, ओहिं पउंजइ, दिट्ठो सो साहू ओहिणा, छिद्दाणि मग्गति, सो साहू सया अप्पमचो, ततो सा छिद्दं न लहइ, साय सायरेण तस्स छिदं मग्गर, एवं वच्चइ कालो, तत्थ किर जे समवया समणा ते हसिऊण तरुणसमणा भणं ति धन्नो हु सो अरहमित्तो, 'अंसि पिओ सुणियाणं, वयंस ! गुरुमक्कडीणं च । अन्नया सो साहू वियरयं उत्तर, तत्थ य पायविक्खभं पाणियं, तेण पातो पसारितो भएणं, तत्थ य तीए छिद्द लभिऊण ऊरू छिन्नो, ततो माऽहं आउकाए पडिओ Por Private & Personal Use Only ~117~ wbrary.org Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआवश्यकमल यगिरीय वृत्तौ नमस्कारे ॥ ४९८ ॥ Jan Education i आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९९१८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः होज्जत्ति मिच्छादुकडं तेण भणियं, सो पडिओ, सम्मद्दिट्टिगाए सा धाडिया, तहेब सो ऊरू सपएसो लाइतो, रूढो य तक्खणं देवयापभावेणं, अण्णे भगति सो भिक्खमतिगतो अण्णगामे, तत्थ ताए वाणमंतरीए तस्स रूवं छापत्ता तस्स रूवेणं पंथे तलाए हाइ, अन्नेहिं दिट्ठो, सिट्टो गुरूणं, आवस्सए आलोएर, अज्जो ! संमं आटोएहि, सो उवडतो, मुहणंतगाइ जाय | पडिक्कमणं देवसियं ताव आभोएइ, भणइ-न संभरानि खमासमणो !, तेहिं पडिमिन्नो भणति-नस्थित्ति, आयरिया अणुवट्ठियस्स न देति पायच्छित्तं, सो चिंतेइ किं कह वत्ति ?, सा उवसंता साहइ गुरूणं-मए एयं कयं सा साबिगा जाया, सर्व परिकहइ, एवमप्यसत्थो एस नेहाणुरागो, अस्स इमा निरुत्तगाहा-'रज्जति असुभकलमठकुणिमाणिडेसु पाणिणो जेण । रागोत्ति तेण भन्नइ जं रज्जइ तत्थ रागत्थो ॥ १ ॥ एवं दृष्टिरागो विपयरागोऽप्यप्रशस्तो द्रष्टव्यः, दीर्घसंसारहेतुकदध्यवसायात्मकत्वात् प्रशस्तस्तु रागोऽर्हदादिविषयः, उक्तं च- "अरहंतेसु य रागो रागो सासु वीयरागेसु । एस पसत्थो रागो अज्ज सरागाण साहूणं ॥ १||” एवंविधं रागं नामयन्तः- अपनयन्तः, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदेनापनीतवन्त एव गृह्यन्ते, आहप्रशस्तनामनमयुक्तं न तस्यापि बन्धात्मकत्वात्, यद्येवं तत 'एस पसत्थो रागो' इत्यादि विरुद्धं, नैष दोषः, सरागसंयतानां कृपखननोदाहरणतस्तस्य रागस्य प्राशस्त्यादित्यलं प्रसङ्गेन ॥ इदानीं 'दोस' त्ति दोषः द्वेषो या, तत्र 'दुष वैकृत्ये' दुष्यतेऽनेनास्मिन्नस्माद दूषणं वा दोषः, 'द्विषी अप्रीती' द्विप्यतेऽनेन अस्मिन् अस्मात् द्वेषणं वा द्वेषः, असावपि नामादिभेदाच्चतुविंधो, निक्षेपो रागवदवसेयः, तथा दिग्मात्रमुपदर्श्यते- नोआगमतो द्रव्यद्वेषो ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्विधा - कर्मद्रव्यद्वेषः नोकर्मद्रव्यद्वेषः, तत्र कर्म्मद्रव्यद्वेषश्चतुष्प्रकारः- द्वेपवेदनीयपुद्गला योग्याः १ बध्यमानकाः २ बद्धाः ३ उदीरणा Por Private & Personal Use Only 118~ रागेऽहंन्मित्रः ॥ ४९८ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: * A प्रत सूत्रांक बलिकाप्राप्ताश्च ४, अमीषां व्याख्यानं प्राग्वत्, नोकम्मद्रव्यद्वेषो दुष्टवणादिः, भावद्वेषो द्वेषकर्मविपाकः, स च द्विधाप्रशस्तः अप्रशस्तश्च, तत्र प्रशस्तोऽज्ञानादिगोचरः, तथाहि-अज्ञानमविरतिं च द्विपन ज्ञाने विरतौ च सम्यग्यतते इति तस्य प्राशस्त्यं, अप्रशस्तः सम्यक्त्वादिगोचरः, तत्राप्रशस्ते उदाहरणं-नन्दो नाम नाविओ गंगाए लोग उत्तारेइ, तत्थ दय धम्मरुई नाम अणगारो तीए नावाए उत्तिन्नो, जणो मोल्लं दाऊण गतो, साहू रुद्धो, फिडिया भिक्खावेला, तहावि न [विसज्जेइ, वालुयाए उण्हे तिसाइतो य अमुचतो रुट्ठो, सो य दिट्ठीविसलहितो, तेण दहो मओ, एगाए सभाए घरको इलो जाओ, साहू विहरंतो तं गामं गतो, भत्तपाणं गहाय भोकामो सभं गतो, तेण दिट्ठो, सो पेक्खंततो चेव आसुदारुत्तो, भोत्तुमारद्धस्स कचवरं पाडेइ, अपणपासं गतो, तत्थवि एवं, अण्णत्थ गतो, तत्थवि एवं, कहिंचि न लहइ भोत्तुं, ततो सो तं पलोएइ, को एस ?, नाविगनंदमंगुलो, दड्डो, समुई जतो गंगा पविसइ तत्थ वरिसे वरिसे अण्णण्णेणं मग्गेणं है ही वहइ, चिराण गंगा मयगंगा भन्नइ, तस्थ हंसो जातो, सो य साहू माहमासे सत्येण पभाए जाइ, तेण दिट्ठो, पाणियस्स पंखे भरिऊण सिंचइ, तत्थवि उद्दवितो, पच्छा अंजणगपवए सीहो जातो, सोवि सत्येण तेणेव मग्गेण गच्छइ, सीहोर उवद्वितो, सत्थो भिन्नो, सो इमं न मुयइ, तस्थविदहो, मतो य वाणारसीए बडुतो जातो, तत्थवि भिक्खं हिंडतं धूली छुहइ, रुठेण दही, तत्थेव राया जातो, जाई सरइ, तत्थ सबातो अतीताओ जाइओ असुभातो सरइ, जइ संपयं मारेइ है तो बहुयातो फिट्टो होमित्ति तस्स जाणणानिमित्तं समस्यामवलम्बयते, जो एयं पूरइ तस्स रजस्स अद्धं देमि, सा य सम-16 कास्सा इमा-गंगाए नावितो नंदो, सभाए घरकोइलो । हंसो मयगंगतीराए, सीहो अंजणपबए ॥१॥ वाणारसीए बडुओ, आ. सू.८४ अनुक्रम [१] हर SMECatunai ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआव इयकमलयगिरीयवृत्तौ नम स्कारे ॥ ४९९ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९९१८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः राया तत्थेव आगतो ॥ अमुं गोवावि पढंति, सो विहरंतो साहू तत्थ समोसो, आरामे ठिओ, आरामिओ पढइ, तेण पुच्छिओ साहइ, तेण भणियं अहं पूरेमि, 'एएसिं घायगो जो उ, सोवि इत्थेव आगतो' ॥ सो घेभ्रूण रण्णो समीवं गतो, पढाइ, राया सुणततो मुच्छितो, सो हम्ममाणो भणइ - कथं काउं अहं न याणामि, लोगस्स कलिकरंडो एसो मे समणेण दिन्नो, राया तत्थ मणूसे विसज्जेइ, जइ अणुजाणह वंदतो एमि, आगतो, सहो जातो, साहूवि आलोइयपडिकंतो, एवं संसारवद्धणो दोसो जेहिं नामितो ते अरिहा ॥ इह रागद्वेषौ क्रोधाद्यपेक्षया नयैः पर्यालोच्येते, तत्र यद्यपि नया नैगमाॐ दयः सप्त, तथापि नैगमः सामान्यग्राही सङ्ग्रहे विशेषग्राही व्यवहारेऽन्तर्भवतीति परेिव सङ्ग्रहादिभिर्विचारः, तत्र सङ्ग्रहस्याप्रीतिजातिसामान्यतः क्रोधमानी द्वेषः मायालोभौ तु प्रीतिजातिसामान्याद्रागः, उत्तंच - "कोहं वा माणं वा अपीतिजाईतों संगहो दोसं । माया लोभे य सपीइजाइसामन्नतो रागं ॥ १ ॥” व्यवहारश्च क्रोधमानमाया द्वेषः, मायाया अपि परोपघाताय प्रयुज्यमानत्वेनामी तिजातावन्तर्भावात्, लोभस्तु न्यायोपादानमूर्च्छात्मको रागः, उक्त च - "मायंपि दोसमिच्छइ ववहारो जं परोवघायाय । नायोवायाणोच्चिय मुच्छालाभोत्ति तो रागो ॥ १ ॥" ऋजुसूत्रस्य क्रोधस्तावदप्रीतिरूपत्वात् द्वेषः, मानमायालोभास्तु भाज्याः, कदाचित् रागः कदाचिद् द्वेषः, तथाहि यदा मानोऽहङ्कारो - |पयोगात्मकस्तदाऽऽत्मनि बहुमानेन प्रीतियोगाद्रागो, यदा तु स एव परगुणविद्वेषोपयोगात्मकः तदानीमप्रीतिरूपत्वाद् द्वेषः, एवं मायालोभावपि परोपघाताय व्याप्रियमाणां द्वेषः, स्वशरीरस्वधनस्वजनादिषु मूछपयोगकाले तु तावेव रागः, अभिष्वङ्गात्मकत्वात् उक्तंच - "माणो रागोत्ति मतो साहंकारोवयोगकालम्मि । सो चेव होइ दोसो परगुणदोसोवयोगंमि ॥ १ ॥ ★ Por Private & Personal Use Only 120~ अप्रशस्त द्वेषे नावि कः नयाश्व ॥ ४९९ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक *OCONOCRACASSAGAGARIKAY मायालोभावेवं परोपघातोवओगतो दोसो । मुच्छोवयोगकाले रागोऽभिस्संगलिंगोत्ति ॥२॥" शब्दादीनां तु मतं-लोभो रागः, क्रोधो द्वेषः, मानमाये तु यदा स्वगुणोपकारोपयोगात्मके तदा मूच्छोरमकत्वालोमा, लोभत्वाच रागः, यदा तु स्वगुणो ४|पकारोपयोगविकले तदा परोपघातोपयोगात्मकत्वात् क्रोधः, क्रोधत्वाच्च द्वेषः, उक्तं च-"सद्दाइमयं माणे मायाए य सगुणोव-| गाराय । उवओगो लोभोच्चिय जतो स तत्थेव अवरुद्धो॥१॥ सेसंसा कोहोच्चिय परोवघायमइयत्ति तो दोसो" इति ॥ ___ अथ कषायद्वारं, शब्दार्थः प्राग्वत्, तेषामष्टविधो निक्षेपः, तद्यथा-नामकषायः स्थापनाकषायः द्रव्यकषायः समुत्पत्ति कषायः ४ प्रत्ययकपायः आदेशकपायः रसकषायःभावकषायः ८, आह च-"नाम ठवणादविए, उप्पत्ती पचए य आदेसे। है रसभावकसाए या नएहिं छहिं मग्गणा तेसि ॥१॥" नामस्थापने सुगमे, द्रव्यकषायो नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यअतिरिक्तो द्विधा-कर्मद्रव्यकपायो नोकर्मद्रव्यकषायश्च, कर्मद्रव्यकषायश्चतुष्पकारः, कषायवेदनीयपुद्गला योग्याः १ बध्यद्र मानाः २ बद्धाः ३ उदीरणावलिकाप्राप्ताश्च ४, नोकर्मद्रव्यकषायः सर्जकषायादिः, उत्पत्तिकषायो यतो द्रव्यादेबी ह्यात् कषायप्रभवस्तदेव कपायनिमित्तत्वात् उत्पत्तिकपायः, द्रव्यात् कषायोत्पत्तिः सुप्रतीता, उक्तंच-"किं एत्तो कट्ठ-14 रायरं? जं मूढो खाणुगंमि अप्फिडितो । खाणुस्स तस्स रूसइ न अप्पणो दुप्पयोगस्स ॥ १॥" प्रत्ययकषायः खल्वान्तरः कारणविशेषः कषायपुद्गललक्षणः, आदेशकपायः कैतवकृतश्चकुटिभङ्गुराकारः, तस्य हि कषायमन्तरेणापि तथादेशनात्, रसकषायो हरीतक्यादीनां रसः, भावकषायो नोआगमतः कषायोदय एव, स च क्रोधादिभेदाचतुष्पकारः, तद्यथाक्रोधकपायो मानकषायो मायाकषायो लोभकषायश्च, तत्र क्रोधो नामादिभेदाच्चतुष्प्रकारः, नामस्थापने क्षुण्णे, नोआग अनुक्रम CARRIERRACTOR SMECEoo ... 'कषाय'पदस्य अष्ट निक्षेपा: एवं कथानक: वर्णयते ~121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [१५१...], मूलं - गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक सुभूमः स्कारे दीप अनुक्रम श्रीआव मतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिको द्रव्यक्रोधः प्राकृतशब्दसामान्यापेक्षया चर्मकारक्रोधः रजकक्रोधो नीलिकोधश्च क्रोध-4 कपायेषु श्यकमल इति गृह्यते, नोआगमतो भावक्रोधः क्रोधादय एव, स च चतुर्भेदः, उक्तं च-"जलरेणुपुढविपचयराईसरिसो चउबिहो| क्रोधे यगिरीय कोहो।" प्रभेदफलमुत्तरत्र वक्ष्यामः, तत्र क्रोधे उदाहरणम्-वसंतउरे नयरे उच्छन्नवंसो एगो दारगो, देसंतरं संकम-II वृत्तौ नम ★माणो सत्येण उज्झितो तावसपहिं ततो, तस्स नाम अग्गियउचि, तावसेणं बद्धितो, जमो नामं सो तावसो, जमस्स पुत्तो जमदग्गितो जातो, सो घोरागारं तवचरणं करेइत्ति विक्खातो जातो। इतो य दो देवा, बेसानरो सद्धो धनंतरी तावसभत्तो, ते दोऽवि परोपरं पण्णवेंति, भणंति य-साहू तावसे परिक्खामो, सद्धो आह-जो अम्हं सबअंतिमओ तुझ ॥५०॥ य सबप्पहाणो ते परिक्खेमो। इतो य मिहिलाए नयरीए तरुणधम्मो पउमरहो राया, सो चंपं बच्चइ वसुपुजस्स आय रियस्स मूले पपयामित्ति, तेहिं सो परिक्खिजह भत्तेणं पाणेण य, पंथे य विसमे सुकुमालतो दुक्खाविजाइ, अणुलोमेश दाय से उपसग्गे करेंति-चित्तक्खोभो जायइ, सो धणियतरागं थिरो जातो, न पुण तेहिं खोभितो, अण्णे भणंति-ते सिद्ध पुत्तरूवेण गया, अतिसए साहेति, जहा चिरं जीवियचं, सो भणइ-बहुओ मे धम्मो होहिति, न सकिओ खोभेडं, गया जमदग्गिस्स समीयं, सउणरूवाणि कयाणि, कुच्चे से घरओ कतो, सउणओ भणइ-भद्दे ! जामि हिमवंतं, सा न देइ, मा न एहिसित्ति, सो सवहे करेइ गोघाइयगाइ जहा एमित्ति, सा भणइ, न एएहिं पत्तियामित्ति, जइ एयस्स रिसिस्स दुक्खि(कि)-18 D ॥५००॥ काय पियसि तो विसजेमित्ति, सो रुट्ठो, तेण दोऽवि दोहिं हत्येहिं गहियाणि, पुच्छिया भणंति-महरिसि! अणवच्चोऽसि, सो भणइ-सच्चमेयं, खोभितो। एवं सो सावगो जातो देवो, इमोऽवि ताओ आयावणभूमीतो उइण्णो मिगकोडगं नगरं जाइ, SMEcationDGE |...क्रोध तथा मान-कषाये सुभूम-चक्रवर्ते: कथानक ~122 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: E प्रत सूत्रांक दातस्थ जियसत्तू राया, सो उद्वितो, किं देमि ?, धूयं देहित्ति, तस्स धूयासयं,जा तुम इच्छइ सा तुझंति, कण्णतेउरं गतो, ताहिं दगुण निच्छुढं, न लज्जसित्ति भणितो, तातो खुजीकयातो, तत्थ एगा तस्स धूया रेणुएणं रमइ, तीएऽणेणं फलंद पणामियं, इच्छसित्ति य भणिया, हत्थो पसारितो, निजंतीए उवट्ठियायो खुजीओ सालिरुवए देहि, अक्खुजीतो कयातो, दिनीया आसमं, सगोमहिसपरियणा राइणा दिना, संवद्धिया, जोवर्ण पत्ता जाहे जाया ताहे वीवाहधम्मो जातो, अन्नया। उउसमए जमदग्गिणा भणिया-अहं ते चहें साहेमि, जेण ते पुत्तो बंभणपहाणो होइ, तीए भणियं-एवं किजउ, मज्झय भगिणी हथिणउरे अणंतविरियस्स भजा, तीसेवि साहेहि खत्तियचरुगंति, तेण साहितो, सा चिंतेइ-अहं ता अडवीए | मिगी जाया, मा मम पुत्तो एवं नासउत्ति तीए खत्तियच जिमितो, इयरीए इयरो पेसितो, दोण्हवि पुत्ता जाया, ताव सीए रामो, इयरीए कत्तविरिओ, सो रामो तत्थ संबद्धइ, अन्नया एगो विजाहरो तत्थ समोसहो, पडिभग्गो, तेण सो ४ पडिचरिओ पगुणो जातो, ततो से रामस्स तेण तुडेण परसुविज्जा दिन्ना, सरवणे साहिया, अन्ने भणति-जमदग्गिस्स परंलपरागया परसुविजा, तेण रामो पाढिओ, तस्स सिद्धा, सा रेणुगा भगिणीधरं गया, तेण रण्णा समं पलग्गा, सपुत्ता जमदग्गिणा आणीया, रहो रामो, ततो रामेण सपुत्ता मारिया, सोऽवि किर तत्थेव ईसत्थं सिक्खितो, तीसे भगिणीए। सुर्य, रण्णो कहियं, सो आगतो, आसमं विणासित्ता गावीतो घेत्तूण पधावितो, रामस्स कहिय, तेण पधाविऊण परसुणा। मारिओ, कत्तविरिओ राया जाओ, तस्स देवी तारा, अण्णया से पिउमरणं कहियं, तेण आगंतूण जमदग्गी मारिओ,। रामस्स कहियं, तेण गएण जलंतेणे परसुणा कत्तवीरितो मारितो, सयं चेव रजं पडिवणं । इतो य देवी तेण अनुक्रम SimEducation ~1237 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [१५१...], मूलं - गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम श्रीआव- संभमेण पलायंती तावसासमं गया, पडितो य समुहेण भूमि खायंतो गम्भो, ततो नाम कयं सुभूमो, रामस्स य परसू है। श्यकमल- जहिं खत्तियं पेषछह तहिं तहिं जलति, अन्नया तावसासमस्स मज्झेण विइवयइ, परसू उज्जलितो, तावसा भणंति-अम्हे चिय सुभूमः यगिरीय- खत्तिया, तेण रामेण सत्त वारा निक्खत्तिया पुहवी कया, हणूणं थालं भरियं, एवं किर रामेण कोवेण खत्तिया बहिया, वृत्तौ नम- एवंविधं क्रोधं नामयन्त इत्यादि पूर्ववत् ॥ मानोऽपि नामादिभेदाचतुष्पकारः, कर्मद्रव्यमानस्तथैव, नोकर्मद्रव्यमानः स्कारे स्तब्धद्रव्यलक्षणः, भावमानो नोआगमतस्तद्विपाकः, स च चतुर्की, यथाऽऽह-"तिणिसलया १ कट्ठ २ द्विय ३ सेलत्थंभो-11 ४ि वमो माणो ॥" अबोदाहरणम्-सो सुभूमो तत्थ संवद्धद, विजाहरपरिग्गहितो जातो, किर चक्कवट्टी भविस्सइत्ति, मेघ नादु विजाहरी इत्थीरयणनियधूयापउमसिरीदाणनिमित्तं तस्स समीचे सयासे अच्छइ, अन्नया तेण विसाईहिं परिक्खिजइ, इतो य रामो नेमित्तियं पुच्छर, कतो मम विणासोति !, तेण भणियं-जो एयंमि सीहासणे निविसिहिद, एयातो दाढातो पायसीभूयातो खाहिति, ततो ते भयं, ततो तेण अवारियं भत्तं कर्य, तत्थ सीहासणं धुरे ठवियं, दाढातो से अम्गतो कयातो, एवं बच्चइ कालो, इतो य सुभूमो मायं पुच्छइ-किं एत्तिओ लोगो, अनोऽवि अस्थि , तीए सर्व कहियं, सो तं सोऊणमभिमाणेण हस्थिणापुरं गतो, तं सभं पविट्ठो, देवया रडिऊण नट्ठा, तातो दाढातो परमन्नं जायातो, माहणा तं पहारे लग्गा, मेघनादेण विजाहरेणं ताणि पहरणाणि तेसिं चेव उवरि पाडिजंति, सो वीसस्थो भुंजइ, रामस्स ५ ।५०१॥ परिकहियं, सण्णद्धो आगतो, परसुं मुयइ, विज्झातो, इयरो य तं चेव थालं गहाय उद्वितो, चकरयणं जाय, तेण से रामस्सा द्रासीसं छिन्नं, पच्छा तेण सुभोमेण माणिणा एकवीसं वारा निबंभणा पहवी कया, गम्भावि फालिया, एवंविधं मानं नामयंत SACREC60 [१] ~124 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] Education i आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९९१८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः इत्यादि पूर्ववत् ॥ माया चतुर्विधा नामादिभेदतः, कर्म्मद्रव्यमाया योग्यादिभेदाः पुग्गलाः, नोकर्म्मद्रव्यमाया निधानप्रयुतानि द्रव्याणि, भावमाया नोआगमतस्तत्कर्मद्रव्यविपाकलक्षणा, तस्याश्चत्वारो भेदाः, “मायाऽवलेहि १ गोमुत्ति २ मेंढ सिंग ३ घणवंसिमूल ४ समा" मायाए उदाहरणं पंडरजा, तीए किल भत्तपञ्चक्खाइयाए पूयानिमित्तं तिष्णि वारे लोगो मंत्रेण आवाहितो, आयरिएहिं आलोयाविया ठिया, चडत्थयं च वारं नालोयाविया, भणति - एस पुछब्भासेणागच्छइ, मायासल्लदोसेण किबिसिया जाया, एरिसी दुरंता माया । अहवा सबंगसुंदरी उदाहरणं, वसंतपुरं नयरं, जियसत्तू राया, धणवइघणावहा भायरो सेट्ठी, धणसिरी तेसिं भगिणी, सा बालरंडा परलोगरया य, पच्छा मासकप्पागयधम्मघोसायरियसमीचे पडिबुद्धा, भायरोऽवि से नेहेण पडिबुद्धा, सा पवइउमिच्छर, ते संसारनेहेणं न देति, सा य धम्मवयं खद्धं खद्धं करेइ, भाउज्जायातो य से कुरुकुरायंति, तीए चिंतियं-पेच्छामि ता भाउगाण चित्तं, किमेयाहिंति ?, नियडीए परिआलोचिऊण सोबजगपबेसकाले बीसत्थं वीसत्थं बहुं धम्मगयं जंपिऊण ततो नट्ठतुंडेण जहा से भत्ता सुणेइ तहा एगा भाउजाइगा भणियाकिं बहुणा ? साडियं रक्खिज्जासि, तेण चिंतियं एसा दुच्चारिणित्ति, वारियं च भगवया असइपोसणं, ततो णं परिद्ववेमित्ति पलके उवविसंती वारिया, सा चिंतेइ-हा, पच्छा तेण भणिया-घरातो मे नीहि सा चिंतेइ किं मे दुकडं कयंति ?, न किंचि पासइ, ततो तत्थेव भूमिगयाए किच्छेण नीया रयणी, पभाए ओलुग्गंगी निग्गया, घणसिरीए भणिया-कीस ओलुग्गंगी दीससि ? सा रुयंती भणइ-न याणामो अवराहं, गेहाओ य धाडिया, तीए भणियं-वीसत्था अच्छह, अहं ते भलिस्सामि, भाया भणितो- किमेवमेयंति ?, तेण भणियं अलं मे दुट्ठसीलाए, तीए भणियं कहं जाणासि १, तेण •••• माया कषाये सर्वांगसुन्दरेः कथानकं 125~ brary.org Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक सुंदरी स्कारे श्रीआय-I भणिय-तुम्भं व सगासातो सुया देसणा, निवारणं च, तीए भणिय-अहो ! ते पंडियत्तणं वियारक्खमगं धंमयापरि-1 मायायां श्यकमल-IPणामो, मया सामपणेण बहुदोसमेयं भणियंति से उबदिटुं, वारिया य, किमेतायता दुचारिणी होई, ततो सो लजितो, सर्वागयगिरीय-18 मिच्छादकई से दवावितो, चिंतियं च णाए-एस ताव मे कसिणधवलपडियज्जगो, वितिओऽषि एवं चेव विनासितो, वृत्तौ नम- नवरं सा भणिया-किंबहणा, हत्थं रक्खेज्जासित्ति, सेसविभासा तहेव जाव एसोऽवि मे कसिणधवलपडियजगोत्ति, एत्थर पुण इमाए नियडीए अभक्खाणदोसतो तिथं कम्मं निबद्धं, पच्छा एयस्स अपडिकमिय भावतो पवइया, भायरोवि से सह जायाहिं पपइया, अहाउग पालित्ता सुरलोगं गयाणि, तत्थवि अहाउयं पालित्ता भायरो से पढ़म चुया सागेए नयरे ॥५०॥ असोगदत्तस्स समुहदत्तसागरवत्ताभिहाणा पुत्ता जाया, इयरीवि चइऊण गयउरे नगरे संखस्स इन्भस्स सावगस्स धूया जाया, अतीव सुंदरित्ति सवंगसुंदरी से नाम कयं, इयरीतोऽवि भाउज्जायातो चविक्रण कोसलाउरे नंदणाभिहाणस्स इन्भस्स सिरिमइ-कंतिमइनामातो धूयातो आयातो, जोवणं पत्ताणि सवाणि, सबंगसुंदरीवि कहिं पि साकेया गयपुरमागएण असोगदत्तसेविणा दिट्ठा, कस्सेसा कण्णगति कस्सवि समीचे पुच्छिय, नायं संखस्स, ततो सबहुमाणं समुद्ददत्तस्स मग्गिया, लद्धा, विवाहो कतो, कालंतरेण सो विसज्जायगो समुद्ददत्तो अइगतो, उवयारो से कतो, वासहरं सज्जियं, एत्थंतरंमि य सबंगसुंदरीए तं नियडिनिबंधणं पढमकम्मं उदितं, ततो भत्तारेण से वासघरहिएण वोलेंती ॥५०२॥ देविगी पुरिसच्छाया दिट्ठा, ततो तेण चिंतियं-दुद्रुसीला मे महिला, कोइ अवलोइउं गतोति, पच्छा सा आगया, न तेण 8बोल्लाविया, ततो अदृदुहट्टयाए धरणीए चेव रत्तिं गमिता, पभाए से भत्तारो अणापुच्छिय सयणवग्ग एगस्स घिजाइगस्स CAREERSARAKAR दीप अनुक्रम SmECarton mehtami ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: SANG-- प्रत सूत्रांक -- -- - कहेत्ता गतो सागेयं नगरं, परिणीया अणेण कोसलाउरे नंदस्स धूया सिरिमती, भाउणा य से तीसे भगिणी कंतिमई,5 सुयं च णेहिं, ततो गाढमधिती जाया, विसेसतो तीसे, पच्छा तेसि समागमसंववहारो वोच्छिन्नो, सा धम्मपरा जाया, पच्छा पबइया, कालेण विहरती पवत्तिणीए समं साकेयं गया, पुवभाउज्जायाओ उवसंताओ, भत्तारा य तासिं न सुगु, एत्थंत-18 रंमि य से उदितं नियडिनिबंधणं बिइयं कम्म, पारणगे भिक्खट्ठ पविट्ठा, सिरिमती वासघरं गया हारं पोयइ, तीए अब्भुट्ठिया, असा हारं मोत्तूण भिक्खहमुट्ठिया, एत्यंतरंमि चित्तकम्मोइण्णमऊरेण सो हारो गिलितो, तीए चिंतियं-अच्छरियमिणं, पच्छा साडगद्धेणं ठइयं, भिक्खा पडिग्गहिया निग्गया य, इयरीए जोइयं जाव नथि हारोत्ति, तीए चिंतियं-किमेयं, अच्छरियमिणं, पच्छा परियणो पुच्छितो भणइ-न कोई एत्थ अजं मोत्तूण पविट्ठो, तीए अंबाडितो, पच्छा फुई, इयरीए पवत्तिणीए सिहूं, तीए भणिय-विचित्तो कम्मपरिणामो, पच्छा उग्गतरतवरया जाता, तेसिं चाणत्यभीयाणं न तं नेहुँ । ओगाहइ, सिरिमतिकंतिमतीतो भत्तारेहिं हसिज्जंति, न य विपरिणामंति, तीएवि उग्गतवरयाए कम्मं सेसीकयं, एत्वंत-12 रंमि सिरिमती भत्तारसहाया वासघरे चिट्ठइ, जाव मोरेणं चित्तातो उयरिऊण निगलितो हारो, ताणि संवेगमावण्णाणिअहो से भयवतीए महत्थ(प्प)या जन्न सिट्ठमेयंति खामिडं पयट्टाणि, एत्थंतरंमि से केवलनाणमुष्पन्नं, देवेहि महिमा कया, तेहिं पुच्छिय, तीएवि साहिओ परभववुत्तंतो, ताणि पवइयाणि, एरिसी दुहावहा माया । एवंविधां मायां नामयंत इत्यादि पूर्ववत् ॥ लोभो नामादिभेदाच्चतुष्पकारः, तत्र कर्मद्रव्यलोभो योग्यादिभेदाश्चतुर्विधाः पुद्गलाः, नोकर्मद्रव्यलोभ आकरमृत्तिका, चिक्कणिका इत्यर्थः, भावलोभस्तत्कम्र्मविपाकः, तस्य भेदाश्चत्वारः-"लोहो हलिद १ खंजण २ कद्दम ३ - अनुक्रम - - RECators ...लोभ-कषाये लुब्धनन्दस्य कथानक ~127 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत लोभे लु सत्राक *G*SECAR दीप श्रीआव- किमिराग ४ सारित्थो ॥ सर्वेषां क्रोधादीनां यथाक्रमं स्थितिफलान्येवं "पक्ख १ चउमास २ बच्छर ३ जावजीवा ४ श्यकमल-11णुगामिणो कमसो । देव १ नर २ तिरिय ३ नारय ४ गइसाहणहेयवो नेया ॥१॥" लोभ उदाहरणं लुद्धनन्दः-पाडलि-10 ब्धनन्दः यगिरीय-पुत्ते नयरे नंदो वाणियओ, जिणदत्तो सावतो, जियसत्तू राया, सो तलायं खणावेइ, फाला दिट्ठा कम्मगरेहि, सुरामोलंति वृत्तौ नम- दो गहाय वीहीए सावगस्स उवणीया, तेण नेच्छिया, नंदस्स वीहीए नीया, गहिया, भणिया-अण्णेऽवि आणेज्जाह, अहं स्कारे चेव गिहिस्सामि, दिवसे २ गिण्हइ फाले, अन्नया गोरवारिहसयणिज्जामंतणए बलामोडीए नीओ, पुत्ता भणिया-फाले गिहिज्जह, सो गतो, ते य आगया, पुत्तेहिं फाला न गहिया, आकुट्ठा य गया पूयलियसालं, तेहिं ऊणगं मोहंति एगंते ॥५०३॥ एडिया, किट्ट पडियं, विट्ठा रायपुरिसेहिं, गहिया, जहावत्तं रपणो कहियं, सो नंदो आगतो भणइ-गहिया नवत्ति, तेहिं भणियं-किं अम्हेऽवि गहेण गहिया ?, तेण अतिलोलयाए एत्तियस्स लाभस्स फिट्टोऽहं पादाण दोसेणंति एगाए फुसीए दोऽवि पाया भग्गा, सयणो विलवति, ततो रायपुरिसेहिं सावगो नंदो य घेसूण राउल नीया, पुच्छिया, सावगो भणइ मज्झ इच्छापरिमाणाइरि, अविय-कूडमाणंति, तेण न गहिया, सावओ पूइऊण विसज्जितो, नंदो सूलाए भिन्नो, सकुलो 18| उच्छादितो, सावगो सिरिघरे ठवितो, एरिसो दुरंतो लोभो, एवंविधं लोभं नामयन्त इत्यादि पूर्ववत् ॥ है। अथेन्द्रियद्वारमुच्यते-तत्र इन्द्रियमिति कः शब्दार्थः?, उच्यते-'इदु परमैश्वर्ये' इन्दनादिन्द्रः, सर्वोपलब्धिसर्वोपभोगरूप ॥५०३॥ परमैश्वर्ययोगाजीवः, तस्य लिङ्गं तेन सृष्टं वा इन्द्रियं, 'इन्द्रिय'मिति निपातनसूत्रादिष्टरूपनिष्पत्तिः, तच्च द्विधा-द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं च, तत्र निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियं, निवृत्तिनाम प्रतिविशिष्टः संस्थानविशेषः, साऽपि द्विधा-बाह्या अभ्यन्तरा 5 अनुक्रम A SMECatonENI hamastringing ... अथ इन्द्रिय-द्वारम् कथा सहितं उच्यते ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दाच, तत्र वाह्या कर्णपर्पटिकादिरूपा, सा च विचित्रा, न प्रतिनियतसंस्थानरूपतया व्यपदेष्टुं शक्या, तथाहि-मनुष्यस्य श्रोत्रे नेत्रयोरुभयपार्श्वतोभाविनी भुया चोपरितनबन्धापेक्षया समे, वाजिनो नेत्रयोरुपरि तीक्ष्णे चाग्रभागे इत्यादि जातिमेदा-IN 18| नानाविधे, अभ्यन्तरा तु निर्वृत्तिः सर्वेपामपि जन्तूनां समाना, तामेव चाधिकृत्यामूनि सूत्राणि प्रावर्तत, यतः 'सोइंदिए णं दाभंते ! किसंठाणसंठिते पन्नते?, गोयमा ! मसूरचंदसंठाणसंठिए पण्णत्ते, घाणिदिए णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते, गोयमा ! अइमुत्तगसंठाणसंठिए पण्णत्ते, जिभिदिए णं भंते ! किंसंठाणसंटिए पन्नत्ते, गोयमा ! खुरप्पसंठाणसंठिए पण्णत्ते, फासिदिए णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पन्नत्ते ?, गोयमा ! नाणासंठाणसंठिए पन्नते," इह स्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तेः प्रायो न बाह्याभ्यन्तरभेदः, पूर्वसूरिभिस्तथाभिधानात् , उपकरणं खड्गस्थानीयाया बाह्याया निवृत्तर्या खडधारासमाना स्वच्छतरपु दूगलसमूहात्मिका अभ्यन्तरा निवृत्तिस्तस्याः शक्तिविशेषः, इदं चोपकरणरूपं द्रव्येन्द्रियं नान्तरनिर्वत्तेः कश्चिदर्थान्तरं, || शक्तिशक्तिमतोः कथञ्चिझेदात् ,कथञ्चिद्भेदश्च सत्यामपि तस्यामान्तरनिर्वृत्तौ द्रव्यादिनोपकरणस्य विघातसम्भवात् , तथाहि सत्यामपि कदम्बपुष्पाद्याकृतिरूपायामान्तरनिवृत्तौ अतिकठोरतरघनगर्जितादिना शक्त्युपपाते सति न परिच्छेत्तुमीशते जन्तवः शब्दादिकमिति, भावेन्द्रियमपि द्विधा-लब्धिरुपयोगश्च, तत्र लब्धिः श्रोत्रेन्द्रियादिविषयः सर्वात्मप्रदेशानां तदाब| रणक्षयोपशमः, उपयोगः स्वस्वविषये लब्धिरूपेन्द्रियानुसारेणात्मनो व्यापारः, इह यदि उपयोगापेक्षया संसारिजीवानां चिन्ता क्रियते तदैकस्मिन् काल एकेनैवेन्द्रियेण उपयोगो न शेषरित्युपयोगापेक्षया सर्वोऽपि संसारिजीव एकेन्द्रियः, उक्तं |च-"जो सविसयवावारो सो उवयोगो स चेगकालंमि । एगेण चेव तम्हा उवयोगेगिंदिआ सबे ॥१॥"लब्धिरपि प्रायः अनुक्रम RRC%DBACRORECर ~129 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: S प्रत इन्द्रियस्वरूपं दीप अनुक्रम श्रीआव-18सर्वजीवानामपि संसारिणां पवेन्द्रियविषयाऽपि समस्ति, एकेन्द्रियाणामपि बकलादीनां तथोपलम्भात . उक्तं च-"ज किर इयकमल- बउलाईणं दीसइ सेसेंदितोवलंभोऽवि । तेणत्थि तदावरणक्खओवमसंभवो तेसिं ॥१॥" तस्मादुपयोगापेक्षया लब्ध्यपेयगिरीय-हाक्षया वा नैकेन्द्रियादिभेदव्यपदेशसंभवः, किन्तु निवृत्तिरूपद्रव्येन्द्रियापेक्षया, तस्याः प्रतिनियतैकेन्द्रियादिजातिभेदं प्रति दृत्तौ नम- नियतस-ख्याया भावात् , उकं च-"पंचिंदिओऽपि बउलो नरोध सबविसयोवलंभातो । तहवि न भन्नइ पंचिंदिओत्ति स्कारे बझेन्दियाभावा ॥१॥" अमीषां च द्रव्यभावेन्द्रियाणामयं भावक्रमः-प्रथममिन्द्रियावरणक्षयोपशमरूपा लब्धिर्भवति, ततो वाह्याभ्यन्तरभेदभिन्ना यथास्वकर्मविपाकोदयं निवृत्तिः, तत आन्तरनिवृत्तेः शक्तिरूपमुपकरणं, तदनन्तरं चेन्द्रि।।५०४॥ यार्थोपयोगः, तथा चाह-"लाभक्कमो उ लद्धी निबत्तुवगरणउवओगे य॥' अमूनि च स्पर्शनादिभेदेन पंच भवन्ति, ततो बहुवचनम्, उक्कं च-"स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणीन्द्रियाणी"ति, तानि चानामितानि अलं दुःखायेति । अत्रोदाहदि रणानि । तत्र श्रोत्रेन्द्रिये उदाहरणम्-वसंतपुरे नयरे पुप्फसालो नाम गंधबितो, सो य अइसुस्सरो विरूवो य, तेण Iजणो यहियओ कओ, तम्मि य नयरे सत्थवाहो दिसाजत्तं गतो, भद्दा य से भारिया, सीए केणवि कारणेण दासीओट पेसियातो, तातो सुणंतीतो अच्छंति, कालं न याति, चिरेण आगयातो, अंबाडियातोभणंति-मा भट्टिणीतो रुसह मज्झं अम्हाहिं सुयं पसूणवि लोभणिज्ज, किमंग पुण सकन्नाणं?, ततो पुच्छइ-कहं ?, ताहिं कहियं, सा हियए चिंतेइ-अहह कहमहं पेच्छेज्जामि', अन्नया तत्थ नगरे देवयाए जत्ता जाया, सवं च नगरं गयं, सावि गया, लोगोऽवि पणमिऊणं | 15पडिएइ, पभायं वट्टइ, सोवि गाइऊण परिस्संतो परिसरे सुत्तो, सा य सत्यवाही दासीए समं गया, पणिवइत्ता देवउलं [१] CRICK ॥५०४॥ 1-5645 k imastram ~130~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दापयाहिणीकरेह, चेडीहिं दाइतो, एसोत्ति, सा संभंता ततो गया, पच्छा विरूवं दंतुरं दहण भणइ-दिलु से स्वेण चेव वरं गेयं, तीए णिच्छूट, चेइयं च णेणं, कुसीलवेहिं से कहियं, तस्स अमरिसो जातो, तीसे घरमूले पच्च्सकालसमए गाइउमारद्धो पउत्थवइयाए निबद्धं, जहा आपुच्छइ जहा तत्थ चिंतेइ जहा लेहं विसज्जइ जहा आगतो घरं पविसइ, सा चिंतेइ सन्भूयं, ताए अब्भुढेमित्ति आगासतलातो अप्पा मुक्को, सा मया, एवं सोईदियं दुक्खाय भवति ॥ | चक्खिदिए उदाहरणं-महुराए नयरीए जियसत्तू राया, धारिणी देवी, सा पयईए धम्मसद्धा, तत्थ भंडीरवणं चेइयं, तत्थ जत्ता, राया सह देवीए नयरजणो य महया विभूतीए निग्गतो, तत्थ एगेण इन्भपुत्तेण जाणसंठियाए देवीए जबणियंहतरविणिग्गतो सालत्तगो सनेउरो अईव सुंदरो दिट्ठो चलणो, चिंतियं च णेण-जीए एरिसो चलणो सा रूवेण तियससुंदसारीणवि अब्भहिया, अज्झोववण्णो, पच्छा गविट्ठा, का एसत्ति, नायं, तग्घरपच्चासन्न वीही गहिया, तीसे दासचेडीणं दुगुणं 18|देइ, महामाणुसत्तणं च दाएइ, ततो हयहिययातो कयातो, देवीए साहति, संयवहारो लग्गो, देवीए गंधाई ततो चेव गेण्डं-18 ति, अन्नया तेण भणियं-का एयातो महामोल्लगंधादिपुडियातो छोडेइ!, चेडीए सिट्ठ-अम्हाणं सामिणित्ति, तेण एगाए पुडि-18 याए भुजपत्ते लेहो लिहिऊण छुढो, यथा 'काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेघान्धकारासु च शर्वरीषु । मिथ्या न जल्पामि विशा४लनेत्रे !, ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥१॥ पच्छा उग्गाहिऊण विसज्जिया, देवीए उग्घाडिया, वाइतो लेहो, चिंतियं चणाए-101 दाधिरत्थु भोगाणं, पडिलेहो लिहितो, यथा 'नेह लोके सुखं किंचिच्छादितस्यांहसा भृशम् । मितं च जीवितं नृणां, तेन धम्में आ. सू.८५ मतिं कुरु ॥शापादप्रथमाक्षरबद्धो भावार्थः पूर्वश्लोकवदवसेयः, ततो बंधिऊण पुडिया न सुंदरा गंधत्ति विसज्जिया चेडीए, तीए NACSCRECIRKAR अनुक्रम 2009-16 Honorg ~131 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआव श्यकमलयगिरीयवृत्तौ नम स्कारे आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९९१८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ॥ ५०५ ॥ पडिअप्पिया पुडिया, भणियं च णाए-देवी आणवेइ न सुंदरा गंधत्ति, तुट्ठेण छोड़िया, दिट्ठो लेहो, अवगए लेहत्थे विसन्नो पौत्ताई फालेऊण निग्गतो, चिंतियं च गण-जाब एसा न पाविया ताब कहमच्छामित्ति ?, परिभमंतो अन्नं रज्जं गतो, सिद्धपुत्ताण दुक्को, तत्थ नीई बक्खाणिज्जइ, तत्थवि य अयं सिलोगो - "न शक्यं त्वरमाणेन, प्राप्तुमर्थान् सुदुर्लभान् । भार्या वा रूपसंपन्नां, शत्रूणां वा पराजयम् ||१||" एत्थ उदाहरणम्-वसंतपुरे नगरे जिणदत्तो नाम सत्थवाहपुत्तो, सो य समणसङ्को, इतो य चंपाए परममाहेसरो धणो नाम सत्थवाहो, तस्स य दुवे अच्छेरगाणि च समुहसारइया मुत्तावली, धूया कन्ना हारष्पभत्ति, जिणदत्तेण सुयाणि, बहुप्पयारं मग्गियाणि न देइ, ततो णेण चढवेसो कतो, एगागी चैव चंपं गतो, दुब्भिक्सं तत्थ वद्दइ, * तत्थ य बहुजणपसिद्धो एगो अज्झावगो, तस्स उवट्टितो, पढामिति, सो भणइ-भतं मे नत्थि, जइ नवरि कहिंपि लहसि, ४ घणो य ससरक्खाणं देइ, तस्स उबट्टितो, भत्तं मे देहि-जा विज्जं गिण्हामि, जंकिंचि देमित्ति पडिस्सुयं, धूया संदिट्ठा, जं किंचिवि से बिसज्जेहित्ति, तेण चिंतियं-सोहणं संवृत्तं, वलरेणं दामितो विडालोत्ति, सो तं फलादिगेहिं उवचरइ, सा न गिण्हइ उवयारं, सो य अतुरितो नीतिग्गाही थक्के थक्के सम्मं उवचरइ, थको नाम प्रस्तावः, स सक्खायं तं खरेंटति, | तेण सा कालेणावज्जिया, अज्झोववण्णो, भणइ-पलायामो, तेण भणियं-अजुत्तमेयं, किंतु तुमं उम्मत्तिगा होह, वेज्जावि अकोसेजाहि, तहा कयं, विज्जेहिं पडिसिद्धा, पिया से अद्धितिं पगतो, चट्टेण भणियं-अस्थि मे परंपरागया विज्जा, दुकरो य से उवयारो, तेण भणियं-अहं करेमि, चहेण भणियं पजामो, किंतु बंभयारीहिं कजं, तेण भणियं-अस्थि भयवंतो ससरक्खा ते आणेमि, चट्टण भणियं - जर कहवि अभयारिणो भवंति तो कज्जं न सिज्झइ, ते य परिताविज्जंति, तेण भणियं Jan Educato 1969670 Por Private & Personal Use Only ~132~ चक्षुरिन्द्रिये इभ्यपुत्रः ॥ ५०५ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९९१८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः जे सूरा ते आणेमि, कतिहिं कर्ज ?, चउहिं, आणीया, सद्दवेहिणो दिसावाला कया, मंडलं कयं दिसावाला भणियाजत्तो सिवासदं सुणेह तं मणागं बिंधह, ससरक्खा य भणिया हुंफडित्तिकए सिवारुयं करेज्जह, दिकरिया भणिया- तुमं तह च्चैव अच्छेज्जह, तहा कयं, विद्धा ससरक्खा, न पडणा चेडी, विपरिणतो घणो, चद्देण युतं-मए भणियं 'जइ कहवि अचंभचारिणो होंति न कज्जं सिज्झिहि' इत्यादि, धणेण भणियं को उयातो ?, चट्टेण भणियं - एरिसा बंभचारिणो भवति, गुत्तीतो कहेइ, दगसूयरादिसु गवेसियातो, नत्थि, साहूण ढुको, तेहिं सिद्धातो-बसहि १ कह २ सेजें ३ दिय ४ कुडुंतर ५ पुडकीलिय | ६ पणीए ७ । अइमायाहार ८ विभूसणा ९ य नव वंभगुत्तीतो ॥१॥ एयासु बट्टमाणो सुद्धमणो जो य बंभयारी सो । जम्हा उ वंभचेरं मणोनिरोहो जिणाभिहियं ॥२॥ उयगए भणियं वंभयारीहिं मे कणं, साहू भणंति-न कप्पर निग्गंधाणमेयं, चट्टस्स कहियं लद्धा बंभयारी, न पुण इच्छंति, तेण भणियं एरिसा चैव परिचत्तलोगवावारा मुणओ भवंति, किंतु पूइएहिवि तेहिं कज्जसिद्धी होइ, तन्नामाणि लिक्खति, न ताइं खुद्दवंतरी अइक्कमति, ततो भयारिणो रुइया, मंडलं कथं, साहुनामाणि लिहियाणि, दिसावाला ठविया, न कूवियं सिवाए. पडणा चेडी, घणो साहुमहियंतो सद्धो जातो, धम्मोबगारिति चेडी मुत्ताहलमाला य तस्सेव दिन्ना, एवं अतुरंतेण पावियत्ति सिलोगत्थो, सो एवं सुणिऊण परिणामेइ, अहंपि सदेसं गंतुं अतुरंतो तत्थेव कंचि उवायं चिंतिस्सामि, गतो सदेसं, तत्थ य विज्जासिद्धा पाणा दंडरक्खा, तेण ते ओलग्गिया, भांति किं ते अम्हेहिं कज्जं ?, सिद्धं देवि घडेह, तेहिं चिंतियं-उच्छोभं से देमो जेण राया परिच्चयइ, तेहिं मारी विउबिया, लोगो मरिउमारखो, रण्णा पाणा समादिट्ठा, णासेह मारिं, तेहिं भणियं-गवेसामो, विजाए य देवीवासहरे माणुसहत्थपाया विउविया, मुहं च ~133~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: N प्रत सत्राक दीप अनुक्रम श्रीआव-तसे रुहिरलित्तं कयं, रण्णो निवेइयं, वधवा चेव मारी, निययघरे गवेसाहि, रण्णा गविट्ठा, दिवा य, पाणा समाइट्ठा, से घाणजिहे श्यकमल- विहीए वावाएह, किंतु मज्झरत्तमि अप्पसागारिए वावाएयबा, तहत्ति पडिस्सुए रतिं नीया सगिह, सोय तत्थ पुवालोयगिरीय-18 चियकयकबडो गतो, सखलियारं पाणेहिं मारिउमारद्धा, तेण भणियं-किमेयाए कयंति !, ते भणंति-मारी एसत्ति मारिवृत्तौ नम-18 जइ, तेण भणियं-कहमेयाए आगिईए मारी हवइ ?, केणइ अवसद्दो भे दिण्णो, ता मा मारेह, मुयह एयं, ते नेच्छंति, स्कारे I गाढतरं लग्गो, अहं भे कोडिमोल्लं अलंकारं देमि, मुयह एयं, मा मारेह, बलामोडीए अलंकारो उवणीतो, तीएवि तमि। निकारणवच्छलोत्ति पडिबंधो जातो, तेहिं भणियं-जइ ते णिबंधो एयपि न मारेमो, किंतु निविसयाए गंतवं, पडिस्सुते ॥५०६॥ मुका, सो तंगहाय पलातो, पाणप्पदो वच्छलोत्ति दढतरं पडिबद्धा, आलावादीहिं घडिया, देसंतरंमि भोगे भुजंता अच्छ-18 ति॥ अन्नया सो पेच्छणए गंतुमारद्धो, नेहेण गंतुं न देइ, तेण हसियं, तीए पुच्छियं-किमेयंति !, न साहइ, निबंधे | सिहूं, निषिण्णा, तहारूवाणं अजाणं अंतिए धर्म सोचा पवइया, इयरोऽवि अदृदुहद्दो मरिऊण तदिवसं चेव नरगे *उववण्णो ॥ एवं दुःखाय चक्षुरिन्द्रियं ।। | घाणेन्द्रिये उदाहरणम्-कुमारो गंधप्पिओ, सो अणवरयं नावाकडएण खेल्लइ, माइसवत्तीए एयस्स मंजूसाए विसं छोहण नदीए पवाहियं, तेण रमंतेण दिट्ठा, उत्तारिया, उग्घाडेऊण पलोइडं पवत्तो, पडिमंजूसाइएहिं गहिओ, समुग्गको ५०६ दिडो, सो अणेण उग्घाडिऊण जिंघितो, मतो य, एवं दुक्खाय घाणिदियं ॥ जिभिदिए उदाहरण-सोदासो राया, मंसप्पिओ, अन्नया अमाधाओ, पुषसंचियं मंसं सूय इस्स विडालेण गहियं, MARA SMEducationPT ~1340 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सोयरिएमु मग्गियं, न लद्धं, डिंभरूवं मारियं, सुसंगियं, राया जिमिउमारद्धो, अतीव रुचिरं, राया पुच्छइ-कस्स एरिसं| मंसं?,न कहइ, निबंधे कहियं, पुरिसा दिन्ना, मारेहत्ति, नगरेण नातो, भिच्चेहि य रक्खसोत्ति महुँ पाएत्ता अडवीए मुक्को, चञ्चरे ठितो, धयं गहाय दिणे दिणे माणुसं मारेइ, केई भणंति-विरहे जणं मारेइ, अन्नया तस्संतेण सत्थो जाइ, तेण मुत्तेण दन बेइतो, साहु प आवस्सयं करेंता सत्धातो फिडिया, ते दहण पिढतो लग्यो, तवेण न सकेइ अक्कमिड, चिंतेइ-अहो *महप्पहावा अमी साह, संविग्गो, धम्मकहणं, पवजा । अन्ने भणति-सो भणइ वचंते-ठाह, साहू भणंति-अम्हे ठिया, तुम चेव ठाहि, चिंतेइ, साइसया आयरिया ओहिनाणी, केत्तिया एवं होहिंति, एवं दुक्खाय जिभिदियं ॥ द फासिंदिए उदाहरणं-वसंतउरे नयरे जियसत्तू राया, सुकुमालिया भजा, तीसे अतीव सुकुमालो फासो, राया रज VIन चिंतेइ, सो ताए निच्चमेव परिभुञ्जमाणो अच्छइ, एवं कालो बच्चाइ, मिचेहिं समं मंतिऊण तीए सह निच्छदो. प्रत्तो। से रणे ठविओ, ते अडवीए वचंति, तिसाइया जलं मग्गइ, अच्छीणि से बद्धाणि, मा बीहेहित्ति, सिरारुहिर पन्जिया, रुहिरे मूलिया छूढा जेण न थिज्जइ, छुहाइया, ऊरुमंसं दिन्नं, ऊरुमंसं रोहिणीए रोहियं, जणवयं पत्ताणि, आभरगाणि साचवियाणि, एगस्थ वाणियत्तं करेइ, पंगू य से वीहीए गोवगो घडितो, सा भणइ-न सक्कुणोमि एगागिणी गिहे चिद्विलं, ४ बिहजयं लभाहि । चिंतियं च णेण-निरवाओ पंगू सोभणों य, ततोऽणेण सो निडवालो निउत्तो, तेण गीयच्छलियकतिहाईहिं आवज्जिया, पच्छा सा तस्सेव लग्गा, भत्तारस्स छिदाण मग्गइ, जाहे न लहइ ताहे उज्जाणियाए गता. सो। वीसत्थो वहं मज पाएत्ता गंगाए पक्खित्तो, सावि तं दर्ष खाइऊण ते वहइ, गायति य परे घरे, पुच्छिया भणइ-माया अनुक्रम a CSC SMEducational ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: स्पर्श प्रत मालिका सत्राक स्कारे दीप श्रीआव पियराहिं एरिसो दिनो, किं करेमि?, सो राया एगथ नगरे उच्छलिओ; रुक्खच्छायाए पमुत्तो, न परावत्तइ छाया, श्यकमल- तत्थ य राया अपुत्तो मतो, आसो अहिवासितो, तस्थ गतो, जयजयसदेण पडिबोहितो, राया जातो, ताणिषि तत्थ | यगिरीय- दिगयाणि, रण्णो कहियं, आणावियाणि, सा पुच्छिया साहइ-अम्मापिईहिं दिन्नो, राया भणइ-बाहुभ्यां शोणितं पीतं, वृत्तौ नम ऊरुमांसं च भक्षितम् । गङ्गायां वाहितो भर्ता, साधु साधु पतिव्रते ! ॥१॥ निविसयाणि आणत्ताणि, एवं फार्सिदियं | 18दोण्हवि दुक्खाय, विसेसतो सुकुमालियाए । किञ्च-"शब्दासङ्गे यतो दोषो, मृगादीनां शरीरहा। सुखार्थी सततं विद्वान् , दि शब्दे किमिति संगवान् ॥१॥ पतङ्गानां क्षयं दृष्ट्वा, सद्योरूपप्रसङ्गतः । स्वस्थचित्तस्य रूपेषु, किं व्यर्थः सङ्गसम्भवः ? ॥५०७॥ H॥२॥ उरगान गन्धदोषेण, परतन्त्रान् समीक्ष्य कः । गन्धासको भवेत् ? को वा, स्वभाव वा न चिन्तयेत् ॥३॥ ४ रसास्वादप्रसङ्गेन, मत्स्यादु (द्य)च्छादनं यतः । ततो दुःखादिजनने, रसे कः सङ्गमामुयात् ॥४॥ स्पर्शाभिसक्कचि-19 त्तिाना, हस्त्यादीनां समक्षतः। अस्वातन्यं समीक्ष्यापि, का स्यात् स्पर्शनसङ्गमः ॥५॥ एवंविधानीन्द्रियाणि संसारवर्द्ध-18 नानि विषयलालसानि दुर्जयानि दुरन्तानि नामयन्तो नमोऽहो इति ॥ अधुना परीपहद्वारावसरः, तत्र मार्गाच्यवनार्थ निर्जरार्थ च परिषोढव्याः परिपहाः, तत्र मार्गाच्यवनाथ दर्शनपरीषहः है प्रज्ञापरीषहश्च, शेषा विंशतिनिर्जरार्थ, एते च द्वाविंशतिसङ्ख्याः क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्यारतिस्त्रीचर्यानिष द्याशय्याऽऽक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतृस्पर्शनमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाअज्ञानदर्शनानि, अमीषां यथाक्रम सङ्केपतोऽयमदार्थः-"क्षुधातः शक्तिमान् साधुरेपणां नातिलायेत् । यात्रामात्रोद्यतो विद्वान् , अदीनोऽविक्लवश्चरेत् ॥१॥ पिपासितः अनुक्रम [१] ... अथ परिषह द्वारम् उच्यते ~1360 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 42 दिपथिस्थोऽपि, तत्त्वविद् दैन्यवर्जितः । शीतोदकं नामिलषेत्, मृगयेत् कल्पितोदकम् ॥ २॥ शीताभिपातेऽपि यतिस्त्वग्व-| खत्राणवर्जितः । वासोऽकल्प्यं न गृहीयादग्निं नो ज्यालयेदपि ॥शा उष्णतप्तो न तं निन्देच्छायामपि च संस्मरेत् । स्नान गात्राभिषेकादि, व्यजनं चापि वर्जयेत् ॥ ४॥ सन्दष्टो दंशमशकैनासं द्वेषं न वा व्रजेत् । न वारयेदुपेक्षेत, सर्वाहारप्रियत्वहै|वित् ॥५॥ वासोऽशुभं न वा मेऽस्ति, नेच्छेत्तत्साध्वसाधु वा । लाभालाभविचित्रत्वं, जाननाग्न्येन विप्लुतः ॥७॥x गच्छंस्तिष्ठनिषण्णो वा, नारतिप्रवणो भवेत् । धर्मारामरतो नित्यं स्वस्थचेता भवेन्मुनिः ॥६॥ सङ्गपङ्काः सुदुर्धावा, स्त्रियो मोक्षपथार्गलाः । चिन्तिता धर्मनाशाय, यतोऽतस्ता न चिन्तयेत् ॥८॥ग्रामाद्यनियतस्थायी, सदा वाऽनियतालयः। विविधाभिग्रहयुक्तश्चर्यामेकोऽप्यधिश्रयेत् ॥९॥ श्मशानादिनिषद्याश्च, स्यादिकण्टकवर्जिताः । उपसर्गाननिष्टेष्टानेकोऽभाभीरस्पृहः क्षमेत् ॥ १०॥शुभाशुभासु शय्यासु, सुखदुःखे समुत्थिते । सहेत सङ्गं नेयाच, स्वास्थ्यायेति च भावयन् ॥१॥ दीनाक्रुष्टो मुनिराकोशेत्, साम्या ज्ञानाद्यवर्जकः । अपेक्षेतोपकारित्वं, न तु द्वेषं कदाचन ॥१२॥ हतः सहेतैव मुनिः, प्रति*हन्यान्न साम्यवित् । जीवानाशात् क्षमायोगात्, गुणाप्तेः क्रोधदोपतः॥ १३ ॥ परदत्तोपजीवित्वाद्, यतीना नास्त्यया-15 चितम् । यतोऽतो याचनादुःखं, क्षाम्येनेच्छेदगारिताम् ॥ १४ ॥ परकीय परार्थ वा, लभ्येताशादि नैव वा । लब्धेन मायेनिन्देद्वा, स्वपरान्नाप्यलाभतः ॥ १५॥ नोद्विजेत् रोगसम्प्राप्तौ, नवाऽभीप्सेचिकित्सितम् । विषहेत तथाऽदीनः, श्रामण्यमनुपालयेत् ॥ १६ ॥ अहताल्पाणुचेलत्वे, कादाचित्कं तृणादिषु । तत्संस्पर्शोद्भवं दुःखं, सहेन्नेच्छेच्च तान् मृदून ॥ १७॥ मलपङ्करजोदिग्धो, ग्रीष्मोष्णक्लेदनादपि । नोद्विजेत् मानमिच्छेद्वा, सहेतोद्वर्तयेन च ॥ १८॥ उत्थानं पूजनं दान, स्पृह अनुक्रम KHESASARASSACRICKASAX SERIES SMEducation ~137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआय श्यकमल यगिरीय वृत्तौ नमस्कारे ॥ ५०८ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९९१८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः येनात्मपूजकः । मूर्च्छितो न भवेलब्धे, दीनोऽसस्कारितो न च ॥ १९ ॥ अजानन वस्तु जिज्ञासुर्न मुह्येत कर्मदोषवित् । परीषहाः ज्ञानिनां ज्ञानमन्वीक्ष्य, तथैवेत्यन्यथा नतु ॥ २० ॥ विरतस्तपसोपेतश्छद्मस्थोऽहं तथापि च । धर्मादि साक्षान्नैवेक्षे, नैव स्यात्क्रमकालवित् ॥ २१ ॥ जिनास्तदुक्तं जीवो वा, धर्माधर्मौ भवान्तरम् । परोक्षत्वान्मृषा नैवं चिन्तयेन् महतो ग्रहात् ॥ २२ ॥ शारीरमानसानेवं, स्वपरप्रेरितान् मुनिः । परीषहान् सहेताभीः, कायवाङ्मनसा सदा ॥ २३ ॥ ज्ञानावरणवेद्येषु, मोहनीयान्तराययोः । कर्मसूदयभूतेषु, सम्भवन्ति परीपहाः ॥ २४ ॥ क्षुत्पिपासा च शीतोष्णे, देशका मशकादयः । चर्या शय्या वधो रोगस्तृणस्पर्शमलावपि ॥ २५ ॥ वेद्यादमी अलाभाख्यस्त्वन्तरायसमुद्भवः । प्रज्ञाऽज्ञाने तु विज्ञेयौ, | ज्ञानावरणसम्भव ॥ २६ ॥ चतुर्दशैते विज्ञेयाः, सम्भवेन परीषहाः । ससूक्ष्मसम्परायस्य, छद्मस्थारागिणोऽपि च ॥२७॥ क्षुत्पिपासा च शीतोष्णदंशचर्या वधो मलः । शय्या रोगतृणस्पर्शो, जिने वेद्यस्य सम्भवात् ॥ २८ ॥ विस्तरार्थो ग्रन्थान्तरात् तत्त्वार्थटीकादेवसेयः ॥ एते च परीषा द्विविधाः, तद्यथा- द्रव्यपरीपहा भावपरपहाश्च तत्र द्रव्यपरीपहा नाम ये इहलोकनिमित्तं बन्धनादिषु वा परवशेनाधिसह्यन्ते, तत्रोदाहरणं यथा सामायिके चक्रदृष्टान्ते इन्द्रपुरे इन्द्रदत्तपुत्रस्य, भावपरीषहा ये संसारव्यवच्छेदमनसाऽनाकुलेन सताऽधिसह्यन्ते, तैरेव चात्राधिकारः ॥ अधुना उपसर्गद्वारावसरः- तत्र उप-सामीप्येन सर्जनं उपसृज्यतेऽसाविति वा उपसर्गः, ते चतुर्विधाः, तद्यथा - दिव्या मानुपास्तैर्यग्योना आत्मसंवेदनीयाश्च तत्र दिव्याश्चतुर्विधास्तद्यथा - हास्यात् क्रीडात इत्यर्थः १, प्रद्वेषात् अवज्ञापूर्वभावसम्ब न्धादिकृतात् २, विमर्शात् किमयं स्वप्रतिज्ञातश्चलति नवेत्येवंरूपात् ३ पृथग्विमात्रातश्च, किमपि हास्यात् किञ्चित् प्रद्वेषा Por Private & Personal Use Only ~138~ ॥ ५०८ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] Jan Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९९१८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः किमपि विमर्शतश्चेत्यर्थः ४ । हांसे खुडुगा उदाहरणम् - खुड्डुगा अनं गामं भिक्खायरियाए गया, वाणमंतरं उवायंति - जइ फबामो तो वियडेणं उंडेरगेहिं तिलकुट्टियाए य अच्चणियं देहामो, लद्धं, सो वाणमंतरो मग्गर, अन्नमन्नस्स कहणं, मग्गिऊण दिनं, एयं ते संति, ताहे सयं चैव तं पक्खाइया, कंदप्पिया देवा तेसिं रूवं आवरेत्ता रमइ, वियाले मग्गिया, न दिट्ठा, देवयाए आयरियाण कहियं ॥ पओसे उदाहरणं संगमतो | बीमंसाए एगत्थ देवकुलियाए साहू वासावासं वसित्ता गता, तेसिंच एगो पुवपेसितो चेव वरिसारत्तं करेउमागतो, ताए देवकुलियाए आवासितो, देवया चिंतेइ किं दढधम्मो नवेति, सद्धीरूवेण उवसग्गेर, सो नेच्छइ, तुट्ठा बंद पुढोबेमायाए हासेण करेजा, एवं संजोगा । मानुषाश्चतुर्विधाः- हास्यात् प्रद्वेषात् विमर्शात् कुशीलप्रति से वनात्, विमात्रापक्षस्यात्र हास्यादिष्वेवान्तर्भावविवक्षणाद्, हास्ये उदाहरणं गणिकापुत्रिका, एगा गणियाधूया, खुडुगं भिक्खागयं उवसग्गेइ, सा खुड्डुगेण दंडिण हया, तीए रण्णो कहियं, रण्णा खुड्डगो सावितो, सिरिघरदितं करेइ, जहा महाराय ! तव सिरिघरे रयणाणि मुसद्द तस्स को दंडो ?, रण्णा भणियं-सबस्सावहारो जीवियाओ ववशेवणं (च), जइ एवं तो एसावि मम नाणदंसणचरणाणि मुसइत्ति दंडेण हया, राया तुट्टो, पूऊण खुडगो विसज्जितो ॥ पदोसे गयसुकुमालो सोमभूइणा विवरोवितो, अहवा एगो चिज्जाइतो एगाए अविरइयाए सद्धिं अकिचं सेवमाणो साहुणा दिट्टो, पदोसमावण्णो, साहुं मारेमित्ति पधावितो, साहुं पुच्छर, किं तुमे अज्ज दिहं ?, साहू भणइ बहुं सुणेइ कण्णेहिं, बहुं अच्छीहिं पेच्छइ । नय दिई सुर्य पुर्व, भिक्खु अक्खाडमरिहइ ॥१॥ वीमंसाए, चंदगुत्तो राया चाणकेण भणितो- पारतियं करेज्जासि, सुसीसो य किर सो आसी, अंतेउरे अन्नतित्थिया हक्कारावेऊणं धम्मक कहावेइ, अंतेउरीहिं उवसग्गिता विणट्ठा निच्छूढा य, साहू सद्दाविया भांति Pur Private & Personal Use Only ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपसर्गा सत्राक श्रीआवश्यकमलयगिरीय- वृत्तौ नमस्कारे दीप अनुक्रम जइ राया अच्छह तो कहेमो, आगतो राया, पारद्धा धम्मकहा, राया उस्सरितो, अंतेउरिया उवसरगति दंडेण हयातो, सिरिघरदिट्ठतं कहिंति, राया तुट्ठो परमसद्धो जातो ॥ कुसीलपडिसेवणाए ईसालुयभजातो चत्तारि, तेण सत्तवाइपरिक्खित्तं | घरं कारियं, ततो रायं विनविऊण तेण पडहएण घोसावियं, जहा अमुगस्स घरे समक्खं परोक्खं वा न केणई पविसिअर्व,x साहू अयाणंतो वियाले वसहिणिमित्तं अतिगतो, सो अ पविसिइलओ, तत्थ पढमे जामे पढमा आगया, भणइ-पडिच्छह साहू कच्छ बंधिऊण आसणबंधं काऊण अहोमुहो ठिओ, चीरेण वेद्वितो, न सकिओ खोभेड, किसित्ता गया, इयरीओ पुच्छंति-केरिसो, सा भणइ-एरिसो अण्णो नस्थि मणूसो, एवं ताओवि कमेण एकेक जाम किसिऊण गयातो, मिलि यातो साहेति, उपसंताओ सद्धीतो जायातो॥तिरिच्छा चउबिहा-भया १ पदोसा २ आहारहेढ ३ अवञ्चलयणसारक्खणया ४-| भएण सुणगाई य(ड)सेज्जा, पदोसे चंडकोसितो मक्कडाई वा, आहारहे सीहाई, अवच्चलयणसारक्खणट्ठयाए कागिमाई।। आत्मना संवेद्यन्ते-क्रियन्ते इति आत्मसंवेदनीयाः, ते चउबिहा-घट्टणया पवडणया थंभणया लेसणया, तत्थ घहणया अच्छिम्मि रओ पविट्ठो, तेण चमढियं दुक्खिउमारडं, अहवा सयं चेव अच्छिम्मि गलके वा किंचि सालुगाइ उद्वियं घट्टइ, पवडणया मंदपयत्तेण चंकमइ, ततो दुक्खाविज्जइ, थंभणया ताव बइठो अच्छितो जाव पादो सुनो जातो, लेसणया पायं आउंटावेत्ता ताव अच्छितो जाव तत्थयावातेण लइओ, अहवा नहूँ सिक्खामित्ति अइनामियं किंचि अंगं, तत्थेव लग्गं, अहवा आयसंवेयणीया चउबिहा-वाइया पेत्तिया सिंभिया संनिवाइया, एए दबोवसग्गा, भावतो उवउत्तस्स एते चेव, उक्तं च-"दिवा माणुस्सया घेव, तिरिक्खा य वियाहिया । आयसंवेयणीया य, स्वसग्गा चउषिहा ॥१॥ [१] SESASAK ~140 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९१९-९२०], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत द हासप्पदोसवीमसा, पुढोवेमायदिबिया । माणुस्सया हासमादी, कुसीलपडिसेवणा ॥२॥ तेरिच्छिया भया दोसा, आहारट्ठा तहेवय । अवच्चलेणरक्खड्डा, एए चउहा वियाहिया ॥३॥ घट्टणा पवडणा चेव, थंभणा लेसणा तहा । आयसंवेयणीया य, उवसग्गा चउबिहा ॥४॥” इत्यादि, अलं प्रसङ्गेन ॥ एतानामयन्तो नमोऽहा इति गाथार्थः । सम्पति प्राकृतशैल्याउनेकधा अर्हच्छन्दनिरुक्तसम्भव इति दर्शयन्नाह इंदियविसयकसाये परीसहे वेयणाओं उवसग्गे । एए अरिणो हन्ता अरिहंता तेण बुचंति ॥ ९१९॥ इन्द्रियादयः पूर्ववत्, वेदना त्रिविधा-शारीरी मानसी उभयरूपा च, 'एए अरिणो हंता' इत्यत्र प्राकृतशैल्या छान्द-15 सत्याच विभक्तिव्यत्ययः, ततोऽयमर्थ:-एतेषामरीणां हन्तारोऽर्हन्त इति, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः ॥ स्यादेतत्-अन-16 न्तरगाथायामेत एवोक्ताः, पुनरध्यमीपामेवेहोपन्यासोऽयुक्तः, उच्यते, अनन्तरगाथायां नमस्कारार्हत्वे हेतुत्वेनोक्ताः, इह पुनरभिधानं, निरुक्तिप्रतिपादनार्थ उपन्यासः॥ साम्प्रतं प्रकारान्तरतोऽरय आख्यायन्ते, ते चाष्टौ-ज्ञानावरणादिसंज्ञाः सर्वसत्त्वानामेव, तथा चाह अट्टविहंवि अ कम्मं अरिभूअं होइ सञ्चजीवाणं । तं कम्ममरि हंता अरिहंता तेण वुचन्ति ॥ ९२० ॥ अष्टविधम्-अष्टप्रकारम् , अपिशब्दादुत्तरप्रकृत्यपेक्षया अनेकप्रकारमपि, चान्दो भिन्नक्रमः, स चावधारणे, ज्ञाना-18 वरणादिकमैव अरिभूत-शत्रुभूतं भवति सर्वजीवाना--सर्वसत्त्वानां, अनवबोधादिदुःखहेतुत्वात् , तत्कर्म अरिं हतारो यतस्तेनार्हन्त उच्यते, रूपनिष्पत्तिः प्राग्वत् ॥ अथवा RECator ... अथ अर्हत् (अरिहंत) शब्दस्य निरुक्ति (व्याख्या) क्रियते - ~141 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९२१-९२३], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 6456 प्रत सुत्राक E स्कारे दीप श्रीआव- दि अरिहंति वंदणनमंसणाणि अरिहंति पूअसक्कारे । सिद्धिगमणं च अरिहा अरहता तेण बुचंति ॥ ९२१॥ अहच्छब्दश्यकमल- 'अहे पूजायाम्' अर्हन्ति वन्दननमस्करणे, तत्र वन्दनं शिरसा, नमस्करणं वाचा, तथा सिद्धयन्ति-निष्ठितार्था भवन निरुक्तिः यगिरीय- 18/न्त्यस्यां प्राणिन इति सिद्धिः-लोकान्तक्षेत्रलक्षणा, वक्ष्यति-'इहं बौदि चइत्साणं तत्थ गंतूण सिज्झई' तद्गमनं च प्रति वृत्तौ नम- द अर्हन्तीत्यर्हाः-योग्याः 'अच' इत्यच, तेन कारणेनाहन्त उच्यन्ते, अर्हन्तः ॥ तथा देवासुरमणुएसुं अरिहा पूआ सुरुत्तमा जम्हा । अरिणो रयं च हंता अरहता तेण बुचंति ॥ ९२२॥ देवासुरमनुजेभ्यः, सूत्रे पञ्चम्यर्थे सप्तमी प्राकृतत्वात् , पूजामहन्ति-प्राप्नुवन्ति, कुत इति चेत् आह-यस्मात् सुरो-| ॥५१॥ हात्तमाः-उपचितसकलजनासाधारणपुण्यप्राग्भारतया समस्ता देवासुरमनुजोत्तमास्ततः पूजाम्-अष्टमहापातिहार्यलक्षणामहेन्ती-18 त्यहन्तः, इत्थमनेकधाऽन्वर्थमभिधाय पुनः सामान्यविशेषाभ्यामुपसंहरन्नाह-'अरिणो हंता' इत्यादि, यतः अरीणां त हन्तारः, तथा रजो-बध्यमानकं कर्म तस्य रजसो यतो हन्तारस्तेनार्हन्त उच्यन्ते, अरिहन्तार इति रजोहन्तार इति वा|| स्थितस्य अर्हत इति निष्पत्तिः प्राग्वत् ॥ इदानीममोघताख्यापनार्थमपान्तरालिकं नमस्कारफलमुपदर्शयति अरिहंतममुकारो जीर्य मोएइ भवसहस्साओ। भावेण कीरमाणो होइ पुणो पोहिलाभाए ॥९२३ ॥ दि अर्हतां नमस्कारोऽहन्नमस्कारः, इह अर्हच्छब्देन बुद्धिस्था अर्हदाकारवती स्थापना गृह्यते, नमस्कारस्तु नमःशब्द एव, भावेन-उपयोगेन क्रियमाणः, अनेन नामस्थापनाद्रव्यभावलक्षणश्चतुर्विधो यद्यपि नमस्कारस्तथाऽप्यत्र भावनमस्कारो ॥५१०॥ का द्रष्टव्य इत्युकं वेदितव्यं, जीवम्-आत्मानं मोचयति-अपनयति भवसहस्रेभ्यः, यद्यपि सहस्रशब्दो दशशतसङ्ख्यायां वर्तते | अनुक्रम [१] ******** SmEnicatonidin IMmsbrine ... अथ अर्हत्/(अरिहंत)-नमस्कारस्य फलम् वर्णयते । ~142 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९२४-९२५], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक CASSAGA तथाऽप्यत्रार्थादनन्तसङ्ख्यायामवगन्तव्यः, अनन्तभवमोचनान्मोक्ष प्रापयतीत्युक्तं द्रष्टव्यम् । आह-न सर्वस्यैव भावतो|ऽपि नमस्कारकरणे तद्भव एव मोक्षः तत्कथमुच्यते-जीवं मोचयतीत्यादि ?, उच्यते, यदि तद्भव एव मोक्षाय न भवति, तथापि भावनाविशेषाद्भवति पुनवोंघिलाभाय, बोधिलाभश्चाचिरादविकलो मोक्षहेतुरित्यतो न दोषः, तथा चाह अरिहंतनमोकारो धन्नाण भवक्खयं करेंताणं । हिययं अणुम्मुयंतो विसोत्तियावारओ होई ॥९२४ ।। ६ धनं ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणं लब्धारो धन्याः-साध्यादयः तेषां भवक्षयं-तमवजीवितक्षपणं कुर्वतां यावज्जीवं हृदयममु-1* IIT विश्रोतसिकाया-विमार्गगमनस्यापध्यानस्य वारकोऽर्हन्नमस्कारो भवति, धर्मध्यानैकालम्बनतां करोतीत्यर्थः ॥ FI अरिहंतनमुक्कारो एवं खलु वण्णिओ महत्थुत्ति । जो मरणमि उवग्गे अभिक्वर्ण कीरए बहुसो॥ ९२५ ॥ अहंन्नमस्कार एवम्-उक्तप्रकारेण खलु वर्णितो महार्थ इति-महान् अर्थो यस्य स महार्थी, महार्यता चास्याल्पाक्षरत्वेऽपि द्वादशाङ्गसाहित्वात् , कथं पुनरेतदेवमित्याह-यो नमस्कारो मरण-प्राणोपरमलक्षणे उपागे-समीपे भूते अभीक्ष्णम्-अनवरतं क्रियते बहुशः-अनेकशः, ततो महत्यामापदि द्वादशाझं मुक्त्वा तत्स्थानेऽनुस्मरणान्महार्थः, इयमत्र भावना-मरणकाले। द्वादशाङ्गपरावर्त्तनाशक्ती तत्स्थाने तत्कार्यकारित्वात् सर्वैरपि महर्षिभिरेप स्मयंत इति द्वादशाङ्गसङ्घाहिता, तद्भावाच्च। 8 महार्थ इति ॥ तथा चाह भाष्यकृत्-"जलणादिभए सेसं मोर्नु ए(उद)गरयर्ण महामोल । जुहि वाऽमिभवे घेप्पा अमोहसत्य जह तहह ॥१॥ मोर्चुपि वारसंग स एव मरणमि कीरए जम्हा । अरिहंतनमोकारो तम्हा सो बारसंगत्थो॥२॥ सर्वपि। बारसंग परिणामविमुद्धिहेजमेत्तागं । तकारणभावातो कह न तदत्थो नमोकारो॥३॥न तम्मि देसकाले सको मा.सू.८६ * अनुक्रम SCHALES ~143 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीभाव श्यकमल यगिरीय वृत्तौ नम स्कारे ॥ ५११ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९२६ ९२७], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...] मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वारसविहो सुयक्खंधो। सवो अणुचिंतेडं धंतंपि समत्थचित्तेण ॥ ४ ॥ अत्र 'देसकाल 'चि देश: - प्रस्तावस्वरूपः कालो अर्हनमनदेशकालः, मरणकाल इत्यर्थः तस्मिन्, घंतंपीति प्राकृतत्वात् लिङ्गव्यत्ययः, धातोऽपि, अत्यन्तमभ्यस्तोऽपीति भावः, तथ्यईणं तम्हा अणुसरियबो सुहेण चित्तेण । एसेव नमोकारो कयन्नुयं मन्नमाणेणं ॥ ५ ॥” उपसंहरन्नाह प्रभावः अरिहंतनमुकारो, सबपावप्पणासणो । मंगलाणं च समेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ ९२६ ॥ अर्हन्नमस्कारः 'सवपावपणासणत्ति पासयति-मलिनयति जीवं पित्रति हितमिति वा पाति वा रक्षति भवान्निर्गच्छन्तमिति पापं - कर्म्म, औणादिकः पप्रत्ययः, सर्वम्-अष्टप्रकारमपि पापं कर्म्म, 'पापं कर्मैव तत्त्वत' इति वचनात् प्रणाशयति - अपनयतीति सर्वपापप्रणाशनः, मङ्गलानां च सर्वेषां नामादिलक्षणानां प्रथममिति प्रधानं प्रधानार्थकारित्वात्, अथवा | पञ्चामूनि भावमङ्गलानि अर्हदादीनि तेषां प्रथमं- आद्यं भवति मङ्गलमिति ॥ उक्तस्तावदन्नमस्कारः, सम्प्रति सिद्धनमस्कार उच्यते - सिद्ध्यति स्म सिद्धः, यो येन गुणेन निष्पन्नः - परिनिष्ठां प्राप्तो, न पुनः साधनीयः, सिद्धौदनवत्, स सिद्धः, स च सिद्धशब्दसामान्याक्षेपतोऽर्थतस्तावच्चतुर्दशविधः, तत्र नामस्थापनासिद्धी सुप्रतीतौ द्रव्यसिद्धो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तः सिद्धः ओदनः, तत्र नामस्थापनाद्रव्यसिद्धान् व्युदस्य ( शेष ) सिद्धप्रतिपादनार्थमाह कम्मे सिप्पे य विजाय, मंते जोगे य आगमे । अत्थ जत्ता अभिप्पाए, तवे कम्मकखए इय ॥ ९२७ ॥ कर्म्मणि सिद्धः कर्मसिद्धः, निष्ठां गत इत्यर्थः एवं शिल्पसिद्धः विद्यासिद्धः मन्त्रसिद्धो योगसिद्धः आगमसिद्धः अर्थसिद्धः ••• अथ सिद्ध शब्दस्य व्याख्या:, भेदाः एवं तेषां नमस्काराणां फलम् प्रतिपाद्यते श्र ~144~ ॥ ५११ ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९२८-९२९], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक RECAUST दीप अनुक्रम [१] यात्रासिद्धः अभिप्रायसिद्धः तपःसिद्धः कर्मक्षयसिद्धश्च, एष गाथासमासार्थः ॥ अवयवार्थ तु प्रतिद्वारमेव वक्ष्यति, तत्र कर्मसिद्धादिव्यापिण्यासया कर्मादिस्वरूपं प्रथमतः प्रतिपादयति कम्मं जमणायरिओवएसिसिप्पमन्नहाऽभिहि । किसिवाणिजाईअं घडलोहाराइमेअंच ॥९२८॥ इह यत् अनाचार्योपदेशजं सातिशयमनन्यसाधारणं कर्मेह परिगृह्यते, यत्पुनः कर्म सातिशयमाचार्योपदेशर्ज ग्रंथ-8 निबद्धं वा तत् शिल्पं, तत्र कृषिवाणिज्यादि, आदिशब्दात् भारवहनादिपरिग्रहः, कर्म, घटकारलोहकारादिभेद, भावन-1 धानोऽयं निर्देशः, घटकारत्वलोहकारत्वादिभेदं कर्म पुनः, चशब्दः पुनःशब्दार्थः, शिल्पमिति ॥ सम्पति कर्मसिद्धी सोदाहरणमभिधित्सुराहजो सबकम्मकुसलो जो जत्थ सुपरिनिहिओ होइ । सज्झगिरिसिद्धओविव स कम्मसिद्धत्ति विनेयो ॥ ९२९॥ | यः कश्चित् सर्वकर्मकुशलो यो वा यत्र कर्मणि सुपरिनिष्ठितो भवत्येकस्मिन्नपि कर्मणि सह्यगिरिसिद्धक व स कर्मसिद्ध इति विज्ञेयः, कर्मसिद्धो ज्ञातव्य इत्यर्थः ॥ एष गाथाक्षरार्थः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-कोंकणे एगंमि दुग्गे सज्झस्स भंडं ओरुहति विलयंति य, ताणं च विसमे गुरुभारवाहित्तिकाऊण रण्णा समाणत्त-एएसि मएऽवि पंथो दाययो, न | उण एपहिं कस्सवि। इतोय एगो सिंघवतो पुराणो, सो पडिभजतो चिंतेइ, तहिं जामि जहि कम्मेण एस जीयो भजइ, मह।। न विद्इ, सो तेसिं मिलितो, सो गंतुकामो रयणिपज्जवसाणे (सिद्ध)भणइ कुंदुरुकपडिवोहियल्लओ, सिद्धओ भणइ-(किं!), ॐ सिद्धियं देहि मम, जह सिद्धयं सिद्धया, गयो सायं, अब कुंदुहक्क कुक्कुटः, सह्य पर्वत, सो य तेर्सि महत्तरओ सबवडे PASCHACANCER AR SMECH ~145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९३०], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम [१] श्रीआवविशाल भारं वहइ, अन्नया साह तेण मग्गेण आगच्छंति, तेण तेसिं साहूर्ण मग्गो दिनो, ते रुट्ठा राउले गया, रायाणं चिन्नति- कर्मशिल्प अम्ह रायावि मग्गं देह भारेण दक्खाविज्जताणं, एस पुण समणस्स रित्तस्स मग्गं देव, रण्णा भाणेयं-अरे दईते कर्य, ममा यगिरीय 18 आणा लंधिया, तेण भणियं-देव ! तुमे गुरुभारवाहित्तिकाऊणमेयमाणत्तं ?, रण्णा आमंति पडिस्मयं, तेण भणिय-जइ वृत्तौ नम एवं ता सो गुरुतरभारवाही, कह १, सो अवीसमतो अट्ठारसीलंगसहस्सनिम्भरं भारं वहति जो मएवि बोई न पारिओ, स्कारे एत्थंतरा धम्मकहा तेण कहिया-भो! महाराय !-बुज्झति नाम भारा, ते चिय वुज्झति वीसमंतेहिं । सीलभरो वोढयो, ॥५१२॥ जावज्जीवं अवीसामो ॥१॥राया पडिबुद्धो, सो य संवेगतो पुणरवि पषजाए अब्भुहितो ॥ एसो कम्मसिद्धो, संप्रति शिल्पसिद्धं सोदाहरणमभिधातुकाम आहजो सबसिप्पकुसलो जो वा जत्थ सुपरिनिहिओ होइ । कोकासवद्धई इस साहसओ सिप्पसिद्धो सो॥९३०॥ | यः कश्चिदनिर्दिष्टस्वरूपः सर्वशिल्पेषु कुशलः, यो वा यत्रैकस्मिन्नपि शिल्पे सुपरिनिष्ठितः सातिशयश्च कोकासवर्ड किवत् | स शिल्पसिद्ध इति । एष गाधाक्षराघः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-सोप्पारए रहकारस्स दासीए बंभणेण दास-| चेडो जातो, सो य मूयभावेण अच्छइ-मा नज्जीहामित्ति, रहकारो अप्पणो पुत्ते सिक्खावेइ, ते मंदबुद्धी न लएन्ति, दासेण सर्व गहियं, रहकारो मओ, रायाए दासस्स सर्ष दिन तस्स घरसारं । इतो य उजेणीए राया सायगी, तस्स चत्तारि FIn५१२॥ |सावगा, एगो महाणसितो रंघेइ जइ रुच्चइ जिमियमेतं जीरइ, अहवा एगेण जामेणं बिहिं तीहिं चउहिं पंचहिं, जइ रुच्चा न चेव जीरइ, बिइतो अन्भंगेइ सो तेलस्स कुलवं ससरीरे पवेसेइ, तं घेव नीणेइ, तइओ सेज्जं रएइ, जइ रुच्चइ पढमे CRNA CRICANCECTOR-SAUGA ~146 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९३०], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [१] दूजामे विबुज्झइ, अहवा बितिए तइए चउत्थे, अहवा सुवति चेव, चउत्थो सिरिघरि ओ, तारिसो सिरिघरो कतो जहा आगतो न किंचि पेच्छइ, एए गुणा तेसिं, सो राया अपुत्तो निविण्णकामभोगो पबजोवायं चिंतंतो अच्छइ, ततो पाडलिपुत्ते नयरे जियसत्तु राया, सो तस्स नयरि रोहेइ, एत्वंतरंमि तस्स रनो पुवकयकम्मपरिणतिवसेण गाढं सूलमुप्पन्न, ततोऽणेण भत्तं पञ्चक्खायं, देवलोगं गतो, नागरगेहिं से नयरी दिन्ना, सावया सद्दाविया, पुच्छंति-किंकम्मगा?, भंडारिएण पवेसितो, किंचि न पेच्छति, अन्नेण दारेण दरिसियं १ सेज्जावालेण एरिसी सेजा कया जेण मुहुत्ते मुहुत्ते उद्वेइ २ सूवेण एरिस भत्तं कयं जेण वेलं वेलं जेमेइ ३ अभंगएण एकातो पायातो तेलं न नीणियं,जो मम सरिसो सो नीणेउ ४, चत्ता-12 रिवि पबइया, सो तेण तेल्लेण डझंतो कालतो जातो, कागवन्नो नामेण विक्खातो॥इतो य-सोप्पारए दुभिक्खं जायं, सो कोकासो उजेणिं गतो, रायाणं किह जाणावेमित्ति कवोतेहिं गंधसालि अवहरइ, कोट्ठागारिएण कहिय, मग्गिएण दिट्ठो, आणीतो, रण्णा णातो, वित्ती दिन्ना, तेणागासगामी खीलियापयोगनिम्मातो गरुडो कतो, सो य राया तेण कोकासेण: दादेवीए समं तेण गरुडेण नहमग्गेण हिंडइ, जो न नमइ तं भणति-अहं आगासेणागंतूण मारेमि,ते सवे आणाविहेया कया, सतं देवि सेसियातो देवीतो पुच्छंति जाए कीलियाए नियत्तइ जंतं, सा एगाए वच्चंतस्स ईसाए नियत्तणखीलिया गहिया, ततो नियत्तणवेलाए नायं जहा नस्थि नियत्तणखीलिया, ततो न नियत्तइ, ताहे उद्दाम गच्छंतस्स कलिंगे ईसिपाणिए तलाए पक्खा भग्गा, पंखाविगलोत्ति पडितो, ततो तस्संघायणनिमित्तं उवकरणहा कोकासो नगरं गतो, तत्थेको रहकारो रहं निवआइ, एकं चकं निवत्तियं, बीयस्स अद्ध निधत्तियं, सो ताणि उबगरणाणि मग्गइ, सो भणइ-जाव घरातो आणेमि, राउलातो ARSA ~147 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति:) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९३१-९३२], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीआव श्यकमल न लग्भइ निकालेडं, सो गतो, इमेण संघातितं उद्धं कर्ष जाति, अग्भिड नियन्तं पच्छतोमुहं जाति, उडियंपिं न पड | इयरस्सवयं जाइ अफिडियं पडइ, सो आगच्छंतो पेच्छर निम्मायं, नायं जहा एस कोकासो, अक्वेवेणं गंत रजो यगिरीय- कहर, जहा कोक्कासो देव ! आगतो, जस्स बलेण कागवण्णेण सधे रायाणो वसमाणीया, तो गहितो, तेण हम्मतेण अक्खायं, वृत्तौ नम- * जहा अमुगत्थ राया सह देवीए, भत्तं बारियं, नागरेहिं अयसभीएहिं कागपिंडी पवत्तिया, कोकासो भणितो-मम पुचस्स स्कारे सत्तभूमियं पासादं करेहि, मम य मज्झे, तो सबे रायाणो आणचेस्सामि, तेण निम्मातो, कागवन्नपुत्तस्स लेहं पेसियं - 'एहि अहं जाव एयं मारेमि, तो तुमं मायापियरं ममं च मोएहिसि', दिवसो दिन्नो, पासायं सपुत्तो राया विलइतो, खीलिया * आया, ततो सपुत्तगो राया मतो, कागवन्नपुत्त्रेण तं सवं नगरं गहियं, मायापिय कोकासो य मोयावियाणि, एस एवंविहो सिप्पसिद्धो ॥ साम्प्रतं विद्यासिद्धं प्रतिपादयन्नादौ तावत् सत्स्वरूपं प्रतिपादयति ॥ ५१३ ॥ इत्थी विज्जाऽभिहिआ पुरिसो मंतुत्ति तविसेसोऽयं । विज्जा ससाहणा वा साहणरहिओ अ मन्तुति (भवे मंतो) ९३१ विद्या अभिहिता पुरुषो मन्त्र इति अयं तद्विशेषः- विद्यामन्त्रयोविंशेषः, इयमत्र भावना-यत्र मन्त्रदेवता स्त्री विद्या, यंत्र पुरुषो देवता स मन्त्र इति, अथवा साधनसहिता विद्या, साधनरहितो मन्त्रः, शावरादिमन्त्रवत् इति तद्विशे ।। अधुना विद्यासिद्धं सनिदर्शनमुपदर्शयति विज्ञाण वही विलासिद्धों स जस्स वेगावि । सिज्झिज्ज महाविजा विज्ञासिद्धोऽजखउडु ॥ ९३२ ॥ विद्यानां सर्वासां चक्रवर्ती-अधिपतिर्विद्यासिद्धो, विद्यासु सिद्धः विद्यासिद्ध इति व्युत्पत्तेः यस्य वा एकापि महा Por Private & Personal Use Only ~148~ शिल्पविद्या मंत्रसिद्धाः ॥ ५१३ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९३१-९३२], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक विद्या-महापुरुषदत्तादि सिध्येत् स विद्यासिद्धः, सातिशयत्वात् , क इव ?-आर्यखपुटवदिति गाथाक्षरार्थः, भावार्थः। कथानकादवसेयः, तच्छेदम्-विजासिद्धा आयरिया, तेसिं च बालो भागिणेजो, तेण तेसिं पासातो विजा कन्नाडिया. विजासिद्धस्स नमोकारेणापि किर विजातो भवंति, सो विआचक्कवट्टी, सो तं भागिणेज भरुकच्छे साहुसगासे ठविऊण दगुडसत्थं नगरं गतो, तत्थ किल विजापरिवायतो साहहिं वादे पराजितो अद्धितीए कालगतो तंमि गुडसरचे नगरे बडुकरओ वाणमंतरो जातो, तेण तत्थ साहुणो सके उबद्दविडं पारद्धा, तन्निमिर्त अजखउडा तत्थ गया, तेण गंतूण तस्स कन्नेस ४ उवाहणाओ ओलंबियातो, मुहे अवाणं ठबिऊण उप्पाओ पंगुरिऊण सुत्तो, देवकुलिओ आगतो पेच्छा, ततो जणं घेत्तृण । आगतो, जतो जतो उग्घाडिजइ ततो ततो अहिट्ठाणं दीसइ, रणो कहियं, तेणवि दिट्ट, कट्ठलट्ठीहिं पहतो सो, पहारे। अंतेउरे संकामेइ, मुक्को, रण्णा सबहुमाणं बहुप्पगारं भणितो जहा पसायं करेह मुंच एवं देवंति, ततो संभंतो उद्वितो मैं चलितो य, पिट्ठतो य बडुकरगो अन्नाणि य वाणमंतराणि खडखडताणि चलंति, लोगो राया य पायवडितो विण्णवेइ-10 है मुयाहित्ति, तस्स देवकुले दोन्नि महतिमहालियातो पाहाणमईओ कुंडीओ, तातोवि चलियातो, ततो तातो सो वडुकरओ अण्णाणि य वाणमंतराणि खडखडेताणि पिडितो हिंडंति,जणो राया य तहेव विष्णवेइ, ततो गामपळते वडुकरतो वाणमतराणि य मुकाणि सट्ठाणं गयाणि, तातो दोणीतो दोनिवि अग्गतो आणित्ता छड्डियातो, जो मम सरिसो सो सट्ठाणं पावेस्सति, सोय भायणिज्जो आहारगेहीए निबीवायं वेलवजितो भरुकच्छे तच्चणियचेल्लओ जातो, तस्स विजापभावेण पत्ताणि आगासेण उवासगाणं घरेसु गच्छति, भरियाणि पुण सट्ठाणमेंति, लोगो बहुओ तम्मुहो जातो, संघेण अजखउडाण माणुसं पेसिब, दीप अनुक्रम *ASEARS [१] REACHHI ~149 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्ति: [ ९३३ - ९३४ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], श्रीआव श्यकमलयगिरीय वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...] मूलं [- / गाथा-], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः आगया, अक्खायं-एरिसी अकिरिया उट्ठियत्ति, तेसिं कप्पराण अग्गतो मत्तओ सेएण वत्थेण उच्छाइतो जाति, टोप्परिया गया सबप्पवरे आसणे ठिया, पुणोवि भरिया आगया, आयरिएहिं अंतरा आगासे महासिला ( ठविया ) तत्थ अप्फिडियाणि, सवाणि भिन्नाणि, सो चेहओ भीतो नट्ठो, आयरिया तत्थ गया, तच्चणिया भणति - एहि बुद्धस्स भगवतो पाए वृत्तौ नम- है पढेहि, आयरिया भणंति- एहि पुत्ता ! सुद्धोयणसुया बंद ममं, बुद्धो निग्गतो, पाएसु पडितो, तत्थ थूभो वारे, सोऽवि स्कारे भणितो- एहि पाएस पडाहित्ति पडितो, उट्ठेहित्ति भणितो अद्भावणतो ठितो, एवं चेव अच्छेहित्ति भणितो ठितो पासिलितो, नियंठोनामितो नामेण सो जातो, एस एवंविहो विज्जासिद्धो । साम्प्रतं मन्त्रसिद्धं सनिदर्शनमुपदर्शयति ॥ ५१४ ॥ साहीणसमंत बहुमंतो वा पहाणमंतो वा । नेओ स मंतसिद्धो धंभागरिसुब साइसओ ॥ ९३३ ॥ स्वाधीनसर्वमन्त्रो बहुमंत्रो वा प्रधानमन्त्रो वा प्रधानैकमंत्रो वा ज्ञेयः स मन्त्रसिद्धः क इव ?, स्तम्भाकर्षक इव सातिशयः, एष गाथाक्षरार्थः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-एगम्मि नगरे उक्किदुसरीरा संजती रण्णा विसयलोलुपेण गहिया, संघसमवाओ कओ, राया न मुयइ, ततो एगेण मंतसिद्धेण रायंगणे जे खंभा अच्छंति ते अभिमंतिया, | आगासेण उप्पइया खडखडेंति, पासा यखंभावि चलिया, भीएण मुक्का, संघो खामितो, एस एवंविहो मंतसिद्धो ॥ साम्प्रतं सदृष्टान्तं योगसिद्धं प्रतिपादयन्नाह - सवेऽवि दवजोगा परमच्छेरय फलाऽह वेगोऽवि । जस्सेह हुज्र सिद्धो स जोगसिद्धो जहा समिओ ॥ ९३४ ॥ सर्वेऽपि कार्येन द्रव्ययोगाः परमाश्चर्य फलाः- परमाद्भुतकार्याः, अथवा एकोऽपि योगः परमाश्चर्यफलो यस्य भवे Por Private & Personal Use Only ~ 150 ~ विद्यामंत्रसिद्धाः | ।। ५१४ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९३५], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः सिद्धः स योगेषु योगे वा सिद्धो योगसिद्धोऽतिशयवान् यथा समित आचार्य इति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकगम्यः, तच्चेदम्-आभीरदेसे कण्हाए वेण्णाए य नदीए अंतरा तावसा परिवसंति, तत्थेगो पायलेवेणं पाणीए चंकमंतो भमइ, एइ जाइ य, लोओ आउट्टो, सद्धा हीलिअंति, अज्जसमिया बहरसामिस्स माउलगा विहरंता आगया, सद्धावि डबडिया, अकिरियत्ति आयरिया नेच्छति, भांति किं अज्जो ! न ठाह, एस जोगेण केणवि मक्खेइ, तेहिं अट्ठपदं लद्धं, आणीतो, अम्हेवि दाणं देमोत्ति, अह सो सावगो भणइ-भयवं! पाया घोषंतु, अम्हेवि अणुग्गहिया होमो, अणिच्छंतस्स पायाओ पाउयातोय धोयातो, ततो जले ओयरितो, पाणिए निबुड्डो, उकिड्डी कया, एवं डंमेहिं लोगो खज्जइत्ति, आयरिया निग्गया, जोगं परिकज्जइति आयरिया निग्गया, जोगं पक्खित्ता नदी भणिया एहि पुत्ति ! परं कूलं जामो, दोऽवि तडा मिलिया, गया परं कूलं, ते तावसा आउट्टा पवइया, ते च वंभदीवगवत्थवत्ति वंभदीवगा जाया, एस एवंविहो जोगसिद्धो || अधुना आगमार्थसिद्धी प्रतिपादयति आगमसिद्धो सब्बंगपारओ गोअमुख गुणरासी । पउरत्थो अत्थपरुष्व मम्मणो अत्थसिद्धो उ ॥ ९३५ ॥ सिद्धः सर्वाङ्गपारगो - द्वादशाङ्गवित्, अयं च महातिशयवानेव, यत उक्तम्- "संखातीतेवि भवे साहइ०” इत्यादि, अयं च गौतम इव गुणराशिरवगन्तव्यः, अत्र भूयांसः सातिशयचेष्टिता उदाहरणं ॥ तथा प्रचुरार्थः प्रभूतार्थः, अर्थपर:- अर्थनिष्ठोऽर्थसिद्धः, अतिशययोगात्, मम्मणवदिति गाधाक्षरार्थः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-तत्थागमसिद्धो किर सयंभुरमणेवि मच्छगादीया । जं चेति स भयवं उवत्तो जाणइ तयंपि ॥१॥ अट्टसिद्धो पुण रायगिहे नयरे मम्मणो ~151~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९३६], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम श्रीआव- वाणिओ, तेण अतिकिलेसेण अइबहुगं दबजायं मेलियं, सो तं न खाइन पिवति, पासादोवरि चणेण अणेगकोडिनिम्मा-टायोगार्थ जायगभसारो कंचणमतो दिबरयणपज्जलितो एगो बलद्दो कारावितो, वितिओ य आढत्तो, सोऽपि बहुनिम्मातो, एत्तरंमि सिद्धाः यगिरीय- दवासारते तस्स निम्मावणनिमित्तं कच्छोहगबितिज्जो सो नदिपूरातो कट्ठविरूढगो कट्ठाणि उत्तारेइ, इतो य-राया देवीए वृत्तौ नम- सह ओलोयणगतो अच्छइ, सो तहाविहो अतीव करुणालंबणभूतो देवीए दिट्ठो, ततो तीए सामिस्स भणियं-सच्चं सुबह स्कारे एवं मेहनइसमा हवंति रायाणो । भरियाई भरति दढं रितं जत्तेण वजेति ॥ १॥ रण्णा भणियं-किह कह वा?, तीए दभणियं-जं एस दमगो किलिस्सह, रण्णा सद्दावितो, भणितो य-किं किलिस्ससि ?, तेण भणियं-पलद्दसंघाडगो न पुज्जइ, ॥५१५॥ भारण्णा भणियं-बलद्दसर्य गेण्ड, तेण भणियं-न मे तेहिं कर्ज, तस्स बिइज पूरेह, केरिसोत्ति, घरं नेऊण दरिसितो, रण्णा भणियं-सबभंडारेणवि न पुजइ, ता एत्तिगविभवस्स अलं ते तिण्डाए, तेण भणियं-जाहे सोन पूरितो ताव ण सुह, पारद्धो दय उवाओ, पेसियाणि दिसासु भंडाणि, आढत्तातो किसीओ, आढत्ताणि य गयतुरयबलद्दपोसणाणि, रण्णा भणियं-जह एवं ता कि येवस्स रतिं नइपूरतो कट्टकट्ठणस्स कए किलिस्ससि ?, तेण भणियं-किलेससहं मे सरीरं, वावारंतरं चेदाणिं. नत्थि, महग्याणि य वासारत्ते दारुगादीणि, निवहियथा य पदण्णा, अतो किलिस्सामि, रण्णा भणियं-पुजंतु ते मणोरहा, है तुम चेव विइज्जगं पूरेउ समत्यो, न उण अहंति निग्गतो, तेण कालेण पूरितो, एस एवंविधो अत्थसिद्धो ॥ साम्प्रतं ॥५१५॥ यात्रासिद्धप्रतिपादनार्थमाह। जो निचसिद्धजत्तो लद्धवरो जो य तुंडियाइव्व । सो किर जत्तासिद्धोऽभिप्पाओ बुद्धिपजाओ ॥९३६ ॥ [१] ~152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९३७-९३८], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक यो नित्यसिद्धयात्रः, किमुक्तं भवति ?, स्थलजलचारिपधेषु सदैवाविसंवादितयात्र इति, लब्धवरो यो वा तुंडिकादिवत् स किल यात्रासिद्धः । उत्तरद्वारानुसन्धानायाह-अभिप्रायो बुद्धिपर्याय इति गाथाक्षरार्थः, भावार्थस्तु कथानकगोचरः, तवेदम्-पढम ताव जो किर बारस वारातो समुई ओगाहित्ता कयकज्जो आगच्छइ सो जत्तासिद्धो, तं अनेवि जंतगा जताए सिद्धिनिमित्तं पेच्छंति, यथा एगमि नगरे तुंडिगो वाणिओ, तस्स सयसहस्सवारातो वहणं फुह, तहावि न भज्जइ, भणइ य-जले नहुँ जले चेव लब्भइ, सयणाईहिं दिजमाणं नेच्छइ, पुणो पुणो तं तं भंडं गहाय गच्छइ, निच्छएण से ४ादेवया पसण्णा, खद्धं खद्धं दवं दिन्नं, भणितो य-अन्नं किं ते करेमि ?, तेण भणियं-जो मम नामेण समुदं ओगाहइ सो है अविवन्नो एउ, तहत्ति पडिस्सुयं, स जत्तासिद्धो, अण्णे भणंति-किल निजामगस्त वासुल्लतो समुदे पडितो, सो तस्स कए समुई उलंघिउमाढतो, ततो अनिविनस्स देवयाए वरो दिनो । कृतं प्रसङ्गेन । साम्प्रतमभिप्रायसिद्धं प्रतिपादयन्नाहविउला विमला सुहुमा जस्स मई जो चउम्विहाए व । बुद्धीए संपन्नो स वुद्धिसिद्धो इमा सा य ॥ ९३७॥ विपुला-विस्तारवती, एकपदेनानेकपदानुसारिणीति भावः, विमला-संशयविपर्ययानध्यवसायमलरहिता, सूक्ष्मा-अत्यन्त दुःखबोधसूक्ष्मव्यवहितार्घपरिच्छेदसमर्था यस्य मतिः स बुद्धिसिद्धः । यदिवा यश्चतुर्विधया औत्पत्तिक्यादिभेदद्रा भिन्नया बुद्धया सम्पन्नः स बुद्धिसिद्धः॥ सा च चतुर्विधा बुद्धि रियम् उप्पत्तिया वेणइया, कम्मिया परिणामिया । बुद्धी चउम्विहा वुत्ता, पंचमा नोवलम्भइ ॥ ९३८॥ उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी, आह-सर्वस्या अपि बुद्धेः क्षयोपशमः प्रयोजनं ततः कथमुच्यते-उत्पत्ति अनुक्रम [१] स्टकर ACCASIES V manimastram ... बुद्धेः चत्वारः भेदा: एवं तत्संबंध: दृष्टांता: प्रतिपाद्यते । ~1537 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआव श्यकमल यगिरीय वृत्तौ नमस्कारे ॥ ५१६ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति:) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९३९ - ९४० ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः *%* रेव प्रयोजनं यस्याः इति, सत्यमेतत्, किन्तु स खल्वन्तरं गत्वात् सर्वबुद्धिसाधारण इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छास्त्रकर्म्माभ्यासादिकमपेक्षते, तत उक्तम् उत्पत्तिरेवेत्यादि, विनयो गुरुशुश्रूषा स कारणमस्या वैनयिकी २ अनाचार्यकं कर्म साचार्यकं शिल्पं, यदिवा कादाचित्कं कर्म्म नित्यमभ्यस्यमानं कर्म्म शिल्पं, कर्मणो जाता कर्मजा ३ तथा परि-समन्तानमनं यथावस्थितवस्त्वनुसारितया गमनं परिणामः, सुदीर्घकालपूर्वापरार्थावलोकनादिजन्य आत्मधर्मविशेष इत्यर्थः, स कारणमस्याः पारिणामिकी, बुद्ध्यतेऽनयेति बुद्धिः चतुष्प्रकारा उक्ता, तीर्थकरगणधरैः किमिति १, यस्मात्केवलिनाऽपि पञ्चमी बुद्धिर्नोपलभ्यते, असत्त्वात् ॥ साम्प्रतमौत्पत्तिक्या लक्षणमाह मदमस्तु अमवेइअ तक्खण विसुद्धगहिअत्था । अवायफलजोगा बुद्धी उप्पत्तिआ नाम ।। ९३९ ।। पूर्व युयुत्पादात् प्राक् स्वयमदृष्टोऽन्यतश्चाश्रुतोऽविदितो- मनसाऽप्यनालोचितः तस्मिन्नेव क्षणे विशुद्धो गृहीतो-यथावस्थितो गृहीतोऽवधारितोऽर्थो यस्याः सा तथा, इह ऐकान्तिकमिहपरलोकाविरुद्धं फलान्तरावाधितं वाऽव्याहतमुच्यते, फलं प्रयोजनं, अव्याहतं च तत् फलं च अव्याहतफलं तेन योगो यस्याः सा अव्याहतफलयोगा बुद्धिरौत्पत्तिकी नाम ॥ संप्रति विनेयजनानुग्रहाय अस्या एव स्वरूपप्रतिपादनार्थमुदाहरणानि प्रतिपादयति- 'भरहसिल १ पणिय २ रुक्खे ३ खुड्डग ४ पड ५ सरड ६ काय ७ ऊच्चारे ८ । गय ९ धरण १० गोल ११ खंभे १२ खुड्डग १३ मग्गस्थि १४ पह १५ पुत्ते १६ ॥ ९४० ॥ भरहसिल १ मिंट २ कुकुड ३ तिल ४ वालुअ ५ हत्थि ६ अगड ७ वणसंडे ८ । Por Private & Personal Use Only ~154~ योगार्थ - सिद्धाः ॥ ५१६ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४१-९४२], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक E अनुक्रम पायस ९ अइआ १० पत्ते ११ खाडहिला १२ पंच पिअरो १३ अ॥९४१॥ महुसिस्थ १७ मुदि १८ अंके १९ पणए २० भिक्खू २१ य चेडगनिहाणे २२॥ सिक्खा २३ य अत्थसत्थे २४ इच्छाइ महं २५ सयसहस्से २६ ॥ ९४२ ॥ आसामर्थः कथानकेभ्योऽवसेयः, तानि चामूनि-तत्र प्रथमत उदाहरणं शिलाविषये-उज्जेणीए नयरीए आसन्नो नडाणं| गामो, तत्थेगस्स भरहनामस्स नडस्स भज्जा मया, तस्स य पुत्तो डहरओ, तेण अन्ना आणीया, सा तस्स दारगस्स संमं न वट्टइ, तेण दारएण भणिय-मम लटुं न चट्टसि, तहा ते करेमि जहा मे पाएसु पडिहिसित्ति, तेण रतिं पिया सहसा भणितोदिएस गोहित्ति, तेण नायं-महिला विणगृत्ति, सिदिलो रागो जातो, सा भणइ-पुत्त! मा एवं करेहि, सो भणइ-मम लटुं न वट्टसि, भणइ-वट्टिहामि, तो लढे करेहामि, सा वट्टिउमारद्धा, अन्नया रोहतो छाहीमुद्दिसिऊण एस गोहो एस गोहो एस गोहोत्ति भणइ, पियरेण पुट्ठो-कहिति १, छाहिं दंसेइ, ततो पिया से लज्जितो, सोऽवि एवंविहोत्ति तीसे घणो रागो जातो, सोऽवि विसभीतो पियरेण समं जेमेइ, अन्नया पियरेण समं उजेणिं गतो, दिट्ठा नगरी, निग्गया पियापुत्ता, पियरस्स किंचि ठवियं विसुमरियं, ततो सो पच्छा वलितो, सोऽवि रोहतो सिप्पानदीए पुलिणे नगरि आलिहति, तेण नगरी सचञ्चरा सदेवकुलरायकुला लिहिया, तेण य पदेसेण राया वाहियालियाए आगतो, कहमपि एगागी अस्सारूढो आगच्छति, सो| वारिओ, भणइ-मा राउलस्स मज्झेण जाहि, तेण कोउहल्लेण पुच्छितो-किमेयं तए आलिहियं ?, तेण नगरी सदेवउलरायकुला आ. सू.८७ कहिया, कहिं वससि ?, कइ वारा तए दिवा नगरी, भणइ-एकसिं, इयाणिं चेव, एत्थंतरे से पिया आगतो, राइणो य ROCCACANCCHECAUCRACHAR CAMERASACS ~1550 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम [3] श्रीआव श्यकमल यगिरीयवृतौ नमस्कारे ॥५१७॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९४१ - ९४२] वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...] मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः भवद्ध एगुणगाणि पंच मंतिसयाणि, एक मग्गइ जो सबप्पहाणी होजा, तस्स परिक्खणनिमित्तं तं गामं भणावेइ-जहा तुब्भं गामस्स बहिया महली सिला तीए मंडवं करेह न य सा ठाणातो चालियषा, ते गामेल्लया आदना, सो रोहगदारगो छुहाइतो, पिया से गामेण समं अच्छइ, उस्सूरे आगतो, रोयइ-अम्हे छुहाइया अच्छामो सो भणइ- सुहितोसि तं न याणसि, तेण भणियं कहं ?, ततो कहियं, भणइ-बीसत्था अच्छह, हेद्वातो खण, थंभे य देह, ततो थोवथोवभूमी खाया, थंभा य अंतरा कया, तो उवलेवणे कतोवयारे मंडवे कए रण्णो निवेदितं, राइणा पुच्छियं-केण कथं १, पुरिसेहिं कहियं-रोहरण भरहदार एण, एसा एयरस उप्पत्तिया बुद्धी, एवं सबेसु जोएज्जा १। मेढत्ति, ततो तेसिं रण्णा मेढगो पेसितो, भणिया-एस पक्खमित्त्रेण कालेन एत्तिओ चैव पञ्चण्पिणेयवो, न दुब्बलतरो नावि बलियतरोति, ततो तेहिं रोहतो पुच्छितो, तेण विरूवेण समं बद्धावितो, जवसं दिनं तं चरंतरस न हायइ वलं, विरूवं पेच्छंतरस भएण न वद्धए २ । कुकुडोत्ति, ततो तेसिं राइणा कुक्कुडो पेसितो, भणिया-एस कुक्कुडो वीयकुक्कुडेण विणा जुज्झावेयधो, ततो पुणोऽवि तेहिं रोहतो पुच्छितो, तेण अद्दाएण समं जुज्झाबितो ३। तिलत्ति, ततो रण्णा तिला पेसिया, तिलसमं तिलं दाययंति, रोह (अद्दा) पण मविया, तेलंपि तेण दिन्नं, ४। बालुगत्ति, रण्णा तेसिं मणुस्सा पेसिया, तत्थ सुभा वालुया अस्थि, ततो वालुयावरहए पेसह, तेहिं रोहओ पुच्छिओ, तेण भणियं पडिच्छंदे देह जेण पेसामो ५ । हत्थित्ति, ततो कइवयदिवसाइक्कमे रण्णा तेसिं जुण्णु हत्थी अप्पाडओ मरिङकामो पेसिओ, भणिया य-मतो न निवेश्यवो, दिवसदिवसिया से पत्ती कहेयवा, अकहणे निग्गहो, सो मतो, ते गामेलया अद्दण्णा, रोहओ पुच्छिओ-तस्स वयणेण निवेदितं, जहा सो देव ! अज्ज हत्थी न उडेइ न निसीयइ न आहारेइ न Jan Education freematona ~ 156 ~ औत्पत्तिक्या उदाहरणानि ॥ ५१७ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९४१ - ९४२] वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...] मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृि नीहारेड न ऊससह न नीससति एवमादि, ततो रण्णा भणियं किं मओ ?, ते भांति तुज्झे एयं भणह, न अम्हे वयामो, देवो भणइ ६ । अगडत्ति, ततो पुणरवि रण्णा तेसिं मणूसा पेसिया, भणिया जहा तुज्यं गामे अतीव आसायणिज्जोदगो कूबो अत्थि, सो पेसियो, ततो रोहओ पुच्छिओ, तेण भणियं तुज्झे भणह-एस अम्हचओ अगडो आरण्णो, न तीरइ सहायमंतरेण एगागी आगंतुं, ततो नागरगं कुर्व पेसह जेण तेण समं जाइ, मणुस्सा तुव्हिक्का ठिया, रण्णो निवेश्यं, पुच्छियं केणेयमुत्तरं कथं ?, भरहपुत्तेणं रोहगेणंति ७ । वणसंडत्ति, ततो पुणरवि पुरिसा पेसिया, भणिया य-जहा गामरस पुवदिसाभागे वणसंडो अत्थि, सो पच्छिमदिसाभागे कायवो, ते अद्दण्णा, रोहगो पुच्छितो, तत्रयणेण गामो वणसंडस्स पुबपासं गतो, पुरिसेहिं रण्णो निवेइयं तं -कतो पच्छिमदिसीभागे वणसंडो, कहं ?, गामो पुचपासं गतो ८ । पायसोत्ति, पुणरवि रण्णा मणूसा पेसिया, अग्गिं विणा परमन्नं निष्फादेतवं, रोहगो पुच्छितो, तबयणेण करीसउम्हाए निष्फाइयं ९ । ततो रण्णा एवं परिक्खिऊणं पच्छा समादिडं, जहा तेण दारगेण इहागंतवं परं न सुकपक्खे न हि किण्हपक्खे, न राईए न दिवसतो, न छायाए न उण्हे, न इन्तगेण न आगासेण, न पाएहिं न जाणेणं, न पद्देण न उप्पहेणं, न पहाएणं न मलिणेणंति, ततो तस्स रोहगस्स निवेइयं, पच्छा सो अंगोहलिं काऊण चकमज्झभूमीए एडकमारूढो चालणीनिम्मिउत्तरंगो, अण्णे भणंति-सगडवट्टणीपएसबद्धओ संझासमयंमि अमावसाए पडिवयाए य संधीए आगतो नरिंदपासं, रण्णा पूइओ, आसन्नो सो ठिओ, जामविबुद्वेण रण्णा सद्दावितो, भणितो य-सुत्तो जग्गसि ?, भगइ देव 1 जग्गामि, किं चिंतेसि ?, भणइ - छगलियालिंडीतो कहं बहुलीतो भवंति ?, रण्णा चिंतियं - साहु एवं Por Private & Personal Use Only ~157~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४१-९४२], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक सरीरं १२ दीप ॥५१८॥ श्रीआव- विमरिसियं, पच्छा पुच्छितो भणति-देव! तासिं उदरमज्झे संभावतो संवट्टगवातो अस्थि तेण वट्ठलीतो जायते १०॥ औत्पत्तिश्यकमल- ततो सुत्तो, विइयजामेऽवि जामसद्देण राया विबुद्धो, रोहगो पुच्छितो-सुत्तो जग्गसि', भणइ-देव! जग्गामि, फिर क्या उदा. यगिरीय- चिंतेसि ?, भणइ-आसोट्ठपत्ताणं किं दंडो महल्लो उयाहु से सिहत्ति ?, पच्छा पुच्छितो भणइ-दोऽवि समाणि ११ । एवं हरणानि वृत्ती नम-1 तइयजामे पुच्छितो-किं चिंतेसि ?, भणइ-खाडहिलाए कित्तिया पंडरा रेहा? कित्तिया कालगा?, किं महलं पुच्छं? उयाह। स्कारे सरीरं?, रण्णा चिंतियं-साहु एयंपि चिंतियं, पच्छा पुच्छितो, भणइ-जत्तिया पंडरा तत्तिया कालगा, जत्तियं पुच्छं तद्दह सरीरं १२ । उत्थे जामे सदावितो वायं न देइ, ततो रण्णा कंबियाए छिको उद्वितो, पुच्छितो-सुत्तो जग्गसि ?, भणइ-18 जग्गामि, किं करेसि, चिंतेमि, किं चिंतसि ?, भणइ-कतिहि जातो सि!, रण्णा पुच्छिय-साह, तेण भणियं-पंचहिं, केण केण, भणइ-रण्णा १ वेसमणेण २ चंडालेण ३ रयगेण ४ विच्छुगेण ५, ततो राया उडिऊण कयसरीरचिंतो मायाए दूघरमुवागतो, पाएसु पडितो पुच्छति-अहं कतिहिं जातो, माया भणइ-नियपियरेण, ततो निबंधे कए साहइ-राया ताव तव पिया चेव, जम्मि दिणे रिउण्हाया अहं संवुत्ता तंमि वेसमणजक्खं पूइड गया, वेसमणे अलंकियविभूसिए दिढे तस्सुवरि मे अणुरागो जातो, ततो घरमईतीए मए अंतराले चंडालो दिट्ठो, सोऽवि अहिलसितो, ततो रजगो, सोऽवि आसंसितो, घरमागयाए कणिकमतो विच्छुओ ऊसवविसेसनिमित्तं कतो, हत्थेण फंसितो, ततो तस्सवि उपरि मे अणुरागो जातो, एवं जइ अणुरागमेत्तण ते पियरो भवति ततो हवंति, अन्नहा राया चेव सब पिया, ततो मायं पणमिऊण सभवणमागतो, ॥५१८॥ रोहगमेगते पुच्छति-कहं जाणसि जहाऽहं पंचहि जातो मित्ति?, सो भणति-यथान्यायं प्रतिपालयतो नजसि जहा रायपु अनुक्रम [१] SENSE (Himastram ~158~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४१-९४२], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुक्रम हात्तोत्ति, वेसमणो दाणेणं, चंडालो रोसेणं, रयगो सबस्सहरणेणं, जं च वीसत्थसुत्तपि कंबियाए चुंकसि तेण नजसि-विंछु-18 पण जातो सित्ति १३॥ तुट्ठो राया, सबेसिमुवरि ठवितो, भोगा य से दिण्णा, एयस्स उप्पत्तिया बुद्धी १॥ पणियत्ति दोहिंद पणियगं बद्ध, एगो नागरगो भणइ-जो एयातो तव लोमसियाओ खाइ तस्स तुम किं देसि ?, इयरो गामेल्लतो लोमसियासामी भणइ-जो नगरद्दारे मोयगो न नीइ तं देमि, सक्खिणो कया, तेण सबातोवि लोमसिया चक्खिय चक्खिय मुक्कातो, जितो मग्गति, इयरो न मन्नइ, तेण भणियं-लोगो एस्थ पमाणं, जइ लोगो भणइ-एयातो सथातो खद्धातो तो मग्गेज्जा, ततो हहमञ्झे ओयारियातो, कयगजणो आगच्छइ, जं जं लोमसियं पेच्छइ तं तं खद्धं, ताहे सो भणइ-एयातो सबातो दिखद्धातो किं गेण्हामो?, ताहे सो भीतो रूवगं देइ, इयरो नेच्छइ, जाव सएणवि न तूसइ, ततो तेण नागरगा जूयारा ओलग्गिया, तेहिं दिन्ना बुद्धी, ताहे एगं पूइयावणा मोयगं गहाय इंदकीले ठवेइ, इयरो सहावितो, ततो मोयगं प्रति भणइ-निग्गच्छ भो भोयग! निग्गच्छ भो मोयग!, सो न निग्गच्छइ, एवं सो पडिजितो, एसा जूयाराण उप्पत्तिया दबुद्धी । रुक्रवत्ति, एगत्थ पहे पहिया वच्चंति, अंतरा वणसंडे फलभरोणया अंवगा दिट्ठा, मकडा फलाणि घेत्तुं न देति, सताहे पहिएहिं पहाणा खित्ता, ते मक्कडा रुसिया अंबगफलाणि खिवंति, तेसिं पहियाणं पहाणपखेवगाणं उत्पत्तिया ४.बुद्धी ३। खुट्टगत्ति खुडगं नाम अंगुलीयकरने, रायगिहे नगरे पसेणई राया, तस्स सुतो सेणितो रायलक्खणसंपन्नो, तस्स किंचिवि न देइ, मा मारेहितित्ति, अद्धितीए निग्गतो, वेण्णातडमागओ, कइवयसहाओ, खीणविहवसेहिस्स वीहीए द उवविट्ठो, तस्स य तप्पुण्णपञ्चयं तद्दिवसं सबभंडाणं विकओ जातो, खद्धखद्धं विढतं, अण्णे भणति-सेद्विणा रयणा REAKNESKAAGAR [१] SMEnication ~159~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [९४१ ९४२] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीआव श्यकमल यगिरीय ॥५१९ ॥ यरो सुमिणंमि घरमागतो नियकरणं परिणन्तगो दिट्ठो, ततोऽणेण चिंतियं एतीए पसाएण महई विभूई भविस्सइ, पच्छा सोऔत्पत्तिवीहीए उबविट्ठो, तेण तमणण्णसरिसाए आगईए दद्रूण चिंतियं-एसो सो रयणायरो भविस्सइ, तप्यभावेण अणेण मिलक्खु- क्या उदाहरणानि हत्थातो अणग्वेज्जा रयणा पत्ता, पच्छा पुच्छितो-कस्स तुझे पाहुणगा ?, तेण भणियं तुज्झंति, घरं नीतो, कालेण से वृत्तौ नम- 2 धूया दिशा, भोगे भुंजति, कालेण य नंदाए सुमिणंम धवलगयपासणं, आवण्णसत्ता जाया, पच्छा रण्णा से कट्टवाला स्कारे पेसिया - सिग्धं एहित्ति, ततो सेणिओ नंदं आपुच्छति, भणति य-अम्हं रायगिहे नगरे पंडरकुड्डुगा पसिद्धा गोवाला, जड़ अम्हेहिं कर्ज सिग्धमेजाहित्ति, ततो गतो, देवलोगचुयगण्भाणुभावेण तीए दोहलो-वरहत्थिखंधगया अभयं सवजंतूण देमित्ति, सेट्ठी दवं गहाय रण्णो उबद्वितो, रायाणरण गहियं, पडिपुन्नो कतो दोहलो, जातो पुत्तो, अभओ नामं कर्य, पाढययसंपन्नो पुच्छर-मम पिया कहिंति ?, कहियं तीए, तत्थ वञ्च्चामोत्ति भणइ, पडिवण्णं तीए, सत्थेण समं वचंति, रायगिहस्स बहिया ठियाणि, अभओ गवेसओ गतो, राया मंतिं मग्गड़, कूबे खुड्डगं पाडियं, जो गिन्हइ हत्थेण तडे संतो तस्स राया वित्तिं देइ, अभरण दिनं छगणेण आहयं, सुके पाणियं मुकं, तडि संतरण गहियं, रायाए समीर्व गतो, पुच्छितो-को तुमं ?, तुज्झ पुत्तो, किह वा किं वा १, सर्व परिकहियं, तुट्ठो उस्संगे कतो, माया पविसिअंती मंडिउ - मारद्धा, अभरण वारिया, अमच्यो जातो, एसा एयस्स उप्पत्तिया बुद्धी ४ । पत्ति दो जणा व्हायंति, एगस्स पडो दढो एगस्स जुष्णो, जुण्णइतो दढं गहाय पट्टितो, इयरो मग्गइ न देइ, भणइ य एसेब मे पडो, राउले वबहारो जातो, कारणिगेहिं पुच्छियं एऐ पडा कीया घरवूया वा ?, दोहिवि कहियं-घरवुया, ततो महिला कत्ताविया, ततो सुत्ताणुसारेण ४ Por Private & Personal Use Only 160~ ॥५१९ ॥ melbrary.org Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४१-९४२], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत RECASSAGACKGANGA जो जस्स पढो सो तस्स दिनो, अन्ने भणति-दोण्हपि सीसाणि ओलिहावियाणि, जस्स उण्णामओ पडो तस्स उण्णातंतू विणिग्गया, जस्स सोत्तिओ तस्स सुत्ततंतू, ततो जो जस्स सो तस्स समप्पितो, कारणियाणमुप्पत्तिया बुद्धी ५। 'सरड'त्ति एगो पुरिसो सन्नं वोसिरइ, तस्स सपणं वोसिरंतस्स सरडाणं परोप्परं भंडताण एगो सरडो अहिट्ठाणस्स हिट्ठा | है बिलं पविट्ठो, पुच्छेण य छिको, घरं गतो, अद्वितीए दुबलो जातो, मम उदरे सरडो पविट्ठोत्ति, वेजो पुच्छितो, जइ सय रूवगाणं देह तो पगुणीकरोमि, मन्निय, विजेण घडए सरडो छुढो लक्खाए विलिंपितो. विरेवणं दिन, घडगो ठाविओ, सन्ना वोसिरिया, दिवो तडफडतो, सो जातो लट्ठीभूतो, विजस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ बिइयं सरडोदाहरण-भिक् खुणा खुड्डगो पुच्छिओ-एस किं सीसं चालेइ ?, सो भणइ-किं भिक्खू भिक्खुणी वा, खुड्डगस्स उप्पत्तिया बुद्धी ६।। का कागति, तचणिएण चेल्लतो पुच्छितो-अरिहंता सवण्ण ?, चालतो भणइ-वाद, कित्तिया इहं कागा?, सहि कागसहस्सा जाई वेण्णातडे परिवसंति । जइ ऊणगा पवसिया अम्भहिया पाहुणा आया ॥१॥ खुड्डगस्स उप्पत्तिया बुद्धी ॥ विइयं 6 कागोदाहरण-एगो वाणियओ, तेण बाहिं गएण निही दिट्ठो, तेण चिंतिय-मम घरे महिला पहाणा, सा रहस्सं धरेइ नवेति परिक्खेमि, ततो घरमागतो भणइ-पंडरगो मे कागो अहिट्ठाणं पविट्ठो, तीए सयज्झियाण कहियं, ताहिं नियभत्ताराणं जाव रायाए सुअं, ततो राइणा सिट्ठी हक्कारावितो, पुच्छियं, कहियं जहावडियं, तुट्ठो राया, दिण्णं निहाणं, मंती|81 कतो, एयस्स उप्पत्तिया बुद्धी ७ 'उच्चारे'त्ति एगस्स पिज्जाइयस्स तरुणी भज्जा, गार्मतरं निजमाणा अंतरा धुत्तेण सम | संपलग्गा, ततो तेर्सि दोण्हपि कलहो जातो, धिज्जाइओ भणइ-मे भज्जा, इयरो भणइ-ममं, सा पुच्छिया, धुत्तं भत्तारं H imalbrine ~161 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४१-९४२], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक दीप श्रीआव- पडिवजइ, गामे ववहारो जातो, ततो कारणिगेहिं सवाणि पुच्छियाणि-कलं को आहारो आसि ?, सबेहिं भणियं-तिल- औत्पत्तिश्यकमल- 1सकुलिया, ततो आहारविरेवणं दिलं, पिजाइयस्स सभजस्स तिला दिट्ठा, इयरस्स नेति, निद्धाडितो, कारणिगाण उप्प- क्या उदा यगिरीय-18त्तिया बुद्धीदा गयत्ति, वसंतपुरे राया मंति मग्गइ, पाओ लंबिओ-जो महइमहालयं गर्य तोलइ तस्स सयसहस्सं देमि, हरणानि वृत्ती नम- ततो एगेण पुरिसेण सो हत्थी नापाए छूढो, अत्याचे जले धरिओ, जत्तिए भारे तीसे नावाए पाणियं तत्थ रेहा कट्ठिया,दि स्कारे ओयारिओ हत्थी, कट्ठपाहाणेण भरिया नावा ताव जाव रेहा, ततो ताणि कट्टपाहाणाणि उत्तारेउ तोलियाणि, जियं तेण ६ सयसहस्सं, मंती कतो, एयस्स उप्पत्तिया बुद्धी । अण्णे भणंति 'गय'ति गाविमग्गो सिलाए नहो, सो एगेण पोहपडि-18 ॥५२०॥ एण कहिओ ९ घयणो नाम भंडो सबरहस्सितो, अन्नया राया देवीए गुणे लएइ-अतीव निरामया देवी, नो अहो वातो निस्सरह, सो भणह-देव । एवं न हवइ, किह ?, जया पुष्पाणि केसरा वा ढोएह तया जाणेज-निग्गतो अहो-17 दावायोत्ति, रण्णा तहत्ति विनासियं, नाए हसियं, ततो देवीए पुच्छिय-किहमकंडे हसिय?, राया न कहेइ, निबंधे कहिये, देवीए भंडो निविसओ आणत्तो, सो उवाहणाणं भारेण उवद्वितो, देवीए पुच्छितो-किं एत्तियातो उवाहणातो?, सो 18 भणह-देवि! एयाहिं जावंति देसंतराणि गंतु तरिस्सामि तत्थ सबस्थ देवीगुणा पगासियवा, ततो उड्डाहभीयाए रुद्धो, घय-12 दाणस्स उप्पत्तिया बुद्धी १०॥गोलत्ति एगस्स दारगस्स जतुगोलगो नक पविट्ठो, ततो एगेण सलागाए तावित्ता कहितो, कई-15 तस्स उप्पत्तिया बुद्धी ११ । 'खंभ' चि, एगो राया मंतिं गवेसेइ, पाओ लंबितो-खंभो तलागमज्झे, जो तडे संतओ बंध0५२०॥ ४ तस्स सयसहस्सं देमि, ततो एगेण तडे खीलं वंधिऊण वेढेण बद्धो, जियं सयसहस्सं, मंती कतो, एयस्स उप्पत्तिया बुद्धी अनुक्रम ~162 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४१-९४२], विभा गाथा -1, भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक १२'खुडगेत्ति एगा परिवाइया पइण्णापुषगं भणइ-जो जं करेइ त भए कायचं, रण्णा पडहगो दवावितो, खुड्डुगो भिक्खापविट्ठो सुणेइ, वारितो पडहतो, गओ राउलं, दिवो तीए, भणइ-कतो गिलामि?, तेण सागारियं दाइऊण काइयाए पउमं लिहियं, सा न तरइ, जिया, खुड्गस्स उत्पत्तिया बुद्धी १३। 'मग्गिस्थिति, एगो भज गहाय गार्मतरं बच्चइ, सा सरीरचिंताए उत्तिशा, से रूवेण वाणमंतरी विलग्गा, इयरी पच्छा आगया, रडइ, ततो गामे ववहारो जातो, एगा भणइमम भत्ता, एसा कावि वाणमंतरी, इयरीवि एवं भणइ, ततो कारणिगेहिं चिंतिऊण पुरिसो दूरे ठवितो, जो पढर्म हत्थेण गिण्हइ तीसे भत्ता, वाणमंतरीए हत्थो दूरेण पसारिओ, नायं वाणमंतरी एसा, निद्धाडिया, कारणिगाण उप्पत्तिया बुद्धी १४ । बिइयं उदाहरणं-मग्गे मूलदेवो कंडरीतो य वचंति, इतो य-एगो पुरिसो समहिलो दिहो, कंडरीतो तीसे रूबेण मुच्छितो, मूलदेवेण भणिय-अहं ते घडेमि, ततो मूलदेवो तं एगमि वणनिगुंजे ठविऊण पंथे आगतो अच्छा, जाव सोx |४|पुरिसो समहिलो आगतो, मूलदेवेण भणियं-एत्थ मम महिला पसवइ, एवं महिलं विसजेह, विसज्जिया, गया, सा तेण टासम अच्छिऊण आगया, आगंतूण य तत्तो पडयं घेतूण मूलदेवस्स धुत्ती भणइ हसंती-पियं खुणे दारओ जातो, दोण्हवि| उप्पत्तिया बुद्धी १४ । 'पईत्ति, दोण्हं भाउगाणं एगा भज्जा, लोगस्स महलं कोट्ट-दोण्हवि समा, परंपरएण रण्णा सुर्य, तापरं विम्हयं गतो, अमच्चो भणइ-कतो एवं होहित्ति ?, अवसं विसेसो अत्थि, एतेण तीसे महिलाए लेहो दिनो, जहाटीएएहिं दोहिबि गामं गंतर्ष, एगो पुषेण एगो अवरेणं, तद्दिवसं चेव आगंतवं, ताए महिलाएं एगो पुज्येणं पेसितो, दि एगो अवरेण, जो वेसो तस्स पुबेण, एन्तस्सवि जंतस्सवि निडाले सूरो, एवं नायं, असद्दईतेसु पुणोऽवि पट्टविऊण समग अनुक्रम RAKAREKAR ~163 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४१-९४२], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम [१] श्रीआव- पुरिसा पेसिया भणंति-दढं अपडुगा, एसो मंदसंघयणोत्ति तं चेव पवन्ना, ततो उवगयं-अस्थि विसेसो, मंतिस्स उप्पत्तिया औत्पत्तिश्यकमल- बुद्धी १५ । 'पुत्त'त्ति, एगो वाणियगो दोहिं भजाहिं समं दूरे अन्नरजं गतो, तस्स एगाए भज्जाए पुत्तो, सो विसेसं क्या उदायगिरीयदिन याणइ, एगा भणइ-मम पुत्तो, वितीया भणइ-पुत्तो मम, रायउले ववहारो, न छिज्जइ, अमच्चो भणइ- | हरणानि वृत्तौ नम- दवं विरंचिऊण दारगं दो भागे करेह करकरणं, माया भणइ-एईए चेव पुत्तो, मा मारिजउ, ततो मंतिणा नायं-एईए स्कारे चेव पुत्तो, जा तहुक्खेण गजाइ, तीसे चेव दिन्नो, मंतिस्स उप्पत्तिया बुद्धी १६ । 'महुसित्थ'त्ति, मधुमिश्र सिक्थं-15 दामदनं मधुसिक्थ, तत्र उदाहरणम्-एगा कोलगिणी उम्भामिया, तीए जारेण समं निहवणे ठियाए उवरि भामरं दिदादा ॥५२१॥ पच्छा भत्तारो सित्थगकयं करेंतो वारितो, मा किणिहि, अहं ते भामरं दंसेमि, गया दोवि, जालं न दीसइ, ततो धुत्तीए तेणेव विहिणा ठाइऊण दरिसियं, नाया भत्तारेण जहा एसा उम्भामियत्ति, कमन्नहा एयमेवं भवइत्ति, तस्स3 उप्पत्तिया बुद्धी १७ । 'मुद्दियत्ति', पुरोहितो निक्खेवए घेत्तूण देइ, लोगे साहुवादो-अहो सच्चवादी पुरोहितो निल्लोभो य, अन्नया दमगेण ठवियं पडिआगयस्स न देइ, पिसातो जातो, अमच्चो वीहीए जाइ, भणइ-देह पुरोहिया मम तं सहस्सं, मंतिस्स* किवा जाया, रण्णो कहियं, राइणा पुरोहितो भणितो-देहि एयस्स सहस्सं, भणइ-न गेण्हामि, रण्णा दमगो सर्प सप्पञ्चयं | तादिवसमुहुत्तट्ठवणयासमीववत्तिमाइयं पुच्छितो, अन्नया जूयं रमहरायाए समगं पुरोहिते परोप्परं मुद्दासंचरणं, रन्ना पुरोहि यस्स नाममुद्दा गहेऊण अलक्खं अण्णस्स मणुस्सस्स हत्थे दिना, अमुगंमि काले साहस्सिगो नउलो दमगेण ठवितो तं देहि इमं अभिण्णाणं, दिन्नो, आणीतो, अण्णेसिं नउलगाण मञ्झे कतो, सद्दावितो दमगो, तेण पञ्चभिण्णातो नउलो, पुरोहिय-18 MAMACHAR SMEucation ~164~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति:) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९४१ - ९४२] वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...] मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः रस जिन्भा छिण्णा, रण्णो उप्पत्तिया बुद्धी १८ । 'अंके'ति, एगो पुरोहितो निक्खेवे घेत्तृण सबेसिं अप्पय्यणो समप्पेड़, उच्छलितो साहुवादो, अन्नया एगेण दमगेण निमि (सितं, ततो तेण पुरोहिएण सो नउलतो लंछिऊण उस्सिवित्ता कूडरू वगाण भरितो, तहेव सिवितो, आगयस्स समप्पितो, सा मुद्दा उग्धाडिया, कूडरूत्रगा दिट्ठा, राउले ववहारी जातो, कारणिगेहिं दमगो पुच्छितो- कित्तियं आसि ?, सहस्सं, गणिऊण भरिओ तहा ताडीओ जहा न तीरइ सिबे, ततो रण्णो निबेइयं, रण्णा पुरोहितो दंडिओ, कारणियाण उत्पत्तिया बुद्धी १९ । 'पणयत्ति', तहेव एगेण दमगेण पुरोहियस्स पणा छोहूण नडलतो निक्खित्तो, आगयस्स कूडपणे छोढूण दिष्णा, दिट्ठा पणा, राउले बबहारो जातो, कारणिगेहिं पुच्छियं को कालो आसि ?, दमगेण भणियं अमुगो, अहुणत्तणा पणा, सो चिराणतो कालो, तम्हा कूडमेयं, ततो रण्णो निवेदितं, दंडितो पुरोहितो, कारणिगाण उच्पत्तिया बुद्धी २० । 'भिक्खुत्ति, एगेण दमगेण भिक्खुसगासे निक्खेबगो मुक्को, सो आगयस्स तं निक्खेवं न देइ, तेण जूयारा ओलग्गिया, तेहिं पुच्छिएण सम्भावो कहितो, ततो ते रचपडवेसेण भिक्खुसगासं गया, सुवण्णस्स खोडीतो गहाय, अम्हे वच्चामो चिड़यवंदगा, एयातो सुवण्णखोडीतो अच्छंतु, एवंमि अंतरे सो दमगो पुवसंकेतितो समागतो, मग्गियं, ततो भिक्खुगेणं चिंतियं जइ न देमि तो एएसिमप्पञ्चतो होहिइत्ति लोलयाए दिनं, जूआरेहिं भणियं अन्नेऽवि भिक्खू एंतगा सुबंति तो समुदाएण निक्खिविस्सामन्ति भणिऊण निग्गया, जूय| कारण उप्पत्तिया बुद्धी २१ । 'चेडगनिहाणे' ति, दो मित्ता, तेहिं निहाणगं दिट्ठ, एगेण भणियं-कल्ले सुनक्खत्ते गिहिस्सामो, ततो रत्तिं हरिऊण इंगाला छूढा, बीयदिवसे दोवि समगं गया, इंगाले पेच्छति, सो धुत्तो भाइ- अहो ! मंदपुन्ना Pur Private & Personal Use Only 165~ wjetbrary.org Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४१-९४२], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक श्रीआव- अम्हे, किह इंगाला जाया ?, तेण विइएण नायं, हिययं न दंसेइ, ततो सो धुत्तपडिधुतिं करेमाणो तस्स नियघरे पडिमंद औत्पत्तिश्यकमल- I करिता दो मकडए लएइ, ततो तीए पडिमाए औच्छंगे बाह्रसु उवरि भत्तं निवेसेइ, ते छहाइया तं पडिमं सबतो चकुंति, क्या उदायगिरीय-18 अण्णया भोयणं सज्जियं, दारगा निमंतिया, घरं नीया, संगोविया य, न दरिसेइ, भणइ य-मक्कडा जाया, ततो पुत्तदुक्ख-18 हरणानि वृत्ती नम-IMसंतत्तो तस्स घरमागतो, लेप्पगपडिमाठाणे ठावितो, मकडा मुका, किलकिलंता विलग्गा, सबतो फुसंति, भणिओ-एए स्कारे तव पुत्ता, सो भणइ-कहं दारगा मकडा भवंति !, इयरो भणइ-जहा दीणारा इंगाला जाया तहा दारगावि मक्कडा, एवं नाए दिनो भागो, एयस्स उप्पत्तिया बुद्धी २२। शिक्षाशाखं-धनुर्वेदः, तत्रोदाहरणम्-एगो कुलपुत्तगो धणुदकुसलो, सो ॥ ५२२॥ हिंडतो एगत्थ ईसरपत्ते सिक्खावेह, दवं विडतं, तेसिं पिइनिस्सिया चिंतेति-बहुग दवं एयस्स दिन्नं, जइया जाहिइ तइया मारिजिहिति, गेहातो य नीसरणं केणवि उवाएणं न देंति, तेण नाय, ततो दबं सन्नायगाणं संचारियं, जहा अहं रत्ति छाणपिंडगे नदीए छुहिस्सामि ते लएजाह, तेण छाणगोलगा दबेण सम संवलिया, एसा अम्हं विहित्ति पतिहीसु तेहिं दारगेहिं समं नदीए छुहर, एवं निबाहेऊण नट्ठो, एयस्स उप्पत्तिया बुद्धी २३॥ अत्थसत्थे उदाहरणं-एगो वाणियगो दोहिं | भजाहिं समं देसंतरं गतो, तत्थ मतो, तस्स एगाए भजाए पुत्तो, सो विसेसं न याणइ, तासि परोप्परं भंडणं, एगा भणइ-मम पुत्तो, बिइया भणइ-मम, रायउले ववहारो जातो, नो छिज्जइ, ततो भगवतो सुमइनाहस्स गन्भत्थस्स माऊए मंगलादेवीए नायं, ततो सद्दावियातो, भणियातो य-मम पुत्तो जाहिति सो एयस्स असोगवरपायवस्स हेट्ठा ठिओ ववहारं * छिदिहिति, ताव दोवि अविसेसेण खाह पिवहत्ति, जीसे न पुत्तो सा चिंतेइ-एत्तिगो ताथ कालो लद्धो, पच्छा न याणामो SISEASES दीप अनुक्रम SAMRATAR Frphansparmoniumch ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४३], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: R प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम किं भविस्सइत्ति पडिस्सुयं, देवीए नाया-न एसा पुत्तमायत्ति, देवीए उप्पत्तिया बुद्धी २४॥ 'इच्छाए महंति', एगाए भत्तारो मतो, वहिप्पउत्तं न लहइ, तीए पइमित्तो भणितो-ग्गमेहि, सो भणइ-जइ मम विभागं देसि, तीए भणियं-जं इच्छसि | कतं मम देजाहि, तेण उग्गमियं, तीसे थोवयं देइ, सा नेच्छइ, ववहारो राउले जाओ, आणावियं दवं, दो पुजा कया, कयर तुम इच्छसि , भणइ-महंती रासिं, ततो कारणिगेहिं भणियं-एतीए इमं वुत्तं-जं इच्छसि तं ममं देजासि, ता अमुंभार्ग18 एतीसे चेव देह, दवावितो, कारणिगाण उप्पत्तिया बुद्धी २५ ॥ सयसहस्से उदाहरणम्-एगो परिवायतो, तस्स सयसहस्सो खोरी, सो भणइ-जो मम अपुर्व सुणावेइ तस्स एयं देमि, तत्थ सिद्धपुत्तेण सुर्य, तेण भण्णइ-तुज्झ पिया मह । पिउणो धारेइ अणूणर्ग सयसहस्सं । जइ सुयपुर्व दिजउ, अह न सुयं खोरयं देहि ॥१॥ जितो, सिद्धत्थपुत्तस्स उप्पत्तिया IHIबुद्धी २६॥ एष गाथात्रयभावार्थः, उक्का सोदाहरणोत्पत्तिकी बुद्धिः । अधुना पैनयिक्या लक्षणं प्रतिपादयन्नाह भरनित्थरणसमत्था तिवग्गसुत्तत्थगहिअपेयाला । उभयलोगफलवई विणयसमुत्था हवडू बुद्धी ॥ ९४३ ।। द्रा इहातिगुरुकार्य दुर्निवहत्वाद् भर इस भरः, तन्निस्तरणे समर्थी भरनिस्तरणसमर्थाः, यो वगोत्रिवर्ग, लोकरूढया धर्मार्थकामाः सूत्र-तदर्जनपरोपायप्रतिपादननिबन्धनं अर्थः-तदन्वाख्यानं, सूत्रं च अर्थश्च सूत्राथौँ, त्रिवर्गस्य सूत्राथी त्रिवर्गसूत्राथौं तयोहीतं पेयाल-प्रमाणं सारो यया सा त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतपेयाला, आह-नन्द्यध्ययने अश्रुतनिश्रि ताभिनिबोधिकाधिकारे औत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयमुपन्यस्तं, त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वे च सत्यश्रुतनिश्रितत्वं विरुध्यते, आ. सू. 41 नहि श्रुताभ्यासमन्तरेण त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वसम्भवः, उच्यते, इह प्रायोवृत्तिमङ्गीकृत्य अश्नुतनिश्रितत्वमुक्त, ततः [१] SMEucationR ~167 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआव इयकमलयगिरीय वृत्तौ नम स्कारे ॥ ५२३ ॥ Jan Educator आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९४४ - ९४५] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...] मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः स्वल्पश्रुतनिश्रित भावेऽप्यदोष इति उभयलोक फलवती - ऐहिकामुष्मिकफलवती, विनयसमुत्था - विनयप्रादुर्भूता भवति बुद्धिः ॥ अस्या एव विनेयजनानुग्रहार्थमुद्राहरण स्वरूपमुपदर्शयन्नाह - निमित्त १ अत्थसत्ये २ य लेहे ३ गणिये ४ य कूव ५ अस्से ६ य । गद्दह ७ लक्खण ८ गंठी ९ अगए १० गणिया य रहिए य ११ ॥ ९४४ ॥ सीया साडी दीहं च तणं अवसदयं च कुंचस्स १२ । नियोदए १३ य गोणे घोडगपडणं च रुक्खातो १४ ॥ ९४५ ॥ गाथाद्वयस्याप्यर्थः कथानकेभ्योऽवसेयः, तानि चामूनि, तत्र निमित्ते इदं कथानकम् एगस्स सिद्धपुत्तगस्स दो सीसगा, ते निमित्तं सिक्खाविया, अन्नया तणकटुस्स कए गामंतरं वच्यंति, अंतराले हत्थिपया दिड्डा, एगो भणइ-कस्सेमे पया १, बितिओ भणइ-हत्थिणियाए, कहं ?, काइयाए, अन्नत्थ खलु भो हत्थिणियाए काइया, अन्नत्थ हरिथस्स, साय हत्थिणी काणा, कहं ?, एगपासे जतो तणाई खइया दीसंति, न बीयपासे, तहा तीए चेत्र काइयाए नायं जहा इत्थी पुरिसो य विलग्गाणि गच्छति सा य इत्यी गुबिणी, कहं ?, जतो हत्थानि थंभेत्ता उडिया, एयंपि नज्जइ, पडिविवेण दारगो से भविस्सर, जतो दक्खिणो पातो गुरुओ, तहा तीए इत्थीए रत्ता पोत्ता, जेण दसिया रत्ता रुक्खे लग्गा दीसह, ततो ते दोऽवि नदीतीरं पत्ता, एत्थंतरे एगाए बुडाए पुत्तो पवसितो, सा तस्सागमं पुच्छिउमागया, तीसे य पुच्छंतीए चेव घडगो भिन्नो, तत्थेगो भणइ-मतो, जतो निमित्तसत्ये भणियं एवं 'तजाएण य तज्जाय' मिति, बिइतो भणइ-मा एवं वयाहि, Por Private & Personal Use Only 168~ वैनयि क्याः उदाहरणानि ॥ ५२३ ॥ mesbrary.org Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४४-९४५], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [१] जाहि बुहे! सो घरे आगतो, सा गया, दिवो पुवागतो, जुयलगरूबगे गहाय सकारिओ, ततो दोऽवि कयकज्जा गुरुसमीवमागया, अविसंवादिनिमित्तेण गुरू पणमितो, इयरो न पणमेइ, गुरुणा पुच्छिओ-कीस न पणमसि', सो भणइ-मम | निमित्तसत्थसब्भावो तुमे न कहितो, ततो जहाभूयं परिकहियं, मए परिणामियं पसिणकाले घडरस विवत्ती ततो मरणं कहियं, गुरुणा विइतो पुच्छितो, सो भणइ-मए एवं परिणामियं-एसो घडो भूमीए उडितो भूमीए मिलितो, एवं सोऽवि दारगो माऊए मिलितो, जतो भणियं-'तज्जाएण य तजाय'मित्यादि, गुरुणा भणितो-को मम दोसो ?, न तुम सम्म परि-1 सृणामेसि, एअस्स वेणइगी बुद्धी १॥ अत्)सत्थे पच्चंतरायाण वित्तासणे कप्पओ दिटुंतो सो उपरि भणिहिइ २ । लेहे अट्ठारसलिविजाणगे, अण्णे भणंति-गणिए जहा विसमगणितजाणगो, अण्णे भणंति-कुमारा बडेहिं रमंता अक्खराणि 18 सिक्खावियाणि ३ । गणिएवि, एसावि तस्स सिक्खावयस्स वेणइगी बुद्धि ४॥ कूवे, खायजाणगेण भणियं-जहा एदूरे पाणियंति, तेहिं खयं, ते बोलीणं, सिला उम्मग्गा, तस्स कहियं, तेण भणियं-पासे आहणह, आहया, थासगसद्देण जल-15 मुद्धाइयं, एयस्स वेणइगी बुद्धी ५। आसे, आसवाणियगा वारवतिं गया, सबे कुमारा थुले वड्डे य आसे गेण्हंति, वासुदेवेण दुब्बलओ लक्खणजुत्तो जो सो गहितो कन्जनिबाही अणेगआसावहो य जातो, वासुदेवस्स वेणइगी ६ । गहमे | एगो राया, सो तरुणप्पिओ, थेरे नियदरिसावं वारिता, अन्नया विजयजत्ताए गतो, अडवीए पविट्ठो, तिसाए बाहितो, खंधावारो, राया अइन्नो, तरुणा जंकिंपि पंति, एगेण भणियं-देव! जइ 'परमियाणि थेरवुद्धीए जीवामो, थेरो मग्गितो, न लब्भइ, पडहतो घोसावितो, एगेण पितिभत्तेण पिया थेरो आणीओ आसि, तेण पडहतो वारितो, राया ARRECTRICACANCERSACROSS | ~169~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४४-९४५], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सुत्राक दीप श्रीआव- णमुवद्वितो, जइवि तुमए थेरो निवारितो तहवि मए पितिभत्तेण नियपिया आणीतो सो अच्छइ, रपणा सहावितो,8| वैनयिश्यकमल- पुच्छितोय-कह पाणियं भविस्सइ ?, तेण कहियं-देव! गद्दभा-चरंता जं भूमि ओस्सिपंति, तत्थ आसणं सिरापाणियं, क्याः उदायगिरीय- 18| तहेव विनासियं, खायं, लई पाणियं, थेरस्स घेणइगी बुद्धी ७ । लक्खणे पारसविसए आसरक्खगो, तस्स आससामिस्स हरणानि वृत्तौ नम- धूयाए सम संसग्गी, आगतो मुल्लकालो, तेण सा आससामिस्स धूया पुट्ठा-कं घोडयं गेण्हामि ?, तीए भणियं-बीसत्थं | स्कारे ठियाण. घोडाणमंतराले कूयर्ड पाहाणाण भरेऊण रुक्खातो मुयाहि, तत्थ जो खडखडसदेण न उत्तसइ तं लएहि, पडहयं है हाच बाएहि, निन्भरपसुत्ता य खक्खरएणं पडिबुज्झावेहि य, तत्थवि जो न उत्तसइ तं पडिगेण्हाहि, तेण परिक्खिया, ॥५२४॥ लद्धा दो पहाणा अस्सा, ततो वेयणकाले सो भणइ-मम दो देहि, अमुगं अमुगं च, सो भणइ-सर्व गेण्हाहि एए मोत्तूण, किं तव एएहिं ?, सो नेच्छइ, भज्जाए कहियं-धीया दिजउ, भज्जा से नेच्छइ, ततो सो तीसे लक्खणजुत्तेण कुर्दुवं | परिवद्धइत्ति दारगं दिद्रुतीकरेइ, एगो बडई, सो माउलगघरं गतो, तेण धूया दिन्ना, कम्मं न करेइ, भज्जाए चोइओ, दिवसे दिवसे अडवीओ रित्तओ एइ, छठे मासे लद्धो, चट्टतो घडितो, भा पेसिया, सहस्सेण दिजाहि, एयस्स एस गुणो-एएण दिजमाणं न निट्ठाइ, एगेण सेटिणा विनासितो, ततो सुवण्णाण डलं भरिऊण तेणेव चडुएण सयसहस्सा 18 दिना, सुवण्णडलं तहेव भरियं चिट्ठइ, ततो महया सक्कारेण सक्कारेऊण विसजिया, एवं दिटुंते कहिए भजाए पडिवर्ण,18In५२४ धूया दिन्ना, आससामिस्स वेणइगी बुद्धी ८॥ (ग्रंथाग्रं० २१०००) गंटीति उदाहरणं-पाडलिपुत्ते नयरे मुझंडो राया, पालित्ता आयरिया, तस्थ परराईहिं जाणगेहिं इमाणि विसज्जियाणि-सुत्तं मोणियं छिण्णा लट्ठी समो समुग्गतोत्ति, सुत्तरस अंतो लहे अनुक्रम SANSARAM imastram ~170~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४४-९४५], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक RAKAR यबो, लट्ठीए आदिभागो, समुग्गकस्स बारमिति, केणइ ताणि न नायाणि, रन्ना पालित्ता आयरिया सद्दाविया, तुज्झे जाणह: भयवंति ?, भणंति-बाढं जाणामि, सुत्तं उण्होदए छुढं, मयणं विराय, दिवाणि अग्गिलगाणि, दंडो पाणिए छूढो, मूलं PIगुरुगं, समुग्गको जउणा घोलितो, उण्होदए कहितो उग्घाडितो, ततो पुणोऽवि पालित्तायरिपहिं दोद्वियं सगलगं राइलेऊण तत्य रयणाणि छूढाणि, ततो तेणगसिविणीए सीवेऊण विसज्जियं, अभिदंता फोडेह, न सकियं, पालित्तायरियाणं घेण-15 &ाइगी बुद्धी ९॥ 'अगए' इति, एगो राया, तस्स नगरं गहे परबलं एइ, रण्णा पाणियाणि विणासियवाणित्ति विसकरो कपाडितो, पंजा विसस्स कता, विज्जो एगो (थोषेण विसेण उवडिओ) राया थोयं ददृण रहो, वेज्जो भणइ-सयसहस्सवेधी| एवं विसं, नो थोवं, राया भणइ-कह', ततो खीणाऊ हत्थी आणावितो, पुच्छवालो उप्पाडितो, तेण चेव रोमकूवेण हैविसं दिन्नं, विवन्नं सरीरं करेंतं गच्छंतं च दीसइ, एस सबो विसं, जोवि एवं खाइ सोवि विसं, एवं सयसहस्सवेही, राया भणइ-अस्थि निवारणविही, बाद अस्थि, तहेव अगदो दिनो, तं समेंतो जाइ, वेज्जस्स वेणइगी १०॥ रहियो गणिया एय एक उदाहरणं, पाइलिपुत्ते नयरे दोगणियातो-कोसा उवकोसाय, कोसाए समं थूलभद्दसामी अच्छितो आसि, पवइतो, *जाव परिसारत्तो तस्थेव कतो, ततो साविया, पञ्चक्खाइ अबभस्स अन्नत्थरायनिओएण, रहिएणराया आराहितो, सा कोसा। तस्स दिन्ना, सा य थूलभद्दसामिणो अभिक्खणं गुणग्गहं करेइ, तं न तहा उवचरड, सो तीए अप्पणो विन्नाणं दरिसेउ-13 दाकामो असोगवणियं नेइ, भूमीगएणं अंबटुंबी कंडेण विधित्ता कंडपोखे अन्नोन कंडं लाएंतेण हत्थन्भासं कंडसंतई (पाविय)। अंबटुंबी अद्धचंदेण छिन्ना गहिया य, तहवि न तूसति, भणइ-किं सिक्खियस्स दुकरं , सा भणइ-पेच्छ ममंति, सिद्ध अनुक्रम ~171 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम [3] श्रीभवश्यकमल यगिरीय वृत्ती नमस्कारे ॥ ५२५ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [९४४ - ९४५] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः त्थरासिंमि सूईण अग्गयंमि कणियार कुसुमेसु पोइएसु नच्चिया, रहितो सुलसो आउट्टो पसंसति, सा भणइ-न दुकरं तोडिय अंबलंबिया, न दुक्करं नचिय सिक्खियाए । तं दुक्करं तं च महाणुभावं, जंसो मुणी पमयवर्णनि वुच्छो ॥ १ ॥ तो तरस थूलभद्दसामिस्स संतगो बुत्तंतो सिट्ठो, पच्छा उवसंतो रहितो, दोण्हवि वेणइगी बुद्धी ११ ॥ सीया साडी दीहं च तणं कोंचस्स अवसवयं एवं चेव उदाहरणं एगो राया, पुत्ता आयरिएण सिक्खविया, दवलोभी सो राया, ततो तं आयरियं मारेउं इच्छति, ते दारगा चिंतंति-एएण अम्हं विज्जा दिन्ना, उवाएण नित्थारेमो, ततो जाहे सो जेमओ एइ, ताहे सो व्हाणसाडियं मग्गड़, ते भांति अहो सीया साडी, तो बारसंमुहं तणं ठवेंति, भणति य-अहो दीहं तणं, पुर्व कोंचएण पयाहिणीकिज्जइ, तद्दिवसं अपवाहिणीकतो, ततो आयरियस्स परिगयं जहा विरताणि, सीया साडीति ममं राया मसाणीकार्ड मग्गर, दीहं तणंति कुमारेहिं मम भतिं करेंतेहिं दीहो पंथो दरिसितो, दोपहवि वेणइगी बुद्धी १२ ॥ 'निबोदर' उदाहरणं-एगा वाणियगभजा, सा चिरपत्थे पमि दासीए सम्भावं कहेइ-पाहुणगं आणेहि, तीए पाहुणगो आणीतो, नखकम्मं से कारावियं, रतिं वासहरे पवेसिओ, जेमिता य, ततो अद्धरते तिसाइतो पाणियं मग्गइ, मेघो य निब्भरं वरिसइ, ततो निवोदयं पाइतो, तं च तयाविससप्पसंफरिसणतो विसीभूयंति, ततो दासीए देवउलियाए उज्झितो, दिट्ठो लोगेणं, आगया रायपुरिसा, दिहं पञ्चग्गं नहकम्मं तं तो पहाविया पुच्छिया (केण ) कम्मं कारियं १, कहियं - अमुगीए दासीए, सा पहया, तीए वाणिगिणी कहिया, सा पुच्छिया सम्भावं साहइ, निषं पलोइयं दिट्ठो तथाविसो घोणसो, नयरमयहरगाणं वेणइगी बुद्धी १३ ॥ 'गोणे घोडग पडणं च रुक्खातो' इति एवं उदाहरणं एगो अकयपुनो जं जं करेइ तं से 172~ वैनयि क्याः उदाहरणानि ॥ ५२५ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४६], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक | विवजइ, मित्तसगासातो जाइएहि बइलेहिं हलं वाहइ, वियाले आणीय वाडए छूढा, सो य किल मित्तो जेमेइ, ततो लज्जाए तस्स पासे न गतो, वइल्ला तेणवि दिवा, ते वाडातो निष्फिडिया, चोरेहिं हरिया, ततो मित्तेण सो गहितो, मम बइले देहि, रायकुलं निजइ, पडिपण पुरिसो घोडएण संमुहो एइ, सो घोडएण पाडितो, घोडगो पलातो, तेण भणितो-12 आणत्ति, तेण पुरिसेण मम्मे आहतो, मतो, तेणवि सो गाहितो. मम घोडयं देहि, एत्थंतरे गच्छंताण वियालो जातो, नगरबाहिरियाए वुच्छा, तत्थ नडा सुत्ता, इमेऽवि, सो चिंतेइ-जावज्जीवं बंधणे जीविस्सामि तो वरं मे अप्पा उब्बद्धो, ताहे सुत्तेसु तेसु दंडखंडेण तंमि वडरुक्खे अप्पाणं उक्कलंबेइ, तं दंडिखंडं दुबलंति तुई, पडिएण लोमंथियमयहरतो मारितो, तेहिवि गहितो, करणं नीतो, सवेहिं कहियं जहा वुत्तं, सो पुच्छितो भणइ-आम, कुमारामच्चस्स तस्सुवरि अणुकंपा जाया, ॐतो सो भणइ-एसो बलद्दे देउ, तुज्झ पुण अच्छीणि उक्खणंतु, तहा एसो आसं देउ, तुज्झ जीहा उप्पाडिजउ, तहा एसो हेडा सुवउ, तुझं एगो उच्चज्झउ, एवं सबे निप्पडिभा मंतिणा का सो मुक्को, मंतिस्स वेणइगी बुद्धी १४ । उक्का सोदाहरणा वैनयिकी, सम्पति कर्मजा या बुद्धिलक्षणं तस्याः प्रतिपादयति उवओगदिवसारा कम्मपसंगपरिघोलणविसाला । साहुक्कारफलवई कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी ॥ ९४६ ॥ उपयोगः-विवक्षितकर्मणि मनसोऽमिनिवेशः सार:-तस्य कर्मणः परमार्थः उपयोगेन दृष्टः सारो यया सा उपयोगदृष्टसारा, अभिनिवेशोपलब्धकर्मपरमार्था इत्यर्थः, तथा कर्मणि प्रसङ्गः-अभ्यासः परिघोलनं-विचारः कर्मप्रसंगपरि|| घोलने ताभ्यां विशाला-विस्तीर्णा कर्मप्रसङ्गपरिघोलनविशाला, अभ्यासविचाराभ्यां विस्तीर्णेति भावः, साधु कृतं-सुष्टु SOURCUMSAKC CCCCCANCAMERICAGAR अनुक्रम [१] ~173~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४७], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ECO सत्राक दीप श्रीआव-15 कृतमिति विद्वयः प्रशंसा साधुकारः तेन फलवती साधुकारफलेवती, कर्मसमुत्था-कोद्भवा भवतीति बुद्धिः ॥ अस्या 8 कर्मजाया: श्यकमल- अपि विनेयजनानुग्रहायोदाहरणः स्वरूपमुपदर्शयतियगिरीयहेरनिए १ करिसए २कोलिअ३ डोवे ४ अ मुत्ति ५ घय ६ पवए । दाहरणानि वृत्तौ नम उन्नाग८ वह ९पूहए १० य घड ११ चित्तकारे १२ य ॥९४७॥ स्कारे हैरिण्यको अभीक्ष्णयोगेनान्धकारेऽपि हस्तामर्षेण रूपकं शुद्ध कूटं वा जानाति, ततो हैरण्यिकेऽतिशयवति कर्मजा बुद्धिः १, एवं सर्वत्र योजनीय, कर्षकोऽभीक्ष्णयोगेन फलनिष्पत्तिं जानाति, एत्थ उदाहरणं-एगेण चोरेण खत्तं पउमा॥५२६॥ दिगारं खयं, पभाए सो आगतो जणवार्य निसामेइ, तत्ध एगो करिसगो आगतो, सो भणइ-किं सिक्खियस्स दुकर , चोरेण सुयं, अमरिसं गतो, पुच्छितो य-को एसो ?, ततो अन्नया खेत्ते ठियं जाणिऊण तस्स सगासं गतो, छरिय अंछिऊण मारेमि; तेण भणियं-कीस , तो भणइ-तया अहं निंदितो-किं सिक्खियस्स दुकरंति ?, तेण भणियं-सच्चमेवं, पेच्छ में विण्णाणं, ततो तेण पडयं पत्थरेत्ता वीहीणं मुट्ठी भरिया, किं परम्मुहा पडतु उरंमुहा पासिल्ला वा, जहा भणियं तह कयं, तुठो चोरो उवसंतो य २ । तथा कोलिको मुष्टिगृहीतैस्तन्तुभिर्जानाति, यथा एतावद्भिः कण्डकैरूयते इति ३ । डोएत्ति वर्द्धकिर्जानाति यथा दामेतावन्मात्रं मातीति । मौक्तिक प्रोति यत्रा(तयन्ना)काशे तथा कथंचनाप्युत्क्षिपति यथा सूकर-15 वाले पतति ५। घएत्ति, घृतविक्रयी यदि रोचते ततः कुण्डिकानाले प्रक्षिपति ६ । पवएत्ति प्लवकः कोऽपि तथा शिक्षाम-16 ॥५२६॥ धिगतो यथा आकाशेऽपि करणानि करोति । तुण्णागत्ति सूच्याजीवाः, पूर्व स्थूलं सीवनं कृतवान् , पश्चादम्यासतस्तथा ACCOACCE अनुक्रम [१] * ~174 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुक्रम [१] कथंचनापि सीवितं यथा सर्वथा न ज्ञायते, यथा स्वामिसत्कं देवदुष्यं धिग्जातीयेन कारितं ८ । वडइत्ति वर्द्धकिरभ्यासतः कोऽप्यमाप्यापि देवकुलरथादीनां प्रमाणं जानाति ९॥ पूइयत्ति आपूपिकः कणिक्कादिकममाप्यापि पूपपरिमाणं जानाति, यथा एतावत्कणिक्कादेरेतावत्यः पूपा भविष्यन्ति, सर्वा अपि वा समाः करोति १० । 'घडे' ति घटकारः प्रथमत एतावप्रमाणां मृत्तिकां गृह्णाति यावन्मात्रया विवक्षितं घटादिकं निष्पद्यते इति ११॥ चित्तकारेत्ति चित्रकारो अमाप्यापि रेखादिकं प्रमाणयुक्तं चित्रं करोति, तावन्मानं वा वर्णकं गृह्णाति यावन्मात्रेण समाप्यते इति २१ । सर्वेषामेतेषां कर्मजा बुद्धिः। उक्ता कर्मजा बुद्धिः, सम्पति पारिणामिक्या लक्षणं प्रतिपादयन्नाह- - अणुमाण-हेउ-दिहतसाहिआ वयविवागपरिणामा । हिअनिस्सेयसफलवई बुद्धी परिणामिआ नाम ॥९४८॥ | अनुमानहेतुदृष्टान्तैः साध्यमर्थ साधयतीति अनुमानहेतुदृष्टान्तसाधिका, इह लिङ्गज्ञानमनुमानं, स्वार्थमित्यर्थः, तत्प्रलातिपादकं वचो हेतुः, परार्थमनुमानमित्यर्थः, अथवा ज्ञापकमनुमानं, कारको हेतुः, दृष्टमर्थमंतं नयतीति दृष्टान्तः, ननु अनुमानग्रहणादेव दृष्टान्तो गत इति किमर्थमस्योपन्यासः?, तदसम्यक्, अनुमानस्य तत्त्वत एकलक्षणत्वात् , उक पाच-'अन्यधानुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? । नान्यथानुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ १॥ इत्यादि साध्योप-12 दामाभूतस्तु दृष्टान्तः, उक्तं च-'यः साध्यस्योपमाभूतः स दृष्टान्त इति कथ्यते” इति, बयोविपाकपरिणामा इति कालकृतो| देहावस्थाविशेषो वयः तद्विपाकेन परिणामः-पुष्टता यस्याः सा वयोविपाकपरिणामा, तथा हितम्-अभ्युदयः तत्का JaMEduputanimal ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम [3] श्रीआव श्यकमल यगिरीय वृत्तौ नम स्कारे ॥ ५२७॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९४९ ९५१] वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...] मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः रणं वा निःश्रेयसं मोक्षः तन्निबन्धनं च हितनिःश्रेयसफलवती बुद्धिः पारिणामिकी नाम ॥ अस्या अपि शिष्यगण पारिणामिहितायोदाहरणैः खरूपमुपदर्शयति अभए १ सेट्टि २ कुमारे ३ देखी ४ उदिलोदिए हवइ राया ५। साहू अ नंदिसेणो ६ घणदत्ते ७ सावग ८ अमचे ९ ॥ ९४९ ॥ खमए १० अमञ्चपुत्तो ११ चाणके १२ चैव थूलभद्दे १३ च । नासिकसुंदरी नंदे १४ बहरे १५ परिणामिआ बुद्धी ॥ ९५० ॥ चलणे य (तह) १६ आमंडे १७ मणी १८ य सप्पे १९ य खग्गी २० धूभि २१ दे २३ । परिणामिअबुद्धीए एवमाई उदाहरणा ॥ ९५९ ॥ आसां तिसृणामपि गाथानामर्थः कथानकेभ्योऽवसेयः, तानि चामूनि तत्र प्रथमम भयोदाहरणं पञ्जोएण रायगिहं नगरं रोहियं, अभयकुमारेण य पजोए अणागए चैव खंधावारनिवेसे जाणिऊण पभूतं दवं निक्खातियं, ततो आगते पज्जोए अभयकुमारेण जाणावितो, जहा तब सबोवि खंधावारो ताएण भेइओ, जइ न पत्तियसि तो खंधावारनिवेसे निभालेहि, तहेव कयं ततो भीतो अप्पपरिवारो नट्टो, पच्छा अभएण सर्व गहियं, एसा अभयस्स परिणामिया बुद्धी । अहवा एसा जाहे गणियाए कवडेण नीतो, बद्धो, जाब तोसितो पजोओ, लद्धा चत्तारि वरा, चिंतियं च णेण-मोयावेमि अप्पाणगं, वरो मग्गितो-अग्गिं पविसामित्ति, मुको, भणइ-अहं ते छलेण आणीतो, अहं पुण दिवसतो पज्जोओ हीरइति कंद ~176~ क्याः स्व X रूपमुदा हरणानि ॥ ५२७ ॥ melbrary.org Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९४९ ९५१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...] मूलं [- / गाथा-], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तं नेमि, गतो रायगिहं, सयं वाणियगो जातो, दासो उम्मत्तगो कतो, वाणियदारातो कयातो, ततो उज्जेणीए रडंतो पज्जोओ गहितो, एवमाइयातो बहूइओ अभयस्स परिणामियातो बुद्धीतो १। सेहित्ति कट्ठो नाम सेड्डी एगस्थ नगरे परिवसति, तस्स बजा नाम भारिया, तस्स नियइलो देयसम्मो नाम बंभणो, सिट्टी दिसाजत्ताए गतो, भजा य तेण समं संपलम्गा, तस्स य घरे तिन्नि पक्खी-सूयतो मयणसागा कुक्कुडगो, सो ताणि उवनिक्खिवित्ता गतो, सो घिजाइतो रत्तिं अइति, मयणसलागा भणइ को तायरस न बीहइ ?, सूयओ बारेइ-जो अन्नियाए दइओ सो अहं तातो होइ, सा मयणसलागा न सम्मं एवं अहियापति, तो धिजाइयं निच्चमेव परिवयति, ताहे बजाए सा मारिया, सूओ न मारिओ, अन्नया साहू | भिक्खानिमित्तं तं गिमतिगया, कुकुडं पेच्छिऊण एगो दिसालोयं काऊण भणइ जो एयस्स सीसं खाइ सो राया भवतित्ति, तं कहवि तेण धिजाइएण अंतरिएणं सुयं, ततो सो वज्जं भणइ-मारेहि खामि, सा भणइ अन्नं मंसं आणिजइ, मा पुत्तभंडसंवडियं इमं मारावेह, निबंधे कए मारितो, ततो जाय पहाडं गतो ताथ तीसे पुत्तो लेहसालाओ आगतो, तं च मंसं सिद्धं, सो छुहाइतो रोयइ, सीसं दिन्नं, आगतो सो धिञ्जाइतो, भाणए छूढं, सीसं मग्गइ न पेच्छइ, सीसं देह, सा भगइ-चेडस्स दिन्नं, सो रुट्ठो, एयस्स कए मए मारावितो, जइ परं एयस्स चैडस्स सीसं खाएज तो होज कर्ज, निब्बंधे वयसिया, दासीए सुयं ततो चेव चेडं गहाय पलाया, अन्नं नगरं गया, तत्थ अपुत्तो राया मतो, आसेण सो चेडो परिक्खितो, राया जातो, इतो य-कट्ठो सेड्डी नियघरमागतो, पडियसडियं नियधरं पासति सा बज्जा पुच्छिया, न कहेइ, सूयओ पुच्छितो, सो बीहेइ, ततो सो मा मारिञ्जउत्ति पञ्जरातो मुक्को, तेण पंजरमुक्केण सो बंभणाइवुत्तंतो कहितो, ~177~ www.jbrary.org Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४९-९५१], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम [१] श्रीआव-16 सो तं सोऊण संविग्गो-अलं संसारववहारेण, अहं तीसे करण किलेसमणुभवामि, एसा पुण एवंविहत्ति पबइतो । इयराणिहापारिणामिश्यकमल- तं चेव नगरं गयाणि जत्थ सो दारगो राया जातो, साहूवि विहरतो तत्थेव गतो, पविट्ठो कहमवि तीए घरे मिक्खानिमित्तं, क्याः उदायगिरीय- तीय भिक्खाए समं सुवण्णं दिन्नं, कूवियं-एसो समणो सुवणं गहाय गतो, गहितो य रायपुरिसेहि, दिट्ट मिक्खमज्ञ हरणानि वृत्तौ नम- सुवणं, रण्णो निवेइयं, रायाए भणियं-सूलाए पोइजउ, धावीए नातो, रणो कहियं-एस ते पिया, राया ससंभमं उछिऊण स्कारे पाएसु पडितो, ताणि निविसयाणि आणत्ताणि, पिया भोगेहिं रन्ना निमंतितो, नेच्छइ, राया सड्डो कतो। वरिसारत्ते पुण्णे 18वचंतस्स अकिरियानिमित्तं घिजाइएहिं दुअक्खरिया भद्दपरिधाइयारूबधारिणी उवट्ठिया, गुषिणी सा, राया अणुचयइ.15 ॥५२८॥ तीए गहितो-मम चिंतं करेह, ततो मा पवयणस्स उड्डाहो होउत्ति चिंतिऊण कटुसाहू भणइ-जइ मम एस गम्भो तो जोणीए शानीउ, अह न मम तो पोट्ट भिंदित्ता णीउ, एवं भणिए भिन्नं पोट्ट, पवयणस्स वण्णो जातो, कट्ठसेविस्स पारिणामिया बुद्धी, जीए वा पबावितोत्ति ॥ कुमारोत्ति खुडुगकुमारो, सो उपरि जोगसंगहे भणिहिइ । तस्स पारिणामिया बुद्धी २॥ दादेवीवि पुष्फभद्दे नगरे पुप्फसेणो राया, पुप्फवती देवी, तीसे दो पुत्तभंडाणि-पुप्फचूलो पुष्फचूला य, ताणि अणुरत्ताणि, |रण्णा दोऽवि परोपरं परिणावियाणि, भोगे भुंजंति, देवी निबेएण पबइया, देवलोगे देवो उववन्नो, सो चिंतेइ-जइ एयाणि - एवं रमंति ता नरगतिरिएसु उववञ्जिहिंति, सुविणए सो तेर्सि नरगे दंसेइ, सा भीया, पुच्छइ-पभाए पासंडिए, ते न ॥२८॥ याणंति, अन्नियापुत्ता आयरिया, ते सद्दाविया, ते सुत्तं कहृति, सा भणइ-किं तुम्भेहिवि सुमिणगो दिट्ठो, सो भणइ-16 आगमे अम्हे परिसं दिहुँ, पुणोऽवि देवलोगे दरिसेइ, तेवि से अन्नियापुत्तेहिं कहिया, ततो भणइ-कहं एरिसा देवलोगा? ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४९-९५१], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम गम्मति ?, कह वा तारिसेसु नरगेसु न गम्मइ !, आयरिएहिं कहिय-जिणदेसियधम्मप्पभावेण, ततो धम्मकहा, संविग्गा, पवइया, देवस्स पारिणामिगी बुद्धी । उदितोदएत्ति, पुरिमताले नगरे उदितोदओ राया, सिरिकता देवी, दोनिवि सावगाणि, अन्नया अंतेउरे परिवाइया पविट्ठा, सा सिरिकताए देवीए जिया, दासीहिं मुहमकडियाहिं वेलंबिया निच्छता, पदो-12 समावन्ना । वाणारसीए धम्मरुईनाम राया, तस्थ गया, फलगपट्टियाए सिरिकताए रूवं लिहिऊण दरिसेइ धम्मरुइस्स रनो, सो अझोववन्नो दूयं विसज्जेइ, उदितोदएण रण्णा पडिहतो अवमाणितो निच्छूढो, ताहे सबबलेणागतो धम्मरुई, पुरिमताल शनगरं रोहेइ, उदितोदओ चिंतेइ-किं एवड्डेण जणक्खएणं करणंति ?, उववासं करेइ, वेसमणो देवो आउट्टो, तेण धम्मरुई हासनगरं साहरितो, उदितोदयस्स पारिणामिया बुद्धी । साहय नंदिसेणे इति, सेणियपुत्तो नंदिसेणो सामिसीसो साह,18 INIतस्स सीसो ओहाणुप्पेही, तस्स चिंता-जइ भगवं! रायगिह जाएजा तो देवीतो अण्णे य सातिसए पेच्छिऊण थिरो जाट होजत्ति, सामी रायगिहमागतो, सेणितो संतेउरो नीति, अन्ने य कुमारा संतेउरा, नंदिसेणस्स अंतेउरं वरं सेयंबरवसणं टिपउमिणिमझे हंसीतो इव मुक्काभरणातो सवासिं छायं हरेंति, सो तातो दद्रण चिंतेति-जइ भट्टारएण मम आयरिएण|3|| परिसितो मुक्का तो किमंग पुण मज्न मंदपुण्णस्स असंताणं परिच्चइयवतेति नियमावण्णो, आलोइय पडिकतो थिरोद जातो, दोण्हवि पारिणामिगी बुद्धी ॥ धणदत्तेत्ति, धनदत्तः सुसुमायाः पिता, स एवं परिणामेति-यद्येनां मारितां न भक्ष-12 दियामस्तहि बियामहे, तस्य पारिणामिकी बुद्धि ॥ सावगत्ति, सावगो सावियाए वयंसियाए मुच्छितो, तीए परिणामियं-18 पापस मुच्छितो मरिहिति, मतो य अहवसट्टो नरएसु तिरिएसु वा उववञ्जिहिइ. ततो तीसे आभरणाणि चत्वाणि य परिहि । [१] SMEnication ~179~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४९-९५१], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: -NCR प्रत सत्राक दीप अनुक्रम श्रीआव- नऊण रयणीए उवट्ठिया, बिइयदिणे तस्स संवेगो-मए भग्गं वयंति, तीसे जहावद्वियकहणं, तीसे पारिणामिगी बुद्धी पारिणामिश्यकमल- अमवेत्ति, वरवणुपिया जउपरे कए चिंतेइ-कुमारो कहंपि रक्खियबो, सुरंगाए नीणितो, पलातो, एयरस पारिणामिगी क्या उदायगिरीय-IAबुद्धी॥ अण्णे भणंति-एगो राया, देवी से अइप्पिया कालगया, सो मुद्धो, तीए वियोगदुक्खितो न सरीरस्थितिं करेइ, काहरणानि वृत्तौ नम- मंतिहिं भणितो-देव ! एरिसि संसारस्थिती, किं कीरउ ?, सो भणइ-नाहं देवीए सरीरस्थिति अकरतीए करेमि, मंतीहिं स्कारे परिचिंतियं-न अन्नो उवायोत्ति, पच्छा भणियं-देव ! देवी सरगं गया, तत्थट्ठियाए य से सबं पेसिज्जउ, लद्धकयदेविविति-* दिपउत्तिए पच्छा करेजसु, रण्णा पडिस्सुयं, माइठाणेण एगो पेसितो, रण्णो सगासं सो आगंतूण साहइ-कया सरीस्थिती ॥५२९॥ IHदेवीए, पच्छा राया करेइ, एवं पइदिणं करेंताण कालो वच्चइ, देवीपेसणववएसेण वहुं कडिसुत्तमाइ खजई राया, एगेण |चिंतियं-अहंपि खाएमि, गतो रायसगासं, तेण भणिय-कुतो तुम?, भणइ-देव ! सग्गातो, रण्णा भणियं-देवी दिट्ठा, सो भणइ-तीए चेव पेसितो कडिसुत्तमाइनिमित्तगंति, दावियं से, जहिच्छियं किंपि न संपडइ, रण्णा भणियं-कया गमि|स्ससि ?, तेण भणियं-कलं, ते संपाडिस, मंती आदिवा-सिग्घं संपाडेह, तेहिं चिंतियं-विण कजं, को एत्थ उवाउत्ति | विसण्णा, एगेण भणियं-धीरा होह, अहं भलिस्सामि, तेण संपाडिऊण राया भणितो-देव! एस कहं जाहिद, रणा भणियं-अण्णे कहं जंतगा?, तेण भणियं-अम्हे जं पढता तं जलणप्पवेसेण, न अन्नहा सर्ग गम्मइ, रण्णा भणियं-त-||५२९॥ हेव पेसेह, तहा आढत्ता, सो विसण्णो, अण्णो धुत्तो बायालो रणो समक्खं बहुं उवहसइ, जहा देवी भणिज्जासि-सिणेहवंतो राया, पुणोऽवि जं कजं तं संदिसिज्जासि, अण्णं च इमं च बहुविहं भणिज्जासि, तेण भणियं-देव! नाहमेत्तियग ~180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४९-९५१], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ROGRESEARSA दामविकलं भणिउं जाणामि, एसो चेव लट्ठो पेसिज्जर, रण्णा पडिस्सुयं, सो तहेव विस जेउमाढत्तो, इयरो मुक्को, अवरस्स माणुसाणि विसण्णाणि, पलवंति य-हा देव ! अम्हे किं करेजामो?, मंतिणा भणियं-नियतुंडं सारक्खेजाह, पच्छा खरंटिय मुक्को, अणाहमडगं दई, मंतिस्स पारिणामिया बुद्धी॥खमपत्ति. खमगो चेहएण समं मिक्खं हिंडइ, तेण मंडुक|लिया मारिया, आलोयणवेलाए नालोएइ, खुड्डएण भणितो-आलोएहित्ति, रुट्ठो आहणामित्ति पधावितो, खंभे अप्फि-RI डितो मतो, एगस्थ विराहियसामनाणं कुले दिट्टीविसो सप्पो जातो, जाणेति परोपरं, रात्तिं चरेंति, मा जीवे मारेहा४ा मोत्ति, फासुयमाहारमाहारेंति, अण्णया रण्णो पुत्तो अहिणा खइतो, मतो य, राया पदोसमावन्नो, जो सप्पं मारेइ तस्स दीणारं देइ, अन्नया आहिंडएणं ताणं रेहातो दिहातो, तं विलं ओसहीहिं धमइ, अन्नेसिं सीसाणि निताणि छिदइ, सो खवगसप्पो अभिमुहो न नीइ, मा मारेहामि किंचित् , जाईसरो य सो, तो सर्व विवेगं जाणइ, ततो पुच्छेण निग्गच्छद,* श्यरो य निग्गयं छिंदइ, पच्छा रण्णो उवणीयाणि, सोय राया नागदेवयाए पडियोहितो-(मा मारेह)नागदिनो कुमारो भवि-13 सइ, सो खमगसप्पो मतो समाणो तत्थ रायपत्तीए पुत्तो जातो, उम्मुक्कवालभावो सप्पे दडे जाई संभरइ, संभरित्ता पवइतो, सो य छुहालुओ अमिग्गहं गेण्हइ-मए न रूसियवं, पभाए दोसीणस्स हिंडइ, तत्थ य आयरियस्स गच्छे चत्तारि खमगा-मासितो दोमासितो तेमासितो चउमासितो य, रत्तिं देवया आगया, ते सधे खमगे अइक्कमित्ता खुड्डयं वंदइ, एगेण खमगेण निग्गच्छंती सा हत्थे गहिया, भणिया य-कडपूयणे ! एयं तिकालभोई वंदेसि ?, इमे महातबस्सी न वंदसि ?, साट भणइ-भावखमग वंदामि, न दबखमगे, एवं भणिऊण सा गया, पभाए दोसीणस्स गतो खुडुगो, दोसीणं गहाय आगतो 1565436456-05-54- 55%% R astrinting ~181 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४९-९५१], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक C दीप श्रीआव- निमंतेइ-ततो एगेण खमगेण गहाय पत्तं खेलो छूढो, भणइ-मिच्छामि दुकडं, खेलमल्लतो तुम्भ 'नावणीतो, एवं पारिणामि Mसेसेहिवि, ततो खेलजुत्तं परिहरिऊण जेमेउमारद्धो, तेहिं वारितो-किं पभाए चेव खायसि, ततो अहं अहो छहा- क्याः उदायगिरीय- लुओत्ति नियमावन्नो, सुभज्झवसाणेणं केवलनाणमुप्पन्नं, अहासन्निहिएहिं देवेहिं केवलिमहिमा कया, देवया आगया,|| हरणानि वृत्तौ नम- एसो भावखमगो, तुम्भे निच्चं रोसेण धमधमंता दवखमगा, ततो मए कई एस पढमो वंदितो, तेसिं पच्छाणुतावेण स्कारे सुभग्झवसाणसेदीए केवलनाणमुप्पणं, पंचवि सिद्धा, सबेसि पारिणामिया बुद्धी ॥ अमचपुत्तेत्ति, अमञ्चपुत्तो वर॥५३०॥ धणू, तस्स तेसु तेसु पओयणेसु पारिणामिया बुद्धी, जहा बंभदत्तो कुमारो मोयावितो पलाइतो य, एवमाइ सब णू, तस्स भासियवं । अण्णे भणति-एगो मंतिपुत्तो कप्पडियकुमारेण समं हिंडइ, अन्नया निमित्तितो मिलितो, रतिं देवकुले ठियाणंद सिवा रडइ, कुमारेण निमित्तितो पुच्छितो-किं सा भणइ ?, तेण भणियं-एसा इमै भणइ, इमंसि नइतित्थंसि पुराणीय कलेवरं चिट्ठइ, एयस्स कडीए सयं पायंकाणं नाणगविसेसरूवाणं चिट्ठइ, तं कुमार! तुम गिलाहि, तुम्हें पार्यका मम कलेवरंति, मुद्दियं पुण न सकुणोमित्ति, कुमारस्स कुडुं जायं, ते वंचिय एगागी गतो, तहेब जाय, पार्यके घेत्तूणागतो, पुणो रडति, पुणरवि पुच्छितो, सो भणइ-वफलिगा एसा, कह, एसा भणइ-कुमार! तुज्झवि पार्यकसयं जायं, मज्झवि कलेवरंति, कुमारो तुसिणीतो ठितो, अमच्चपुत्तेण चिंतियं-पेच्छामु से सत्तिं किं किवणत्तणेण गहियं ? उयाहु|8॥५३०॥ सोंडीरयाए, जइ किवणत्तणेण गहियं न से रजति नियत्तामि, पञ्चूसे भणइ-वह तुम्भे, मम सूलं चट्ठियं, न सकुणोमि गंतुं, कुमारेण भणियं-न जुत्तं तुमं मोत्तूण गंतुं, किंतु मा कोइ एगत्थाणे जाणिहिइत्ति वच्चामो पच्चासपणे, NCCASSACRESCk -9- अनुक्रम [१] ~182 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४९-९५१], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ६ कुलपुत्तघरं नीतो समप्पितो, तं च पायकसयं सर्व पेजामोलं, मंतिपुत्तस्स उवयं जहा सोंडीरयाए गहियंति, ततो भणियमणेण-अस्थि मे विसेसो तम्हा गच्छामो, गतो, कुमारेण रज पत्तं, मंतिपुत्तस्स भोगा दिना, एयरस पारिणामिगाद बुद्धी। चाणक्षेत्ति, गोल्लविसए चणयग्गामो, तत्थ चणितो माहणो, सो अवगय० सावगो, तस्स परे साहठिया, पुत्तो से पूजातो सह दाढाहिं, साहूण पाएसु पाडितो, कहियं च, साइहिं भणियं-राया भविस्सइ, ततो मा दुग्गति जाहितीति दंता घसिया, पुणोषि आयरियाण कहियं, भणंति-कजउ, एत्ताहे बिंबंतरियो राया भविस्सइ, उम्मुक्बालभावेण चोद्दसवि. | विजाठाणाणि आगमियाणि, सोऽथ सावगो संतुट्टो, एगतो भद्दमाहणकुलातो भज्जा से आणीया, कालेण मायापियरो विपण्णा, अण्णया कंमि कोउए से भज्जा मायपरं गया. केई भणंति-भाइविवाहे गया, तीसे य भगिणीतो अनेसिं खद्धादाणियाण दिण्णेलियातो, तातो अलंकियविभूसियातो आगयातो, सबो परियणो तासिं संमं संबइ, सा एगते अच्छा अद्धिती जाया, घरं ससोगा आगया, चाणिकेण पुच्छियं, न साहइ, निबंधे सिढुं, तेण चिंतियं-नंदो पाइलिपुते देइ, तत्व Iवचामो, सतो कत्तियपुण्णिमाए पुषण्णत्थे आसणे पढम निसन्नो, तं च नंदस्स सल्लीवइयस्स राउलस्स सया उधिज्जा सिद्धपुत्तो य नंदेण समं तत्थागतो, भणइ-एस बंभणो नंदवंसस्स छायं अकमिऊण ठितो, भणितो य दासीए-भयवं बितिए आसणे निवेसाहि, विइए आसणे कुंडियं ठवेइ, एवं तइए दंडग, चउत्थे गणेत्तियं, पंचमे जन्नोवइयं, ततो धड्रोत्ति निच्छूढो, ततो कुवितो, पइन्नापुरस्सरं पढति-कोशेन भृत्यश्च निबद्धमूलं, पुत्रैश्च मित्रैश्च विवृद्धशाखम् । उत्पाव्य नन्दं परिवर्तयिष्ये, महादुमं वायुरियोग्रवेगः॥१॥ ततो निग्गतो, मग्गइ पुरिसं, सुयं चणेण-विबंतरितो राया होहामित्ति, नंदस्स अनुक्रम [१] imastram ~183 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४९-९५१], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत * सत्राक दीप श्रीआव-भाजे मोरपोसगा तेसिं गामं गतो परिवायगेण लिंगेण, तेसिं च मयहरस्स धूयाए चंदपियणो डोहलो, सो समदाणतो गतो. परिणामिश्यकमल-151ते पुच्छंति, सो भणइ-मम दारगं देह तो णं पाएमि चंदं, तेहिं पडिस्सुयं, पडमंडवो कारावितो. पुणिमादिवसे मजमे क्याः उदायगिरीय- छिदं कयं, मझगए चंदे सघरसालूहिं संजोइत्ता दुद्धस्स थालं भरिता सद्दाविया, पेच्छाइ-थालमज्झे चंदं, भणिया- हरणानि वृत्तीनम- पियाहि, पियइ, उवरि पुरिसो उच्छाएइ, दोहले अवणीए कालेण जा पुत्तो जातो, चंदगुत्तो से नाम कर्य, सोवि ताव स्कारे संबहुइ, चाणको धाउविलाणि मग्गइ, सो य चंदगुत्तो दारगेहिं समं रमइ, रायनीईए विलासा, चाणको य पडिएइ, पेच्छइ, सो राया, ठितो अ, अण्णे मंतिसामंता, अवरे पाइक्का, सो य जो जस्स जोग्गो तं तस्स देसं विलहेइ, एत्थंतरे ॥५३१॥ चाणकण मम्गितो-अम्हवि किंचि दिज्जह, तेण भणियं-तुमं गावीतो लएहि, सो भणइ-मा मं मारेज कोई, ततो भणइ वीरभोज्जा वसुंधरा, नायं जहा विशाणंपि से अस्थि, पुच्छितो-कस्स तुमंति !, दारगेहिं भणियं-परिवायगपुत्तो एस, हा अहं सो परिबायगो, जामो जा ते रायाण करेमि, गतो, पागतो लोगो मिलितो, पाडलिपुत्तं रोहियं, नंदेण भग्गो, परिवायगो नट्ठी, आसेहिं पिट्ठतो लग्गो, ततो चाणको चंदगुत्तं पडमिणीसंडे छुहित्ता रयगो जातो, पच्छा एगेण जच्चवलही किसोरगेण आसवारेण पुच्छितो-करथ चंदगुत्तो?, चाणको भणइ-पेच्छ पउमसरे पविट्ठो चंदगुत्तो, ततो आस वारेण दिट्ठो, ततो अणेण घोडगो चाणकस्स अलितो, खग्गं मुकं, जाव निगुंडितो जलोयरणट्ठयाए कंचुग मेल्लेउं ताव ॥५३१॥ काअणेण खग्गं घेत्तूण दुहाकतो, पच्छा चंदगुत्तो हकारिय चडावितो, पुणो पलाया, पुच्छितो अणेण चंदगुत्तो-जंदावलं सारिओ तुम तवेलं तुमे किं चिंतियंति ?, तेण भणियं-एवमेव धुर्व भोलणं दिट्ठ, अजो चेव जाणइ, ततोऽणेण18 अनुक्रम 3 ~184 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४९-९५१], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ACASSEURSESSAGRESS अनुक्रम जाणियं-जोग्गो, नएस विप्परिणमइत्ति, पच्छा चंदगुत्तो छुहाइतो, चाणको तं ठवित्ता भत्तस्स अतिगतो, वीहेइ य-मा एत्थ नजेजामो, डोंडस्स बाहिं निग्गयस्स पोर्ट अप्फुरियं दिट्ठ, सो पुच्छिओ-कत्थ भोयणं लग्भति ?, तेण भणियं-अमुगत्थ, 8/इयाणिं चेव दहिकूर जिमिय आगतो, ततोऽणेण तस्स छुरियाए पोर्ट्स फालिय, दधिकरं गहाय आगतो, जिमितो दारगो, अनया अन्नत्थ गामे रतिं समुदाणेइ, थेरीए पुत्तभंडाणं वेवली परिवेसिया, एकेण माझे हत्थो छूढो, दद्धो रोयति, ताए| भण्णइ-तुम चाणक्कमंगलो, पढम चेव हत्थं मझे छुहसि, पढमं पासाणि धिप्पंति, पच्छा मज्झभागो, चाणकस्स उवगयं ४ गतो हिमवंतकूड, तत्थ पषयगो राया, तेण समं मित्तया जाया, भणइ-नंदं ओयवित्ता सम समेण रजं विभजामो, चलिया, देसं लडंता एंति, एगध नगरं न पडद, पविट्ठो तिदंडी चाणक्को, वत्थूणि जोएड, इंदकुमारियातो दिट्ठातो, तासिंतणएण पभावेण न पडइ, नियडीए नीयावियातो,पडियं नगरं, गया, पाडलिपुत्तं रोहियं, नंदो धम्मबारं मग्गइ, चाणकेण भणियं६) एगेण रहेण जं तरसि तं नीणेहि, दो भजातो एर्ग कण्णगं दवं च नीणेइ, कन्ना चंदगुत्तं पलोएइ, भणिया-जाहित्ति,15 हातीए चंदगुत्तरहं विलग्गंतीए नव अरगा रहस्स भग्गा, चंदगुत्तेण वारिया, चाणको भणइ-मा वारेह, नव पुरिसजुगाणि तव वंसो होइ, अतिगदो, दो भागीकयं रजं ॥ एगा कण्णगा, कयगविसभाविया, तत्थ पचयगस्स इच्छा जाया, सा तस्स | ६ दिन्ना, अम्गिपरियंचणे विसपरिगतो मरिउमारद्धो, भणइ-वयंस! मरिजइ, चंदगुत्तो विसं रंभामित्ति ववसितो, चाणक्केण मिउडी कया, नियत्तो, स मतो, दोवि रत्नाणि तस्स जायाणि ।। नंदमणूसा चोरियाए जीवंति, ततो चाणको चोरग्गाहं| भग्गइ, अण्णया बाहिरियाए गतो, तस्थ एगस्स नलदामस्स पुत्तो मक्कोडएण खइतो, तेण आरडियं, पहाविओ नलदामो, A-DACOCCASIOCCC ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९४९-९५१], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक स्कारे दीप अनुक्रम श्रीआव- दि8 मक्कोडाण ठामं, अग्गि छुहिता समूलं उच्छेदियं, चाणकेण दिडो, रण्यो निवेदितो, रण्णा सहाविसा आरक्खत्तं दिन्नं, पारिणामिश्यकमल- सावीसत्था कया तेण सबे चोरा, अन्नया भत्तदाणेण वीसासेऊण सकुडुंबा मारिया ॥ एगस्थ गामे किल तिदंडिणा भिक्खा न क्या उदार यगिरीय-18 लद्धा, तत्थ आणा दिना, अंबगेहिं बंसी परिखेत्तवा, तेहिं विवरीयं कयं, सीहिं अंबमा परिक्खित्ता, ततो रुट्टो पलीवितो सबोकाहरणानि वृत्तौ नम- द गामो ॥ ततो कोसनिमित्तं परिणामिया बुद्धी पयहिया, सोवणं थालं दीणाराण भरियं, कूडपासेहिं जूयं रमइ, जो जिण तस्स एयं, अह अहं जिणामि एक्को दीणारो दायबो, अइचिरंति अचं उवायं चिंतेइ, नगरप्पहाणाण भत्तं देइ, मजपाणं च, मत्तेसु पणचितो भणइ-दो मज्झ धाउरत्ताउ कंचणकुंडिया तिदंडं च, राया मे बसवत्ती एस्थवि ता मे होलं वापहि || ॥५३२॥ k॥१॥ एवं भणिए अन्नो असहमाणो भणइ-गयपोयगस्स मत्तस्स उप्पइयस्स जोयणसहस्सं । पर पए सबसहस्सं एत्थकविता मे होलं वाएहि ।।२॥ अण्णो भणति-तिलआढगस्स उत्तस्स निष्फन्नस्स बहुसइयस्स ।तिले तिले सयसहस्सं एस्थवि विता मे होलं वाएहि ॥ ३ ॥ अन्नो भणइ-नवपाउसंमि पुण्णाए गिरिनदीए सिग्यवेगाए । एमाहियमेसेणं नवणीएण पालि बंधामि, एथवि ता मे होलं वाएहि ॥४॥ अन्नो भणइ-जच्चाण नवकिसोराण तद्दिवसे जायमेत्ताण । केसेहिं नहं छाएमिट एत्थवि ता मे होलं वाएहि ॥ ५ ॥ अन्नो भणइ, दो मज् अस्थि रयणाणि सालिपसूई अ गद्दभिआ याछिया छिण्णा रुहइ पत्थवि ता मे होलं वाएहि ॥६॥ अन्नो भणइ-सइ सुकिलनिश्चसुगंधो भज्ज अणुषय नस्थि पवासो। निरिणो दुपंचस- x ॥५३२॥ इतो, एत्थवि ता मे होलं वाएहि ॥७॥ एवं नाऊण रयणाणि मग्गियाणि, सालीणं कोट्ठागाराणि भरियाणि, आसा एग-1 दिवसजाया मग्गिया, एगदिवसियं नवणीयं मग्गियं, एसा पारिणामिया चाणकस्स बुद्धी । थूलभद्दसामिस्स पारिणा ~186 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्ति: [ ९४९ - ९५१ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि- रचिता वृ मिया बुद्धी-पियंमि मारिए नंदेण भणितो- अमञ्चो होहि, तेण भणियं-चिंतेमि, गतो असोगवणियाए, चिंतेइ - केरिसा भोगा वालाणंति ?, पवइतो, रण्णा आसन्नपुरिसा भणिया-पेच्छ मा कबडेण गणिआघरं जाएज्जा, निंसो सुणगमडए वावण्णे नासं न गिण्हर, पुरिसेहिं रण्णो कहियं, विरत्तभोगत्ति सिरिओ ठवितो, थूलभद्दस्स रण्णो य पारिणामिगी बुद्धी ॥ नासिकसंदरीनंदित्ति-नासिकं नगरं, नंदो वाणियगो, सुंदरी से भज्जा, सा तरस अतीय वलहा, खणमवि तस्स पासं न मुंचइति लोगेण सुंदरीनंदोत्ति तस्स नामं कयं, तस्स भाया पवइतो, सो सुणेइ, जहा सो तीए अतीव अज्झोववन्नो, मा नरगं जाइति तस्स पडिवोहणनिमित्तं पाहुणो आगतो, पडिलाभितो, भाणं तेण गाहियं, अप्पणा समं चालतो, सो जाणइएत्थ विसज्जेहि एत्थ विसोहि इति, उज्जाणं नीतो, लोगेण य भायणहत्थो दिट्ठो, ततो णं उवहसंति-पवइतो सुंदरीनंदो, तस्स उज्जाणं गयस्स साहुणा देखणा कया, उक्कडरागोत्ति न तीरइ मग्गे लाएउं, वेडवियलद्धिमं च भयवं साहू, ततोऽणेण चिंतियं न अण्णो उबाओत्ति अहिगतरेण उवलोभेमि, पच्छा मेरुं पयट्टावितो, न इच्छइ अ विओगतो, मुहुत्तेण आणामि, पडिस्सुर्य, पयट्टा, मकडजुयलं विउधियं, अन्ने भणति सञ्चगं चैव दिडं, साहुणा भणितो- सुंदरीए वानरीए य का लडयरी १, सो भणइ भयवं ! अघडंती सरिसवमेरूवमत्ति, पच्छा बिज्जाहरमिहुणगं दिडं, तत्थवि पुच्छितो, भणइ-तुल्ला दोवि, पच्छा देवमिहुणगं दिडं, तत्थवि पुच्छितो, भणति भयवं । एतीए अग्गतो वाणरी सुंदरित्ति, साहुणा भणियं-थोवेण धम्मेण एसा पाविज्जइ, ततो से उयगयं पच्छा पइतो, साहुस्स पारिणामिगा बुद्धी । वइरति वइरसामिणा माया नाणुवत्तिया, मा संघो अवमन्निजिहित्ति, पाडलिपुत्ते मा परिभविहित्ति बेडबियं कथं, पुरियाए पवयणओहावणा मा Pur Private & Personal Use Only 187~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक - दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति:) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९४९ ९५१] वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...] मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीआवश्यकमल ॥ ५३३ ॥ होहित्ति सघं कहेयवं, एवमाई वइरसामिस्स पारिणामिगी बुद्धी । चलणाहयत्ति, राया तरुणेहिं बुग्गाहिजइ, जहा थेरा पारिणामिकुमारामच्चा अवणिजंतु, सो तेसिं परिक्खणानिमित्तं भणइ-जो रायं सीसे पाएण आहणइ तस्स को दंडो ?, तरुणा यगिरीय- भणंति-तिलंतिलं छिंदियवो, तो थेरा पुच्छिया, चिंतेमोत्ति ऊसरिया, चिंतेंति-नूणं देवीए अण्णो को आहणइत्ति ?, आगया वृत्तौ नम-भणंति-सक्कारेयवो, रण्णो तेसिं च पारिणामिया बुद्धी । आमंडत्ति, आमलगं कित्तिमं एगेण नायं, अइकढिणं अकाले स्कारे बिंबो होहित्ति, तस्स पारिणामिगी बुद्धी । मणीति, एगो सप्पो पक्खीणं अंडगाई खाइ रुक्खे विलग्गितो, अन्नया सो तत्थ गिद्धेण आलयं विलग्गंतो मारितो, मणी तत्थ पडितो, हेड्डा कूवो, तं पाणीयं रत्तीभूयं नीणियं तं सहावितं होइ, दारएण थेरस्स कहियं, तेण परिभावियं, नातो मणी, ततो रुक्खे विलग्गिऊण गहितो, थेरस्स पारिणामिया । सप्पेत्ति, चंडकोसितो चिंतेइ एरिसो महप्पा इच्चादि विभासा, एयस्स पारिणामिगी । खत्तेत्ति, सावियापुत्तो जोवणधणुम्मत्तो धम्मं न गिण्हइ, मरिऊण खग्गो ववण्णो, पट्टिसु दोहिवि पासेहिं जहा पक्खरा तहा चम्माणि लंवंति, अडवीए चउप्पहे जणं मारेइ, साहुणो अन्नया तेण पहेण अतिकमंति, योगेण आगतो, तेण न तरइ अलिय चिंतेइ एरिसा मए दिट्ठपुषा, जाई संभरिया, पञ्चक्खाणं देवलोगगमणं, एयस्त पारिणामिगी । धूभे, बेसालीनगरीए नाभीए मुणिसुवयथुभो, तस्स गुणेण कोणियस्स ( पयासेऽवि) नगरी न पडति, देवया आगासे कूणियं भणति समणे जइ कूलवालए, मागहियं गणियं लमिस्सर । राया य असोगचंदए, बेसालिं नगरी गहेहिति ॥ १ ॥ ततो कोणिओ तं मग्गड़, तस्स का उत्पत्ती- एगस्स आयरियस्स चिह्नओ अविणीतो, तं आयरिओ अंबाडेति, स घेरं वहइ, अण्णया आयरिया सिद्धसिलं तेण समं बंदगा Por Private & Personal Use Only 188~ क्याः उदाहरणानि ॥ ५३३ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] Jam Educato आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९५२ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], परत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विलग्गा, ओयरंताणं बहाए सिला मुक्का, दिट्ठा, आयरिएण पाया ओसारिया, इयरहा मारितो होतो, ततो तस्स सावो दिनो-दुरप्पा ! इत्थीओ विणस्सिहिसित्ति, मिच्छावादी एसो भवतुत्तिकाउं तावसासमे अच्छइ, नदीए कूले आयावेइ, पंथ भासे जो सत्थो एइ ततो आहारो होइ, नदीए कूले आयावेमाणस्स तस्स पभावेण सा नदी अण्णओ पबूढा, तेण | कूलवारतो नामं कयं तत्थ अच्छंतो कोणिएण आगमितो, गणियातो सद्दावियातो, एगा मागहिअगणिया भणइ-अहं आणामि, कवडसाविया जाया, सत्थेण समं गया, वंदइ, भणइ य-उद्दाणे भोइए चेइयाई वंदामि, तुम्भे य सुया, ततो आगया, पारणगे मोयगा संजोइया दिण्णा, अतिसारो जातो, पयोगेण ठवितो, उबट्टणाईहिं संभिन्नं चित्तं, आणीतो, रनो वयणं करेहि, कहं?, जहा वेसाली घेप्पड़, थूभो नीणावितो, गणियाकूलवालाणं दोन्हवि पारिणामिगी बुद्धी | इंदत्ति, इंदपाउगातो चाणकेण चालियातो, एयं पुवं भणियं, एसावि पारिणामिया बुद्धी । पारिणामिक्या बुद्धेरेवमादीन्युदाहरणानि, उक्तोऽभिप्रायसिद्धः । संप्रति तपःसिद्धप्रतिपादनार्थमाह न किलम्मइ जो तवसा सो तवसिद्धो दढप्पहारिब । सो कम्मक्खयसिद्धो, जो सबक्खीणकम्मंसो ॥ ९५२ ॥ न क्लाम्यति-न क्लमं गच्छति यः सत्त्वस्तपसा वाह्याभ्यन्तरेण स एवंभूतस्तपः सिद्धः, अग्लानित्वात्, दृढप्रहारिवदिति गाथाक्षरार्थः । भावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम्- एगो धिजाइतो उद्देतो, अविणयं करेइ, सो ततो ताओ थाणातो नीणितो, हिंडतो चोरपल्लीमल्लीणो, सेणावइणा पुत्तोति गहितो, तंमि मयंमि सेणावती सो चैव जातो, निक्किवं चाहणइत्ति दढप्पहारी से नामं कथं, सो अन्नया सेणाए समं एवं गामं हंतुं गतो, तत्थ य एगो दरिदो, तेण पुत्तभंडाण मग्गंताण दुद्धं जाइत्ता Pur Private & Personal Use Only 189~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९५३], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत कर्मक्षयसिद्धः * सत्राक श्रीआय दिपायसं रंधावितो, सो य पहाइ गतो, चोरा य तत्थ पडिया, एमेण सो तस्स पायसो दिट्ठो, छहियति तं गहाय पहावितो, श्यकमल- ताणि खुहरूवाणि रोवंताणि पिऊमूलं गयाणि, हितो पायसो, सो रोसेणं मारेमित्ति पधावितो, महिला अवपासिता यगिरीय- ४ अच्छइ,तहावि जहिं सो चोरसेणावती तत्थ आगच्छाइ, सो य गाममझे अच्छइ, तेण सर्म महासंगामो कतो, सेणावइणा वृत्तौ नम- चिंतियं-एएण मम चोरा परिभविनंति, ततो असिं गहाय निद्दयं छिन्नो, महिला से भणइ-हा निकिय ! किमियं कयं, स्कारे पच्छा सावि मारिया, गब्भो दोविभागीकतो फुरफुरेइ, तस्स किया जाया-अधम्मो कतोत्ति, चेडरूवेहिंतो दरिद्दपउत्ती पूज्वलद्धा, ततो दढयर निवेशं गतो, को उवाओ?, साहू दिट्ठाओ अणेण, भयवं! को इत्थ उवाओ?, तेहिं धम्मो कहिओ, ॥५३४॥ सो अ से अवगतो, पच्छा चारित्तं पडिबज्जिय कम्माणमुच्छायणट्ठाए घोरं खंतिअभिग्गहं गेण्हिय तत्थेव विहरइ, ततो हीलिज्जइ हम्मइ य, सो य घोराकारं च कायकिलेसं करेइ, असणाइयं अलहंतो सम्म अहियासेइ जाच अणेण कम्म| निग्याइयं, केवलनाणं से उप्पण्णं, पच्छा सिद्धो, उक्तस्तपःसिद्धः। साम्पतं कर्मक्षयसिद्धप्रतिपादनाय गाथाचरमदलमाह-स कर्मक्षयसिद्धो यः सर्वक्षीणकम्मांशः' सर्वे-निरवशेषाः क्षीणाः कौशा:-कर्मभेदा यस्य स तथा ॥ अधुना कर्मक्षयसिद्धमेव प्रपञ्चतो निरुक्तविधिना प्रतिपादयति दीहकालरयं जंतु, कम्मं से सिअमट्टहा । सि धंतंति सिद्धस्स, सिद्धत्तमुवजायइ ॥९५३ ।। ।। दीघः, सन्तानापेक्षया अनादित्वात्, कालः-स्थितिबन्धकालो यस्य तत् दीर्घकालं, निसर्गनिर्मलजीवरञ्जनात् रजः कम्मैव भण्यते, दीर्घकालं च तत् रजश्च दीर्घकालरज, यच्छब्दः सर्वमान्यत्वात् उद्देशवचनः, यत् कर्म इत्थंप्रकारं, RECSIRKAR ACK दीप अनुक्रम [१] W॥५३४॥ ~190~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आ. सू. ९० Jan Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९५३ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तुशब्दो भव्यकर्म्मविशेषणार्थः, न खल्वभव्यकर्म्म सर्वथा ध्मायते, ततोऽयमर्थः - दीर्घकालरजो यत् भव्यकर्म तत् शेषितं - शे पीकृतं स्थित्यादिभिः प्रभूतं सत् स्थित्यनुभावसङ्ख्यापेक्षया अनाभोगसद्दर्शनज्ञानचरणाद्युपायतः शेषम्, अल्पं कृतमिति भावः, प्राकू किंभूतं सत् शेषितमित्यत आह- 'अष्टधा' ज्ञानावरणादिभेदेनाष्टप्रकारं सत् 'सितं' 'सित वर्णबन्धनयो 'रिति वचनात् 'पिज् बन्धने' इति वचनात् वा बद्धं कर्म्म ध्मावं 'धमा शब्दाग्निसंयोगयो रिति वचनात् ध्यानानलेन महाग्निना लोहमलवत् येन स सिद्धः, 'पृषोदरादय' इति इष्टरूपनिष्पत्तिः, एवं कर्म्मदहनानन्तरं सिद्धस्य सतः, किं ? - सिद्धत्वमुपजायते, नासिद्धस्य, निश्चयनयमेतत् उक्तं च- "पलालं न दहत्यग्निर्भिद्यते न घटः क्वचित् । नासाधुः (नासन् कश्चित् ) प्रत्रजितो, भव्योऽसिद्धो न सिद्ध्यति ॥ १||” उपजायते इत्यपि तत्त्वतस्तदात्मनः स्वाभाविकमेव सद् अनादिकर्म्मावृतं तदावरणविगमेनाविर्भवति, तथापि लौकिकवाचोयुक्त्या व्यवहारदेशनया उपजायते इत्युच्यते, अथवा सिद्धस्य सिद्धत्वं भावरूपमुपजायते नतु प्रदीपनिर्वाणकल्पमभावरूपं तेन यदाहुरेके - "दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरि क्षम् । दिशं न काश्चित् विदिशं न काश्चित्, स्नेहक्षयात् केवलमेति नाशं ॥ १ ॥ जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काश्चित् विदिशं न काञ्चित्, शक्षयात् केवलमेति शान्ति ॥ २ ॥' मिति तदपास्तं द्रष्टव्यम्, तथाविधसिद्धत्वभावे दीक्षादिप्रयासवैयर्थ्यप्रसङ्गात्, न खलु कश्चनापि सचेतनः स्ववधाय कंठे कुठारं प्रक्षिपतीति परिभावनीयमेतत्, न च निरन्वयविनाशो युक्तिघटामुपैति, सतः सर्वथा विनाशायोगात्, असतः खरविपाणस्येवादलस्योत्पत्स्ययोगात् ' नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत' इति वचनात्, विजृम्भितं चात्रार्थे धर्मसङ्ग्रहणि Por Private & Personal Use Only ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआव श्यकमल यगिरीय वृत्तौ नमस्कारे ॥ ५३५ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९५४ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः टीकांदाविति ततः परिभावनीयम्, प्रदीपदृष्टान्तोऽध्यसिद्धो, यतः प्रदीपपुद्गला एवं भास्वरं रूपं परित्यज्य तामसं रूपान्तरमासादयन्तीत्यलं विस्तरेण ॥ अथवा अन्यथा व्याख्यायते 'दीर्घकालरज' इति, रज इति रजः सूक्ष्मतया, स्नेहबन्धनयोग्यत्वाद्वा इत्यर्थः यद्धव्यकम्र्मेति च नैवं व्याख्यायते, साक्षात्कर्म्माभिधानेन सर्वनाम्नो निरर्थकत्वात् प्रकरणादेव भव्यस्याप्यवगम्यमानत्वात् अभव्यस्य सिद्धत्वायोगात्, ततो जन्तुकर्मेति व्याख्येयम्, जन्तुः - जीवस्तस्य कर्म्म, जन्तुग्रहणेनाबद्धकर्मव्यवच्छेदमाह, 'से' तस्य जन्तोरसितं - कृष्णमशुभं संसारानुबन्धित्वात् एवंविधस्यैव क्षयः श्रेयान् नतु शुभस्वरूपस्येति भावना, अष्टधा सितमित्यादि पूर्ववत्, प्रथमव्याख्यापक्षमधिकृत्याह तत्कर्म्म शेषं तस्य समस्थिति वा स्यादसमस्थिति वा ? न तावत् समस्थिति, विषमनिबन्धनत्वात् नाप्यसमस्थिति चरमसमये युगपत् क्षयासम्भवात् एतदयुतम् उभयथाऽप्यदोषात्, तथाहि विषमनिबन्धनत्वेऽपि सति विचित्रः क्षयसम्भव इति कालतः समस्थितिकत्वाविरोधः, चरमपक्षेऽपि समुद्घातगमनेन समस्थितिकरणभावाददोषः, न चैतत् स्वमनीषिकयोच्यते, यत आह निर्युक्तिकृत् - नाऊण बेयणिज्जं अइबहुगं आउगं च धोवागं । गंतॄण समुग्धायं खवेइ कम्मं निरवसेसं ॥ ९५४ ॥ ज्ञात्वा - केवलेनावगम्य वेदनीयं कर्म्म अतिबहु-शेषभवोपग्राहि कर्म्मापेक्षयाऽतिप्रभूतं, आयुष्कं च कम्मं तदपेक्षयैव स्तोकं, ज्ञात्येति वर्त्तते, अत्रान्तरे गत्वा वा प्राप्य 'समुद्घातं सम्यक् - अपुनर्भावेन उत्-प्राबल्येन घातः- कर्म्मणो वेदनीयादे हननं प्रलयो यत्र प्रयत्नविशेषे स समुद्घातस्तं गत्या क्षपयन्ति कर्म्म निरवशेषं निरवशेषमिव निरवशेषं प्रभूततमक्षपणात्, | शेपस्य चान्तर्मुहूर्त्तमात्रकालावधितया किंचिच्छेपत्वेन परमार्थतोऽसत्कल्पत्वात्, आह-ज्ञात्वा वेदनीयमतिवह्रित्यत्र को ••• अत्र समुद्घातस्य वर्णनं क्रियते Por Private & Personal Use Only ~192~ समुद्घातः ॥ ५३५ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९५४], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक नियमो येन तदेव बहुस्थितिकमायुपः सकाशात् भवति !, न च जातुचिदपि आयुरिति, उच्यते, तथारूपजीवपरिणामस्वाभाच्यात्, तथाहि-इत्थंभूत एवात्मनः परिणामो येनास्यायुर्वेदनीयादिसमं भवति न्यून वा, न कदाचनाप्यधिकं, यथा तस्यैवायुषः खल्वधुववन्धः, तथाहि-ज्ञानावरणादीनि कर्माण्यायुर्वजानि सप्तापि सर्वदेव बनाति, आयुस्त प्रतिनियत एव । काले स्वभवत्रिभागादिशेषरूपे, तत्रैव बन्धवैचित्र्यनियमे न स्वभावाद् यतः परः कश्चिदस्ति हेतुः, एवमिहापि स्वभावविशेष एव नियामको द्रष्टव्यः, आह च भाष्यकृत्-"असमद्वितीण नियमो को थेवं आउयं न सेसंपि । परिणामसहावातो अद्धपायबंधो व तस्सेव ॥१॥ येषां पुनर्भगवतां वेदनीयादिकमायुषा सह स्वभावत एव समस्थितिकमुपजातं ते समुद्घातं न प्रतिपद्यन्ते, तथा चाह भगवानार्यश्याम:-"अगंतूण समुग्घायमर्णता केवली जिणा । जाइमरणविप्पमुक्का, सिद्धिं वरगति गया ।। १॥" ननु प्रभूतस्थितिकस्य वेदनीयादेरायुपा सह समीकरणार्थ समुद्घातारम्भः, एतच्चायुक्तं, कृतनाशादिदोष प्रसङ्गात् , तथाहि-प्रभूतकालोपभोग्यस्य वेदनीयादेरारत एवापगमसम्पादनात् कृतनाशः, वेदनीयादिवच्च कृतस्यापि *कर्मक्षयस्य पुनर्विनाशसम्भवात् मोक्षेऽप्यनाश्वासप्रसङ्गः, तदसत्, कृतनाशादिदोषाप्रसङ्गात्, तथाहि-इह यथा प्रति-18। दिवसं सेतिकापरिभोग्येन वर्षशतोपभोग्यस्य कल्पितस्याहारस्य भस्मकव्याधिना तत्सामर्थ्यतः स्तोकदिवसैनिःशेषतः परिभोगान्न कृतनाशोपगमः, तथा कर्मणोऽपि वेदनीयादेस्तथाविधशुभाध्यवसायानुबन्धादुपक्रमेण साकल्यतो भोगान्न कृत-2 नाशरूपदोषप्रसङ्गः, द्विविधो हि कर्मणोऽनुभवः-प्रदेशतो विपाकतश्च, तत्र प्रदेशतः सकलमपि कर्मानुभूयते, न तदस्ति | किश्चित्कर्म यत्प्रदेशतोऽप्यननुभूतं सत् क्षयमुपयाति, ततः कुतः कृतनाशदोषापत्तिः ?, विपाकतस्तु किञ्चिन्न, अन्यथा अनुक्रम SMEnications ~1937 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९५४], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [१५१...], मूलं - गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप श्रीआव- निम्मोक्षप्रसङ्गात, तथाहि-यदि विपाकानुभूतित एव सर्वकर्म क्षपणीयमिति नियमस्तहिं असङ्ख्यातेषु भवेषु तथाविध- समुद्रपात श्यकमल- विचित्राध्यवसायविशेषयन्नरकगत्यादिकं कोपार्जितं तस्य नैकस्मिन् मनुष्यादावेव भवेऽनुभवः, स्वस्वभवनिबन्धनत्वाद्विपा-1 यगिरीय- कानुभवस्य, क्रमेण च स्वस्वभवानुगमेनानुभवे नारकादिभवेषु चारित्राभावेन प्रभूततरकर्मसन्तानोपचयात् तस्यापि स्वस्व-15 वृत्तौ नम- भवानुगमेनानुभवोपगमात् कुतो मोक्षः ?, तस्मात्कर्म विपाकतो भाज्यम्, प्रदेशतोऽवश्यमनुभवनीयमिति प्रतिपत्तव्यं, स्कारे एवं च कश्चिन्न दोषः, नन्वेवमपि दीर्घकालभोग्यतया यत् वेदनीयादिकं कर्मोपचितं अथ च परिणामविशेषादुपक्रमेणा रादेव तदनुभवति ततः कथं न कृतनाशादिदोषप्रसङ्गः, तदप्यसत्, बन्धकाले तथाविधाध्यवसायवशत आरादुपक्र॥५३६॥ मयोग्यस्यैव तेन बन्धनात्, अपिच-जिनवचनप्रामाण्यादपि वेदनीयादिकर्मणामुपक्रमो मन्तव्यो, यदाह भाष्यकार: “उदयक्खयक्खयोवसमोवसमा जं च कम्मुणो भणिया । दवादि पंचगं पति जुत्तमुवकमणमतोऽवि ॥१॥" न चैवं मोक्षोतापक्रमहेतुः कश्चिदस्ति येन चानाश्वासप्रसङ्गो भवेत् , मोक्षाद्धि रागादयथ्यावयितुमीशाः, ते च निर्मूलकार्षकपिता इति, ततो यदुक्तं वेदनीयादिवच कृतस्यापि कर्मक्षयस्येत्यादि, न तत्समीचीनमिति स्थितं ॥ | इह सर्वोऽपि सयोगिकेवली समुद्घातादर्वाक् आयोजिकाकरणमान्तर्मुर्तिकमुदयावलिकायां कर्मपुद्गलप्रक्षेपव्यातपाररूपमुदीरणाविशेषात्मकमारभते, अथ आयोजिकाकरणमिति कः शब्दार्थः?, उच्यते, आङ् मर्यादायां, आ-मर्यादया केवलिदृष्ट्या योजन-व्यापारणं, शुभानां योगानामिति गम्यते, आयोजिका तस्याः करणमायोजिकाकरणं, केचिदावर्जित- ॥५३६॥ करणमित्याहुः, तत्रायमन्वधः-आवर्जितो नाम अभिमुखीकृतः, तथा च लोके वक्तार:-आवर्जितोऽयं मया, सम्मुखीकृत अनुक्रम [१] 54545545 REACTOR ~194 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९५५], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत * सूत्रांक SUCCESCRICASSOCRACROGRY र इत्यर्थः, ततश्च तथाभब्यत्वेन आवर्जितस्य-मोक्षगमनं प्रत्यभिमुखीकृतस्य करणं-क्रिया शुभयोगव्यापारणमावर्जितकरणम् , अपरे आवश्यककरणमित्यूचुः, तत्राप्ययमन्वर्थः-आवश्यकेन-अवश्यंभावेन करणमावश्यककरणं, तथाहि-समुद्घातं. हाकेचित्कुर्वन्ति, इदं त्वावश्यककरणं सर्वेऽपि केवलिनः कुर्वन्ति, अन्ये आवर्जीकरणमिति वा पठन्ति, आवयं आवों वा साध्यण घण वा, मोक्षं प्रति अभिमुखीकर्तव्य इत्यर्थः, तस्य करणम् , अतत्तद्भावविवक्षायां विप्रत्यये आवर्जीकरणमिति || वा ॥ सम्प्रति समुद्घातादिस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह दंड कवाडे मंथंतरे य संहरणया सरीरत्थे । भासाजोगनिरोहे सेलेसी सिज्मणा चेव ॥९५५ ॥ द इह समुद्घातं कुर्वन् प्रथमसमये बाहल्यतः स्वशरीरप्रमाणमूर्ध्वमधश्च लोकान्तपर्यन्तमात्मप्रदेशानां दण्डमारचयति, द्वितीयसमये पूर्वापरं दक्षिणोत्तरं वाऽऽत्मप्रदेशानां प्रसारणात् पार्श्वतो लोकान्तगामि कपाटं करोति, तृतीये समये तदेव कपाट दक्षिणोत्तरं पूर्वापरं वा दिगद्वयप्रसारणात् मथिसदृशं मन्थानं लोकान्तप्रापिणमारचयति, एवं च प्रायो| लोकस्य बहु पूरितं भवति, मन्थान्तराण्यपूरितानि, जीवप्रदेशानामनुश्रेणि गमनात् , चतुर्थसमये तान्यपि मन्थान्तराणि सह लोकनिष्कुटैः पूरयति, ततश्च सकलो लोकः पूरितो भवति, तदनन्तरं यथोक्तामात् प्रतिलोमं संहरन् पञ्चमे समये मन्थान्तराणि संहरति, जीवप्रदेशान् सकर्मकान् मन्थान्तरगतान् सङ्कोचयतीत्यर्थः, षष्ठे समये मन्थानमुपसंहरति, घन|तरसङ्कोचात , सप्तमे समये कपाटं, दण्डात्मनि सङ्कोचात् , अष्टमे समये दण्डमुपसंहृत्य शरीरस्थो भवति, अमुमेवार्थ चेतसि निधायोक्तं दण्डकपाटान्तरमन्थान्तराणि संहरणेन, प्रतिलोममिति गम्यते, शरीस्थ इति वचनात् , न चैतत्स्व अनुक्रम 3 ~195 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९५५], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: A प्रत सत्राक दीप श्रीआव- मनीषिकया व्याख्यान, यत उक्तम्-दण्डं प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्धानमथ तृतीये लोकव्यापी समुद्घाता श्यकमल-18|चतुर्थे तु ॥१॥ संहरति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः षष्ठे । सप्तमके तु कपाट संहरति ततोऽष्टमे दण्ड ॥२॥-18 यगिरीय-टामिति, तत्र दण्डसमयात् प्राक् या पल्योपमासङ्घयेयभागमात्रा वेदनीयनामगोत्राणां स्थितिरासीत् तस्या बुद्ध्याऽसवेय-18 वृत्तौ नम- भागाः क्रियन्ते, ततो दण्डसमये दण्डं कुर्वन् असङ्ख्येयान् भागान् हन्ति, एकोऽसमयेयभागोऽवतिष्ठते, यश्च प्राक्त स्कारे कर्मत्रयस्यापि रसस्तस्याप्यनन्ता भागाः क्रियन्ते, ततः तस्मिन् दण्डसमये असातवेदनीय १ प्रथमवर्जसंस्थानपश्चक ५ दाप्रथमवजेसंहननपञ्चका ११ प्रशस्तवर्णादिचतुष्को १५ पघाता १६ प्रशस्तविहायोगति १७ अपर्याप्तका १८ स्थिरा १९-18 ॥५३७॥ शुभ २० दुर्भग२१ दुःस्वरा २२ नादेया २३ यश कीर्ति २४ नीचैर्गोत्र २५ रूपाणां पञ्चविंशतिप्रकृतीनामनन्तान् भागान् हन्ति, एकोऽनन्तभागोऽवशिष्यते, तस्मिन्नेव च समये सातवेदनीय १ देवगति २ मनुष्यगति ३ देवानुपूर्वी ४ मनुष्यानु-IN पूर्वी ५ पञ्चेन्द्रियजाति ६ शरीरपञ्चका ११ झोपाङ्गत्रयः १४ प्रथमसंस्थान १५ प्रथमसंहनन १६ प्रशस्तवणोदिचतुष्टया२० गुरुलघु २१ पराघातो २२ च्छ्वास २३ प्रशस्तविहायोगति २४ त्रस २५ वादर २६ पर्याप्त २७ प्रत्येका २८ ऽऽतपो-1 २९ द्योत ३० स्थिर ३१ शुभ ३२ सुभग १३ सुस्वरा ३४ देय ३५ यशःकीर्ति ३६ निर्माण ३७ तीर्थकरो ३८ चैर्गोत्र ३९-1 रूपाणामेकोनचत्वारिंशतः प्रकृतीनामनुभागोऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्ये प्रवेशेनोपहन्यते, समुद्घातमाहात्म्यमेतत् , तस्य चोद्ध रितस्य स्थितेरसङ्ख्येयभागस्यानुभागलवानन्तभागस्य यथाक्रममसख्येया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततो द्वितीये | द्राकपाटसमये स्थितेरसख्येयान् भागान् हन्ति, एकोऽवशिष्यते, अनुभागस्य चानन्तान् भागान् हन्ति, एकं मुश्चति, अत्रापि अनुक्रम -XURROCESSSSSSSS 1-60 SMEducation ~196~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९५५], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातोऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्ये प्रवेशनेन द्रष्टव्यः, पुनरप्येतस्मिन् समयेऽवशिष्टस्य स्थितेरसङ्ख्येयभागस्यानु-1 भागस्य चानन्तभागस्य पुनर्बुद्ध्या यथाक्रममसंख्येया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततस्तृतीयसमये स्थितेरसमयेयान् भागान्| हन्ति, एक असंख्यातभागं मुश्चति, अनुभागस्य चानन्तान् भागान् हन्ति, एकमनन्तभागं मुंचति, अत्रापि प्रशस्तप्रकृत्यनु-1 भागघातोऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्ये प्रवेशनेनावसेयः, ततः पुनरपि तृतीयसमयावशिष्टस्य स्थितेरसङ्घयेयभागस्य अनुभागस्य 8 चानन्ततमभागस्य बुद्ध्या यथाक्रममसङ्ख्येया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततश्चतुर्थे समये स्थितेरसझयेयान् भागान् हन्ति, |एकस्तिष्ठति, अनुभागस्याप्यनन्तान् भागान् हन्ति, एकोऽवशिष्यते, प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातः पूर्ववदवसेयः, एवं च स्थिति-| घातादि कुर्वतचतुर्थसमये स्वप्रदेशापूरितसमस्तलोकस्य भगवतो वेदनीयादिकर्मत्रयस्थितिरायुषः समयेयगुणा जाता, अनु-13 भागस्त्वद्याप्यनन्तगुणः, चतुर्थसमयावशिष्टस्य च स्थितेरसङ्ख्येयभागस्यानुभागस्य चानन्ततमभागस्य भूयो बुझ्या यथा-1 क्रममसङ्ख्येया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततोऽवकाशान्तरसंहारसमयेऽसङ्ग्येयान् भागान् हन्ति, एकं असङ्ख्येयभागं शेषीकरोति, अनुभागस्य चानन्तान् भागान् हन्ति, एक मुश्चति, एवमेतेषु पञ्चसु दण्डादिसमयेषु प्रत्येकं सामयिक कण्डकमुत्कीर्ण, समये २ स्थितिकण्डकानुभागकण्डकघातनात्, अतः परं षष्ठसमयादारभ्य स्थितिकण्डकमनुभागकण्डकं चान्तमुहूर्तेन कालेन विनाशयति, पष्ठादिषु च समयेषु कण्डकस्य प्रतिसमयमेकैकं शकलं तावदुत्किरति यावदन्तर्मुहूर्तच रमसमये सकलमपि तत्कण्डकमुत्कीर्णं भवति, एवमन्तर्मुहुर्तिकानि स्थितिकण्डकान्यनुभागकण्डकानि च घातयन् तावद्वे131दितव्यः यावत् सयोग्यवस्थाचरमसमयः, सर्वाण्यपि चामूनि स्थित्यनुभागकण्डकान्यसयेयान्यवगन्तव्यानि ॥ ACRELECCASIOSASCARD अनुक्रम ~197 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआव श्यकमल यगिरीय वृत्तौ नमस्कारे ॥ ५३८ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९५५], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः सम्प्रति समुद्घातगतस्य योगव्यापारश्चिन्त्यते - योगाश्च मनोवाक्कायाः, तत्रैषां कः कदा व्याप्रियते ?, तत्र काययोग एव समुद्घातः केवलो व्याप्रियते, न मनोवाग्योगव्यापारी, प्रयोजनाभावात् उक्तं च धर्मसारप्रकरणे - "मनोवचसी तु तदा न व्यापारयति, प्रयोजनाभावादिति, काययोगोऽपि प्रथमाष्टमसमययोरौदारिककाययोग एव द्वितीयपष्ठसप्तमसमयेषु पुनरौदारिके तस्माच्च बहिः कार्मणे बीर्यपरिस्पन्दादौदारिक कार्म्मणमिश्रः, त्रिचतुर्थपश्चमसमयेषु बहिरेवौदारिकाद्बहुतरव्यापार सद्भावात् कार्म्मणकाययोग एव, तम्मात्रचेष्टनादिति, तथा चोकमन्यत्रापि - "औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रीदारिकयोक्ता सप्तमपष्ठद्वितीयेषु ॥ १ ॥ कार्म्मणशरीरयोगी चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥ २ ॥” इति कृतं प्रसङ्गेन भाषायोगनिरोध इति कोऽर्थः १, परित्यक्तसमुद्रघातः कारणवशात् योगत्रयमपि व्यापारयति तदर्थं मध्यवर्त्तिनं योगमाह - भाषेति कथं योगत्रयमपि व्यापारयतीति चेत्, उच्यते - अनुत्तरसुरपृष्टः सत्यमसत्यमृषा वा मनोयोगं प्रयुंक्ते, आमन्त्रणादौ सत्यमसत्यामृषा वाग्योगं, नेतरौ द्वौ भेदी द्वयोरपि वीतरागत्वात् सर्वज्ञत्वाच्च, काययोगमपि औदारिकं फलकप्रत्यर्पणादौ व्यापारयति, अन्तर्मुहूर्त्तमात्रे व कालशेषे भगवान् योगनिरोधं करोति, अत्र केचिद् व्याचक्षते - जघन्यत एतावता कालेन, उत्कर्षतस्तु पङ्गिर्मासैः, तदेतदयुक्तं, 'गत्वा समुद्धातं क्षपयन्ति कम्मं निरवशेष मिति वचनात्, अन्यच - प्रज्ञापनायां योगनिरोधानन्तरं पीठफलकादीनां प्रत्यर्पणमेवोक्तं, न त्वादानमपि, यदि पुनः पण्मासानपि यावद् भगवान् तिष्ठेत् तत आदानमपि वर्षाकालादी सम्भवतीति तदप्युच्येत, न चोकं, तस्मादपव्याख्यानमेतदिति । योगनिरोधप्रतिपादनं च द्विधा-सङ्क्षेपतो विस्तरतश्च, Pur Private & Personal Use Only ~ 198~ ॥ ५३८ ॥ brary.org Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९५५], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दतत्र सझेपतो भाष्यकार-टीकाकारादयः कृतवन्तः, विस्तरतस्तु चूर्णिकारादयः, तत्र सफ़ेपत इर्द-योगनिरोधं कुर्वन् प्रथम मेव याऽसौ शरीरसम्बद्धा मनःपर्याप्तियया पूर्व मनोद्रव्यग्रहणं कृत्वा भावमनः प्रयुक्तवान् , तत्कर्मसंयोगविघटनाय जामन्त्रसामर्थेन विषमिव स भगवान् अनुत्तरेणाचिंत्येन निरावरणेन करणवीर्येण तव्यापार निरुणद्धि, तच्चवम्-'पज-1 दत्तमेत्तसंनिस्स जत्तियाई जहण्णजोगिस्स । होति मणोदवाई तबाचारो य जम्मत्तो ॥१॥ तदसंखगुणविहीणं समए समए निरंभमाणो सो । मणसो सबनिरोह करेज संखेजसमएहिं ॥२॥ वाग्योगकाययोगनिरोधमप्येवम्-"पजत्तमेत्तदियजहन्नवइजोगपज्जया जे उ । तदसंखगुणविहीणे समए समए निरंभंतो ॥१॥ सबबइजोगरोह संखातीतेहिं कुणइ समएहिं । तत्तो य सुहुमपणगस्स पढमसमयोववन्नस्स ॥ २॥ जो किर जहन्नजोगो तदसंखेजगुणहीणमेकेके । समए निरंभमाणो देहतिभागं च मुंपतो ॥ ३ ॥ संभइ स कायजोगं संखातीतेहिं चेव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो सेलेसीभावणामेति ॥४॥"विस्तरस्त्वेवम्-योगनिरोधं कुर्वन् प्रथमतो बादरकाययोगबलादन्तर्मुहर्तमात्रेण वादरवाग्योगं निरुणद्धि, क्रमेणेति शेषः, 'आलम्बनाय करणं तदिष्यते तत्र वीर्यवतः', अत्र तदिति बादरतनुरूपं, बादरमनोयोगनिरोधानन्तरं च पुनरप्यन्तर्मुहूर्त स्थित्वा तत उच्छ्वासनिश्वासावन्त हत्तमात्रेण निरुणद्धि, ततः पुनरप्यन्तर्मुहर्त स्थित्वा सूक्ष्मकाययोगबलाद्वादरकाययोगं निरुणद्धि, बादरयोगे हि सति सूक्ष्मयोगस्य निरोद्भुमशक्यत्वात् , आह च-"बादरतनुमपि निरुणद्धि ततः सूक्ष्मेण काययोगेन । न निरुध्यते हि सूक्ष्मो योगः सति बादरे योगे ॥१॥" केचिदाहुः-बादरकाययोगवलाद् बादरकाययोगं निरुणद्धि, युक्ति चात्र वदन्ति, यथा कारपत्रिका स्तम्मे स्थितस्तमेव स्तम्भ छिनत्ति, तथा बादरकाय अनुक्रम SmEnconal mantraren ~199 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९५५], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: CARSHAN सत्राक दीप अनुक्रम श्रीआव- योगोपष्टम्भावादरकाययोगं निहन्तीति, तदत्र तत्त्वमतिशयिनो विदन्ति, बादरं च काययोगं निरुन्धानः पूर्वस्पर्द्धका समुद्घात: श्यकमल-13 नामधस्तादपूर्वस्पर्द्धकानि करोति, योगस्पर्द्धकस्वरूपं च कर्मप्रकृतिटीकातः पञ्चसङ्ग्रहटीकातो वा वेदितव्यम् , यगिरीय- तत्र यानि तस्मिन् भवे पर्याप्तिपर्यायपरिणतेन सता जीवेन पूर्व कायादिव्यापारनिष्पादनार्थ कृतानि तानि पूर्वस्पर्द्धवृत्तौ नम- कान्यभिधीयन्ते, तानि च स्थूलानि, यानि पुनरधुना कर्जुमारभते तानि सूक्ष्माणि, न चैवंभूतान्यनादौ संसारे कृतानि स्कारे 18 ततोऽपूर्वाणीत्युच्यन्ते, तत्र पूर्वस्पर्धकानामधस्तात् याः प्रथमादिवर्गणाः सन्ति तासां ये वीर्याविभागपरिच्छेदास्तेषाम-IN सख्येयान् भागानाकर्षति, एकमसङ्खयेयभागं मुञ्चति, जीवप्रदेशानामपि चैकमसङ्ख्येयं भागमाकर्षति, शेष सर्व ॥५३९।। स्थापयति, एष बादरकाययोगनिरोधप्रथमसमयव्यापारः, तथा च कर्मप्रकृतिप्राभृतं “पढमसमये अपुवफडगाणि करेइ-पुवफडगाणं हेडा आइवग्गणाणमविभागपरिच्छेयणमसंखेजइभागे उक्कडइ, जीवपएसाणं चासंखेजइभागमोकहुई'त्ति," ततो द्वितीये समये प्रथमसमयाकृष्टजीवप्रदेशासङ्ख्येयभागादसङ्घयेयगुणभागं जीवप्रदेशानामाकर्षति, तावतोऽसङ्ख्येयान् भागानाकर्षतीत्यर्थः, वीर्या विभागपरिच्छेदानामपि प्रथमसमयाकृष्टात् योगात् असङ्ख्येयगुणहीनं भागमाकर्षन्ति, एवं प्रतिसमयं समाकृष्य तावदपूर्वस्पर्द्ध कानि करोति यावदन्तमुंहत्तंचरमसमयः, कियन्ति पुनः स्पर्लंकानि करोतीति चेत्, उच्यते-श्रेणिवर्गमूलस्यासङ्ख्येयभागमात्राणि, पूर्वस्पर्धकानामसङ्ख्येयभागमात्राणि इतियावत् , अपूर्वस्प ककरणान्तर्मुहानन्तरसमय एव च किट्टीरन्तर्मुहूर्त यावत् करोति, उक्तं च-"नाशयति काययोगं स्थूलं सोऽपूर्वफडकीकृत्य । शेपस्य काययोगस्य तथा किट्टीश्च स करोति ॥१॥' अथ किमिदं किट्टिरिति ?, उच्यते, एकोत्तरां| M५३९॥ ~200~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९५५), वि०भा०गाथा H, भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], (४०) प्रत सूत्रांक SEARCR दीप अनुक्रम यद्धिं च्यावयित्वा अनन्तगुणहान्यैकैकवर्गणास्थापनेन योगस्याल्पीकरणं, तत्र पूर्वस्पर्द्ध कानाम पूर्वस्पर्धकानां च याः प्रथमादिवर्गणास्तासां येऽविभागपरिकछेदास्तेषामयमसङ्ख्येयान् भागानाकर्षति, एकमसमथेयभागं स्थापयति, जीवप्रदेशानामपि चकमसळयेयभागमाकर्षति, शेष सर्व स्थापयति, एष किट्टीकरणप्रथमसमयब्यापारः, ततो द्वितीयसमये प्रथमसम-18 याकृष्टवीर्याविभागपरिच्छेदभागादसङ्ख्येयगुणवीर्याविभागपरिच्छेदानां भागमाकषति, जीवप्रदेशानां पुनः प्रथमसमयाकृष्टजीवप्रदेशासङ्ख्येभागादसोयगुर्ण भाग, तावतोऽसयेयान् भागानाकर्षतीत्यर्थः, एवं तावत् किट्टीः करोति यावदप्यन्तर्मुहूर्त्तचरमसमयः, तत्र प्रथमसमयकृताभ्यः किट्टीभ्यो द्वितीयसमयकृताः किट्टयोऽसङ्ख्येयगुणहीनाः, गुणकारश्च पल्योपमासषेयभागः, एवं शेषेष्वपि भावनीयम् , तथा चोक्तं कर्मप्रकृतिप्राभृते-' 'एत्थं अंतोमुहुत्तं किट्टीतो करेइ, असंखेजगुणहीणाए सेढीए, जीवपएसे य असंखेजगुणाए सेढीए पकडइ, किट्ठीगुणकारो पलिओवमस्स ४ असंखेजइभागों त्ति, प्रथमसमयकृताश्च किट्टयः श्रेण्यसङ्ख्येयभागप्रमाणाः, एवं द्वितीयादिसमयेष्वपि प्रत्येकमवग-18 न्तव्याः, सर्वा अपि च कित्यः श्रेण्यसक्वेयभागप्रमाणाः पूर्वस्पर्द्धकानां च सङ्ख्ययभागमात्राः, किट्टीकरणावसानानन्तरसमये एव च पूर्वस्पर्द्धकान्यपूर्वस्पर्द्धकानि च सामस्त्येन नाशयन्ति, तत्समयादारभ्य अन्तर्मुहूर्त यावत् किहि-11 गतयोगो भवति, तथा चोक्तम्-"किहिकरणे निट्ठिए ततो सेकाले पुबफड्डुगाणि अपुवफडुगाणि च सेसेइ, अंतो-18 मुहुत्तं किट्टिगयजोगो भवति" त्ति, न चात्र किञ्चिदपि करोति, ततोऽनन्तरसमये सूक्ष्मकाययोगोपष्टम्भादन्तर्मुहूर्त्तमात्रेण सूक्ष्मवाग्योगं निरुणद्धि, ततो निरुद्धसूक्ष्मवाग्योगोऽन्तर्मुहर्तमास्ते, नान्यसूक्ष्मयोगनिरोधं प्रति प्रयत्नवान् भवति, ततोऽन-13 [१] A nimeshrine ~2017 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९५५], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [१५१...], मूलं - गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 45 प्रत सत्राक 1-5-2562 स्कारे दीप अनुक्रम [१] श्रीआय-लन्तरसमये सूक्ष्मकाययोगोपष्टम्भात् सूक्ष्ममनोयोगमन्तर्मुहूर्तमात्रेण निरुणद्धि, ततः पुनरप्यन्तर्मुहुर्तमास्त, ततः सूक्ष्म- समुद्धात श्यकमल-1 काययोगबलात् सूक्ष्मकाययोगमन्तर्मुहर्तेन निरुणद्धि, तं च निरन्धानः सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति ध्यानमारोहति, तत्सा-18 यगिरीय- माद्वदनोदरादिविवरपूरणेन सङ्कुचितदेहत्रिभागवर्तिप्रदेशो भवति, आह च-"सूक्ष्मेण काययोगेन ततो निरुणद्धि, वृत्ता नम-टिसूक्ष्मवाङ्मनसी । भवति ततोऽसी सूक्ष्मक्रियस्तदा किहिगतयोगः ॥१॥ तमपि स योगं सूक्ष्मं निरुरुत्सन सर्वपर्ययानुग-IC तम् । सूक्ष्मक्रियमप्रतिपात्युपयाति ध्यानमतमस्क।॥ २॥" मित्यादि, सूक्ष्मकाययोगं च निरुन्धानः प्रथमसमये किट्टीनाम द्र सखयेयान् भागान् नाशयति, एकस्तिष्ठति, द्वितीयसमये तस्यैव चैकस्य भागस्योद्धरितस्य सम्बन्धिनोऽसझयेयान् भागान् ॥५४॥ | नाशयति, एक उद्धरति, एवं समये समये किट्टीस्तावन्नाशयति यावत्सयोग्यवस्थाचरमसमयः, तस्मिंश्च चरमसमये सर्वालाग्यपि कर्माण्ययोग्यवस्थासमस्थितिकानि जातानि, येषां च कर्मणामयोग्यवस्थायामुदयाभावस्तेषां स्थितिं स्वरूपं प्रतीत्य | समयोनां विधत्ते सामान्यतः, सत्ताकालं प्रतीत्य पुनरयोग्यवस्थासमामिति, तस्मिंश्चायोग्यवस्थाचरमसमये सूक्ष्मक्रियाऽप्रप्रतिपाति ध्यान १ सर्वाकृष्टयः २ सवेद्यस्य बन्धो ३ नामगोत्रयोरुदीरणा ४ योगः ५ शुक्लेश्या ६ स्थित्यनुभागघातश्चेति 15 सप्त पदार्था युगपद् व्यवच्छिद्यन्ते, ततोऽनन्तरसमये शैलेशी प्रतिपद्यते, सर्वसंवरं शीलं तस्येशः शीलेशः तस्येयं योगनि-12 रोधावस्था शैलेशी, इयं च मध्यमप्रतिपत्त्या इस्वपञ्चाक्षरोगिरणमात्रं कालं भवोपग्राहिकर्मक्षपणाय व्युपरतक्रियमप्र-18 ॥५४.R तिपाति ध्यानमारोहति-"आह ततो देहत्रयमोक्षार्थमनिवर्ति सर्ववस्तुगतम् । उपयाति समुच्छिन्नक्रियमतमस्कं परं ध्यानम् ॥१॥" एवं भवोपग्राहिकर्मजालं क्षपयित्वा कर्मविमोक्षसमये यावत्स्वाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावत्पदेशान् ऊर्ध्व 0-5 ~202 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९५६], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम मप्यवगाहमानो विवक्षितसमयाचान्यत् समयान्तरमस्पृशन् गच्छति, उक्तं च चूर्णी-"जत्तियाए जीवेऽवगाढो तावइयाए|8 ओगाहणाए उई उज्जुगं गच्छइ, नवकं बिइयं च समयं न फुसई"त्ति, भाष्यकारोऽप्याह-"रिउसेदि पडिवण्णो समयपएसं-16 तरं अफुसमाणो । एगसमएण सिज्झइ अह सागारोवउत्तो सो ॥१॥" तदानीं च साकारोपयोगोपयुक्तता 'सातो लद्धीतो सागारोवयोगोवउत्तस्स, नो अणागारोक्योगोवउत्तस्से' ति वचनात् , उक्तं च-"सबातो लद्धीतो जं सागारोवयोगलाभातो । तेणेह सिद्धिलद्धी उप्पज्जइ तदुवउत्तस्स ॥१॥" तत्र च गतः स भगवान् शाश्वतं कालमवतिष्ठते, तथा चाह'सिज्मणा चेवे' ति गाथार्थः ॥ साम्प्रतमनन्तरगाथायां यदुपन्यस्तं 'गत्त्वा समुद्घातं क्षपयन्ति कर्म निरवशेष'मिति, तत्र परः प्रक्षयति-समुद्घातगतानां विशिष्टः कर्मक्षयो भवतीति किमत्र निवन्धनं १, उच्यते-प्रयलविशेषः,15 किमत्र निदर्शनमित्यत आह जह उल्ला साडीया आसुं सुक्का विरल्लिया संती। तह कम्मलहुअसमए वच्चंति जिणा समुग्घायं ॥ ९५६ ॥ 18 'यथे'त्युदाहरणोपभ्यासार्थः, आद्रो साटिका, जलेनेति गम्यते, आशु-शीघ्रं शुष्यति-शोषमुपयाति, विरलिता-विस्ता-15 रिता सती, तथा तेऽपि भगवन्तो जिनाः प्रयत्नविशेषात् कर्मोदयमधिकृत्याशु शुध्यन्तीति शेषः, यतश्चैवमतः कर्मलघुता-1 समये कर्मणः-आयुष्कस्य लघुता-लघो वो लघुता, स्तोकतेत्यर्थः, तस्याः समयः-कालः कर्मलघुतासमयः, स चान्तमु 18 हर्तप्रमाणः तस्मिन् , अथवा कर्मभिलघुता कर्मलघुता, जीवस्येति सामर्थ्यादवसीयते, सा च समुद्घातानन्तरभाविन्येव आ. स. ९१ भूतोपचारं कृत्वा अनागतैव गृह्यते, तस्याः समयस्तस्मिन् , जिना ब्रजन्ति समुद्घातं-प्राक् प्रतिपादितस्वरूपमिति ॥साम्प्रतं है SMEation Frphotuspersonuluck ~203 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९५७], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: - - प्रत सत्राक श्रीआव- यदुक्तं 'शैलेशी प्रतिपद्यते सिद्ध्यति चेति तत्रासावेकसमयेन लोकान्ते सिद्ध्यतीत्यागमः, तत्र कर्ममुक्तस्य तद्देशनियमेन कर्ममुक्कोश्यकमल-1४ गतिः कथमुपपद्यते इति मा भूदव्युत्पन्नविनेयानामाशङ्केति तन्निरासार्थमाह पर्चगमनं यगिरीय-पदा लाउअ एरंडफले अग्गी धूमे य उसु धणुविमुक्के । गइपुवपओगेण एवं सिद्धाणवि गईओ(उ)॥ ९५७॥ वृत्तौ नम-1 अलाबु-तुम्ब एरण्डफलमग्निधूम इति प्रतीताः, इपु:-शरो धनुर्विमुक्तः-चापप्रेरितः, अमीषां यथा तथारूपगमनकाले स्कारे स्वभावतस्तन्निवन्धनाभावेऽपि देशादिनियतव पूर्वप्रयोगेण प्रवर्तते, एवमेव, व्यवहिततुशब्दस्य एवकारार्थत्वात् , सिद्धा-1 नामपि गतिः प्रवर्तते इत्यक्षरार्थः, भावार्थः प्रयोगनिर्दिश्यते-तत्र कर्माविमुक्तो जीवः सकृदू मेवालोकान्तादू गच्छति, ॥५४॥ असङ्गत्वेनोत्पक्षतथाविधपरिणामत्वाद् अष्टमृत्तिकालेपलिप्ताधोनिमग्नक्रमापनीतमृत्तिकालेपजलतलमयोदोवंगामितथाविधालाबुवत् , इयमत्र भावना-यथा तुम्बकस्य दर्भान्तरितशुष्काष्टमलेपलिप्तस्य नद्यादिजले निक्षिप्तस्य मृल्लेपासनापगमात् |स्वभावत एवोर्ध्व गतिः प्रवर्तते, न तिर्यग नापि जलोपरितलादपि परतः, तथा तस्यापि सिद्धस्य कर्मसङ्गाभावादू-18 | मेव गतिः प्रवत्तेते, नान्यप्रकारेण, नापि लोकोपरितनभागादपि परतः, उक्तंच-"जह मिल्लेवावगमादलाबुणोध्वस्समेवा गतिभावो । उद्धं च नियमतो नऽनहा नवा जलाउ उद्धं च ॥१॥ तह कम्मलेपविगमे गइभावोऽवस्समेव सिद्धस्स । उद्ध|| च नियमतो नऽनहा नवा लोगपरतो उ ॥२॥" तथा कर्मविमुक्तो जीवः सकृदयमेवालोकाद् गच्छति, छिन्नबन्धनत्वेन ॥५४१॥ तथाविधपरिणामत्वात् , तथारूपैरण्डफलवत्, किमुक्तं भवति, यथा एरण्डफलस्य बन्धनच्छेदनातपशुप्फकोशविगमेन। तथाविधस्वभावभावादूर्ध्वमेव गतिः, एवं विगतकर्मनिबन्धनस्य जीवस्यापि, आह च-"एरंडस्स फलं जह बंधच्छेएरियं| SAEMOCRACHRAICC दीप अनुक्रम ~ 204~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९५८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः दुयं जाइ । तह कम्मबंधणच्छेयणेरितो जाइ सिद्धोऽवि ॥ १ ॥” तथा कर्म्मविमुक्तो जीवः सकृदूर्ध्वमेवालोकात् गच्छति, तथा स्वाभाविकपरिमाणत्वात्, अग्निधूमवत् उक्तं च- "उद्धंगइपरिणामो जह जलणस्सा जहेव धूमस्स । उद्धंगतिप रिणामो सभावतो तह विमुकस्स ॥ १ ॥” तथा कर्म्मविमुक्तो जीवः सकृदूर्ध्वमेवालोकाद् गच्छति, पूर्वप्रयुक्त क्रियातथाविधसामर्थ्यात् धनुः प्रयक्षप्रेरितेषुवत् यथा धनुषा पुरुषप्रयलेन प्रयलप्रेरितस्येपोर्गतिकारणविगमेऽपि पूर्वप्रयोगात् गतिः प्रवर्त्तते एवं कर्म्मविमुक्तस्यापि जीवस्येति भावः, आह च- "जह धणुपुरिसपयत्तेरितेसुणो भिन्नदेसगमणं तु । गइकारण विगमंमिवि सिद्धं पुबधपयोगातो ॥ १ ॥ बंधच्छेयणकिरिया विरमेवि तहा विमुञ्च्चमाणस्स । तस्साऽऽलोगंतातो गमणं पुचप्पओगातो ॥ २ ॥ उपलक्षणमेतत् तेन यथा कुलालचक्रं क्रियाहेतुविगमेऽपि पूर्वप्रयोगतः सक्रियं तथा जीव| स्यापि कर्म्मणा मुध्यमानस्य पूर्वप्रयोगतो गतिरित्यपि निदर्शनं द्रष्टव्यम् उक्तं च- "जह वा कुलालचकं किरियाहेतु विरमेऽवि सक्किरियं । पुबप्पओगतोच्चिय तह किरिया मुयमाणस्स ॥ १ ॥” एवं प्रतिपादिते सत्याह कहिं पहिया सिद्धा ?, कहिं सिद्धा पट्टि ? | कहिं बुंदिं चहत्ताणं ?, कत्थ गंतूण सिज्झति ? ॥ ९५८ ॥ क्व प्रतिहताः- क प्रतिस्खलिताः सिद्धा - मुक्ताः, तथा क्व सिद्धाः तथा प्रतिष्ठिता व्यवस्थिताः, बोंदिः - तनुः शरीरमित्यनर्थान्तरं, क बोदिं त्यक्त्वा परित्यज्य व गत्वा सिद्ध्यन्ति निष्ठितार्था भवन्ति ?, अत्रानुस्वारलोपो द्रष्टव्यः, अथवा एकवचनतोऽप्येवमुपन्यासः सूत्रशैल्या अविरुद्ध एव यतोऽन्यत्रापि प्रयोगः - "वत्थगंधमलंकारं इत्थीतो सयणाणि य । अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति बुच्चइ ॥ १ ॥ इति, इत्थं चोदकेनो के सति प्रतिसमाधानमाह Por Private & Personal Use Only ~205~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९५९-९६१], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं [-/गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक श्रीआवश्यकमलयगिरीयवृत्तौ नमस्कारे ॥५४२॥ दीप अलोए पडिहया सिद्धा, लोअग्गे अ पइडिआ । इहं बुंदि चइत्ताणं, तत्थ गंतृण सिज्झति ॥ ९५९ ।। || सिद्धानां अलोके-केवलाकाशास्तिकाये प्रतिहताः-प्रतिस्खलिताः सिद्धाः, इह प्रतिस्खलनं तत्र धम्मास्तिकायाद्यभावात् तदा-1 स्थान नन्तर्यवृत्तिरेव द्रष्टव्यम्, नतु सम्बन्धे सति भित्ती लोप्टस्येव विघातः, अमूतत्वात् , तथा लोकाग्रे च-पंचास्तिकायात्मकलोकमूर्ध्नि च प्रतिष्ठिताः, अपुनरागमवृत्त्या व्यवस्थिता इत्यर्थः, तथा इह-अतृतीयद्वीपसमुद्रमध्ये बोन्दि-तनुं मुक्त्वापरित्यज्य सर्वथा, किं?, तत्र-लोकामे गत्वा-समयप्रदेशान्तरमस्पृशन् गत्वा 'सिद्ध्यन्ति' निष्ठितार्थों भवन्ति सिद्भ्यन्ति चेति गाथार्थः॥ इह 'लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता' इत्युक्तं, तत्र शिष्यः प्राह-क पुनरसी लोकान्त इत्यत आह ईसीपम्भाराए सीआए जोअणम्मि लोगंतो। बारसहिं जोयणेहिं सिद्धी सबथसिद्धाओ॥९६०॥ ईषत्प्राग्भारा-सिद्धभूमिस्तस्याः सीता इति द्वितीयं नाम, तस्या ऊर्ध्व योजनेऽतिक्रान्ते लोकान्तः, सापि च ईपत्याग्भा-* राख्या सिद्धिः सर्वार्थसिद्धाद् वरविमानादूर्ध्व द्वादशभिर्योजनैर्भवति, अन्ये तु ब्याचक्षते सर्वार्थसिद्धाद् विमानवरात् द्वाद-15 शभिर्योजनोंकान्तक्षेत्रलक्षणेति, तत्त्वं पुनः केवलिनो विदन्ति, तस्मिन् लोकान्ते ईषत्माग्भारोपलक्षिते मनुष्यक्षेत्रपरिमाणे सिद्धाः प्रतिष्ठिताः, उक्कं च-"अत्थीसीपन्भारोवलक्खियं मणुयलोगपरिमाणं । लोगग्गनभोभागो सिद्धक्खेत्तं जिणक्खायं १॥" साम्प्रतमस्याः प्रारभारायाः स्वरूपब्यावर्णनायाह | ॥५४२॥ निम्मलदगरयवना तुसार-गोखीर-हारसरिवन्ना । उत्ताणयछत्तयसंठिआ अ भणिआ जिणवरेहिं ॥९६१॥द दकरजः-उदककणिका निर्मलं च तत् दकरजश्च निर्मलदकरजस्तस्येव वर्णो यस्याः सा निर्मलदकरजोवर्णा, तुषारो-12 अनुक्रम ... अत्र सिद्धशीलाया: स्वरुपम् उच्यते ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९६२-९६४], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक हिमं गोक्षीरहारौ प्रतीती, तैः सदृक्-तुल्यो वणों यस्याः सा तुषारगोक्षीरहारसम्वर्णा, वर्ण उपदर्शितः, संस्थानमुपदर्शयति-उत्तानच्छत्रवत् संस्थिता उत्तानच्छत्रसंस्थिता जिनवरणिता ॥ सम्प्रति परिधिप्रतिपादनेनास्या एवोपायतः प्रमाणमिधित्सुराह| एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई । तीसं चेव सहस्सा दो चेव सया अउणवना ॥ ९६२ ।। | इह ईषत्प्रारभाराया गणनया आयामविष्कम्भाभ्यां पञ्चचत्वारिंशद् योजनलक्षाणि प्रमाणम्, अतो 'विक्खंभवग्गदह गुणकरणी वट्टस्स परिरयो होइ' इति परिधिगणितेन परिधिपरिमाणमेका योजनानां कोटी द्वाचत्वारिंशत् शतसहस्राणि 18त्रिंशत्सहस्राणि द्वे शते एकोनपञ्चाशदधिके १४२३०२४९, शेष त्वधिकमल्पत्वान्न विवक्षित, प्रज्ञापनातो वाऽवसेयमिति ॥8 साम्प्रतं अस्या एव बाहल्यं प्रतिपादयति बहुमज्झदेसभाए अट्टेव य जोयणाई बाहलं । चरिमंतेसु अ तणुई अंगुलसंखिजईभागं ॥९६३ ॥ मध्यदेशभाग एव बहुमध्यदेशभागो, बहुशब्दस्य स्तोकपरिहारार्थमात्रत्वात् , स च बहुमध्यदेशभाग आयामविष्कम्भादाभ्यामष्टयोजनप्रमाणः, तत्र बाहल्यं-उच्चस्त्वमष्टैव योजनानि, ततो यथोक्तप्रमाणात् बहुमध्यदेशभागात् बाहल्यमपेक्ष्य मात्रया तन्वी भवन्ती चरमान्तेषु-पश्चिमान्तेषु अङ्गुलसङ्ख्येयभागं यावद्-अङ्गुलसङ्ख्येयभागमात्रा तन्वी । सा पुनरतेन क्रमेणेत्थं तन्वीति दर्शयति गंतॄण जोयणं जोयणं तु परिहाइ अंगुलपुहुतं । तीसेवि अ पेरते मच्छिअपत्ताउ तणुअपरा ॥ ९६४॥ । CCXXCSCARS अनुक्रम [१] SMEncota Frphotuspersonuluck ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्री आव श्यकमलयगिरीयवृत्ती नम का ॥ ५४३ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्ति: [ ९६५-९६७ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१५१...], मूलं [- / गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः यथोक्तप्रमाणात् बहुमध्यदेशभागात् परतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च योजनं योजनं गत्वा अङ्गुलपृथक्त्वं - नवा झुलप्रमाणं 'परिहाइ' त्ति परिहीयते, एवम् अनेन प्रकारेण हानिभावे सति तस्याः - तावत्प्रमाणमहत्याः पृथिव्याः, अपिशब्दो भिन्नक्रमे, मक्षिकापत्रादपि तनुतरा, किमुक्तं भवति ?, घृतपूर्णतथाविधकरोटिकाकारेति भावः स्थापना अस्याश्चोपरि योजनचतुर्विंशतिभागे सिद्धाः, तथा चाह ईसीभारा उबरिं खलु जोअणस्स जो कोसो । कोसरस य छन्भाए सिद्धाणोगाहणा भणिआ ।। ९६५ ।। प्राग्भारायाः पृथिव्या उपरि यत् खलु योजनं तस्य योजनस्य उपरितनः क्रोशो-गव्यूतं तस्य क्रोशस्योपरितने भागे सिद्धानामवगाहना तीर्थकरगणधरैर्भणिता, 'लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता' इति वचनात् ॥ अमुमेवार्थ समर्थयमान आह तिणि सया तित्तीसा धणुत्तिभागो अ कोसभाए । जं परमोगाहोऽयं तो ते कोसस्स छन्भाए ॥ ९६६ ॥ यत् यस्मात् परमः - उत्कृष्टः सिद्धानामयमवगाहो वर्त्तते, त्रीणि धनुषां शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि धनुषस्त्रिभागश्च, एवंप्रमाणश्च क्रोशस्य षङ्गागः, ततः तस्मात् कोशस्य पड्भागे सिद्धा इत्युक्तम् ॥ अथ कथं पुनस्तत्र तेषामुपपातोऽवगाहना चेत्यत आह उत्ताउन पासिल अहवा निसन्नाओ चैव । जो जह करेइ कालं सो तह उवबजाए सिद्धो ॥ ९६७ ॥ उत्तान एव उत्तानकः पृष्ठतोऽर्द्धावनतादिस्थानतः, पार्श्वस्थितो वा तिर्यकूस्थितो वा, अथवा निषण्णश्चैवेति प्रक ~ 208~ सिद्धानां स्थानं ॥ ५४३ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९६८-९७०], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [१] SESSASSORSECCered लाटा, किंबहुना !, यो यथा-येन प्रकारेणावस्थितः सन् कालं करोति स तथा-तेन प्रकारेणोपपद्यते सिद्ध इति ॥ किमित्येतदेवमत आह इहभवभिन्नागारो कम्मवसातो भवंतरे होइ । न य तं सिद्धस्स जओ तम्मिचि तो सो तयागारो ॥९३८॥ ला इहभवाद्-अधिकृतभयात् भिन्नाकारः इहभवभिन्नाकारो जीवः कर्मवशात्-कर्मवशेन भवान्तरे-स्वर्गादौ भवति, शीतदाकारभेदस्य कर्मभेदनिवन्धनत्वात् , न च तत्कर्म आकारभेदनिबन्धनं यतो-यस्माद् अस्ति ततः तस्मिन्-अपवर्गे असौ-सिद्धस्तदाकार:-पूर्वभवाकारः ॥ तथा किञ्च जं संठाणं च(तु) इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयम्मि । आसीअ पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स ॥९६९॥ । यदेव, तुशब्दस्य व्यवहितस्यैवकारार्थत्वात् , संस्थानं इह-मनुष्यभवे भवं-संसारं मनुष्यभषं वा त्यजतः सतश्चरमस-12 मये आसीत् प्रदेशघनं तदेव संस्थानं तत्र तस्य भवति ॥ तच्च मनुष्यभवशरीरापेक्षया त्रिभागहीन, त्रिभागेन रन्ध्रपूर*णात्, तथा चाहदीहं वा हस्सं वाजं चरिमभवे हविज संठाणं तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिआ॥ ९७०॥ दीर्घ वा-पञ्चधनुःशतप्रमाणं, इस्वं वा-हस्तद्वयप्रमाणं, चशब्दान्मध्यम वा विचित्रं, यच्चरमभवे संस्थानं ततः-तस्मात् संस्थानात् त्रिभागहीना सिद्धानां अवगाहना-अवगाहन्ते अस्यामित्यवगाहना-स्वावस्थैव भणिता तीर्थकरगणधरैः, कस्मा51 त्रिभागहीनेति चेत्, उच्यते, इह देहे त्रिभागः शुषिरं, ततो योगनिरोधकाले तथाविधप्रयत्नभावतः शुपिरापूरणतस्त्रि ~209~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९७१], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत श्यकमल-IN सत्राक दीप श्रीआव- भागहीनो जातो,न च वाच्य-संहरणं तावत् प्रदेशानां संभवति, ततः प्रयाविशेषतः प्रदेशमात्रोऽपि कस्मामावतिष्ठते सिद्धानां इति !, तथाविधसामर्थ्याभावात् , योगनिरोधकालेऽद्यापि सकर्मकात् तथा जीवस्वाभाव्याच्च, उकंच-"संहारसंभवा- स्थानं यगिरीय- ओ पएसमित्तंमि किंन संठाइ ? | सामथाभावातो सकम्मयातो सभावातो॥१॥" ततः सिद्धोऽपि तदवस्थ एव भवति, आह च-"देहतिभागो सुसिरं तप्पूरणतो तिभागहीणो उ । सो जोगनिरोहे च्चिय जाओ सिद्धोऽपि तदवत्थो ॥१॥"नच स्कारे I सिद्धस्य सतः प्रदेशसंहारसम्भवः, प्रयत्नाभावाद् , अप्रयत्नस्य गतिरेव कथमिति चेत्, उच्यते, समाहितमेतदसङ्गत्वादिहेतु-1 भिरिति, उच-"सिद्धोवि देहरहितो सपयत्ताभावतो न संहरइ । अपयत्तस्स किह गई ? नणु भणियमसंगयादीहिं ॥१॥" ॥५४४॥ साम्प्रतमुत्कृष्टादिभेदमवगाहनामानमभिधित्सुराहतिन्नि सया तित्तीसा धणुत्तिभागो य होइ बोद्धयो । एसा खलु सिद्धाणं उकोसोगाहणा भणिआ ॥९७१॥ त्रीणि धनुषां शतानि त्रयस्त्रिंशानि-त्रयस्त्रिंशदधिकानि धनुविभागश्च बोद्धव्यः, एषा-एतावत्प्रमाणा खलु सिद्धानामुत्कृटावगाहना भणिता तीर्थकरगणधरैः, ननु भगवती मरुदेच्यपि सिद्धा, सा च नाभिकुलकरपक्षी, नामेश्च शरीरप्रमाणं पञ्चधनुःशतानि पञ्चविंशत्यधिकानि, यावच्च शरीरप्रमाणं कुलकराणां तावदेव तत्पलीनामपि 'संघवर्ण संठाणं उच्चत्तं |चेव कुलगरेहि सममिति वचनात् , ततो मरुदेव्या अपि शरीरप्रमाणं पञ्चधनुःशतानि पञ्चविंशत्यधिकानीति, तस्य त्रि-181 ॥५४४॥ भागे पतिते सिद्धावस्थायाः सा नि त्रीणि धनुःशतानि अवगाहना प्रामोति, कथमुक्तप्रमाणा सिद्धानामुत्कृष्टाऽवगाहनेति, नैष दोषः, नाभिकुलकरमानाद्धि प्रमाणतोऽसौ किञ्चिन्न्यूना, तथा सम्प्रदायात् , ततः साऽपि पञ्चधनुःशतप्रमाणैवेत्यदोषः, अनुक्रम SMEducational ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९७२-९७३], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक यश्च 'कुलगरेहि सम' मित्यतिदेशः सोऽपि कियता न्यूनाधिक्येऽपि अतिदेशानामागमे दर्शनादबाधकः, अथवा भगवती हस्तिस्कन्धाधिरूढा सती सिद्धा, हस्तिस्कन्धाधिरूढा च सङ्कचिताङ्गीति यथोक्तावगाहनाया अविरोधः, उक्तं च-"किह आमरुदेवीमाणं ! नाभीतो जेण किंचिदणा सा । सा किर पंचसयश्चिय अहवा संकोयतो सिद्धा ॥१॥" अधुना है। (मध्यमावगाहनामानमाहचत्तारि अ रयणीओ रयणि तिभागूणिआ अ योद्धवा । एसा खलु सिद्धाणं मझिमओगाहणा भषिया ॥९७२।। चत्वारो रलयो-हस्ताः रखित्रिभागोना-हस्तत्रिभागोना बोद्धव्याः, एषा-एतावत्प्रमाणा खलु सिद्धानामगाहना भणिता, ननु जघन्याजघन्यत्वनिषेधपरं सूत्रमिदं, नत्वेतावदेव मध्यमावमाहनामानं, हस्तद्वयादूर्व पक्षधनुःशतेभ्योऽवाक् सर्वत्रापि | मध्यमावगाहनाभावात् ॥ सम्प्रति जघन्यावगाहनाप्रतिपादनार्थमाहएगा य होइ रयणी अट्ठेव य अंगुलाई साहीआ। एसा खलु सिद्धाणं जहन्नओगाहणा भणिआ॥ ९७३ ॥ एका रतिः अष्टावेव चागलानि साधिका, अष्टभिरडलरधिका इत्यर्थः, एषा-एतावत्प्रमाणा खल्लु सिद्धानां जघन्यावगाहना भणिता, एषा च द्विहस्तप्रमाणानां कुर्मापुत्रादीनामवसातव्या, अन्ये ब्रुवते-सप्तहस्तानामेव यनपीलनादिना संव-| हार्तितगात्राणां सतां सिद्धानामवगन्तच्या ॥ ननु आगमे सिद्धिजघन्यपदे सप्तहस्तोच्छूितानामभिहिता, ततः कथं उच्यतेद्र द्विहस्तप्रमाणानां कूर्मापुत्रादीनां ?, उच्यते, सा जघन्यपदे सिद्धिस्तीर्थकरानधिकृत्योका, शेषाणां तु केवलिनां सिद्धिर्द्धिहस्त प्रमाणानामप्यविरुद्धैत्यदोषः, उकं च-"सत्तुस्सिएम सिद्धी जहन्नतोकिहमिहं विहत्थेसु । साकिर तिथवरेसु सेसाणमियं तु अनुक्रम [१] SMEnication ~211 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९७४], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक 30-60 दीप सिद्धाणं ॥१॥ ते पुण होज विहत्था कुम्मीपुत्तादयो जहन्नेणं । अन्ने संवट्टियसत्तहत्थसिद्धस्स हीणत्ति ॥२॥" अथवा | सिद्धानां श्यकमल- यदिदं सूत्रे जघन्यमानमुक्तम्-सप्त हस्ताः उत्कृष्टं पञ्च धनु शतानि तद् बाहुल्यमधिकृत्योक्तम् , अन्यथा अङ्गुलपृथक्त्वैर्जघन्य स्थानं यगिरीय-हापदे धनुःपृथक्त्वैरत्कृष्टपदे यथाक्रम हीनमभ्यधिकं वा तद् वेदितव्यम् , तेन कूर्मापुत्रमरुदेव्यादिभिर्न कश्चिद्विरोधः, न वृत्ती नम- खलु आश्चर्यादिकं किंचित् सामान्यश्रुते सर्वमुक्तमस्ति, अथ च अनिबद्धमपि तदस्तीति श्रद्धीयते, पञ्चशतादेशषचनवत् , स्कारे तथेदमपि सिद्धिं गच्छतो द्विहस्तमानं सपादपञ्चधनु शतमानं (च) श्रद्धीयतामिति, उक्तं च-"बाहलतोय सुत्तमि सत्त पंच दय जहन्नमुकोसं । इहरा हीण-भहियं होजंगुलधणुपुहुत्तेहिं ॥१॥ अच्छेरयादि किंचिवि सामन्नसुए न देसियं सवं । होज ॥५४५॥ व अनिबद्धं चिय पंचसयादेसवयणं व ॥२॥" सांप्रतमुक्तानुवादेनैव संस्थानलक्षणं सिद्धानामभिधातुकाम आह | ओगाहणाय सिद्धा भवतिभागेण होति परिहीणा । संठाणमणिस्थंस्थं जरामरणविप्पमुकाणं ॥९७४ ॥ अवगाहनया सिद्धा भवत्रिभागेन-भवगतशरीरत्रिभागेन परिहीना भवन्ति, ततस्तेषां जरामरणविप्रमुक्तानां संस्थानमनित्थंस्थं वेदितव्यम् , इत्थंप्रकारमापनमित्थं इत्थं तिष्ठतीति इत्वंस्थं न इत्थंस्थमनित्थंस्थ, न केनचिदपि लौकिकेन प्रकारेण| स्थितमितिभावः । इयमत्र भावना-योगनिरोधकाले देहविभागस्य शुपिरस्य प्रदेशैरापूरणात् पूर्वसंस्थानान्यथाव्यवस्थानतः अनियताकारसंस्थानम् , अनियताकारत्वादेव च तदनित्वंस्थमुच्यते, नतु सर्वथा तदभावतः, सिद्धादिगुणेष्वपि यः ॥५४५॥ सिद्धानां 'से न दीहे, न रहस्से' इत्यादिवचनेन दीर्घहस्वादीनां प्रतिषेधः सोऽप्यनित्थंस्थसंस्थानत्वादवसेयो, न पुनः सर्वथा। हा तेषामभावतः, उक्तंच-"सुसिरपडिपूरणातो पुवागारं तहाणवत्थातो । संठाणमणित्थंत्थं जं भणिय अणिययागारं ॥१॥ अनुक्रम ~212 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९७५-९७६], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक KAMACAREERE ही एसोचिय पडिसेहो सिद्धाइगुणेस दीहयाईणं । जमणियंत्थं पुषागारावेक्खाए नाभावो ॥२॥" आह-किमेते सिद्धा देशभेदेन स्थिता उत नेति, उच्यते, नेति बेमः, कुत इति चेत्, उच्यते, यस्मात्४॥ जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का । अन्नोन्नसमोगाढा पुट्ठा सबे य लोगंते ॥ ९७५॥ यत्रैव चशब्दस्यैवकारार्थत्वाद् देशे एकः सिद्धो-निवृतः तत्रानंता भवक्षयविमुक्ताः भवक्षयेण विमुक्ता भवक्षयविमुक्ताः, अनेन स्वेच्छया भवावतरणशक्तिमत्सिद्धव्यवच्छेदमाह, अन्योऽन्यसमवगाढाः तथाविधाचिन्त्यपरिणामवत्त्वात् धर्मास्तिकायादिवत्, 'पुट्ठा सबे य लोगते' इति स्पृष्टा-लग्नाः सर्वे लोकान्ते, पाठान्तरं वा 'पुट्ठो सहिं लोगतो' स्पृष्टः सर्वेर्लोकान्तः 'लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता' इति वचनात् । तथा फुसइ अणते सिद्धे सबपएसेहिं सवतो सिद्धो । तेऽवि असंखेज्वगुणा देसपएसेहिं जे पुट्ठा ॥ ९७६ ।। स्पृशत्यनन्तान सिद्धान् सर्वप्रदेशैरात्मसंबन्धिभिः 'नियमसो'त्ति नियमतो-नियमेन सिद्धः, तथा तेऽप्यसंख्येयगुणा वर्तन्ते ये देशप्रदेशैः स्पृष्टाः, ते केभ्योऽसंख्येयगुणा इति चेत्, उच्यते, सर्वप्रदेशस्पृष्टेभ्यः, कथमिति चेत् , उच्यते, इह एकस्य सिद्धस्य यदवगाहनाक्षेत्रं तत्रैकस्मिन्नपि परिपूर्ण क्षेत्रे अवगादास्तेऽनंताः, ये च मूलक्षेत्रादेकप्रदेशवृक्याऽवगा- 11 ढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, एवं द्वित्रिचतुष्पश्यादिप्रदेशवृद्ध्या ये अवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, तथा तस्य मूलक्षेत्रस्य एकैकं प्रदेश परित्यज्य येऽवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, एवं द्वित्रिचतुष्पञ्चप्रदेशाविहान्या ये अवगादास्तेऽपि प्रत्येकम-IN नन्ताः, एवं च सति प्रदेशपरिवृद्धि हानिभ्यां ये समवगाढास्ते परिपूर्णक्षेत्रावगाढेभ्योऽसंख्येयगुणा भवन्ति, असंख्येयप्रदे| SAGACASANGRESCENCR अनुक्रम [१] ~213 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [3] श्रीआव श्यकमलयगिरीय वृत्तौ नमरकारे ॥५४६ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति:) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ ९७७ ९७८ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५१...] मूलं [- / गाथा-], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः शात्मकेकसिद्धा वगाहक्षेत्रे प्रतिप्रदेश परिवृद्धिहानिभ्यां प्रतिप्रदेशमनन्तानां सिद्धानामवगाहनात् ॥ स्थापना चेयम् । उक्त च-"एकवखेचेऽणंता पएसपरिवडिहाणिए तत्तो । होंति असंखेज्जगुणाऽसंखपएसो जमवगाहो ॥ १ ॥” सांप्रतं सिखानेव लक्षणतः प्रतिपादयति असरीरा जीवघणा उबउत्ता दंसणे य णाणे य । सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ ९७७ ॥ अविद्यमानशरीराः अशरीराः, औदारिका दिपञ्चविधशरीररहिता इत्यर्थः, जीवाश्च ते घनाश्च शुषिरापूरणात् जीवघनाः, उपयुक्ता दर्शने च केवलदर्शने ज्ञाने च केवलज्ञाने । इह सामान्यसिद्धलक्षणमेतदितिज्ञापनार्थं सामान्यालंबनदर्शनाभिधानमादावुक्तम्, तथा च सामान्यविषयं दर्शनं विशेषविषयं ज्ञानं तत् साकारानाकारं - सामान्यविशेषरूपं लक्षणं तदन्यव्यावृत्तं स्वस्वरूपम् एतद् अनन्तरोकम् तुशब्दो निरुपमसुखसंचयार्थः, सिद्धानां निष्ठितार्थानामिति ॥ संप्रति केवलज्ञानदर्शनथोर शेष विषयतामुपदर्शयति- केबलनाशुवत्ता जाणंती सवभावगुणभावे । पासंति सबतो खलु केवलदिट्टीहिं णंताहिं ॥ ९७८ ॥ ज्ञानेोपयुक्ताः, न त्वन्तःकरणेन तदभावात्, केवलज्ञानोपयुक्ताः जानन्ति - अवगच्छन्ति - सर्वभावगुणभावान् सर्वपदार्थगुणपर्यायान् प्रथमो भावशब्दः पदार्थवचनः, द्वितीयः पर्यायवचनः, गुणपर्यायभेदस्त्वयं सहवर्तिनो गुणाः, क्रमवर्तिनः पर्यायाः, तथा पश्यन्ति सर्वतः खलु खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् सर्वत एव केवलदृष्टिभिरनन्ताभिःकेवलदर्शनैरनन्तैः, अनन्तत्वात् सिद्धानाम् इद्दादी ज्ञानग्रहणं प्रथमतया तदुपयोगस्थाः सिध्यन्तीति ज्ञापनार्थम् । ~ 214~ सिद्धानां स्थानं ॥ ५४६ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९७९-९८१], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक आह-किमेते युगपज्जानन्ति पश्यन्ति च आहोस्विदयुगपदिति, उच्यते, अयुगपत् , कथमेतदवसीयते इति चेत्, यत आह नाणंमि वंसणमि य एत्तो एगयरयंमि उवउत्ता। सबस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उबओगा॥९७९॥ है। ज्ञाने दर्शने च एत्तो' त्ति अनयोः एकतरस्मिन् उपयुक्ताः, "कि' मिति !, यतः सर्वस्य केवलिनः सतो युगपद्-एकस्मिन् काले द्वोन स्त उपयोगी, तत्स्वाभाब्यात् , क्षायोपशमिकसंवेदने तथादर्शनात् , अत्र बहु वक्तव्यं तच्च नंद्यध्यय-18 नटीकातोऽवसेयमिति ॥ सांप्रतं निरुपमसुखभाजस्ते इत्युपदर्शयन्नाहनवि अस्थि माणुसाणं तं सोक्खं नविय सबदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं अबाबाहं उवगयाणं ॥९८०॥ नैवास्ति मानुपाणां-चक्रवादीनामपि तत् सौख्यं, न चैव देवानामनुत्तरसुरपर्यन्तानामपि, यत् सिद्धानां सौख्यं अ-15 व्याबाधमुपगतानां-विविधा आबाधा व्यावाधा न च्याबाधा अव्यावाधा तां उप-सामीप्येन गतानां प्राप्तानां ॥ यथा दिनास्ति तथा भङ्गयोपदर्शयति सुरगणसुहं समत्तं सवापिंडियं अणंतगुणं । नय पावइ मुत्तिसुहं णंताहिवि वग्गवरहिं ॥९८१॥ सुरगणमुखं समस्त-समस्तदेवसंघातसुखं समस्त-संपूर्ण, अतीतानागतवर्तमानकालोद्भवमित्यर्थः, पुनः 'सर्वाद्धापिंडितं' मा.सू.९२ .९२/8 सर्वकालसमयैगुणितं, ततः पुनरप्यनंतगुणम् , किमुकं भवति ?-सर्वाद्धासमयगुणितं सत् यावत्प्रमाणं भवति तावत्प्रमाणं किलासत्कल्पनया एककस्मिन्नाकाशप्रदेशे स्थाप्यते, इत्येवं सकललोकाकाशानन्तप्रदेशपूरणलक्षणेनानन्तगुणकारेण गुणि CARDAMACHAR अनुक्रम [१] SMEducational ~215 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९८२-९८३], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप श्रीआव-1 समिति, एवंप्रमाणस्य सतः पुनर्वग्! विधीयते, तस्यापि वर्गितस्य भूयो वर्गः, एक्मनन्तर्गपवर्गित तथापि तथाप्रकर्षगल-II श्यकमल-15 मपि मुक्तिसुर्ख-सिद्धिसुखं न प्राप्नोति ॥ तथा चैतदभिहितार्थानुवाद्याहयगिरीय- सिद्धस्स सुहो रासी सबद्वापिंडितो जइ हवेजा। सोऽणंतवग्गभइतो सवागासे म माइजा ॥ ९८२॥ वृत्तो नम-12 सिद्धसम्बन्धी सुखानां राशिः, सुखसंघात इत्यर्थः, सर्वाद्धापिण्डित:-सर्वकालसमयगुणितः सबागासे न माइज्जतीस्कारे दित्यादि, अन्यथा नियतदेशावस्थितिस्तेषां कथमिति सूरयोऽभिदधतीति । तथा चैतत्संवाचावेदेऽप्युक्तमित्यलं व्यासेनेति।। ........INसांप्रतमेवंरूपस्यापि सतोऽप्यस्य निरुपमतां प्रतिपादयति॥५४७॥ जह नाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे वियाणंतोन चएइ परिकहेउं उवमाइ तर्हि असंतीए॥९८३ ॥ ट्रायथा नाम कश्चित् म्लेच्छो नगरगुणान् सद्गृहनिवासादीन् बहुविधान-अनेकप्रकारान् विजानन् अरण्यगतः सन् अन्यम्ले च्छेभ्यो न शक्नोति परिकथयितुम् , कुतो निमित्तादित्यत आह-उपमायां तत्रासत्या, तद्विषये उपमाया अभावादिति भावः । एष गाथाक्षरार्थः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-एगो महारण्णवासी मिच्छो रणे चिइ, इतो य-एगो| दाराया आसेण अवहरितो तं अडविं पवेसितो, तेण विट्ठो, सकारेऊण जणवयं नीतो, रण्णावि सो नगरमाणितो, पच्छा Vउवगारित्तिगाढमुवचरितो, जहा राया तहा चिट्ठइ, धवलपराइभोगेणं विभासा, काले रणं सरिसमाढत्ती, रण्णा ॥५४७॥ ४ा विसज्जितो, ततो रण्णिगा पुग्छंति-केरिसं नगरंति !, सो बियाणंतोबि तत्थोवमाभावा न सक्का नगरगुणे परिकहे ।। एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः अनुक्रम mastrine |... अत्र सिद्धानां सौख्यं वर्णयते ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९८४-९८५], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक इय सिद्धाणं सोक्खं अणोवम नत्थि तस्स ओवम्म । किंचिबिसेसेणेत्तो सारिक्खमिणं सुणह वोच्छं॥९८४ ॥ 8 इति-एवमुक्तेन प्रकारेण सिद्धानां सौख्यमनुपमं वर्तते, किमित्यत आह-यतो नास्ति तस्य औपयं-उपमीयमानता, उपमानासंभवात् , तथापि चात्मनः प्रतिपत्तये किंचिद्विशेषेण 'एत्तो' त्ति आर्षत्वाद् अस्याः सादृश्यमिदं-वक्ष्यमाणलक्षणं शृणुताहं वक्ष्ये इति ॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति जह सबकामगुणियं पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई । तण्हाछुहाविमुको अच्छेज जहा अमियतत्तो॥ ९८५॥ KI यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, सर्वकामगुणितं-सकलसौन्दर्यसंस्कृतं, भोजनं भुज्यते इति भोजनं 'कृबहुल' मिति वचदिनात् कर्मण्यनद्, कश्चित् पुरुषो भुक्त्वा तृक्षुद्विमुक्तः सन् यथा आसीनः अमृततृप्तः, आवाधारहितत्वात् । इह बरसनेन्द्रियमधिकृत्येष्टविषयप्राप्त्या औत्सुक्यविनिवृत्तेः सुखप्रदर्शनं सकलेन्द्रियार्थावास्या शेषौत्सुक्यनिवृत्त्युपलक्षणार्थः, अन्यथा वार्धातरसंभवतः सुखाभावः स्यात्, सर्वबाधाविगमेन चात्र प्रयोजनम् , उक्तं च-"वेणुवीणामृदङ्गादिनादद युक्तेन हारिणा । श्लाघ्यस्मरकथावद्धगीतेन स्तिमितः सदा ॥१॥ कुट्टिमादिविचित्राणि, दृष्ट्वा रूपाण्यनुत्सुकः । लोचनान न्ददायीनि, लीलावन्ति स्वकानि हि ॥२॥ अम्बरागुरुकर्पूरधूपगन्धानितस्ततः । पटवासादिगन्धांध, व्यक्तमानाय निःस्पृहः ॥३॥ नानारससमायुक्त, भुक्त्वाऽन्नमिह मात्रया । पीत्वोदकं च तृप्तात्मा, स्वादयन् स्वादिमं शुभम् ॥४॥ मृदुतूलीसमाक्रान्तदिव्यपर्यकसंस्थितः । सहसाऽम्भोदसंशब्दश्रुतेर्भयपनं भृशम् ॥ ५॥ इष्टभार्यापरिष्वततद्रतांतेऽथवा LSOCCASSOCCASSAGES अनुक्रम KHESARORSCA4%AAS RECE ~217 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९८६-९८८], विभा गाथा , भाष्यं [१५१..], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक IPL स्कारे | ॥५४८॥ दीप श्रीआव- नरः । सर्वेन्द्रियार्घसंप्राप्त्या, सर्वाबाधानिवृत्तिजम् ॥ ६॥ यद्वेदयति संहृय, प्रशान्तेनान्तरात्मना । मुक्तात्मनस्त- सिद्धश्यकमल- तोऽनंतं, सुखमाहुर्मनीषिणः ॥ ७॥ इति ॥ सौख्यं यगिरीय इय सबकालतित्ता अउलं निवाणमुवगया सिद्धा। सासयमवावाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥९८६॥ वृत्तौ नम- इति-एवमुक्तेन प्रकारेण सर्वकालतृप्ताः, स्वस्वभावावस्थितत्वात् , अतुलं निर्वाणमुपगताः सिद्धाः, सर्वदा सकलौत्सुक्य निवृत्तेः, यतश्चैवमतः शाश्वत-सर्वकालभावि, अव्यावाध-व्याबाधपरिवर्जितं सुखं प्राप्ताः सुखिनस्तिष्ठन्ति । अथ सुखं| प्राप्ता इत्युक्त सुखिन इत्यनर्षकं, नैप दोषः, अस्य दुःखाभावमात्रमुक्तिसुखनिरासेन वास्तवसुखप्रतिपादनार्थत्वात् , तथा हाहि अशेषदोषक्षयतः शाश्वतमव्यायाधं सुखं प्राप्ताः सन्तः सुखिनस्तिष्ठन्ति, न तु दुःस्वाभावमात्रान्विता एवेति ॥ सांप्रतं वस्तुतः सिद्धपर्यायशब्दान् प्रतिपादयति|सिद्धत्ति अबुद्धत्ति य पारगयत्ति य परंपरगयत्ति य । उम्मुफकम्मकवया अजरा अमरा असंगा य ॥९८७॥ सिद्धा इति कृतकृत्यत्वात् , बुद्धा इति केवलज्ञानदर्शनाभ्यां विश्वावगमात्, पारगता इति भवार्णवपारगमनात्, परंपरागता इति पुण्यवीजसम्यक्त्वज्ञानचरणक्रमतत्प्रतिपत्त्युपायमुक्तत्वात् परम्परया गताः परम्परागताः उन्मुक्तकर्म-19 8कवचाः सकलकर्मवियुक्तत्वात् , तथा अजरा वयसोऽभावात् , अमरा आयुषोऽभावात् , असाच सकलक्लेशाभावात् ॥ ५४८॥ साम्प्रतमुपसंहरतिनिच्छिन्नसव्वदुक्खा जाइजरामरणवंधणविमुक्का । अब्बावाहं सोक्खं अणुहवयंती सया कालं ॥९८८ ॥ अनुक्रम SMEncrore ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९८९-९९३], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: न प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम BI निस्तीर्णम्-अतिक्रान्तं सर्वम्-अशेषं दुःखं यैस्ते निस्तीर्णसर्वदुःखाः, जाति:-जन्म जरा-चयोहानिः मरणं-प्राणत्यागः बन्धन-संसारबन्धहेतुरष्टप्रकारं कर्म तैर्विमुक्ताः, अन्यायाधं-व्यावाधारहितं सौख्यं सदाकालमनुभवन्ति ॥ उक्ताः सिद्धाः, सम्पति तन्नमस्कारवक्तव्यतामाह51 सिद्धाण नमकारो जीवं मोएइ भवसहस्सातो। भावेण कीरमाणो होइ पुणो बोहिलाभाए ॥ ९८९॥ सिद्धाण नमोकारो धन्नाण भवक्खयं करेंताण । हिययं अणुम्मुयंतो विसोत्तियावारओ होइ ॥ ९९० ॥ | सिद्धाण नमोकारो एवं खलु वनितो महत्थोत्ति । जो मरणमि उवग्गे अभिक्खर्ण कीरए बहुसो ॥ ९९१ ॥ सिद्धाण नमोकारो, सवपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, बीयं हवइ मंगलं ॥९९२ ॥ गाथाचतुष्टयमपि अर्हन्नमस्कारवद्वेदितव्यम् ॥ उक्तः सिद्धनमस्काराधिकारः, साम्प्रतमाचार्यनमस्कारावसरः, अथ आचार्य इति कः शब्दार्थः १, उच्यते, 'चर गतिभक्षणयोः' आयूर्वः, आचर्यते कार्यार्षिभिः सेव्यते इति आचार्यः, "ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् ध्यणि"ति ध्यण , अयं च नामादिभेदाच्चतुष्पकारः, तथा चाहनामंठवणादविए भावंमि चउविहो उ आयरियो। दवमि एगभवियाइ लोइए सिप्पसत्थाइ ।। ९९३॥ नामाचार्यः स्थापनाचार्यः द्रव्याचार्यः भावाचार्यश्च, तत्र नामस्थापनाचायौँ सुगमौ, द्रव्याचार्य आगमनोआगमादिहाभेदं प्रायः सर्वत्र तुल्यविचारत्वात् अनादृत्य ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्याचार्यमभिधातुकाम आह-'दब्बंमि'। इत्यादि, द्रव्ये-द्रव्याचार्ये विचार्यमाणेऽनेकभेदार, तद्यथा-एकभविको बद्धायुरभिमुखनामगोत्रश्च, तन एकेन भवेन भावी - -- ... अथ आचार्य शब्दस्य व्याख्या एवं तेषां नमस्काराणां फलम् प्रतिपादयते ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९९४-९९५], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सिद्ध सुत्राक श्यकमलयगिरीयवत्तीनम- स्कारे ॥५४९॥ दीप अनुक्रम व आचार्यः स एकभविकः, आचार्यभवयोग्यनिवद्धायुर्बद्धायुष्कः, आचार्यभवानुगते यस्य नामगोत्रे उदयाभिमुखे सोभिमुखनामगोत्रः, तथाविधो द्रव्याचार्यः मूलगुणनिर्मित उत्तरगुणनिर्मितच, तत्र मूलगुणनिर्मित आचार्यशरीरनिर्वर्त्तनयो-1 सौख्यं ग्यानि द्रव्याणि, उत्तरगुणनिर्मितस्तु तान्येव तदाकारपरिणतानीति, अथवा द्रव्यभूतोऽप्रधान आचार्यों द्रव्याचार्यः, द्रव्यनिमित्तं वा य आचारवान् स द्रव्याचार्यः, भावाचार्यों द्विधा-लौकिको लोकोत्तरश्च, तत्र लौकिकः शिल्पशास्त्रादि, एत-| चैवमुच्यते तत्परिज्ञानात् तदभेदोपचारेण, अन्यथा शिल्पादिग्राहको गृह्यते, अन्ये तु लौकिकलोकोत्तरभेदमकृत्वा सामा-12 न्यत एनमपि द्रव्याचार्य ब्याचक्षते, यथा-शिल्पशास्त्रादिपरिज्ञाता, यथा शिल्पशास्त्रादिपरिज्ञाननिमित्तमाचार्यमाणो द्रव्याचार्य इति । अधुना लोकोत्तरान् भावाचार्यान् प्रतिपादयति पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पगासंता । आयारं दंसंता आयरिया तेण बुचंति ॥ ९९४ ॥ पञ्चविध-पञ्चप्रकारं ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्यभेदात् , आचार-आइ मर्यादायां चरणं चारः मर्यादया-कालनियमादि-15 लक्षणया चार आचारः, उक्तं च-"काले विणए बहुमाणे उवहाणे"त्यादि, आचरन्तः सन्तोऽनुष्ठानरूपेण, तथा प्रभाषमाणा अर्थान्बाख्यानेन, तथा प्रत्युपेक्षणादिक्रियाद्वारेणाचारं दर्शयतः सन्तो मुमुक्षुभिराचर्यन्ते-सेव्यन्ते येन कारणेन आचार्यास्तेन कारणेनोच्यन्ते ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाह आयारो नाणाई तस्सायरणा पभासणातो वा । जे ते भावायरिया भावायारोवउत्ता य ॥ ९९५ ।। आचारों-ज्ञानादिः पश्चप्रकारः तस्याचरणात् प्रभाषणात् वाशब्दाद् दर्शनाद्वा हेतोर्मुमुक्षुभिराचर्यम्तम्सेव्यन्ते ते ॥५४९॥ ... अत्र 'आचार्य' शब्दस्य प्रतिपादनम् एव वर्तते, मूल संपादने प्रत पृष्ठ-५४९ से ५५२ पर्यन्त: यत् "सिद्ध-सौख्यं मुद्रितं तत् मुद्रणदोष: मात्र ज्ञातव्य: ~220 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [९९६-१०००], विभा गाथा H, भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक CRECICRO भावाचार्या उच्यन्ते, एतच्चाचरणादि अनुयोगेऽपि सम्भवति यतस्तत आह-भावाचारोपयुक्ताश्च भावार्थमाचारो भावा-14 प्राचारस्तदुपयुक्ताश्च ॥ ___ आयरियनमोकारो जीवं मोएइ भवसहस्सातो। भावेण कीरमाणो होइ पुणो बोहिलाभाय ॥ ९९६ ॥ आयरियनमोकारो धन्नाण भवक्वयं करेंताण । हिययं अणुम्मुयंतो, विसोत्तियावारतो होई ॥९९७ ॥ It आयरियनमोकारो एवं खलु वनितो महत्थोत्ति । जो मरणमि उबग्गे अभिक्खणं कीरए बहुसो॥ ९९८ ॥ आयरियनमोकारो, सबपावप्पणासणो । मंगलाणं च सबेसि, तइयं हवइ मंगलं ॥ ९९९॥ | गाथाचतुष्टयमपि अनिमस्कारवदवसेयम्, विशेषस्तु सुगम एवेति ।। उक्त आचार्यनमस्काराधिकारः, साम्प्रतमुपाध्यायनमस्कारावसरः, उपाध्याय इति कः शब्दार्थः ?, उच्यते, 'इङ अध्ययने' उपपूर्वः, उपेत्य-समीपमागत्य अघीयते | साधवः सूत्रमस्मादित्युपाध्यायः, स च नामादिभेदाच्चतुष्पकारः, तथा चाहनामंठवणादविए भावंमि चउब्विहो उवज्झातो। दब्बे लोइयसिप्पाइ निण्हगा वा इमे भावे ॥१०००॥ नामोपाध्यायः स्थापनोपाध्यायो द्रव्योपाध्यायो भावोपाध्यायश्चेत्येवं चतुर्विध उपाध्यायः, तत्र नामस्थापनोपाध्यायो17 ससुगमी, द्रव्योपाध्यायो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्विधा-लौकिको लोकोत्तरश्च, तत्र लौकिक: शिल्पादिः, सचमुच्यते | तत्परिज्ञानात् तदभदोपचारेण, अन्यथा शिल्पादिशास्त्राध्यापका गृह्यन्ते, लोकोत्तरा निवाः, ते हि अभिनिवेशदोषणकमपि पदार्थमन्यथा प्ररूपयंतो मिथ्यादृष्टय एवेति द्रव्योपाध्यायाः, इमे-वक्ष्यमाणस्वरूपाः पुनर्भावोपाध्यायाः॥ तानेवाह अनुक्रम [१] A DCASSES ... अत्र चत्वार: नियुक्ति-गाथा: (९९६-९९९) हारिभद्र-वृतौ संपादने स्वतन्त्ररूपेण न निर्दिष्टा: तत् कारणात् अत: गाथा-क्रमोऽपि न समान वर्तते ~221 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१००१-१००६], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [१५१...], मूलं गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सिद्ध स्कारे दीप अनुक्रम श्रीआव- वारसंगो जिणक्खातो अज्झातो देसितो (कहितो हा०) बुहेहिं । तं उवइसंति जम्हा उवझाया तेण वुचंति १००१ वारस श्यकमल- द्वादशाङ्गः-आचारादिः, द्वादशाङ्गसद्भावात्, जिनाख्यातः-अर्हत्प्रणीतः अध्यायो, वाचनादिनिवन्धनत्वादिह सूत्रयगिरीय-5 मेव गृह्यते, कथितो बुधैः-गणधरादिभिः, य इति गम्यते, तं स्वाध्यायमुपदिशन्ति वाचनारूपेण यस्मात्कारणात्तेनो यन्ते वृत्तौ नम उपाध्यायाः, उपेत्याधीयते यस्मादित्यन्वर्थोपपत्तेः॥ साम्प्रतमागमशैल्या अक्षरार्थमधिकृत्योपाध्यायशब्दार्थमाहI उत्ति उवयोगकरणे झत्ति य झाणस्स होइ निद्देसे । एएण होइ उज्झा एसो अन्नोऽवि पजातो ॥ १००२॥ | उ इत्येतदक्षरं उपयोगकरणे वर्तते, झ इति चेदं ध्यानस्य निर्देशे भवति, ततः प्राकृतशैल्या एतेन कारणेन भवंति ॥५५॥ उज्झा, उपयोगपुरस्सरं ध्यानकतार इत्यर्थः, एषोऽन्योऽपि पर्यायः ॥ अथवा उत्ति उपयोगकरणे वत्ति य पावपरिवजणे होइ । झत्ति य झाणस्स कए उत्ति य ओसक्कणा कम्मे ॥१००३॥ उ इत्येतदक्षरं उपयोगकरणे वत्तते, व इति पापस्य परिवर्जने भवति, झ इति ध्यानस्य कृते-करणे निर्दिश्यते, उ इति अवष्वष्कणा कर्मणीत्येतस्मिन्नर्थे, एषोऽत्र समुदायार्थः-उपयोगपूर्वक पापपरिवर्जनतो ध्यानारोहणेन कर्मापनयन्तीत्युपाध्याया इति । अक्षरार्थाभावे हि पदार्थाभावः, पदस्य तत्समुदायरूपत्वादित्यक्षरार्थः प्रतिपत्तव्य इति ॥ उवज्झायनमोकारो जीवं मोएइ भवसहस्सातो। भावेण कीरमाणो होइ पुणो बोहिलाभाए ॥१००४॥ उवज्झायनमोकारो धन्नाण भवक्वयं करताणं । हिययं अणुम्मुयंतो विसोत्तियावारओ होइ ॥१००५ ॥ उवज्झायनमोकारो एवं खलु वनिओ महत्थोत्ति । जो मरणंमि उवग्गे अभिक्खणं कीरए बहुसो ॥१००६॥ SALARISONSECSROCEEDBACROS CREACISESASRECORDER ॥५५॥ SMEnication ... अत्र चत्वार: नियुक्ति-गाथा: (१००४-१००७) हारिभद्र-वृतौ संपादने स्वतन्त्ररूपेण न निर्दिष्टा: तत् कारणात् अत: गाथा-क्रमोऽपि न समान वर्तते ... अथ उपाध्याय शब्दस्य व्याख्या एवं तेषां नमस्काराणां फलम् प्रतिपाद्यते ~222 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१००७-१००९], विभा गाथा H], भाष्यं [१५१...], मूलं F /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक उवज्झायनमोकारो, सधपायप्पणासणो । मंगलाणं च सवेसिं, चउत्थं हवह मंगलं ॥१००७ ॥ गाथाचतुष्टयमपि सामान्येनाहन्नमस्कारवदवसेयम्, विशेषस्तु सुगम एव, इत्युक्त उपाध्यायनमस्काराधिकारःगत अथ साधुरिति कः शब्दार्थः ?, उच्यते-अभिलषितमर्थ साधयतीति साधुः, "कृवापाजी' त्यादिना उणप्रत्ययः, सच नामादिभेदाच्चतुष्पकारः, तथा चाह नार्मठवणासाह दवसाह य भावसाहू य । दबंमि लोइयादी भावंमि य संजतो साहू ॥१००८॥ नामसाधुः स्थापनासाधुः द्रव्यसाधुभोवसाधुश्च, तत्र नामस्थापनासाधू सुगमी, द्रव्यसाधुज्ञेशरीरभग्यशरीरव्यतिरिक्त लौकिकादिविविधः, तद्यथा-लौकिको डोकोत्तरः कुमावनिकश्च, तत्र यो लोके शिष्टसमाचारः घटपटादिसाधको वा स लौकिका, कुप्रवचनेषु निजनिजसमाचारसम्यकपरिपालनरतः कुप्रावचनिकश्च, तत्र यो लोके शिष्टसमाचारः घटपटादिसाधको वा स लौकिका, कुप्रवचनेषु निजनिजसमाचारसम्यक्परिपालनरतः कुप्रावचनिकः, लोकोत्तरे निहवः, अन्यथा पदार्थप्ररूपगतस्तस्य मिथ्यादृष्टित्वात् , शिथिलवतो वा वेषमात्रधारणात् , भावे विचार्यमाणे साधुः संयतः-सम्यग् जिनाज्ञापुरस्सरं ६ सकलसावद्यच्यापारादुपरतः॥ सम्पति लौकिकादिद्रव्यसाधुप्रतिपादनार्थमाह घडपडरहमाईणि साहेंता होंति वसाह य । अहवावि दबभूया ते होंती दबसाहत्ति ॥१००९॥ घटपटरथादीनि, आदिशब्दात् गृहदेवकुलादीनां कुप्रवचने निजनिजसमाचाराणां च परिग्रहः, तान् साधयन्तो भवति द्रव्यसाधवः, अभिलपितमर्थ साधयन्तीति साधवः इत्यन्वर्थघटनात्, मोक्षाङ्गताविरहतश्च द्रव्यरूपत्वात् , तत्र घटपटादि COMSASACAREERICALCANOARDCOOT अनुक्रम ... अथ साधु शब्दस्य व्याख्या एवं तेषां नमस्काराणां फलम् प्रतिपाद्यते ~223 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०१०-१०१२], विभा गाथा H], भाष्यं [१५१...], मूलं F /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: SEX प्रत तिल सत्राक दीप श्रीआव- साधका लौकिका द्रव्यसाधवः, कुप्रवचनक्रियासाधकाः कुप्रावचनिकाः साधवः, लोकोत्तरद्रव्यसाधुप्रतिपादनार्थमाह, अथ-14 श्यकमल-18वाऽपि द्रव्यभूताः अप्रधाना जिनाज्ञावहिभावात् साधवो भवन्ति द्रव्यसाधवः ॥ सम्पति भावसाधून प्रतिपादयति- यगिरीय- निब्वाणसाहए जोगे, जम्हा साहेति साहुणो । समा य सव्वभूएसु, तम्हा ते भावसाहुणो॥१०१०॥ वृत्तौ नम निवाणसाधकान् योगान-सम्यग्दर्शनादिप्रधानान् व्यापारान् साधयन्ति साधवः, विहितानुष्ठानपरत्वात् , समाश्च स्कारे द्र सर्वभूतेषु, पतच्च योगप्राधान्यख्यापनार्थमुक्तम् , तस्मात् भवंति भावसाधयः॥ है।किं पेच्छसि साहणं तवं च नियमं च संजमगुणं वा । तो वंदसि साहणं एवं मे पुच्छिओ साह ॥१०११॥ाद ॥५५१॥का किं साधना प्रेक्षसे वं तपो बा-अनशनादिकं नियम वा-द्रव्याभिग्रहादिकं संयमगुणं वा-पञ्चाश्रवविरमणादिकं , ततो बन्दसे साधून, सूत्रे षष्ठी द्वितीयार्थे, अथवा 'माषाणामश्नीया' दित्यादाविव क्रियायोगेऽपि सम्बन्धविवक्षया पाठी एतन्मे पृष्टः सन् साधय-कथय ।। एवमुक्के गुरुराहविसयसुहनियत्ताणं विसुद्धचारित्तनियमजुत्ताणं । तच्चगुणसाहगाणं सहायकिचुजुआण नमो ॥१०१२॥ सर्वत्र सूत्रे षष्टी चतुर्थ्यर्थे प्राकृतत्वात् , 'छट्ठिविभत्तीए भन्नइ चउत्थी' ति वचनात् , ततोऽयमर्थः-विषयसुखनिवृत्तेभ्योमनोज्ञरूपालोकनादिप्रसक्किविरतेभ्यः, तथा विशुद्धं यच्चारित्रं-प्राणातिपातादिविरमणपरिणामात्मकं 'चारित्तं परिणामो ठाजीवस्स हो य होइ नायबो' इति वचनात् , यश्च नियमो विचित्रो-द्रव्याभिग्रहादिस्ताभ्यां युक्तभ्यः, तथा तथ्या:-ताविका|| | ये गुणा:-क्षान्त्यादयस्तेषां साधकेभ्यः, तथा साधनानि-मोक्षसाधनानि यानि कृत्यानि-प्रत्युपेक्षणादीनि तेषूद्यच्छते तेभ्यो अनुक्रम [१] **** ॥५५॥ * ~224 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०१३-१०१९], विभा गाथा H], भाष्यं [१५१...], मूलं F /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक नमः, किमुक्तं भवति ?, विषयसुखनिवृत्यादीन् मोक्षसाधकान् परमगुणानेतेषु प्रेक्षामहे तत एतान्नमस्कुर्म इति ॥ तथा असहाये सहायतं करेंति मे संजमं करेंतस्स । एएण कारणेणं नमामऽहं सबसाहर्ण ॥ १.१३॥ परमार्थसाधनप्रवृत्ती सत्यां जगत्यसहाये सति, प्राकृतशैल्या वा षष्ठवर्थे सप्तमी, असहायस्य मम संयम कुर्वतः सतः॥४ सहायत्वं कुर्वन्ति, अनेन कारणेन नमाम्यहं सर्वसाधूनामिति ॥ साहूण नमोकारो जीवं मोएइ भवसहस्सातो। भावेण कीरमाणो होइ पुणो बोहिलाभाए ॥१०१४॥ | साहण नमुक्कारो धन्माण भवक्रवयं करेंताणं । हिययं अणुम्मुयंतो बिसोत्तियावारओ होइ ॥ १०१५॥ | साहण नमुकारो एवं खलु वनितो महत्थोत्ति । जो मरणंमि उवग्गे अभिक्खणं कीरए बहुसो ॥१०१६ ॥ साहण नमोकारो, सब्बपावप्पणासणो । मंगलाणं च सम्वेर्सि, पंचमं हवा मंगलं ॥१०१७॥ इदं गाथाचतुष्टयमप्यहन्नमस्कारवदवसेयं, विशेषतस्तु सुखोन्नेयम् ॥ एसो पंचनमुक्कारो, सब्चपावप्पणासणो । मंगलाणं च सब्वेर्सि, पढम हवह मंगलं ॥१०१८॥ 51 इयं गाथा पाठसिद्धा, तदेवमुक्तं वस्तुद्वारम् । अधुना निक्षेपद्वारप्रतिपादनार्थमाह नवि संखेवो न वित्थारो संखेवो दुविह सिद्ध-साहूणं । वित्थरओऽणेगविहो न जुजई पंचहा तम्हा ॥१०१९॥ | इह सूत्रं द्विधा-सक्षेपवत् विस्तरवच, तत्र सोपवत् सामायिकसूत्रं, विस्तरवच्चतुर्दश पूर्वाणि, इदं पुनः 'नमो अरहंताण-18 मित्यादि, नमस्कारसूत्रमुभयातीतम् , तथाहि-नायं सद्धेपोनापि विस्तरः, अपिशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, तथाहि-संखेवो। अनुक्रम RRC ... अत्र चत्वार: नियुक्ति-गाथा: (१०१४-१०१७) हारिभद्र-वृतौ संपादने स्वतन्त्ररूपेण न निर्दिष्टा: तत् कारणात् अत: गाथा-क्रमोऽपि न समान वर्तते ... अत्र नियुक्ति-गाथा १०१८ "एसो पंचनमुक्कारो" हारिभद्र-वृतौ संपादने न दृश्यते, पूज्यपाद् आचार्य आनंदसागसूरीश्वरेण तत् संपादने पादनोंध मध्ये एषा गाथाया: उल्लेख कृत्वा एका नोंध अकृत:- "वृतौ अंतर्गत: एषा गाथा न व्याख्यायिता" ~225 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२०], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ******** सत्राक दीप अनुक्रम श्रीआव- दुविह' इति, यद्ययं सङ्ग्रेपः स्यात् ततस्तस्मिन् सति द्विविध एव नमस्कारो भवेत् , सिद्धसाधुभ्यामिति, परिनिवृत्ताहदादीनां सिद्धशब्देन ग्रहणात् संसारिणां च साधुशब्देन, तथा च न ते संसारिणः सर्व एव साधुत्वमतिलवय वर्तन्ते, तदभावे यगिरीय-18| शेषगुणानामसम्भवादिति, अथाय विस्तरस्तदप्यचारु, यतो विस्तरतोऽनेकविधः पामोति, तथा च ऋषभाजितसम्भवामि-18 वृत्तौ नम- दिनन्दनसुमतिपद्मप्रभसुपार्श्वचन्द्रप्रभेत्यादिमहावीरवर्द्धमानस्वामिपर्यन्तेभ्यः चतुर्विंशतयेऽऽहङ्ग्यः, तथा सिद्धेभ्यो विस्तरेस्कारे णानन्तरसिद्धेभ्यः परस्परसिद्धेभ्यः, अनन्तरसिद्धेभ्योऽपि तीर्थकरसिद्धेभ्योऽतीर्थकरसिद्धेभ्य इत्यादि, परम्परसिद्धेभ्योऽपि दि प्रथमसमयसिद्धेभ्यो द्वितीयसमयसिद्धेभ्यो यावदनन्तसमयसिद्धेभ्यः, तथा तीर्थलिंगचारित्रप्रत्येकबुद्धादि विशेषणविशिष्टेभ्यः ॥५५२॥ तीर्थकरसिद्धेभ्यः अतीर्थकरसिद्धेभ्यः तीर्थसिद्धेभ्य इत्येवमनन्तशो विस्तरतः, यतश्चैवमतः पक्षद्वयमप्यङ्गीकृत्य पञ्चविधः-पञ्च प्रकारो न युज्यते नमस्कार इति, गतमाक्षेपद्वारम् । अधुना प्रसिद्धिद्वारमुच्यते, तत्र यत्तावदुकं 'न सङ्केपत' इति तद्युक्तं, सिद्धेयात्मकत्वात् , ननु स कारणवशात् कृतार्थाकृतार्थपरिग्रहेण सिद्धसाधुमात्र एवोक्तः, सत्यमुक्तः, अयुक्तस्त्वसौ, कारणा न्तरस्यापि भावात् , तथोक्तमेवानन्तरवस्तुद्वारे, अथवा वक्ष्यामः-'हेउ निमित्त' मित्यादिना, सति च द्वैविध्ये सकलगुणनमस्कारासभवात् एकपक्षस्य व्यभिचारित्वात् , तथा चाह अरिहंताई नियमा साहू साहू य तेसु भइयवा । तम्हा पंचविहो खलु हेउनिमित्तं हवइ सिद्धो॥१०२०॥ अहंदादयो नियमात साधवः, साधुगुणानामपि तत्र सम्भवात्, साधवस्तु तेषु-अहंदादिषु भक्तव्याः-विकल्पनीयाः, यतस्ते साधबो न सर्वेऽहंदादयः, किन्तु !, केचिदहन्त एव केचित् केवलिनः केचिदाचार्याः सम्यक्सूत्रार्थविदः केचि PASAKURAX ॥५५२॥ CASTAN ~226~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२१], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक CLICADA दुपाध्यायाः सूत्रविद एव केचिदेतद्व्यतिरिक्ताः शिष्यकाः साधव एव, न अर्हदादय इति, तत्र एकपदव्यभिचारान्न तुल्या |भिधानतेति, न च साधुनमस्कारकरणेऽहंदादिनमस्कारफलावाप्तिः, सामान्येन प्रवृत्तेः, तथा चात्र प्रयोगः-साधुमात्रनमस्कारो विशिष्टाहदादिगुणनमस्कृतिफलपापणसमर्थो न भवति, तत्सामान्याभिधाननमस्कारवत्-मनुष्यत्वमात्रनमस्कारवत् जीवमात्रनमस्कारवद्वा, उक्तं च-"जइवि जग्गहणातो होइ कहवि गहणमरिहयाईणं । तहवि न तग्गुणपूया जइगुणसामनपूयातो ॥१॥" तस्मात् पञ्चविध एव खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् नमस्कारो भवति, व्यक्त्यपेक्षया विस्तरेण कर्तुमशक्यस्वात्। तथा हेतुनिमित्तं भवति सिद्धः पञ्चविधो नमस्कारः, तत्र हेतुर्नेमस्काराईत्वे य उक्तः 'मग्गे अविप्पणासो' इत्यादिकः। तनिमित्तं-तस्मादुपाधिभेदात् भवति पञ्चविधः सिद्धः ॥ गतं प्रसिद्धिदारम् , अधुना क्रमद्वारप्रतिपादनाथेमाह- पद INI पुवाणुपुबिन कमो नेव य पच्छाणुपुवि एस भवे । सिद्धाईआ पढमा बीआए साहुणो आई॥१०२१ ॥ * 51 इह क्रमस्तावद् द्विविधः-पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वीच, अनानुपूर्वी तु क्रम एव न भवति, असमखासत्वात् , तत्रायमहेंदादिक्रमः18| दि पूर्वानुपूर्वी न भवति, सिद्धाधनमिधानात्, एकान्तकृतकृत्यत्वेनाहन्नमस्कार्यत्वेन च सिद्धा एव हि प्रधान, प्रधानस्य चाभ्यहितत्वेन पूर्वमभिधानमिति भावार्थः, तथा नैव च पश्चानुपूर्वी एप क्रमो भवेत, साध्वाधनभिधानात्, इह सर्वपा-1 ||श्चात्याः अप्रधानत्वात् साधवः, ततश्च तानभिधाय यदि पर्यन्ते सिद्धाभिधानं स्यात् स्यात् तदा पश्चानुपूर्वीति, तथा चामुमेवार्थ प्रतिपादयति-सिद्धादिका प्रथमा पूर्वानुपूर्वी, भावना प्रतिपादितैव, द्वितीयायां तु-पश्चानुपूया साधव आदौ, मा.स.९३ युक्तिरत्रापि प्रागभिहितैव, अत्र प्रतिविधीयते-पूर्वानुपूर्येव एष क्रमः, तथा च पूर्वानुपूर्वीत्वमेव प्रतिपादयन्नाह अनुक्रम 2152625*35**** %ARA ~227~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२२-१०२४], विभा गाथा H], भाष्यं [१५१...], मूलं F /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत नमस्कारे क्रमः प्रयो सत्राक श्रीआव- श्यकमलयगिरीय- वृत्तौ नम- स्कारे जनफलेक दीप ॥५५३॥5 अरिहंतुवएसेणं सिद्धा नवंति तेण अरिहाई न य कोइवि परिसाए पणमित्ता पणमई रपणो॥१०१२॥ इह भगवदईदुपदेशेन-आगमेन सिद्धा ज्ञायन्ते-अवगम्यन्ते प्रत्यक्षादिगोचरातिकान्ताः संतो यतस्तेन अहंदादिः, पूर्वानुपूर्वी क्रम इति गम्यते, अत एव चाहतामभ्यहितत्वं, कृतकृत्यत्वं पुनरल्पकालव्यवहितत्वात् प्रायः समानमेव, अर्हन्नमस्कार्यत्वमप्यसाधनं, अर्हन्नमस्कारपूर्वकसिद्धत्वयोगेनार्हतामपि वस्तुतः सिद्धनमस्कार्यत्वात्, प्रधानत्वादिति भावना, आह-यद्येवमाचार्यादिस्तहिं क्रमः प्राप्नोति, अर्हतामपि तदुपदेशेन संवेदनात्, उच्यते, इहाहत्सिद्धयोरेवार्य वस्तुतस्तुल्यबलयोर्विचारः श्रेयान् , परमनायकभूतत्वात् , आचार्यास्तु परिपत्कल्पा वर्तन्ते, नापि कश्चित्परिपदं प्रणम्य-प्रणामं कृत्वा पश्चात् प्रणमति राज्ञः पदानित्यतः अचोद्यमेतत् ॥ उक्तं क्रमद्वारम् , अधुना प्रयोजनफलप्रदर्शनार्थमाहइत्थ य पओअणमिणं कम्मखयो मंगलागमो चेव । इहलोअ-पारलोइअ दुविहफलं तत्थ दिइंता ॥१०२३ ॥ अत्र च-नमस्कारकरणे प्रयोजनमिदम् , यदुत करणकाल एवाक्षेपेण कर्मक्षयो-ज्ञानावरणीयादिकम्मोपगमः अनन्तपुद्गलापगममन्तरेण भावतो नकारमात्रस्याप्यप्राप्तेः, तथा मङ्गलागमश्चैव करणकालभावीति, तथा कालान्तरभावि पुनरिहलौकिकपारलौकिकभेदभिन्नं द्विविध-द्विप्रकारं फलं, तत्र च दृष्टान्ता वक्ष्यमाणलक्षणाः॥ इहलोएँ अत्थकामा आरोग्गं अभिरई य निष्फत्ती। सिद्धी य सग्गसुकुले पचायाई य परलोए ॥ १०२४॥ इहलोके अर्थकामी भवतः, तथा आरोग्य-नीरुजत्वं भवति, एतेऽर्थादयः शुभविपाकिनोऽस्य भवन्ति, तथा चाहअभिरतिश्च भवति, आभिमुख्येन रतिरमिरतिः, इहलोके अर्थादिन्यो भवति, परलोके च तेभ्य एव शुभानुवन्धित्वा-| अनुक्रम [१] ॥५५३n ... अरिहंतादेः नमस्कार करणे क्रम-प्रयोजन दर्शयते ~228 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२५], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक * निष्पत्तिः, पुण्यस्येति गम्यते, अथवाऽभिरतेश्च निष्पत्तिरित्येकवाक्यतैव, तथा सिद्धिश्च-मुक्तिश्च, तथा स्वर्गः सुकुलप्रत्यायातिश्च परलोके इति-पारलौकिक फलम् ॥ इह च सिद्धिश्चेत्यादिकः क्रमः प्रधानफलापेक्षी उपायख्यापनपरश्च, तथाहिविरला एवैकभवसिद्धिमासादयन्ति, अनासादयन्तश्चाविराधकाः स्वर्गसुकुलोत्पत्तिमन्तरेण नावस्थानान्तरमनुभवन्तीति ॥ सम्प्रति यथाक्रममेवाादीनधिकृत्योदाहरणानि प्रतिपादयतिइहलोगम्मि तिदंडी १ सादिषं २ माउलिंगवणमेघ ३ । परलोइ चंडपिंगल ४ हुंडिअजक्खो ५ य दिलुता ॥१०२५॥ इहलोके नमस्कारात् फलसम्पत्ती, अत्रोदाहरणम्-त्रिदंडी, एगस्स सावगस्स पुत्तो धम्म न लएइ, सो य सावगो कालगतो, सो वियाररहितो एवं चेव विहरइ, अन्नया तेसिं घरसमीवे परिवायगो आवासितो, सो तेण समं मित्तिं करेइ, अन्नया दाभणइ-आणेहि निरुवयं अणाहमडयं जेण ते ईसरियं करेमि, तेण मग्गिय, लद्धो ओबद्धतो मणुस्सो, सो मसाणं नीतो, जं च तत्थ पाउग्गं तं च नीयं, सो य दारगो पियरेण नमोकारं सिक्खावितो, भणितो य-जाहे बीहेजसि ताहे एवं पढे-IN जासि, विजा एसा, सो य तस्स मयगस्स पुरतो ठवितो, तस्स मयगस्स हत्थे असी दिन्नो, परिवायगो विजं परियत्तेइ, दिउ उमारद्धो वेयालो, सो दारगो भीतो, हियएण नमोक्कारं परियत्तेइ, सो वेयालो पडितो, पुणोवि जवइ, पुणोवि उढवितो, सुटुतरागं परियहेइ, पुणोवि पडितो, तिदंडी भणइ-किंचि जाणसि!, भणइ-किंपि न जाणामि, पुणोवि जवइ तइयवार, पुणो नमोकारं परियत्सेइ, ताहे वाणमंतरेण रुसिऊण तं खग्गं गहाय सो तिदंडी दो खंडीकतो, सुवण्णखोडी जाता, RSSISRG SACREASCARSESASAR अनुक्रम 3 antact R ameshram ... नमस्कार-करणात् यत् फलम् प्राप्यते तत् दर्शयते ~229 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२५], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक स्कारे दीप अनुक्रम श्रीआव- अंगोवगाणि य से जुयजुयाई काउं सबरति बूढो, ईसरो नमोकारपभावेण जातो, जइ न होतो नमोकारो तो वेयालेण फले त्रिदमारिजतो, सो सुवणं होतो १॥ ज्याचा यगिरीय कामनिष्फत्ती नमोकारातो, कह , एगा साविगा, तीसे भत्ता मिच्छादिट्ठी, अण्णं भज आणे मग्गेइ तीसे तणएण। वृत्तौ नम- न लहइ, ससवत्तगंति, चिंतेइ-किह मारेमि !, अण्णया कण्हसप्पो घडए छभित्ता आणितो, संगोवितो, जिमितो, त| भणइ-आणेह पुष्पाणि अमुगे घडए ठवियाणि, सा पविट्ठा, अंधकारंति नमोकारं चिंतेड, जइवि मे कोहखाएजा तोवि मे मरतीए नमोकारो न नस्सिहितीति, छुढो हत्थो, सप्पो देवयाए अवहितो, पुष्पमाला कया, सा गहिया दिना य से,8 ॥५५४॥ INIमो संभंतोचिंतेड-अण्णाणि एयाणि पुप्फाणि, पुच्छह य, तीए कहियं-ततो चेव घडातो आणीयाणि, गतो तत्थ, पेच्छइट। घडगं पुष्पगंधं च, नवि तत्थ कोइ सप्पो, ततो आउट्टो पायवडितो सर्व कहेइ, खामेइ य, पच्छा सा चेव घरसामिणी द्र जाया, एवं कामावहो नमोकारो २॥ | आरोग्गाभिरईए उदाहरणं-एग नगरं नदीए तीरे, खरकम्मिएण सरीरचिंतानिग्गतेणं नदीए वुझंतं माउलिंग दिई, रायाए उवणीयं, सूयस्स हत्थे दिन्नं, तेण जिमियस्स उवणीयं, पमाणेण अइरितं, गंघेण वपणेण य, तस्स मणूसस्स राया तुडो, दिण्णा भोगा, राया भणइ-अणुनदीए मग्गह, पत्थयणं गहाय पुरिसा गया, दिडो वणसंडो, जो फलाणि गेण्हइ ॥५५॥ सो मरइ, रण्णो कहियं, भणइ-अवस्सं आणेयवाणि, गोलगपडिया वच्चंतु, एवं गया आणति, तत्थ जस्स सो गोलगो आगतो सो एगो वणे पविसइ, पविसित्ता फलाणि बाहिं छुभइ, ततो आणेति, जो छुहइ सो मरइ, एवं वच्चंते काले साव SMEucationmremients ~230 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२५], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गस्स परिवाडी जाया, तत्थ गतो चिंतेइ-इमो विराहियसामन्नो कोवि होअत्ति निसीहियं भणित्ता नमोकारं पढतो दुकइ, है वाणमंतरस्स चिंता जाया-कत्थ मण्णे एवं सुयपुर्व ?, णायं, संबुद्धो, बंदर, भणइ-अहं तत्थेव आहरामि, गतो, रण्णो कहियं, रण्णा सम्माणितो, तस्स ओसीसए दिणे २ ठवेइ, एवं तेण अमिरई भोगा य लद्धा, जीवियातो य किं अन्नं ४ आरोग्गं ,रायावि परितुट्ठोति ३॥ परलोगेवि नमोकारफलं-वसंतपुरे नयरे जियसत्तू राया, तस्स गणिया साविया, सा चंडपिंगलेण सम वसति, अन्नया कयाइ तेण रन्नो घरं हयं, हारो नीणितो, भीएहि संगोविजइ, अण्णया उजाणियाए गमणं, सबातो विभूसियातो गणियातो वचंति, तीए सबातो अतिसयामित्ति सो हारो आविद्धो, जीसे देवीए सो हारो तीसे दासीए सो नातो, कहिय रन्नो, साहू केण समं वसइ ?, कहिए चंडपिंगलो गहितो, सूले मिन्नो, एतीएवि चिंतियं-मम दोसेण मारिउत्ति, सा से नमोकार देइ, भणइ य-निदाणं करेहि जहा--एयरस रण्णो पुत्तो आयामित्ति, कयं निदाणं, अग्गमहिसीए उदरे उववशो, दारगो जातो, |सा साविया कीलावणधाती जाया, अण्णया चिंतेह-कालो समो गम्भस्स मरणस्स य, होजा कयाइ, रमाती भणइ-मा रोव चंडपिंगला इति, जाई सरिया, संबुदो, राया मतो, सो राया जातो, सुचिरेण कालेण दोषि पवइयाणि, एवं सुकुलपञ्चा|8| याती तंमूलागं च सिद्धिगमणमिति ॥ अहवा विइयं उदाहरणं-महुराए नयरीए जिणदत्तो सावगो, तस्थ हुंडितो चोरो, नगरं परिमुसइ, सो कयाइ गहियो, सूले भिन्नो, रण्णा भणियं-पडियरह बिइज्जयावि से नजिहिंति, ततो रायमणूसा पडिचरंति, सो जिणदत्तो सावगो तस्स नाइदूरेण वीतीवयइ, सो चोरो भणइ-सावग! तुममणुकंपगोऽसि, तिसाइतोऽई, देहि अनुक्रम [१] SamE mantraren ~231 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२६], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं - /गाथा-], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सूत्रारंभकाला श्रीआव०मम पाणियं जा मरामि, सावगो भणइ-इमं नमोकारं पढ, जा ते आणेमि पाणियं, जइ वीसारेहिसि तो ते आणीयंपि न मलयगि० देमि, सो ताए लोलयाए पढइ, सावगोवि पाणियं गहाय आगतो, एतं वेलं पाहामोत्ति, णमोकार घोसंतस्स विणिग्गतो वृत्तौ सूत्र- जीवो, जक्खो उववन्नो, सायगो तेहिं मणूसेहिं गहितो चोरभत्तदायगोत्ति, रण्णो निवेइयं, भणइ-एयपि सूले भिंदहाद स्पर्शिका आघायणं निजइ, जक्खो ओहिं पउंजइ, पेच्छइ सावर्ग, अप्पणो य सरीरं, ततो पत्थ(ब)यं उपाडिऊण नयरस्स उवरिं ठवइ, भणइ य-सावयं न याणह?, खामेह, मा में अन्नहा सवे चूरामि, ततो मुक्को खामितो, विभूईए नयरं पवेसितो, नय॥५५५॥ दारस्स पुबेण जक्खस्स आययणं कयं, एवं नमोकारेण फलं लगभइ । उक्ता नमस्कारनियुक्तिः। सम्प्रति सूत्रोपन्यासार्थः, प्रत्यासित्तियोगतः परमार्थेन सूत्रस्पार्शकनियुक्तिगतामेव गाथामाह नंदिमणुओगदारं विहिवदुवग्याइअंच नाऊणं । काऊण पंचमंगलमारंभो होइ मुत्तस्स ॥ १०२६॥ है। नन्दिश्चानुयोगद्वाराणि च नन्द्यनुयोगद्वारं, समाहारत्वादेकवचनं, विधिवत्-यथावत् यथाविधि उपोद्घातं च उद्देसे निद्देसे य' इत्यादिलक्षणं ज्ञावा-विज्ञाय, पाठान्तरं भणित्वा. तथा क्रत्वा पञ्च मङ्गलानि, नमस्कारमित्यर्थः, किं , आरदाम्भो भवति सूत्रस्य, इह पुनर्नन्द्याधुपन्यासः किल विधिनियमख्यापनार्थः, नन्द्यादि ज्ञात्वैव भणित्वैव वा सूत्रस्यारम्भो भवति, नान्यथेति, तथा उपोद्घातः सकलप्रवचनसाधारणत्वेन प्रधानः, प्रधानस्य च सामान्यग्रहणेऽपि भेदोपन्यासो भवति, यथा ब्राह्मणा आयाता वशिष्टोऽप्यायात इति अनुयोगद्वारग्रहणेन तस्य ग्रहणेऽपि पृथगुपन्यासः॥ सम्बन्धान्तरप्रतिपादनायैवाह SHOGIRI ॥५५५॥ + ~232 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२७], विभा गाथा -1, भाष्यं [१५१...], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] RECESSAGAR कयपंचनमोकारो करेइ सामाइयंति सोऽभिहितो। सामाइयंगमेव य ज सो सेसं अतो वोच्छं ॥१०२७॥ कृतः पश्चनमस्कारो येन स तथाविधः, शिष्यः सामायिकं करोतीत्यागमः, स च पश्चनमस्कारोऽभिहितो यस्मादसौ नमस्कारः सामायिकाङ्गमेव, सा च सामायिकाङ्गता प्रागेवोका, अत ऊर्ध्व शेष सूत्रं वक्ष्ये ॥ तच्चेदंकरेमि भंते! सामाइयं सर्व सावज जोगं पञ्चक्खामिजावज्जीवाए तिविह तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्न न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि ॥१॥ (सूत्र) है इदं च सूत्रं सूत्रानुगम एव प्राप्तावसरेऽहीनाक्षरादिगुणोपेतमुच्चारणीयम् , तद्यथा-अहीनाक्षरमनत्यक्षरं अव्याविद्धा क्षरमस्खलितममिलितमव्यत्यावेडितं प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्णघोष कण्ठोष्ठविप्रमुक्तं वाचनोपगत'मिति, अमूनि च पदानि प्रार व्याख्यातत्वात् न व्याख्यायन्ते, एवंरूपे च सूत्रे उच्चरिते सति केपाश्चिद्भगवतां साधूनां केचन अर्थाधिकारा अधिगता भवंति, केचन वनधिगताः, ततश्चानधिगताधिगमनाय व्याख्या प्रवर्तते, तल्लक्षणं चेदम्-संहिता च पदं चैव, पदार्थः का पदविग्रहः । चालना प्रत्ययस्थानं, व्याख्या तंत्रस्य पड्विधा ॥१॥ अस्खलितपदोच्चारणं संहिता, अथवा परः सन्निकर्षः18 संहिता, यथा-करेमि भंते ! सामाइयमित्यादि, जाव वोसिरामित्ति, पदं च पञ्चधा, तद्यथा-नामिक नैपातिक औपसर्गिक-14 माख्यातिकं मित्रं च, तत्र अश्व इति नामिक, खल्विति नैपातिक, परीत्यौपसर्गिक, धावतीत्याख्यातिक, संयत इति | मिश्र, अथवा द्विविधं पद-स्याद्यन्तं पदं तिवाद्यतं च, अत्र पञ्चविधानि द्विविधानि वा पदानि, तद्यथा-करोमि भयान्त *** अत्र अध्ययनं -१- 'सामायिक' आरभ्यते *** ... अत्र 'सामायिक'-सूत्रस्य आरंभ: एवं तस्य व्याख्या क्रियते ~233 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२७], विभा गाथा , भाष्यं [१५१...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [१] दीप अनुक्रम [२] सामायिनमा योग प्रत्याख्यामि यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेन मनसा याचा कायेन न करोमि न कारयामि सामायिक मलयगिकुर्वन्तमपि अन्य न समनुजाने, तस्य भयान्त ! प्रतिक्रामामि निन्दामि गहें आत्मानमुत्सृजामीति पदानि । अधुना पदार्थ व्याख्या वृत्तौ सूत्र-18 स च चतुर्विधः, तद्यथा-कारकविषयः समासविषयः तद्धितविषयो निरुक्तिविषयश्च, तत्र कारकविषयो यथा पचतीति81 पाचका, समासविषयो यथा राज्ञः पुरुषः राजपुरुषः, तद्धितविषयो यथा वसुदेवस्यापत्यं वासुदेवः, निरुक्तिविषयो यथा चमति च रीति च श्रमरः, अत्रापि 'डुकुजू करणे' इत्यस्य मिग्रत्ययान्तस्य कृतनादेरु' रिति उकारे गुणे च कृते करो-14 ॥५५६ ॥दूमीति भवति, अभ्युपगमश्चास्यार्थः, एवं प्रकृतिप्रत्ययविभागः सर्वो वक्तव्यः, इह तु ग्रन्थगौरवभयानोच्यते, भयं-प्रतीतं | वक्ष्यामश्चोपरिष्टात, अन्तो-विनाशः, भयस्यान्तो भयान्तः, अयमेव पदविग्रहः, पदपृथकरणं पदविग्रहः, तस्य सम्बोधनं भयं-८ जन्तेति, सामायिकपदार्थः पूर्ववत्, सर्वमित्यपरिशेषवाची शब्दः, अवधं-पापं, सहावयेन यस्य येन वा स सावद्यः तं, सपा-| द्र पमित्यर्थः, योगो-व्यापारस्तं, प्रत्याख्यामि, प्रतिशब्दः प्रतिषेधे, आङ् आमिमुख्ये, ख्या प्रकथने, ततः प्रत्याख्यामीति कि-18 Iमकं भवति ?.-सावद्य योगस्य प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं करोमि इति, अथवा पञ्चक्खामीति प्रत्याचक्षे इति शब्दसंस्कार, 'चक्ष व्यक्कायां वाचिं' अस्य प्रत्याइपूर्वस्य प्रयोगः, प्रत्याचक्षे इति कोऽर्थः ?-प्रतिषेधस्यादरेणाभिधानं करोमि, यावज्जीवयेत्यत्र दयावच्छब्दः परिमाणमर्यादाऽवधारणवचनः, तत्र परिमाणे यावन्मम जीवनपरिमाणं तावत्प्रत्यारव्यामीति,मर्यादायां यावजी-18 वनमिति मरण मर्यादीत्य आरात्, न मरणकालमात्र एवेति, अवधारणे यावत् जीवनमेय तावत् प्रत्याश्यामि, न तस्मात्से परत इत्यर्थः, जीवन जीवेत्ययं क्रियाशब्दः परिगृह्यते, तया, अथवा प्रत्याख्यानक्रिया परिगृह्यते, यावजीवो यस्यां सा SMEducation Paranora ~234 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२७], विभा गाथा -1, भाष्यं [१५१...], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत RASIS सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] यावज्जीवा तया, त्रिविधमिति तिम्रो विधा यस्य सावद्ययोगस्य स त्रिविधः, स च प्रत्याख्येयत्वेन कर्म सम्पद्यते, कर्मणि च द्वितीया विभक्तिः, अतस्तं त्रिविधं मनोवाकायच्यापारलक्षणं कायवाङ्मनःकर्म योग' ( तत्त्वा अ. ६ सू १) इति वचजानात् , 'त्रिविधेने ति करणे तृतीया, मनसा वाचा कायेन, तत्र 'बुधी मनी ज्ञाने' मननं मन्यते वाऽनेनेति मनः, औणादिद कोऽस्प्रत्ययः, तच्चतुर्द्धा, नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् , नामस्थापने सुगमे, द्रव्यमनो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं तद्योग्यपुद्गलमयं, भावमनो मंता जीव एव, 'वच परिभाषणे वचनं उच्यते इति वाक्, सापि चतुर्विधा नामस्थापनाद्रव्यभावमेदात्, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यवाक् ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिका शब्दपरिणामयोग्याः जीवपरिगृहीताः १ भाववाक् पुनस्त एव पुद्गलाः शब्दपरिणाममापना, तथा 'चिञ् चयने' चयनं चीयते वा कायः 'चित्युपसमाधानावसथदेहे कश्चादि' रिति घञ्, चकारात् ककारः, पुद्गलानां चयात् पुद्गलानामेवावयवरूपतया समाधानात् जीवस्य निवा|सात् प्रतिक्षणं केषाश्चित्पुद्गलानां क्षरणात् कायः-शरीरं, सोऽपि नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाचतुर्धा, तत्र नामस्थापने प्रतीते, द्रव्यकायो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तः शरीरत्वयोग्या अगृहीतास्तत्स्वामिना वा जीवेन मुक्ता यावत् तं परिणाम न मुश्चति तावद् द्रव्यकायः, भावकायस्तु तत्परिणामपरिणता जीवबद्धा जीवसंयुक्ताश्च पुद्गलाः, अनेन त्रिविधेन करणेन त्रिविध पूर्वाधिकृतं सावध योगं न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि-न अनुमन्येऽहमिति, तस्य-1 | त्यधिकृतस्य सावद्ययोगस्य (भयान्त इति पूर्ववत् ) प्रतिक्रमामि-निवः निन्दामि-जुगुप्से, गहें इति स एवार्थः, किन्तु | आत्मसाक्षिकी निन्दा गुरुसाक्षिकी गहेंति, किं जुगुप्से इत्यत आह-आत्मानम्-अतीतसावद्ययोगकारिणं, व्युत्सृजामि-वि *KAESARIAISAGRICE ~2350 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०२८-१०२९] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१५२-१५३], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्री आव ० मलयगि० वृत्तौ सूत्रस्पर्शिका ॥ ५५७ ॥ विधार्थी विशेषार्थो वा विशब्दः, उच्छब्दो भृशार्थः, सृजामि त्यजामि, विविधं विशेषेण भृशं त्यजामीति भावः, एवं | तावत्पदार्थ पदविग्रहौ यथासम्भवमुक्तौ, अधुना चालनाप्रत्यवस्थाने वक्तव्ये, अत्रान्तरे सूत्रस्पर्शिक नियुक्तिरुच्यते, स्वस्थानत्वात्, आह च नियुक्तिकारः- अक्खलिअसंहिआई वक्खाणचक्क दरिसिअम्मि । सुत्तप्फासिअनिजुत्ति-वित्थरत्थो इमो होइ ॥ १०२८ ॥ अस्खलिते - अस्खलितादौ सूत्रे उच्चरिते संहितादौ व्याख्यानचतुष्टये दर्शिते सति सूत्रस्पर्शिक निर्युक्तिविस्तरार्थोऽयं भवतीति । तमेव दर्शयति करणे भए अ अंते सामाइअ सबए अवज्जे अ । जोगे पञ्चक्खाणे जावजीवाइ तिविहेणं ।। १०२९ ॥ 'करणे' करणशब्दे, एवं भयशब्दे अन्तशब्दे सामायिकशब्दे सर्वशब्देऽवद्यशब्दे योगशब्दे प्रत्याख्यान शब्दे यावजीवशब्दे त्रिविधेनेतिशब्दे च सूत्रस्पर्शिक नियुक्तिर्भवति सा च सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तिरनुगमरूपा सूत्रालापकन्यासपूर्वकेति प्रथमतः करणनिक्षेप दर्शनायाह नामंठवणादवि खित्ते काले तहेव भावे अ । एसो खलु करणस्स उ निक्खेवो छबिहो होइ ॥ १५२ ॥ (भा.) 'नामेति नामकरणं स्थापनाकरणं द्रव्यकरणं क्षेत्रकरणं कालकरणं भावकरणं च एषः- एवंस्वरूपः खलु करणस्य निक्षेपः पद्विधो भवति ॥ तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, सम्प्रति द्रव्यकरणप्रतिपादनायाहजगभविअरितं सन्नानोसन्नओ भवे करणं । सन्ना कडकरणाई नोसन्ना वीसस-पओगे ॥ १५३ ॥ (भा.) Por Private & Personal Use Only ~ 236~ सूत्रपदनि क्षेपाः कर णाधिकारः ॥ ५५७ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०२८-१०२९] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१५२-१५३], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः इह यथासम्भवं द्रव्यकरणशब्दस्य व्युत्पत्तिः- द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्ये वा करणं द्रव्यकरणमिति, द्रव्यकरणं द्विधा- आगमतो नोआगमतश्च, आगमतः करणशब्दार्थज्ञाता तत्र चानुपयुक्तो, नोआगमतस्त्रिधा - ज्ञशरीर भव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात्, तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरे प्रतीते, ज्ञभव्यातिरिक्तं-ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्विधा- 'सन्नानोसन्नओ भवे कर'ण'मिति, संज्ञाकरणं नोसंज्ञाकरणं व तत्र संज्ञाकरणं कटकरणादि, आदिशब्दात् पेलुकरणादिपरिग्रहः, पेलुशब्देन रुतपूणिका अभिधीयते, अयमत्र भावार्थ:- कटनिर्वर्त्तकमयोमयं चित्रसंस्थानं पाइलकादि तथा रूतपूणिकानिर्वर्त्तकं शलाकाशल्यकाङ्गरुहादि संज्ञाद्रव्यकरणम्, अन्वर्थोपपत्तेः संज्ञाविशिष्टं द्रव्यस्य करणं संज्ञाद्रव्यकरणं, आह- इदं नामकरणमेव पर्यायमात्रतः संज्ञाकरणम्, अतो न कश्चिद्विशेषः, तदयुक्तं, नामकरणमिहाभिधानमात्रं करणमित्यक्षरत्रयात्मकं परिगृह्यते, संज्ञाकरणं तु करणादिसंज्ञाविशिष्टं कटादेर्निर्वर्त्तनाय करणं ततो महान् विशेषः, आह च भाष्यकार ः- सन्नानामंति मई तन्नो नामं जमभिहाणं ॥ जं वा तदत्थविकले कीरइ दबं तु दवणपरिणामं । पेलुकरणादि न हि तं तदत्थसुन्नं नवा सद्दो ॥ १ ॥ जइ न तदत्थविहीणं, तो किं दबकरणं जतो तेणं । दबं कीरइ सन्नाकरणंतिय करणरूढीतो ॥ २ ॥ आसामतृतीयगाथानामयं सङ्क्षेपार्थः ननु संज्ञा नामेत्यनर्थान्तरं ततः संज्ञाकरणनामकरणयोर्न कश्चिद्विशेषः, तदेतन्न, यस्मात् | करणमित्यक्षरत्रयात्मकमभिधानमात्रं नाम, यद्वा तदर्थविकले वस्तुनि सङ्केतमात्रतः करणमिति नाम क्रियते तन्नामकरणं, संज्ञाकरणं तु पेलुकरणादिकं द्रव्यं तेन तेन पूणिकादिकृतिसाधकतमरूपेण यद् द्रविणं तत्र द्रवणपरिणामं, नहि तत् पेलुकरणादि तदर्थविहीनं, पूणिकादिकृतिसाधकतमपरिणामान्वितत्वात् नापि शब्दः करणमित्यक्षरत्रयात्मकं ततो महान् ~237~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] श्री आव ० मलयगि० वृत्तौ सूत्र स्पर्शिका ॥ ५५८ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [१०२८-१०२९] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १५४], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः नामकरणसंज्ञाकरणयोर्भेदः, ननु यदि न संज्ञाकरणं तदर्थविहीनं करणशब्दार्थरहितं ततः किं कस्माद् द्रव्यकरणं १, भावकरणं हि तत्प्राप्नोतीति भावः, उच्यते, यतस्तेन पेलुकरणादिना पूणिकादिद्रव्यं क्रियते तेन करणमित्युच्यते, करणमिति संज्ञा च तत्र रूढेति संज्ञाद्रव्यकरणमिति । नोसंज्ञाद्रव्यकरणं द्विधा प्रयोगतो विवसातच, तथा चाह- 'बीससपयोगे' । तत्र विश्वसाकरणं द्विधा-साद्यनादिभेदात्, तदाहareeकरणमा धम्माईण परपच्चया जोगा । साई चक्खुप्फा सिय-मन्भाई अचक्खुमणुमाह ॥ १५४॥ (भा.) farer - स्वभावो भण्यते तेन करणं विश्वसाकरणम् करणशब्दस्य च कृतिः करणं क्रियते तदिति करणं क्रियते अनेन वा करणमिति यथायोगं व्युत्पत्तिरवसतव्या । अत्र तु भावसाधनः, अनादि-आदिरहितं धर्म्मादीनां - धर्माधर्माका शास्तिकायानां, अन्योऽन्यसमाधानमिति गम्यते, आह-करणशब्दस्ताबद पूर्वप्रादुर्भावे वर्त्तते, करणं चानादि चेति परस्परविरुद्धं, उच्यते, न खल्ववश्यमपूर्वप्रादुर्भाव एवं करणशब्दो वर्त्तते, किं तु अन्योऽन्यसमाधानेऽपि तथा पूर्वाचार्योपदेशतो न कश्चिद्दोषः, अथवा परप्रत्यययोगादिति - परवस्तुप्रत्ययात् सहकारिवस्तुयोगात् धर्मास्तिकायादीनां या विश्वसातः तथा योग्यता सा करणं, एवमप्यनादिता विरुद्धयते इति चेत्, नैष दोषः, अनन्तशक्तिप्रचितद्रव्यपर्यायोभयरूपत्वे सति वस्तुनो द्रव्यादेशेनाविरोधात्, गहनमेतत् सूक्ष्मधिया भावनीयम्, अथवा विश्वसाकरणं धर्म्मादीनां परस्परसमाधानरूपं करणमनादि, यत् पुनः परप्रत्यययोगतस्तत्तत्पर्यायभवनं, देवदत्तादिसंयोगतो ये धर्मादीनां विशिष्टाः पर्याया इत्यर्थः, तत् सादिकरणं ॥ एवमरूपिद्रव्याण्यधिकृत्य साद्यनादिविश्रसाकरणमुक्तम् ॥ अधुना रूपिद्रव्याण्यधिकृत्य साधेव वा चाक्षु Por Private & Personal Use Only ~ 238~ विश्वसा करणं ॥ ५५८ ॥ brary.org Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२८-१०२९], विभा गाथा [-], भाष्यं [१५५-१५६], मूलं [१] | गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम पेतरभेदेन करणमाह-सादि चक्षुःस्पर्श, चाक्षुपमित्यर्थः, अभ्रादि, आदिशब्दात् शक्रचापादिपरिप्रहः, 'अचक्खुए'त्ति अचाक्षुष-अण्वादि, आदिशब्दाद् ब्यणुकादिपरिग्रहः, करणता चेह कृतिः करणमितिकृत्वा, अन्यथा वा स्वबुद्ध्या योजनीया ॥ सम्प्रति चाक्षुषाचाक्षुषभेदमेव विशेषेण प्रतिपादयति संघाय-मेअ-तदुभयकरणं इंदाउहाइ पच्चक्खं । दुअअणुमाईयाणं छउमस्थाईणपश्चक्खं ॥१५५ ॥ (भा.) | संघातः संहननं, भेदो विघटनं, तच्छब्देन सङ्घातभेदी परामृश्येते, तश्च तत् उभयं च तदुभयं, सङ्घातभेदतदुभयैः करणं, क्रियते इति कर्मसाधनः करणशब्दः, सङ्घातभेदतदुभयकरणं इन्द्रायुधादि स्थूलमनन्तपुद्गलात्मकं प्रत्यक्षं, चाक्षुदापमित्यर्थः, तथाहि-अभ्रादीनां क्वचित् केचित् पुद्गलाः संहन्यते एव कचित् केचित् भियन्त एव कचित् केचित संहन्यन्ते। भिद्यन्ते चेति सङ्घातभेदतदुभयकरणं, व्यणुकादीनां आदिशब्दात्तथाविधानन्ताणुकान्तानां पुनः, करणमिति वर्तते, छमस्थादीनां आदिशब्दः खगतानेकभेदप्रतिपादनार्थमाह, अप्रत्यक्षम्, अचाक्षुपमित्यर्थः, उकं विस्रसाकरणम् , अधुना प्रयोगकरणं वक्तव्यम्, तत्र प्रयोगो नाम जीवव्यापारः तेन यद् विनिमोप्यते सजीवमजीवं वा तत् प्रयोगकरणं, उक्तं च-"होइ। पयोगो जीववावारो तेण जं विणिम्मायं । सज्जीवमजीव वा पयोगकरणं तयं बहुहा ॥१॥" एतदेवाहजीवमजीवे पाओगि तु चरिमं कुसुंभरागाई। जीवप्पओगकरणं मूले तह उत्तरगुणे अ॥१५६ ॥ (भा.) प्रायोगिकं करणं द्विधा-जीवे अजीवे च, जीवप्रायोगिकमजीवप्रायोगिकं चेत्यर्थः, प्रयोगेण निर्वृत्तं प्रायोगिक, तत्र परमम्-अजीवप्रयोगकरणं कुसुंभरागादि, आदिशब्दात् शेषवणोदिपरिप्रहः, एवं तावदल्पवक्तव्यत्वादमिहित ओषतीजीप-| [२] था. सू.९४ ~239 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [२] श्रीआव० मलयगि० आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०२८-१०२९] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१५७ - १६० ], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वृत्तौ सूत्रस्पर्शका ॥ ५५९ ॥ in Educat प्रयोगकरणं, जीवप्रयोगकरणं द्विप्रकार, मूले- मूलगुणकरणं तथा उत्तरगुणे चेति-उत्तरगुणकरणं, व्यासार्थं तु ग्रन्थकर एव वक्ष्यति, तत्राल्पवक्तव्यत्वाद जीवप्रयोगकरणमादावेवाभिधित्सुराह जं जं निजीवाण कीरह जीवप्पओगओ तं तं । यन्नाइ रुवकम्माइ वावि अज्जीवकरणं तु ॥ १५७ ॥ (भा.) यत् यत् निर्जीवानां पदार्थानां जीवप्रयोगेण क्रियते निर्वर्त्यते तत्तद्वर्णादि कुसुम्भादीनां रूपकम्र्म्मादि कुट्टिमादी अजीवे अजीवविषयत्वाद् अजीव प्रयोगकरणमिति ॥ taruओगकरणं दुविहं मूलप्पओगकरणं च । उत्तरपओगकरणं पंच सरीराई पढमम्मि ॥ १५८ ॥ (भा.) ओरालिआइआई ओहेणिअरं पओगओ जमिह । निष्फन्ना निष्फज्जह आइल्लाणं च तं तिन्हं ॥ १५९ ॥ (भा.) औदारिकादीनि, आदिशब्दात् बैक्रियाहारकतैजसकार्म्मणशरीरपरिग्रहः, ओघेन- सामान्येन तथा इतरत् - उत्तर प्रयोगकरणं गृह्यते, तलक्षणं चेदम्-प्रयोगेण यदिह लोके मूलप्रयोगेण निष्पन्नात् तन्निष्पन्नात् निष्पद्यते तदुत्तरप्रयोगकरणं, तच्च त्रयाणामाचानां शरीराणाम्, इयमत्र भावना पञ्चानामौदारिकादिशरीराणामाद्यं सङ्घातकरणं मूलप्रयोगकरणमुच्यते, अङ्गोपाङ्गादिकरणं तूचरकरणं तचौदारिक वैक्रियाहारकरूपाणां त्रयाणां शरीराणां, न तु तैजसकार्म्मणयोः, तयोरङ्गोपाङ्गाद्यसम्भवात् तत्रैौदारिकादीनामष्टावङ्गानि अङ्गुल्यादीनि उपाङ्गानि शेषाणि अङ्गोपाङ्गानि मूलकरणं, तानि चामूनि - सीसमुरोअर पिट्टी दो बाहू ऊरुआ य अहंगा । अंगुलिमाइ उबंगा अंगोवंगाई सेसाई ॥ १६० ॥ (भा.) Por Private & Pul Use Only ~ 240 ~ संघातादिकरणानि ।। ५५९ ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२८-१०२९], विभा गाथा [-], भाष्यं [१६१-१६३], मूलं [१] | गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: KAR प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] I शीर्षमुर उदरं पृष्ठं द्वौ वाहू द्वौ च ऊरू इत्यष्टावजानि, अङ्गल्यादीनि उपाङ्गानि, शेषाणि करपादादीनि अङ्गोपाङ्गानि । किञ्च__केसाईउवरयणं उरालविउथि उत्तरं करणं । ओरालिए विसेसो कण्णाइणट्ठसंटवणं ॥ ११ ॥ (भा.) केशायुपरचनं-केशादिनिर्मापणसंस्कारी आदिशब्दान्नखदन्तरागादिपरिग्रहः, औदारिकवैक्रिययोरुत्तरकरणं, यथासम्भवं चेह योजना कार्या, तथा औदारिके उत्तरकरणे विशेषः, कर्णादिविनष्टसंस्थापन, न चेदमुत्तरकरणं वैक्रियादौ सम्भ वति, विनाशाभावात् , विनष्टस्य च सर्वथा बिनाशेन संस्थापनाऽभावात् , केशायुपरचनरूपं तूत्तरकरणमाहारके न सम्भभवति, प्रयोजनाभावात् , ततो गमनागमनादिरूपं तत्तत्रावसातव्यम् , अथवेदमन्याहक त्रिविधं करणम् , तद्यथा-सङ्घात४|करणं परिशाटकरणं सातपरिशाटकरणं च, तत्राद्यानां त्रयाणां शरीराणां तैजसकार्मणरहितानां त्रिविधमप्यस्ति, इयोस्तु चरमद्वयमेव ॥ तथा चाहHI आइल्लाणं तिण्हं संघाओ साडणं तदुभयं च । तेआकम्मे संघायसाडणं साडणा वाऽवि ॥ १६२ ॥ (भा.) 31 आद्यानां त्रयाणाम्-औदारिकवैक्रियाहारकरूपाणां शरीराणां सङ्घातः शाटनं तदुभयं च-सङ्घातपरिशाटी, तैजसकार्मणे ताच सङ्घातपरिशाटी शाटनं वापि, न तु सङ्घातोऽनादित्वात् ॥ साम्प्रतमौदारिकमधिकृत्य सङ्घातादिकालमानमभिधित्सुराह| संघायमेगसमयं तहेव परिसाडणं उरालम्मि । संघायणपरिसाडो खुड्डागभवं तिसमऊणं ॥१६३ ॥ (भा.) सङ्घातमिति सर्वसङ्घातकरणमेकसमयं भवति, एकान्तादानस्य एकसामयिकत्वात् , अत्र घृतपूपो दृष्टान्तः, यथा घृतपूर्ण ~241 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२८-१०२९], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [१६४], मूलं [१] | गाथा । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: संघातादि प्रत सूत्राक [१] श्रीआव० प्रितप्तायां तापिकायां सम्पानकप्रक्षेपात् स पूपः प्रथमसमये एव एकान्तेन स्नेहपुद्गलानां ग्रहणमेव करोति, न त्यागम् , मलयगि अभावात् , द्वितीयादिषु तु समयेषु ग्रहणमोक्षी, तथाविधसामर्थ्य युक्तत्वात्, पुद्गलानां च सङ्घातभेदधर्मत्वात् , एवं वृत्ती सूत्र- जीवोऽपि तत्प्रथमतयोत्पद्यमानः सन् आद्यसमये औदारिकशरीरप्रायोग्याणां पुद्गलानां ग्रहणमेव करोति, न तु मुश्चत्यस्पर्शिका भावात् , द्वितीयादि तु समयेषु ग्रहणमोक्षी, युक्तिरत्र पूर्ववत्, ततः सङ्घातमेकसामयिकमिति, सङ्घातमित्यत्र नपुंसकता तथा दर्शनात् , तथैव परिशाटनं-परिशाटनाकरणमेकसमयमिति वर्तते, सर्वपरिशाटनस्याप्येकसामयिकखादेवेति, 'औदा-1 ॥५६॥ |रिक' इत्यौदारिकशरीरे 'संघायणपरिसाडण' ति संघातनपरिशाटनकरणं तु क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं, तत् पुन-| है रेवं भावनीयं-जघन्यकालस्य प्रतिपादयितुमभिप्रेतत्वात् विग्रहेणोत्पाद्यते, ततश्च द्वौ विग्रहसमयावेकः सङ्घातसमय इति |तैयूंनं, तथा चोक्तम्-"दो विग्गहमि समया समयो संघायणाएँ तेहूणं । खुड्डागभवग्गहणं सबजहलो ठिईकालो ॥१॥" इहच सर्वजघन्यमायुकं खुलकभवग्रहणं, प्राणापानकालस्यैकस्य सप्तदशभाग इति, उक्तं च भाष्यकारेण-"खुडागभव-५ ग्गहणा सत्तरस हवंति आणपाणूंमि'त्ति गाथार्थः॥ एयं जहन्नमुकोसयं तु पलिअत्तिअंतु समऊणं । विरहो अंतरकालो ओराले तस्सिमो होइ ॥१६४॥ (भा.) पू इदं जपन्य सङ्घातादिकालमानम् , उत्कृष्टं तु सङ्घातपरिशाटनकरणकालमानमौदारिके-औदारिकमाश्रित्य पल्यो- I पमत्रिकं समयोनम् , तथाहि-इहोत्कृष्टकालस्य प्रतिपाद्यत्वात् अयमविग्रहसमापन्नो गृह्यते, स इहभवात्परभवं गच्छन् इहभवशरीरशाट कृत्वा परभवायुषः त्रिपल्योपमकालस्य प्रथमसमयेन शरीरसङ्घातं करोति, ततो द्वितीयसमयादारम्य PASISAKHI SASA दीप अनुक्रम [२] nten ~242 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२८-१०२९], विभा गाथा H], भाष्यं [१६५], मूलं [१] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम सङ्घातपरिशाटोभयकालः, ततस्तेन सङ्घातनासमयेन ऊनं पल्योपमत्रयमिति, ननु यथा सङ्घातसमयेनोनं पस्योपमत्रयं मतं 18 तथा परिशाटसमयेनापि, ततो द्विसमयहीनं पल्योपमत्रयं प्रामोति, तदयुक्तं, वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्, निश्चयतो हि भवस्य चरमेऽपि समये सङ्घातपरिशाटावेव, परिशाटस्तु परभवप्रथमसमयेन, अत एकेन समयेनोनसा, न द्वाभ्यामिति, उक्तं च-"उकोसो समऊणो जो सो संघयणासमयहीणो । किह न दुसमयविहीणो साडणसमएवणीयंमि? ॥१॥ भण्णइ भवचरमंमिवि समए संघायसाडणा चेव । परभवसमए साडणमतो तदूणो न कालोत्ति ॥२॥" एवमौदारिके जघन्येतरभेदः सङ्घातपरिशाटकाल उक्तः, सङ्घातपरिशाटयोस्त्वेक एव समयः, द्वितीयस्थासम्भवात् , अधुना सङ्घातादि-12 विरहो जघन्येतरभेदोऽभिधीयते, तथा चाहतिसमयहीणं खुई होइ भवं सवयंध-साडाणं । उक्कोस पुत्रकोडी समयो उवही अ तित्तीसं ॥ १६५ ॥ (भा.) त्रिसमयहीनं क्षुल्लं, 'भवं' ति संपूर्ण क्षुल्लकभवग्रहणं, यथाक्रमं सर्वबन्धशाटयोरन्तरकालः, किमुकं भवति?-सर्वसङ्घातकरणस्य जघन्योऽन्तरकालस्त्रिसमयहीनं क्षुल्लकभवग्रहणं, सम्पूर्ण तु क्षुल्लकभवग्रहणं परिशाटस्येति, कथं सर्वसङ्घातस्य जघन्यान्तरकालस्त्रिसमयहीनं क्षुल्लकभवग्रहणं ?, उच्यते, यदा कश्चिदेकेन्द्रियादिर्जीवो मृतः सन् समयद्वयं विग्रहे कृत्वा क्षुल्ल कभवग्रहणायुध्केषु पृथिव्यादिपूत्पन्नः तृतीयसमये औदारिकस्य सङ्घातं कृतवान् तदा औदारिकशरीरमधिकृत्य सङ्घातस्य | ट्राबिसमयन्यूनक्षुल्लकभवग्रहणप्रमाणो जघन्योऽन्तरकालः, उक्तं च-"संघायंतरकालो जहन्नओ खुदुर्ग तिसमऊणं । दो| विग्गहमि समया तइओ संघायणासमओ॥१॥ तेहूणं खुडगभवं धरिलं परभवमविग्गहेणेव । गतूण पढमसमये संघातयतो [२] ~243 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२८-१०२९], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१६५], मूलं [१] | गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] श्रीआव•स विनओ ॥२॥" कथं पुनः सर्वपरिशाटस्य सर्वपरिशाटस्यान्तरपरिमाणं जघन्यं परिपूर्ण क्षुल्लकभवग्रहणं ?, उच्यते- संघातादि. मलयगि18 इहानन्तरातीतभवचरमसमये कश्चिदौदारिकशरीरी सर्वपरिशाटं कृत्वा वनस्पतिष्वागत्य सर्वजधन्यक्षुल्लकभवग्रहणायुष्क- करणानि वृत्तौ सूत्र- मनुपाल्य पर्यन्ते सर्वपरिशाटं करोति ततः परिपूर्ण क्षुल्लकभवग्रहणमन्तरं भवति, इहानन्तरातीतभवचरमसमये सर्वपरिस्पर्शिका शाटविवक्षा व्यवहारनयमतापेक्षया, क्षुलकभवग्रहणमनुपाल्य पर्यन्ते परभवप्रथमसमये सर्वपरिशाटो निश्चयनयमतापेक्षया, तितो न कश्चिद्दोपः, अन्यथा क्षुल्लकभवग्रहणप्रथमसमयस्य पूर्वभवशाटेनावरुद्धत्वात् समयहीनं क्षुल्लकभवग्रहणं जघन्यं परि-1 शाटान्तरं स्यात्, तथा सर्वेपन्धस्य सर्वसहातरूप उकृत्ष्टोऽन्तरकालः पूर्वकोटी तथा समयः, तथा उदधिश्च-सागरोपमाणि च त्रयस्त्रिंशत् , तथाहि-कश्चित् पूर्वभवादविग्रहेण मनुष्यभवे समागत्य प्रथमसमये सखातं कृत्वा पूर्वकोटिप्रमाणायुष्कं परिपाल्यानुत्तरसुरेषूत्पन्ना, तत्र त्रयसिंशत्सागरोपमाणि उत्कृष्टमायुष्कमनुभूय ततव्युत्वा समयदयं विग्रहे विधाय तृतीये|5|| समये औदारिकशरीरस्य सङ्घातं करोति, इह विग्रहप्रसक्तसमयद्वयमध्यादेकः प्राक्तनपूर्वकोव्यां प्रक्षिप्यते, तत्र त्रयस्त्रिंश-16 सागरोपमाणि समयाधिकपूर्वकोय्यधिकान्युत्कृष्टमौदारिकशरीरसङ्घातान्तरं लभ्यते इति, तथा चोक्तम्-"उक्कोसं तेत्तीस समयाहिय पुषकोडिसहियाई। सो सागरोवमाई अविग्गहेणेव संघायं ॥१॥काऊण पुषकोडिं धरिउ सुरजेट्ठमाउयं तत्तो। भोत्तूण इहं तइए समये संघातयंतस्स ॥२॥” सर्वपरिशाटस्य उत्कृष्टोऽन्तरकाल एष एव समयहीनः, किमुक्तं भवति -परि-15॥५६१॥ पूर्णानि यस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सम्पूर्णा च पूर्वकोटी, तथाहि-कश्चित् संयतमनुष्यः स्वभवचरमसमये औदारिकपूर्वपरि-1 शादं कृत्वाऽनुत्तरेषु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यतिवाह्य पुनर्मनुप्येष्वौदारिकसर्वसङ्घातं कृत्वा पूर्वकोट्यन्ते परभवप्रथमसमये SMECToninav ~244 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [१०२८-१०२९] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १६६ ], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः औदारिकसर्व परिशाटं करोति, इहापि संयतमनुष्यभवचरमसमये सर्वपरिशाटविवक्षा व्यवहारनयमताश्रयणात् परभवप्रथमसमये निश्चयनयमतापेक्षया, ततो यथोक्तमन्तरपरिमाणं भवति, उक्तं च- "खुड्डागभवग्ग्रहणं जहन्नमुकोसयं च तेत्तींसं । तं सागरोवमाई संपुन्ना पुबकोडी य ॥ १ ॥” अन्यथा समयत्रयही नस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमपूर्व कोटिप्रमाणताऽवसेया, याव देवं व्यारव्यानुरोधेन व्याख्या कृता, तत्त्वतः पुनरेवं व्याख्या- 'तिसमयहीणं खुडुं होइ भवं सवबंधसाडाणं ।' सर्वबन्धस्य सर्वशाटस्य च यथाक्रमं जघन्योऽन्तरकालः क्षुल्लकभवग्रहणं 'त्रिसमयहीन' मिति त्रिभिः - अर्थात् समयैः समयेन च हीनं त्रिसमयहीनं क्षुल्लकभवग्रहणं सर्वसङ्घातस्य जघन्योऽन्तरकालः, समयहीनं सर्वपरिशाटस्येति भावः, 'उक्कोसे' त्यादि, सर्वसङ्घातस्योत्कृष्टोऽन्तरकालः पूर्वकोटी समय उदधयश्च सागरोपमाणि त्रयस्त्रिंशत्, सर्वपरिशाटस्योत्कृष्टोऽन्तरकालः पूर्वकोटी समयेन हीना उदधयः समयोदधयः, गुडधाना इत्यादाविव मध्यपदलोपी समासः, समयेन हीनानि सागरोपमाणि त्रयस्त्रिंशद् भावना सर्वाऽपि प्रागुक्तैव द्रष्टव्या । सम्प्रति सङ्घातपरिशादान्तरमुभयरूपमपि अभिधित्सुराह अंतरमेगं समयं जहन्नमोरालग्रहणसाडस्स । सतिसमया उद्योसं तित्तीसं सागरा हुंति ॥ १६६ ॥ (भा.) 'अन्तरं' अन्तरालं जघन्यं सर्वस्तोकं एकं समयमादारिकस्य 'ग्रहणशाटस्य ग्रहणं च चाटश्च ग्रहणशाटं तस्य, सङ्घातपरिशाटस्येत्यर्थः तथाहि यदा औदारिकशरीरी आयुःपर्यन्तं यावत् सङ्घातपरिशाटोभयं कृत्वाऽग्रेतनभवेऽविग्रहेणोत्पद्यौदारिकस्यैव सङ्घातं कृत्वा पुनरपि तदुभयमारभते तदा एकसमयो जघन्यमुभयान्तरमिति, उत्कृष्टमन्तरं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सत्रिसमयानि, तथाहि-यथा कश्चित् मनुष्यादिः स्वभवचरमसमये सङ्घातपरिशाटोभयं कृत्वाऽनुत्तर सुरेष्वप्रति Por Private & Personal Use Only ~245~ elbrary.org Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२८-१०२९], विभा गाथा H], भाष्यं [१६७], मूलं [१] / गाथा - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक E श्रीआवाघाने या त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यनुभूय पुनरपि समयद्वयं विग्रहेण गमयित्वा तृतीयसमये औदारिकस्य शरीरस्य सङ्घातमा- संघातादिमलयगि. IHदाय तदनन्तरमुभयमारभते, तत्र तावद्द्वी विग्रहसमयावेकश्च सङ्घातसमयो देवादिभवसम्बधीनि प्रयस्त्रिंशत् सागरोप- करणानि वृत्तौ सत्र-18|माणीति यथोक्तप्रमाणमुत्कृष्टमुभयान्तरमिति, उक्तं च-"उभयंतरं जहन्नं समओ निधिग्गहेण संघाते । परमं सतिसमयाई181 स्पर्शिका तेत्तीसं जयहिनामाई ॥१॥ अणुभविडं देवादिसु तेत्तीसमिहागयस्स तइयमि । समए संघातयतो नेयाई समयसलेहिं। ॥२॥" उक्ता औदारिकमधिकृत्य सर्वसङ्घातादिवक्तव्यता, साम्प्रतं वैक्रियमधिकृत्योच्यते, तत्रेयं गाथा॥५६२ ॥ वेउबियसंघाओ जहन्न समओ उ दुसमयुकोसो।साडो पुण समयं चिअ विउवणाए विणिद्दिहो।।१६७।। (भा.) क्रियस्य संघात:-सर्वसङ्घातकालो 'जघन्यः' सर्वस्तोक एकसमय एव, तुशब्दस्यवेकारार्थत्वेनावधार्यमाणत्वात् , अयं| चौदारिकशरीरिणां वैकियलब्धिमता विकुर्वणारम्भे देवनारकाणां च तत्प्रथमतया शरीरमहणेऽवसातव्यः, उक्तं च"वेउषियसंघातो, समओ सो पुण विउवणादीए । ओरालियाणमहवा, देवाईणादिगहर्णमि ॥१॥" तथा द्विसमयो-18 द्विसमयमान उत्कृष्टो, चैक्रियसङ्घात इति वर्त्तते, कालतश्चेति गम्यते, स पुनर्यदा औदारिकशरीरी वैक्रियलब्धिमान् विकुवणारम्भसमय एव वैक्रियसङ्घातं समयेन कृत्वा स्वायुःक्षयात् मृतो द्वितीयसमये विग्रहाभावेन ऋजुश्रेण्या सुरेपूरपद्यमानः ॥५६॥ वैक्रिय सङ्घातयति तदाऽवसातव्यः, आह च-"उक्कोसा समयदुगं जो समयविउविर्ड मओ बिहए । समये सुरेसु वश्चइ निविग्गहतो तयं तस्स ॥१॥" शाटः पुनर्जघग्यत उत्कर्षतश्च समयमेव फालतो 'विकुर्वणायां' क्रियशरीरविषयो निर्दिष्टस्तीर्थकरगणधरैः । अधुना सङ्घातपरिक्षाटकालमानमभिषित्सुराह अनुक्रम [२] 14- albrineng: ~246 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२८-१०२९], विभा गाथा [-], भाष्यं [१६८-१६९], मूलं [१] | गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ARRER [१] संघाडणपरिसाडो जहन्नओ इकसमइयो होइ । उकोसं तित्तीसं सागरनामा उ समऊणा ॥१६८॥ (भा.) वैक्रियस्य सङ्घातसम्मिश्रः परिशाटः सङ्घातपरिशाटः उभयरूपः कालतः खलु जघन्य एकसामयिको भवति, तथाहियदा केनचिदौदारिकशरीरिणा उत्तरवैक्रियमारब्धं, सच तत्र प्रथमसमये सङ्घातं द्वितीयसमये तु सङ्घातपरिशाटोभयं कृत्वा टूबियते तदा तस्यैकसामयिकः वैक्रियस्य सङ्घातपरिशाट इति, उत्कृष्टस्त्रयस्त्रिंशत् 'सागरनामानि' सागरोपमाणि समयो-18 नानि, तानि चानुत्तरेष्वप्रतिष्ठाने वा सङ्घातसमयहीनान्यवसातव्यानि, उक्तं च-"उभयं जहन्न समओ सो पुण दुसमयविउबिअमयस्स । परमयराई संघातसमयहीणाई तेत्तीस ॥१॥" इदानी चैक्रियमेवाधिकृत्य सङ्कातायन्तरमभिषित्सुराह सबग्गहोभयाणं साडस्स य अतरं विउचस्स । समयो अन्तमुहत्तं उफोसं रुक्खकालीअं ॥१६९॥ (भा.) वैक्रियस्य 'सर्वग्रहोभययो' सहातसंघातपरिशाटयोः शाटस्य च जघन्यमन्तरं-विरहकालो यथाक्रमं समय अन्तमुहूर्त च, किमुक्तं भवति ?-सहातस्य सङ्घातपरिशाटस्य च समयः, शाटस्यान्तर्मुहूर्त च, सङ्घातस्याम्सरमेवं-औदारिकशरीरिणः समयमेकमुत्तरवैक्रियं कृत्वा मूतस्य द्वितीयसमये विग्रहेण-विग्रहतः तथा तृतीयसमये देवलोके समुत्पद्य वैक्रिय-18 सङ्घातं कुर्वतो वेदितव्यं, अत्र हि प्राक्तनवैक्रियसर्वसंघातस्य अप्रेतनोत्तरवैक्रियसङ्घातस्य च विग्रहसमयोऽन्तरमिति, | 8 अधवा औदारिकशरीरिणः समयद्वयमुत्सरवैक्रियं कृत्वा तृतीयसमये मृतस्य निर्विग्रहेण देवलोके समुत्पन्नस्य तस्मिन्नेव च तृतीये समये वैक्रियसनातं कुर्वतो ज्ञातव्यं, अत्र ह्येकः समयः सङ्घातपरिशाटयोरन्तरमिति, उक्तंच-"संघायंतरसमओ समयविउबियमयस्स तइयंमि । सो दिवि संघातयतो तइए व मयस्स तइयंमि ॥१॥" सङ्घातपरिशाटोभयस्य जप दीप अनुक्रम 45% [२] SMEducation ~247~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२८-१०२९], विभा गाथा [-], भाष्यं [१६८-१६९], मूलं [१] | गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप श्रीआवकन्येनान्तरमेकसामयिक, य औदारिकशरीरी वैक्रियलब्धिमान् उपकल्पितवैक्रियशरीरः ' परिपूर्ण तिर्य-मनुष्यवैक्रियश- है संघातादि मलयगि रीरस्थितिकालं यावत् सङ्घातपरिशाटी विधाय मृतोऽविग्रहेण देवेषु समुत्पद्य प्रथमसमये वैक्रियशरीरसहातः द्वितीया- करणानि वृत्तौ सूत्र-16 दिसमयेषु तु सङ्घातपरिशाटौ तस्यावाप्येते, उक्तं च-"उभयस्सवि चिरविउधियमतस्स देवेसऽविग्गहमयस्स । अंतरमेगो स्पर्शिका समयो नायबो समयकुसलेहिं ॥१॥" इह 'चिरविउधियमयस्से' ति यदुक्तं तत् सङ्घातपरिशाटोभयव्यक्तीकरणार्थ, ४. अन्यथा तृतीयेऽपि समये मृतस्य यथोक्तमन्तरमवाप्यते इति । शाटस्य जघन्यमन्तर्मुहूर्त, यदा कश्चिदीदारिकशरीरी ॥५६३॥ विक्रियलब्धिमान कचित् प्रयोजने वैक्रियशरीरं कृत्वा सिद्धकार्यः पर्यन्ते तस्य सर्वशाटं विधाय पुनरीदारिकशरीरमाश्रयति, तत्र चान्तर्मुहुर्ते स्थित्वा पुनरप्युत्पन्नप्रयोजनो वैक्रियं करोति, तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा पुनरप्यौदारिकमागच्छन् वैक्रियस्य शाट करोति, तदा वैक्रियस्य शाटस्य शाटस्य चान्तरमौदारिकशरीरवैक्रियशरीरगतमन्तर्मुहर्तद्वयं भवति, तच्च द्वयमपि बृहदात्तरमेकमेवान्तमुहूर्त विवक्षितमतो जघन्यमन्तर्मुहूर्त्तप्रमाणमुक्तमिति, त्रयाणामपि चोत्कृष्ट वृक्षकालिक' वृक्षकालेनानन्तेन निर्वृत्तं वृक्षकालिक-अनन्तोत्सपिण्यवसप्पिणीमानं, तथाहि-यदा कश्चित् जीवो वैक्रियशरीरस्य ससातादित्रयं कृत्वा वनस्प-14 तिपूत्पद्यते तत्र चानन्तकालमतिवाह्य तत उद्त्तः पुनरपि वैक्रियशरीरमासाद्य सातादित्रयं करोति तदा सातपरिशाटतदुभयरूपस्य त्रयस्याप्यनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपो बनस्पतिकालोऽन्तरे भवतीति ॥ उक्ता वैक्रियशरीरमधिकृत्य सङ्घातादिवक्तव्यता, साम्प्रतमाहारकमधिकृत्य तां प्रतिपादयन्नाह आहारे संघाओ परिसाडो अ समयं समं होइ । उभयं जहन्नमुफोसयं च अंतोमुहत्तं तु ॥ १७० ।। (भा.) अनुक्रम [२] ~248 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०२८-१०२९], विभा गाथा [-], भाष्यं [१७०-१७३], मूलं [१] | गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] ₹आहारक' इत्याहारकशरीरे 'सङ्घातः' प्राथमिको ग्रहः 'परिशाटश्च पर्यन्ते मोक्षश्च कालतः 'समय' कालविशेषमेकमअधिकृत्य समं भवति, क्रियाविशेषणमेतत् , कालोऽपि समयमेकं सङ्घातोऽपि समयमेकमित्यर्थः, उभय-सङ्घातपरिशाटोभयं गृह्यते, तत् जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त्त भवति, अन्तर्मुहूर्त्तकालावस्थायित्वात् तस्य, उकृष्टान्तर्मुहूर्तात् जघन्यं लघुतरं दावेदितव्यं । साम्प्रतमाहारकमेवाधिकृत्य सङ्घाताधन्तरमभिधातुकाम आहप्र बंधणसाडुभयाणं जहन्नमन्तोमुत्तमन्तरणं । उक्कोसेण अवद्धं पुग्गलपरिअह देसूणं ॥१७१ ॥ (भा.) फू 'बन्धन'सडातः, शाट:-झाट एव, उभय सङ्घातशाटी, अमीषां बन्धनशाटोभयानां जघन्यं-सर्वस्तोकमन्तरण-विरहका-18 लोऽन्तर्मुहूर्त, सकृत्परित्यागानन्तरमन्तर्मुहूर्तेनैव तदारम्भात् , उत्कर्षेणार्द्धपुद्गलपरावर्तों देशोनोऽन्तरं, सम्यग्दृष्टिकालस्योत्कृष्टस्याप्येतावत्परिमाणत्वात् , एतच्च यश्चतुर्दशपूर्वधर आहारकशरीरं कृत्वा प्रमादात् प्रतिपतितो वनस्पत्यादिषु ४ यथोक्तं कालं स्थित्वा पुनरपि चतुर्दशपूर्वधरत्वमवाप्याहारकशरीरं करोति तदपेक्षया द्रष्टव्यं ॥ उक्का आहारकशरीरम-18 दाधिकृत्य सातादिवत्तग्यता, सम्प्रति तैजसकानेणे अधिकृत्याहतेयाकम्माणं पुण संताणाऽणाइओन संघाओ। भवाण हुज्ज साडो सेलेसीचरिमसमयम्मि ॥ १७२ ॥ (भा.) तैजसकार्मणयोः पुनद्धयोः शरीरयोः सन्तानानादितः कारणात् न सङ्घातो-न तत्प्रथमतया ग्रहणं, प्रागेव सिद्धिप्रसङ्गात्, भव्यानां तु केषाश्चित् शाटा, कदेत्यत आह-शैलेशीचरमसमये, स चैकसामयिक एव ॥ उभयं अणाइनिहणं संतं भषाण हुज केसिंचि । अंतरमणाइभावा अचंतऽविओगओ नेसिं ॥१७३॥ (भा.) ~249 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०३०], विभागाथा H, भाष्यं [१७४], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप श्रीआवा 'उमयं' सङ्घातपरिशाटनलक्षणं प्रवाहमङ्गीकृत्य सामान्येन 'अनाद्यनिधनं अनाद्यपर्यवसितं, केषांचित् पुनर्भव्या- संघातादिमलयगि नामुभयं 'सान्तं' सपर्यवसानं, नतु सर्वेषां, तथा अन्तरमनादिभावादत्यन्तावियोगतश्च नानयोरिति ॥ अथवेदमन्यत् जीव- करणानि वृत्ती सूत्र-1 प्रयोगनिर्वतितं चतुर्विधं करणं, तथा चाहस्पर्शिका अहवा संघाओ साडणं च उभयं तहोभयनिसेहो। पड-संख-सगड-थूणा जीवपओगे जहासंखं ॥१७॥(भा.ाट I अथवाशब्दः प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः, 'सङ्घात इति सङ्घातकरणं शातनं च-शातनकरणं च उभयं-संघातशातनक॥५६४॥ हरणं च उभयनिषेधः-सातपरिशाटशून्यं, अमीषामेवोदाहरणान्युपदर्शयति-पटः शङ्कः शकटे स्थूणा 'जीवपयोगे इति जीवप्रयोगकरणे तत्कायव्यापारमाश्रित्य यथासङ्ख्यमेतान्युदाहरणान्यवसेयानि, तथाहि-पटस्ततुसङ्घातात्मकत्वात् सातकरणं, शसस्स्थेकान्तशाटकरणात् शाटकरणं, शकटं तक्षणकीलिकादियोगात् तदुभयकरण, स्थूणा पुनरूर्वतिर्यकरणयोगात् सबात शारविरहादुभयशून्यमिति । उक्तं जीवप्रयोगकरणं, आह-ननु 'जं जं निजीवाणं कीरइ जीवष्पयोगतो तं त'मित्यादिनाऽस्याजीवकरणतैव युक्तियुक्तेति, तदप्ययुक्तं, अभिप्रायापरिज्ञानात्, इह चादावेवाथवाशब्दप्रयोगःप्रकारान्तरमात्रदर्शनार्थ इत्युक्तं, ततोऽत्र व्युत्पत्तिभेदमात्रमाश्रीयते, जीवप्रयोगेण करणं जीवप्रयोगकरणं, ज्यायांश्चायमन्वर्थः इत्यलं प्रसङ्गेन । उक्तं द्रव्यकरणं । सम्प्रति क्षेत्रकरणस्यावसरः, तत्रेयं नियुक्तिगाथा ४ ॥५६४॥ खित्तस्स नत्थि करणं आगासं जं अकित्तिमो भायो । वंजणपरिआवन्नं तहावि पुण उच्छुकरणाई ॥ १०३०॥ इह क्षेत्रस्य नास्ति करणं-क्रियमाणता, यस्मात् क्षेत्रं खल्वाकाशं, आकाशं चाकृत्रिमो भावः-अकृतकः पदार्थः, अकृत अनुक्रम [२] ~250 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०३१], विभा गाथा -1, भाष्यं [१७४...], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] कस्य च सतो नित्यत्वात् करणत्वानुपपत्तिः, आह-ययेवं किमिति नियुक्तिकारेण निक्षेपगाथायामुपन्यस्त ?, उच्यते-'बंजणेत्यादि, इह ध्यजनशब्देन क्षेत्राभिव्यञ्जकत्वात् पुद्गला गृह्यन्ते, पर्यायं कथचित् प्रागवस्थापरित्यागेनावस्थान्तरापत्ति, व्यञ्जनयोगतः पर्यायो व्यञ्जनपर्यायः तमापनं सत् तथापि क्षेत्रकरणमुच्यते, इयमत्र भावना-यद्यपि नाम क्षेत्रमकृत्रिमत्वात् करणायोगि तथापि घटपटादिसंयोगतो ये तत्तदवगाह्यमानतालक्षणाः पर्यायास्तेषां करणोपपत्तितः क्षेत्रस्यापि करणोपपत्तिः, पर्यायपर्यायवतोः कथञ्चिदभेदादिति, उपचारतो वा क्षेत्रस्य करणं, तथा चाह-'इक्षुकरणादि' इक्षुक्षेत्रकरणमित्यादि, तथा च लोके वकारः-इक्षुक्षेत्रं मया कृतं शालिक्षेत्रं मया कृतमित्यादि, आदिशब्दादेव क्षेत्रे पुण्यादौ करणं क्षेत्रकरणं क्षेत्रे दप्ररूप्यमाणं करणं क्षेत्रकरणमित्यादिपरिग्रहः । उक्त क्षेत्रकरणं, अधुना कालकरणं वक्तव्यं, तत्रेयं गाथाPI कालेऽवि नस्थि करणं तहावि पुण वंजणप्पमाणेणं । ववबालबाइकरणेहिं णेगहा होइ ववहारो॥१०३१॥ । 31 कलनं कालः कलासमूहो वा कालः तस्मिन् कालेऽपि, न केवलं क्षेत्रस्येत्यपिशब्दार्थः, नास्ति करणं-कृतिः, तस्य वर्तना-18 दादिरूपत्वात् , वर्तनादीनां च स्वयमेव भावात् , आह-यद्येवं किमिति नियुक्तिकृतोपन्यस्तै ?, उच्यते, तथापि व्यञ्जनप्रमाणेन भवतीति शेषः, इह व्यञ्जनशब्देन विवक्षया वर्तनाद्यभिव्यजकत्वात् द्रव्याणि परिगृह्यन्ते, तत्प्रमाणेन तन्नीत्या तद्बलेन, तथाहि-वर्तनादयस्तद्वतां कथञ्चिदभिन्ना एव, ततश्च तत्करणे तेषामपि करणमेवेति, यदिवा समयादिकालापेक्षयाऽपि व्यवहारनयादस्ति करणं, तथा चाह-बचवालवादिकरणेरनेकधा भवति व्यवहार, उच-“ववं च घालवं चेव, कोलवं थीविलोयणं । गलादि वणियं चेव, विट्ठी हवइ सत्तमी ॥२॥" एतानि सत करणानि चलानि वर्तन्ते, चत्वारि तु शकुनिप्रभृतीनि CCCCCCCRACK CASSROO आ. सू.९५ ~251 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०३१], विभा गाथा -1, भाष्यं [१७४...], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत क्षेत्रकालकरणे सत्राक [१] दीप अनुक्रम [२] श्रीआवत स्थिराणि करणानि, उक्तं च-"सउणि चउप्पय नागं किंसुग्धं च करणं थिरं चउहा । बहुलचउइसिरत्तिं सउणी सेसं तियं मलयगि कमसो॥१॥" एषाऽत्रोत्तरार्द्धभावना-कृष्णचतुर्दशीरात्रौ शकुनिः अमादिने चतुष्पदं अमारात्रौ नागकरणं, प्रतिपहिया वृत्तौ सूत्र-15किंस्तुघ्नं, तदनन्तरं रजनीदिनेषु ववादीनि करणानि, तेषां च परिज्ञानोपायोऽयं-"पक्खतिहओ दुगुणिया दुरूवहीणा य सुक-151 स्पर्शिका पक्खंमि । सत्तहिए देवसियं तं चिय रूवाहियं रतिं ॥१॥" अस्या अक्षरगमनिका-कृष्णस्य शुक्लस्य वा प्रस्तुतपक्षस्य अति 15कान्ता यास्तिधयः ता द्विगुणीक्रियन्ते, तत आगतराशेः सप्तभिर्भागो हियते, एवं कृते यत्करणमागच्छति तत्यस्तततिथी ॥५६॥ कृष्णपक्षे देवसिकं विज्ञेयं, रूपाधिकं तु तदेव रात्री, तथाहि-कृष्णदशम्यां द्विगुणितायां विंशतिर्भवति, ततः सप्तभिर्भागे हते षट् शेषा जाताः, आगतं षष्ठं वणिजाभिधानं दैवसिकं करणं, रूपे त्वत्र प्रक्षिप्ते रात्रिगतं विध्यभिधानं सप्तमं करणं लभ्यते, एवमन्यत्रापि कृष्णपक्षे, शुक्लपक्षे विशेषमाह-दुरूवहीणा य मुक्कपक्खम्मित्ति शुक्लपक्षे द्विगुणतिथिराशेद्वौं पात्येते दिततो देवसिकं करणमागच्छति, तदेव रूपाधिकं रात्री, सूत्रे द्वितीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात्, प्राकृते हि विभक्तीनां व्यत्ययो भवति, यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-'व्यत्ययोऽप्यासा'मिति, रात्रिगतं करणं भवतीत्यर्थः, यथा शुक्लचतुर्यों द्विगुपाणितायां अष्टौ भवन्ति, तेभ्यो द्वौ पात्येते, जाताः पद, सप्तभिश्च भागो न पूर्यते, तत आगतं षष्ठं दैवसिक वणिजाभिदधानं करणं, रूपे तु प्रक्षिप्ते सप्तमं विष्ट्यभिधानं रात्रिगतं करणं, एवमन्यत्रापि शुक्लपक्षे भावनीयं, इह लोकप्रसिद्धः करप्रणानयनोपायोऽपि विद्यते 'तिहि दुगुणी एक्किहिं ऊणी सत्तहिं हरणं सेसं करण'मिति, अयमपि युक्तः, केवलमिह मासतिथयो द्विगुणितव्याः, यहागच्छति तद्रात्रिगतं करणं, रूपे तु पातिते दिवसगतमिति, एवं च करणद्वयेनापि शुक्ल ॥५६५॥ ~252 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०३२] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १७४...], मूलं [१] / गाथा [-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक” निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पक्षे प्रतिपदि निशि ववकरणं, द्वितीयायां दिवसे वालवं, रात्रौ कौलवं तृतीयायाः दिवसे स्त्रीविलोचनं निशि गरादि चतु य दिवसे वणिजं निशि विष्टिरित्येवमादि स्वयं भावनीयं उक्तं च- "किहनिसि तइअदसमीसत्तमिचाउदसीसु अह विट्ठी । सुक्कच उत्थिकार सिनिसि अट्ठमि पुण्णिमाइ दिवा ॥ १ ॥ सुद्धस्स पडिवइनिसि पंचमिदिणि अट्टमीइ राइम्मि । दिवसस्स वारसी पुण्णिमाइ रतिं वयं होइ ॥ २ ॥ बहुलस्स चउत्थीए दिवा य तह सत्तमीअ राइम्मि । इकारसीह उ दिवा बवकरणं होइ नाय || ३ ||" इत्यादि, अलं प्रसङ्गेन ॥ उक्तं कालकरणं, अधुना भावकरणमभिधीयते तत्र भावः पर्यायः, तस्य जीवाजीवोपाधिभेदत्वात् तत्करणमप्योघतो द्विविधमेव, तथा चाहजीवमजीवे भावे अजीवकरणं तु तत्थ वण्णाई। जीवकरणं तु दुविहं सुअकरणं नो अ सुअकरणं ॥ १०३२ ॥ इह अलाक्षणिको मकारः प्राकृतत्वात्, भावे-भावविषयं करणं द्विविधं तद्यथा-जीवे अजीवे च तत्रास्पवक्तव्यत्वादजीवभावकरणमेवादावुपदर्शयति- अजीवकरणं तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् अजीवभावकरणं परिगृह्यते, तत्र - तयोर्मध्ये वर्णादि, किमुक्तं भवति ? - यदिह परप्रयोगमन्तरेणावादेर्नानावर्णान्तरगमनं, आदिशब्दात् गन्धादिपरिग्रहः, एतत्सर्वमजीवभावकरणं, ननु च द्रव्यकरणमपि विश्रसाविषयमेवं प्रकारमेवोक्तं ततः कोऽत्र भावकरणे विशेषः ?, उच्यते, इह भावाधिकारात् पर्यायप्राधान्यमाश्रीयते, तत्र तु द्रव्यप्राधान्यमित्यदोषः, जीवकरणं तु जीवभावकरणादि च जीवभावत्वात् द्विविधं श्रुतभावकरणं नोश्रुतभावकरणं च-गुणकरणादि, चशब्दस्य च व्यवहितः सम्बन्धः ॥ सम्प्रति जीवभावकरणेनाधिकार इति, तदेव यथोद्दिष्टं तथैव च भेदतः प्रतिपिपादयिषुराह Por Private & Personal Use Only ~ 253~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०३३-१०३४], विभा गाथा , भाष्यं [१७४...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत AA करणं सत्राक [१] दीप अनुक्रम [२] श्रीआव.. बद्धमषद्धं तु सुअं बद्धं तु दुवालसंग निदिह । तषिवरीअमबद्धं निसीहमनिसीह बद्धं तु ॥१०३३ ॥ जीवभाव मलयगि० श्रुतं द्विविध-द्विप्रकारं, तद्यथा-बद्धमबद्धं च, तुशब्दो विशेषणार्थः, स च लौकिकलोकोत्तरभेदभिन्नतां श्रुतस्य वृत्तौ सूत्र- विशिनष्टि, लौकिकं लोकोत्तरं च श्रुतं प्रत्येकं बद्धमबद्धं च, तत्र पद्यगद्यबन्धनाद्बद्धं शास्त्रवत् , तथा चाह-बद्धं तु द्वादस्पर्शिका शाङ्गम्-आचारादिगणिपिटकं निर्दिष्टं, तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् लोकोत्तरमिदं, लौकिकं तु भारतादि विज्ञेयं तद्विपरीतमबद्धं, लोकलोकोत्तरभेदमेवाबसेयं, 'निसीहमनिसीहबद्ध इति, बद्धं श्रुतं द्विविध, तद्यथा-निशीथमनिशीथं च, तुश- In ॥५६६॥ ब्दोऽत्रापि लौकिकलोकोत्तरभेदभिन्नताख्यापनार्थः, तत्र रहसिपाठात् रहस्युपदेशाच निशीथमुच्यते, प्रकाशपाठात्प्रकाशोपदेशाच्चानिशीथमिति ॥ साम्प्रतमनिशीथनिशीथयोरेव स्वरूपप्रतिपादनार्धमाह भूएऽपरिणइ विगए सद्दकरणं तहेव न निसीहं। पच्छन्नं तु निसीहं निसीहनामं जहऽज्झयणं ॥ १०३४ ।। । A भूतं-उत्पन्न अपरिणतं-नित्यं विगतं-विनष्टं भूतापरिणतविगतं, समाहारत्वादेकवचनं, किमुक्तं भवति ?-'उप्पण्णेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' इत्यादि, किंविशिष्टमित्याह-शब्दकरण-शब्दः क्रियते यस्मिन् तत् शब्दकरणं, उक्तं च-"ओत्ती सहकरणं पगासपाच सरविसेसो वा" । न निशीथं भवति, इयमत्र भावना-यत् उत्पादाद्यर्थप्रतिपादकं तथा महताऽपि| शब्देन प्रतिपाद्य तत् प्रकाशपाठात् प्रकाशोपदेशाचानिशीथमिति, प्रच्छन्नं तनिशीथं, रहसि पाठात् रहस्युपदेशाच, यथा|T॥५६६ | निशीथनामकमध्ययनमिति, अथवा निशीथं गुप्तार्थमुध्यते, यथा अग्रायणीये वीर्यपूर्वे अस्तिनास्तिप्रवादे च पाठः, 'जत्थेगो दीवायणो भुंजइ तत्थ दीवायणसयं भुंजइ, जत्थ दीवायणसयं भुंजइ तत्थेगो दीवायणो भुंजई' तथा 'जत्थेगो AAAKAR ~2540 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०३५-१०३६], विभा गाथा , भाष्यं [१७४...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम दीवायणो हम्मइ तत्थ दीवायणाणं सयं हम्मइ, जत्थ दीवायणसयं हम्मइ तत्थेगो दीवायणो हम्मई" तथा चानुमेवार्थमभिधातुकाम आहअग्गेअणीअम्मि जहा दीवायणु जत्थ एगु तत्थ सयं । जत्थ सयं तत्थेगो हम्मइ वा भुजई वावि ॥ १०३५ ॥ अक्षरगमनिका तु प्रतीता, इदमालापकद्वयमपि सम्प्रदायादप्रतीतार्थमिति गुप्तार्थत्वान्निशीथमिति ॥ एवं बद्धमबद्धं आएसाणं भवंति पंचसया । जह एगा मरुदेवी अचंतं धावरा सिद्धा ॥ १०३६॥ एवमनन्तरोक्तप्रकारं सर्व लोकोत्तरश्रुतं, लौकिकं त्वारण्यकादिषु द्रष्टव्यं, अबद्धं पुनरादेशानां भवंति पश्च शतानि, किंभूतानीत्यत आह-यथैका-तस्मिन् समये अद्वितीया मरुदेवी ऋषभजननी अत्यन्तस्थायरा-अनादिवनस्पतिराशेरुद्वृत्ता सिद्धा-निष्ठिताथों सजाता, उपलक्षणमेतत् , अन्येषामपि स्वयम्भूरमणजलधिमत्स्यपद्मपत्राणां वलयव्यतिरिक्तसकलस8 स्थानसम्भवादीनामिति, लोकिकमप्यनिबद्धं वेदितव्यं अद्धिकप्रत्यद्धिकादि, अन्धानिबद्धत्वात् , अत्र वृद्धसम्प्रदायः-आरहए। परयणे पंच आदेससयाणि अणिबद्धाणि, तत्थेगं मरुदेवा, नहि अंगे उवंगे वा पाढो अस्थि जहा अचंतथावरा होऊण सिद्धा इति, बिइयं सयभुरमणसमुदे मच्छाणं पउमपत्ताण य सबसंठाणाणि संति बलयसंठाणं मोनू, तइयं विण्हुस्स साइरेगजोयण-| १ सयसहस्सविउधणं, चउत्थं करडउकुरडा दोसद्विएरुवज्झाया कुणालनयरीए निद्धमणमूले बसही वरिसायाले देवयाणु-13 कंपणं, न वरिसइ नगरपरिसरे, अण्णस्थ सबत्थ परिसइ, लोको अद्दण्णो, निमित्तियं, एएसिं गुणे(हि)न वरिसइ, ततो नागकारगेहिं तेसिं निच्छुभणं करेउमाढतं, ते पुच्छति-कीस निच्छुभह ?, लोगा भणंति-जाव तुम्भे एत्थ नगरे ताव न परिसइ, २] GREACTERS ~2550 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [2] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०३७] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १७४...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीआव० मलयगि० वृत्ती सूत्रस्पर्शिका ॥५६७॥ ★ तो गच्छह, करडेण रुसिएणं भणियं वरिस देव ! कुलाणाए, उक्कुरुडेणं भणियं-दस दिवसाणि पंच च, पुणरवि करडेण भणियं मुट्ठिमेत्ताहिं धाराहिं, उक्कुरुडेण भणियं-जहा रतिं तहा दिवा, एवं वोत्तूण अवकंताओ, कुणालावि पन्नर सदिवसअ णुबंधवरिसणेणं सजणवया जलेणं अकंता, ततो ते तइए वरिसे साकेए नगरे दोऽवि कालं काऊण आहेसत्तमाए पुढबीए काले नगरे बाबीससागरोत्रमडिया नेरइया संबुत्ता, कुणालनगरीविणासकालातो तेरसमे वरिसे वीरस्स केवलुप्पत्ती, एवं अणिबद्धं, एवमादि पंचादेससयाणि अवद्धाणि, एवं लोइयं अवद्धकरणं बत्तीसं अड्डियातो सोटस करणाणि, लोगपवाए पंचद्वाणाणि, तंजहा आलीढं पञ्चालीढं वइसाहं मंडलं समपादं तत्थ आलीढं नाम दाहिणं पायं अग्गतोहुतं काऊणं वामपायं पच्छतोहुतं उसारेउं अंतरा दोन्हवि पादाणं पंचपाए, पच्चालीढं वामपायं अग्गतोहुत्तं काकणं दाहिणपायं पच्छतोहुतं ऊसारेइ, एत्थवि अंतरा दोण्हवि पायाणं पंच पया, वइसाईं पण्हीतो अभिरतीओ समसेढीए करेइ, अभिमतला बाहिरहुत्ता, मंडलं नाम दोवि पाए दाहिणवामहुत्ता ऊष्णो (दोन्हं) अन्तरा चत्तारि पया, समपायं नाम दोऽवि पादे समं निरंतरं ठवेइ, एयाणि पंच ठाणाणि लोयप्पवादे, सयणकरणं छङ्कं ठाणमित्यलं विस्तरेण । उक्तं श्रुतकरणं, अधुना नोश्रुतकरणमभिधित्सुराह नोसुअकरणं दुबिहं, गुणकरणं तहय जुंजणाकरणं । गुणकरणं पुण दुविहं, तबकरणे संजमे य तहा ॥ १०३७ ॥ श्रुतकरणं न भवतीति नोश्रुतकरणं, 'अमानोनाः प्रतिषेधवाचका' इति वचनात्, 'द्विविधं' द्विप्रकारं, तद्यथा- 'गुणकरणं' गुणानां करणं, गुणानां कृतिरित्यर्थः, तथेति निर्देशे, चः समुच्चये, व्यवहितश्चास्य प्रयोगः, योजनाकरणं च मनः Pur Private & Psonal Use Only ~ 256 ~ अबद्धे आदेशाः ॥५६७॥ brary.org Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [२] Jan Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [१०३८-१०३९] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १७४...], मूलं [१] / गाथा [-1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः प्रभृतीनां व्यापारकरणमिति भावः, गुणकरणं पुनर्द्विविधं द्विप्रकारं कथमित्याह- 'तपःकरणं' तपसः - अनशनादेर्वाह्माभ्यन्तरभेदभिन्नस्य करणं- कृतिस्तपःकरणं, संयमे च संयमविषयं चाश्रवविरमणादि करणमिति भावः ॥ साम्प्रतं योज नाकरणं व्याचिरव्यासुराह जुंजणकरणं तिविहं मण-वय-काए य मणसि सचाइ । सट्टाणि तेसि भेओ च चउहा सत्तहा चैव ॥ १०३८ ॥ योजनाकरणं त्रिविधं तद्यथा- 'मनोवाक्कायें' मनोवाक्कायविषयं, मनोविषयं वाग्विषयं कायविषयं चेत्यर्थः । तत्र मनसि सत्यादि योजनाकरणं, तद्यथा-सत्यमनोयोजना करणमसत्य मनोयोजनाकरणं सत्यमृषामनोयोजनाकरणं असत्यभूषामनोयोजनाकरणमिति, स्वस्थाने प्रत्येकं मनोवाक्कायलक्षणे तेषां योजनाकरणानां भेदो विभागो वक्तव्यः, तद्यथा चतुर्धा चतुर्धा सप्तधा चेति, अयमत्र भावार्थ:- चतुर्भेदं सत्यमनोयोजनाकरणादि दर्शितं एवं बाग्योजनाकरणमपि सत्यवाग्योजनाकरणादिचतुर्भेदमवसातव्यं, काययोजनाकरणं सप्तभेदं, औदारिककाययोजनाकरणं औदारिकमिश्रका योजनाकरणं वैक्रिय काययोजना करणं वैक्रियमिश्रकाय योजनाकरणं आहारककाययोजनाकरणमा हारकमिश्र का ययोजनाकरणं कार्म्मणका ययोजनाकरणमिति ॥ इत्थं तावद् व्यावर्णितं यथोद्दिष्टं करणं, अधुना येनावाधिकारस्तदुपदर्शनार्थमाह भावसुअसद्दकरणे अहिगारो इत्थ होइ नायवो । नोसुअकरणे गुणजुंजणे अ जहसंभवं होइ ॥ १०३९ ॥ भावश्रुतशब्दकरणे प्रकाशपाठे भावश्रुते च अधिकारो भवति कर्त्तव्यः श्रुतसामायिकस्य, न तु चारित्रसामायिकस्य, तस्यांते यथासम्भवमभिधानात् भावश्रुत सामायिकोपयोग एव, शब्दकरणमप्यत्र तच्छन्द विशिष्टः श्रुतभाव एव विव Por Private & Personal Use Only ~257~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०४०], विभा गाथा -1, भाष्यं [१७४...], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [१] दीप अनुक्रम [२] व क्षितो, नतु द्रव्य श्रुतं, तस्य तत्त्वतः श्रुतसामायिकेऽनवतारात्, नोश्रुतकरणे-नोश्रुतकरणमधिकृत्य 'गुणर्जुजणे य'त्तिानोश्रतकमलयागिसगुणकरणे योजनाकरणे ते यथासंभवं भवति, अधिकरणमिति गम्यते, तत्र यथासंभवमिति गुणकरणे चारित्रसामायि- रणं कृतावृत्तौ सूत्र-दूकस्यावतारः, तपःसंयमगुणात्मकत्वाचारित्रस्य, योजनाकरणे च मनोयोजनायां वाग्योजनायां च सत्यासत्यामृषारूपे कृतादिस्पर्शिका द्वये श्रुतसामायिकचारित्रसामायिकयोरप्यवतारः, काययोजनायामपि औदारिककाययोगे भङ्गिक श्रुतमामायिकस्याप्यव तारः, समितिगुप्तिपरिपालने चारित्रसामायिकस्येति ॥ सम्प्रति सामायिककरणमेवाव्युत्पन्नविनेयवर्गव्युत्पादनार्थ सप्तभिर॥५६॥ नुयोगद्वारैः कृतादिभिर्निरूपयति कयाकयं १ केण कयं २ केसु अ दयेसु कीरई वावि ३। काहे व कारओ ४ नयओ५ करणं कइविहं ६ (च) कहं ७ ॥ १०४०॥ HI सामायिकस्य करणमिति क्रियां श्रुत्वा चोदक आक्षिपति-एतत् सामायिकं अस्याः क्रियायाः प्राक् किं कृतं सत् 8.क्रियते आहोविदकृतं ? किंचातः, उभयथाऽपि दोषः, तथाहि-कृतपक्षे सद्भावादेव करणानुपपत्तिः, अकृतपक्षेऽपि हावांध्येयादेरिव करणायोगः, पूर्वमेकान्तेनासत्यात , अत्र निर्वचनं कृताकृतं, कृतं चाकृतं च कृताकृतं, अत्र नयमतभेदेन ॥५६८॥ भावना कर्तव्या १, तथा केन कृतमिति वक्तव्यं २, तथा केषु द्रव्येषु इष्टादिषु क्रियते ३, तथा कदा च कारकोऽस्या भवतीति वाच्यं ४, तथा 'नयओ'त्ति आलोचनादिनयेन वक्तव्यं ५, तथा करणं 'कतिविहं' कतिभेदमिति वाच्यं ६, तथा ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०४०], वि०भा०गाथा [३३८३], भाष्यं [१७५-१७६], मूलं [१] / गाथा । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] कथं-केन प्रकारेण सामायिकं लभ्यते इति वक्तव्यमिति गाथासङ्ग्रेपार्थः । अवयवार्थ तु भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्रा-18 द्यद्वारप्रतिपादनार्थमाह उप्पन्नाणुप्पन्न कयाकयं इत्थ जह नमुक्कारे । केणंति अस्थओ तं जिणेहिं सुसं गणहरेहिं ॥ १७५ ॥ (भा.) | कृताकृतं नाम उत्पन्नानुत्पन्नमभिधीयते, सर्वमेव च वस्तूत्पन्नानुत्पन्नं क्रियते, वस्तुनो द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वात् , अत्र नैगमादिनयभावना कार्या, तथा चाह-अत्र यथा नमस्कारे नयभावना कृता तथैव कर्तव्येति गम्यते, सा पुनर्नमस्कारानुसारेण स्वयं भावनीया । द्वारम् । अधुना द्वितीयद्वारमधिकृत्याह-केनेति केन कृतमित्यत्र निर्वचन- अर्थतः' अर्थ-12 मङ्गीकृत्य तत् सामायिकं जिनवरैः, सूत्रं त्वङ्गीकृत्य गणधरैः कृतं, व्यवहारनयमतमेतत् , निश्चयनयमतं तु व्यक्त्यपेक्षया आयो यत्स्वामी सत्तेनैव, व्यक्त्यपेक्षश्चेह तीर्थकरगणधरयोरुपन्यासः प्रधानन्यक्तित्वाद्, अन्यथा पुनरुक्तदोपप्रसङ्गः ॥ तथा चात्रोकं भाष्यकारेण-"ननु निग्गमे गयं चिय केण कयं तंति का पुणो पच्छा । भन्नइ स बज्झकत्ता इहंतरंगो विसेसोऽयं ॥१॥"(विशे. ३३८३) बाह्यकर्ता सामान्येन अन्तरङ्गस्तु व्यक्त्यपेक्षयेति भावना । साम्प्रतं केषु द्रव्येषु क्रियत इत्येतद्विवृण्वन्नाहट्र तं केसु कीरई ? तत्थ नेगमो भणइ हहदवेसं । सेसाण सपदवेसु पजवेसुं न सबेसु॥१७६ ॥ (भा.) 'तत्' सामायिकं 'केषु' द्रव्येषु स्थितस्य सतः क्रियते-निवर्त्यते इति प्रश्नः, अत्र नयविभागेन निर्वचनं, तत्र नेगमो भाभणति-नैगमनयो भाषते, इष्टद्रव्येषु मनोज्ञपरिणामकारणत्वात् मनोज्ञेष्येव शयनासनादिषु द्रव्येषु, तथा च तेषा PARKARNAKAR SMEducation ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०४०], वि०भा०गाथा [३३८७-३३९०], भाष्यं [१७५-१७६], मूलं [१] / गाथा -1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सामायिके सूत्रांक कृताकृतादिः [१] श्रीआव०मागम:-"मणुण्णं भोयणं भोच्चा, मणुण्णं सयणासणं । मणुण्णसि अगारंसि, मणुण्णं झायए मुणी ॥१॥" इत्यादि मलयगि०1शेषाणां-सङ्ग्रहादीनां सर्वद्रव्येषु, शेषनया हि परिणामविशेषात् कस्यचित् किंचिन्मनोज्ञमिति व्यभिचारात् सर्वद्रव्येषु वृत्तौ सूत्र- दस्थितस्य क्रियते सामायिकं यत्र मनोज्ञपरिणाम इति मन्यन्ते, पर्यायेषु न सर्वेषु, अवस्थानाभावात् , तथाहि-यो यत्र निषस्पर्शिका चादी स्थितो न स तत्र तत्सर्वपर्यायेषु, एकभाग एवावस्थितत्वात् , इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, अन्यथा पुनरुक्तदोषः, तथा चोक्तं भाष्यकारेण-"नणु भणियमुवग्याते केसुत्ति इह को पुणो पुच्छा। केसुत्ति तत्थ विसओ इह केसु ठियस्स तल्लाभो ॥५६९॥ 6॥१॥ तो किह सबद्दबावत्थाणं? नणु जाइमेत्तवयणातो। धम्माइसबदवाधारो सबो जणोऽवसं ॥२॥" (विशे|३३८७-३३८८) अथवोपोद्घाते सर्वद्रव्याणि विषयः सामायिकस्य, इह तान्येव सर्वद्रव्याणि सामायिकस्य हेतुः, श्रद्धेय ज्ञेयक्रियाविषयत्वात् , अथवाऽन्यथाऽपुनरुक्तिः-कृताकृतादिगाथायां कृतमकृतं वा सामायिक कार्य-कर्म, कत्तुरीप्सितततमत्वात् , केन कृतमिति कर्तृप्रश्नः, केषु द्रव्येष्विति साधकतमकरणप्रश्नः, सप्तमीबहुवचनं तु तृतीयाबहुवचने प्राकृतत्वात् , न चेतदपि स्वमनीषिकया व्याख्यान, यतोऽभ्यधायि भाष्यकारेण-"विसओऽवि उघग्घाए केसुत्ति इह स एव हेउत्ति। सद्धेय नेयकिरियानिबंधणं जेण सामइयं ॥१॥ अहवा कयाकयाइसु कर्ज केण व कयं च कत्तत्ति । केसुत्ति करणभावो तइदायत्थे सत्तमि काउं ॥२॥" (विशे. ३३८९-३३९०) इत्यलं प्रसङ्गेन । द्वारम् । सम्प्रति कदा कारकोऽस्य भवती त्येतत् नयनिरूपयन्नाहकाहु ? उदितु णेगम उवट्ठिए संगहो य ववहारो। उजुसुओं अकमते सहु समत्तंमि उवउत्तो॥१७७॥(भा. SARA दीप अनुक्रम [२] ॥५६९ SPECIM PMImastramyam ~260~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०४०], विभागाथा H, भाष्यं [१७८], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम OCALKAROORKEEGCOctoनाबाट कदाऽसौ सामायिकस्य कारको भवतीति प्रश्नः, अत्र नयनिर्वचनं-'उद्दिढे नेगम'त्ति उद्दिष्ट सति नैगमो मन्यते, इयमत्र भावना-सामान्यग्राहिणो नैगमनयस्य उद्दिष्टमात्र एवं सामायिके गुरुणा शिष्योऽनधीयानोऽपि तक्रियाननुष्ठायी सन् सामायिकस्य कत्तों, वनगमनपस्थितप्रस्थककर्तृवत् , यस्मात् उद्देशोऽपि सामायिककारण, तस्मिंश्च कारणे कार्योपचारः,8 'उवहिते संगहो य ववहारो'त्ति सङ्ग्रहो व्यवहारश्च उपस्थितः सन् कारको भवतीति, इयमत्र भावना-इह उद्देशानन्तरं वाचनाप्रार्थनाय यदा वन्दनं दत्त्वोपस्थितो भवति तदा प्रत्यासन्नतरकारणत्वात् सनव्यवहारयोः कारक इति, ऋजुसूत्र आक्रमन् कारको भवतीति मन्यते, एतदुक्तं भवति-उद्देशानन्तरं गुरुपादमूले वन्दित्वोपस्थितः सामायिकं पठितुमारब्धः कारकः, वृद्धास्तु ब्याचक्षते-न पठन्नेव, किन्तु समाप्ते कारक इति, सामायिकक्रियावान् प्रतिपद्यमानस्तदुपयोगर[हितोऽपि कारकः, यस्मात् सामायिकार्थस्य सामायिकशब्दकिये असाधारण कारणं, असाधारणकारणेन च व्यपदेश इति, 'सहु समत्तंमि उवउत्तोत्ति, शब्दादयो मन्यन्ते-समाप्ते सत्युपयुक्ते एव कारको भवति, त्रयाणां शब्दादीनां नयानां शब्दक्रियावियुक्तोऽपि सामायिकोपयुक्तः कारका, मनोज्ञतथापरिणामरूपत्वात् सामायिकस्य, कदा कारक इति गतं । सम्प्रति नयत इत्येतद् द्वारं विवरीपुराह आलोषणा १ य विणए २ खित्त ३ दिसाऽभिग्गहे ४ अ काले ५य। रिक्ख ६ गुणसंपयाऽविअ ७ अभिवाहारे ८ अ अट्ठमए ॥ १७८॥ (भा.) इहाभिमुख्येन गुरोरात्मदोषप्रकाशनमालोचनानयः, तथा विनयः पदधावनादि क्षेत्रं-दक्षुक्षेत्रादि दिगभिग्रहो-वक्ष्यमा-1 [२] MEducator ~261 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०४०], विभागाथा H, भाष्यं [१७९], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [१] स्पर्शिका दीप श्रीआवरणलक्षणः कालः-अहरादिः ऋक्षसम्पत्-नक्षत्रसंपत् गुणाः-प्रियधर्मत्वादयः तेषां सम्पत् गुणसमत्, अभिभ्याहरणं सामायिक मलयगि अभिव्याहारः अष्टमो नय इति गाथासमासार्थः, व्यासार्थ तु प्रतिपदं भाष्यकार एव सम्यक् न्यक्षेण वक्ष्यति ॥ तथा चायं Wआलोचवृत्तौ सूत्र- द्वारं व्याचिख्यासुराह |नादयः पवजाए जुग्गं तावइआलोयणा गिहत्थेसु । उवसंपयाइ साहसु सुत्थे अत्ते तदुभये य ।। १७९ ॥ (भा.) ॥५७०॥ | 'प्रव्रज्याया' निष्क्रमणस्य यत् प्राणिजातं स्त्रीपुरुषनपुंसकभेदं योग्य-अनुरूपं, तदन्वेषणीयमिति वाक्यशेषः, तावतीएतावत्येवालोचना अबलोकना वा, केषु ?--गृहस्थेषु-गृहस्थविषया, इयमत्र भावना-योग्यं हि सर्वोपाधिविशुद्धमेव भवति, ततस्तदन्वेषणमवश्यं कर्तव्यं, तच्चैवम्-कस्त्वं? को वा ते निधंद? इति पूर्व प्रश्नो विधेयः, तस्मिंश्च विहिते प्रयुक्तालोचनस्य योग्यतावधारणं, तदनन्तरं सामायिकं दद्यात् , न शेषाणां प्रतिषिद्धदीक्षाणामिति नयः, एवं तावत् गृहस्थस्याकृतसामायिकस्य सामायिकार्यमालोचनोक्ता, सम्प्रति कृतसामायिकस्य यतेः प्रतिपादयति-उपसम्पदि साधुषु, आलोचनेति वर्तते, सूत्रे अर्थे तदुभये च, अत्रापीयं भावना-सामायिकसूत्राद्यर्थ यदा कश्चिदुपसम्पदं प्रयच्छति यतिस्तदा स आलोचनां ददाति, अब विधिः सामाचार्यामुक्त एव, आह-अल्पं सामायिकसूत्रं, तत् कथं तदर्थमपि यतेरुपसंपत् , तद ३५७०॥ भावे वा कथं यतिः ? कथं वा प्रतिक्रमणं ? प्रतिक्रमणमन्तरेण शुद्धिर्वेति, उच्यते, मन्दग्लानादिव्याघाताद् विस्मृतसूत्रस्य यतेः सूत्रार्थमप्युपसम्पदविरुद्धैव, एप्यत्कालं वा दुष्षमान्तमालोक्यानागतामर्षकं सूत्रमिति, तदभावेऽपि तदा चारित्रप RECRUSSELEASE अनुक्रम [२] SMEncutorial ~262~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०४०], वि०भा०गाथा [३४०३-३४०५], भाष्यं [१८०-१८१], मूलं [१] / गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यकनियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक AREXX [१] दीप अनुक्रम [२] रिणामोपेतत्वात् असौ यतिरेव, शुद्धिश्चास्य यावत्सूत्रमधीतं तावतैव प्रतिक्रमणं कुर्वतः, इत्यलं प्रसलेन ॥ अधुना एकगाययैव विनयादिद्वारत्रयं च्याचिख्यासुराह आलोइए विणीअस्स दिजए तंपसत्थखित्तम्मि । अभिगिज्य दो दिसाओवरंतिवाजहाकमसो॥१८०॥ (भा.) RI आलोचिते सति 'विनीतस्य' पादधावनानुरागादिविनयवतः, उक्तं च भाष्यकारेण-"अणुरत्तो भत्तिगतो अमुई अणुय त्तगो विसेसण्णू । उजुत्तमपरितंतो इच्छियमत्थं लहइ साहू ॥ १ (विशे. ३४०३) दीयते तत् सामायिक, तस्यापि न यत्र कचित्, किन्तर्हि १, प्रशस्तक्षेत्रे-इक्षुक्षेत्रादौ, उक्तं च-"उच्छुवणे सालिवणे पउमसरे कुसुमिते व वणसंडे । गंभीर-18 साणुणादे पयाहिणजले य जिणघरे वा ॥१॥ दिज न उभग झामिय, सुसाणसुनामणुन्नगेहेसु । छारंगारकयारामिज्झादीदबदुढे वा ॥२॥ (विशे. ३४०४-३४०५) तथा अभिगृह्य-अङ्गीकृत्य हे दिशौ पूर्वा वा उत्तरांवा, दीयते इति वर्तते, तथा चरन्ती नाम यस्यां दिशि तीर्थकरकेवलिमनःपर्यायज्ञानावधिज्ञानिचतुर्दशपूर्वधरादयो यावत् युगप्रधाना विहरन्ति, 'यथाक्रम' इति गुणापेक्षं यथाक्रमेण दिश्वेतासु दीयते, उक्तं च-"पुवाभिमुहो उत्तरमुहो व देजाऽहवा पडिच्छेजा। जाए जिणादयो वा दिसाए जिणचेझ्याई व ॥१॥"त्ति, गतं द्वारत्रयम् । अधुना कालादित्रयमेकगाथयैवानिधित्सुराह पडिकुडदिणे वजिअ रिक्खेमु अ मिगसिराइ भणिएसु । पियधम्माईगुणसंपयासुतं होइ दायचं ॥१८॥ (भा.) हा 'प्रतिकुष्टानि प्रतिषिद्धानि यानि चतुर्दश्यादीनि तानि दिनानि वर्जयित्वा, अप्रतिकुष्टेष्वेव पञ्चम्यादिषु दातव्यमिति भयोगः, उक्तं च-"चाउद्दसि पन्नरसिं वजिज्जा अढमि च नवमि च । छर्डिं च चउत्थिं पारसिं च दुहंपि पक्खाणं ॥१॥" BEB Thiamentraining ~263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०४०], वि०भा०गाथा [३४०७-३४१०], भाष्यं [१८२], मूलं [१] | गाथा H मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत मलयागः सत्राक हारो [१] दीप अनुक्रम [२] श्रीआव. विशे. ३४०७) तेष्वपि दिनेषु प्रशस्तेषु मुहत्तेषु दीयते, न अप्रशस्तेषु, तथा ऋक्षेषु च मृगशिरप्रभृतिषु ग्रन्थान्तरामि- आलोच | हितेषु, नतु प्रतिषिद्धेषु, उक्तं च-"मिगसिर अद्दा पुस्सो तिण्णि पुरा य मूलमस्सेसा । हत्थो चित्ता य तहा दस चुहिवृत्तो सूत्र-द कराई नाणस्स ॥१॥" (विशे. ३४०८) तथा-संझागयं रविगय, विडुरं सग्गहं विलम्ब च । राहुहयं गहभिन्नं च वजए स्पर्शिकासत्त नक्खत्ते ॥२॥ (विशे. ३४०९) सन्ध्यागतं नाम यत्र नक्षत्रे सूर्योऽनन्तरं स्थास्यति तत्सन्ध्यागतं, अपरे पुनराहुः यत्र रविस्तिष्ठति तस्माच्चतुर्दशं पञ्चदशं वा नक्षत्रं सन्ध्यागतमिति, रविगतं यत्र रविस्तिष्ठति, पूर्वद्वारिकेषु नक्षत्रेषु पूर्वदिशा ॥५७१॥ दिगंतव्येऽपरया दिशा गच्छतो बिड़वेरं, सग्रहं च-ग्रहाधिष्ठितं विलम्बि-यत् सूर्येण परिभुज्य मुक्तं राहुहतं यत्र ग्रहणमभूत् । ग्रहभिन्न-ग्रहविदारितं, तथा प्रियधर्मादिगुणसम्पत्सु सतीषु तत् सामायिकं भवति दातव्यं, उक्तं च-"पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवजभीरु असढो अ। खंतो दंतो गुत्तो थिरवय जिइंदिओ उजू ॥१॥" (विशे. ३४१०) विनीतस्याप्येते गुणा अन्वेष्टव्याः इति गाथार्थः । अधुना चरमं द्वारं व्याचिख्यासुराह अभिवाहारो कालिअसुअस्स सुत्तत्थतदुभएणंति । दवगुणपज्जवेहि अ दिट्टीवायम्मि बोद्धबो ॥ १८२ ॥ (भा.) 8 'अभिच्याहरणं' शिष्याचार्ययोर्वचनप्रतिवचने अभिब्याहारः, स च 'कालिकश्रुते' आचारादौ 'सुत्तत्थतदुभएणं'ति ।। सूत्रतोऽर्थतः तदुभयतश्च, इयमत्र भावना-शिष्येण इच्छाकारेणेदमझाद्युद्दिशतेत्युक्ते सति इच्छापुरःसरमाचार्यवचनं-अह- ॥५७१॥ मस्य साधोरिदमङ्गमध्ययनमुद्देश वा उद्दिशामि, वाचयामीत्यर्थः, आप्तोपदेशपारम्पर्यख्यापनार्थ क्षमाश्रमणानां हस्तेन, न | स्त्रोत्प्रेक्षया, सूत्रतोऽर्थतस्तदुभयतोऽस्मिन् कालिकश्रुते अ(त)थोत्कालिके, दृष्टिवादे कथमित्यत आह-द्रव्यगुणपर्यायैश्च ~264~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [१०४१] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १८३], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | दृष्टिवादे-भूतवादे बोद्धव्योऽभिव्याहारः, एतदुक्तं भवति - शिष्यवचनानन्तरमाचार्यवचनमिदम् - उद्दिशामि सूत्रतोऽर्थतस्तदुभयतो द्रव्यगुणपर्यायैरनन्तगमसहितैरिति, एवं गुरुणा समादिष्टेऽभिव्याहारे शिष्याभिव्याहारः- शिष्यो प्रवीति - उद्दिष्टमिदं मम, इच्छाम्यनुशासनं क्रियमाणं पूज्यैरिति, एवमभिव्याहारद्वारमष्टमं नीतिविशेषे नये इति ॥ व्याख्याता प्रतिद्वारगाथा, साम्प्रतमधिकृत मूलगाथायामेव करणं कतिविधमित्येतत् द्वारं व्याचिख्यासुराह उद्देससमुद्देसो वायणमणुजाणणं च आयरिए । सीसंमि उद्दिसिजंतमाइ एअं तु जं कइहा ॥ १८३ ॥ (भा.) गुरुशिष्ययोः सामायिक क्रियाव्यापारणं करणं, तञ्चतुर्द्धा तद्यथा उद्देसकरणं समुद्देसकरणं वाचनाकरणमनुज्ञाकरणं च, छन्दोभङ्गभयादिह वाचनाकरणमेवमुपन्यस्तं यावता तस्वतः अमुना क्रमेण द्रष्टव्यं उद्देशो वाचना समुद्देशोऽनुज्ञा चेति गुरोर्व्यापारः, 'आयरिए'त्ति गुराविदं करणं, गुरुविषयमित्यर्थः, 'सीसंमि उद्दिसिज्वंतमादि' शिष्ये शिष्यविषयं उद्दिश्यमानकरणं वाच्यमानकरणं समुद्दिश्यमानकरणमनुज्ञायमानकरणं चेति, 'एयं तु जं कइहति एतदेव चतुर्विधं तत् यदुक्तं कतिविधमिति, आह-पूर्वमनेकविधं नामादिकरणमभिहितमेव इह पुनः किमिति प्रश्नः १, उच्यते, तत् पूर्वगृहीतस्य करणमनेकविधमुक्तं, इदं पुनरस्मिन् गुरुशिष्यदानग्रहणकाले चतुर्विधं करणमिति, पूर्व वा करणमविशेषेणोक्तं, इह तु गुरुशिष्य क्रियाविशेषाद्विशेषितमिति न पुनरुक्तता, अथवा अयमेव करणस्यावसरः, पूर्वत्र पुनरनेकान्तद्योतनार्थं विन्यासः कृत इति 'विचित्रा सूत्रस्य कृतिरिति कृतं विस्तरेण ॥ द्वारम् || सम्प्रति कथमिति द्वारं विवरीपुराहू कह सामाइयलभो ? तस्सवविधाई देसवाघाई । देसविघाईफडग अनंतवुडीविसुद्धस्स ।। १०४१ ॥ Por Private & Personal Use Only ~265~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [२] श्रीआव० मलयगि० वृत्ती सूत्रस्पर्शिका ५७२ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०४२ ] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १८४ ], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः एवं ककारलंभो से साणवि एवमेव कमलंभो । एअं तु भावकरणं करणे य भए य जं भणिअं ॥ १०४२ ॥ 'कथं केन प्रकारेण सामायिकस्य लाभ इति प्रश्नः, अत्रोत्तरं तस्य - सामायिकस्य द्विविधानि स्पर्द्धकानि भवन्ति, यतः सामायिकावरणं दर्शनावरणं मिथ्यात्वमोहनीयं च, अमीषां च द्विविधानि स्पर्द्धकानि भवन्ति देशघातीनि सर्वघाती नि च, तत्र सर्वधातिषु स्पर्द्धकेषु सर्वेष्वप्युद्धातितेषु सत्सु देशघातिष्वपि स्पर्द्धकेष्वनन्तेषूद्घातितेषु अनन्तगुणवृद्ध्या प्रतिसमयं विशुद्धयमानः शुभशुभतरपरिणामो भावतः ककारं लभते, तदनन्तगुणवृद्धयैव प्रतिसमयं विशुद्धयमानः सन् रेफं, एवं शेषाण्यप्यक्षराणि, अत एवाह- देशविघातिस्पर्द्धकानन्तवृद्ध्या विशुद्धस्य सतः । (ततः) किं ? ' एवं ' उक्तप्रकारेण लाभः | शेषाणामपि रेफादीनामक्षराणाम्, एवमेव-उक्तप्रकारेण क्रमेण सूत्रगतपरिपाव्या लाभ, आह-उपक्रमद्वारेऽभिहितमेतत्क्षयोपशमात् जायते, पुनरुपोद्घातेऽभिहितं कथं लभ्यते इति, तत्रोकं, इह किमर्थ प्रश्न इति पुनरुक्तता ?, उच्यते, त्रयमध्येतदपुनरुक्तम्, यत उपक्रमे क्षयोपशमात् सामायिकं लभ्यते इत्युक्तं, उपोद्घाते स एव क्षयोपशमस्तत्कारणभूतः कथं लभ्यत इति प्रश्नः इह केषां पुनः कर्म्मणां स क्षयोपशम इति प्रत्यासन्नतरकारणप्रश्न इत्यपुनरुक्तत्वमित्यलं प्रसङ्गेन द्वार| मेवोपसंहरन्नाह-एतदेवानन्तरोदितं यत्सामायिक करणं तद् भावकरणं, एवं च मूलद्वारगाथायां 'करणे भए य' इत्युलेखेन यत्करणमिति द्वारमुपन्यस्तं तद् व्याख्यातं एतद्द्व्याख्यानाच्च सूत्रेऽपि करोमीत्यवयवो व्याख्यातः, अधुना भय इति द्वितीयद्वारव्याख्यानार्थमाह होइ भयंतो भवअंतगो य रयणा भयस्स छन्भेया । सबंमि वणिएऽणुकमेण अंतेऽवि छन्भेया ॥ १८४ ॥ (भा.) ... 'भंते' शब्दस्य व्याख्या: क्रियते Por Private & Personal Use Only ~266~ भयान्त निक्षेपाट ।। ५७२ ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [२] Jan Educat आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०४२ ] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १८४ ], मूलं [१] / गाथा [-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः भवति भदन्त इति, 'भदुइ कल्याणे सुखे च' अस्मादौणादिकोऽन्तप्रत्ययः, औणादिकत्वादेव नमो लोपः, भदन्तःकल्याणः सुखश्चेत्यर्थः, प्राकृतत्वादामन्त्रणे 'भन्ते' इति भवति, अथवा प्राकृतशैल्या भवान्त इति द्रष्टव्यं तत्र भवस्य - संसारस्यान्तस्तेनाचार्येण क्रियते इति भवान्तकरत्वाद् भवान्तः, अथवा भयान्त इति द्रष्टव्यं तत्र भयं - त्रासः, तमाचार्य | प्राप्य भयस्यान्तो भवतीति भयांतभवनात् भयान्तो-गुरुः, यदिवा अन्तं करोतीत्यन्तकः भयस्यान्तको भयान्तकः तस्य सम्बोधनं, उभयत्रापि प्राकृतत्वात् भन्ते इति भवति, तत्र रचना - ( नामादि ) विन्यासलक्षणा भयस्य षड्भेदा-षट्पकारा, नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्र कालभावभेदभिना, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यक्षेत्रकालभयान्यपि प्रतीतानि द्रव्याद्भयं द्रव्यभयमित्येवं सर्वत्र पश्चमीतत्पुरुषसमाश्रयणात्, अन्यथा वा यथायोगं भावनीयं, भावभयं सप्तघा - इहलोकभयं परलोकभयं | आदानभयमाकस्मिकभयं आजीविकाभयं अश्लोकभयं मरणभयं चेति, तत्र यत् स्वभवात्प्राप्यते यथा मनुष्यस्य मनुष्यात् तिरश्चः तिर्यग्भ्य इत्यादि तदिहलोकभयं यत् परभवादेवाप्यते, यथा मनुष्यस्य तिरश्चः तिरवो मनुष्यात् तत्परलोकभयं, किशन द्रव्यजातमादानं तस्य नाशहरणादिभ्यो भयं आदानभयं, यद् बाह्यनिमित्तमन्तरेणाहेतुकं भयमुपजायते तदकस्माद्भवतीत्याकस्मिकं, तथा 'श्लोकड श्लाघायां' श्लोकः प्रशंसा श्लाघा तद्विपर्ययोऽश्लोकः तस्माद्भयं अश्लोकभयं, आजीविका - आजीवनं तस्या उच्छेदेन भयमाजीविकाभयं प्राणपरित्यागभयं मरणभयं, एवं अनुक्रमेणोक्तलक्षणेन सर्वस्मिन् वर्णितेऽन्तेऽपि षड् भेदा वर्णयितव्याः, तद्यथा - नामान्तः स्थापनान्तो द्रव्यान्तः क्षेत्रान्तः कालान्तो भावा Por Private & Personal Use Only ~267~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [२] श्रीआब ० मलयगि० आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [१०४२] वि०भा० गाथा [ ३४५७-३४५९ ], भाष्यं [१८५], मूलं [१] / गाथा [-] दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वृत्तौ सूत्रस्पर्शिका ॥ ५७३ ॥ न्तश्च तत्र नामस्थापने प्रतीते, द्रव्यान्तो घटाद्यन्तः, क्षेत्रान्त ऊर्ध्वलोकादिक्षेत्रान्तः, कालान्तः समयाद्यन्तो, भावान्तो औदयिकादिभावान्तः || एवं सर्वमिवि वन्नियंमि एत्थं तु होइ अहिगारो । सत्तभयविप्पमुळे तहा भवंते भयंते य ॥ १८५ ॥ (भा.) एवम् उक्तेन प्रकारेण सर्वस्मिन्ननेकभेदभिन्ने भयादौ वर्णिते सति अत्र प्रकृते भवत्यधिकारः सप्तभयविप्रमुक्तो यस्तेन, तथा यो भवान्तो यश्च भदन्तस्ताभ्यामिति पश्चानुपूर्व्या ग्रन्थ इत्यदोषः ॥ व्याख्यातं मूलद्वारगाथायां (भयान्तेति ) द्वारइयं तद्द्व्याख्यानाच भदन्त भवान्त भयान्त इति गुमन्त्रणार्थः सूत्रावयवः, अथ सामायिकस्यादावेव गुरोरामन्त्रणवचः किमर्थं ?, उच्यते, गुरुकुलवासोपसंग्रहार्थं, यथा सर्वदैव हि शिष्यो गुणार्थी सन् गुरुकुलवासी भवेत्, गुरुकुलवासे वसतां प्रतिक्षणं ज्ञानादिगुणोत्सर्पणात् उक्तं च भाष्यकृता - आमंतेइ करेमी भंते ! सामाइयंति सीसो य । आहामंतणवयणं गुरुणो किं कारणमियंति ? ॥ १ ॥ भन्नइ गुरुकुलवासोवसंगहत्थं जहा गुणत्थी हि । निचं गुरुकुलवासी हवेज सीसो जतोऽभिहियं ॥ २ ॥ नाणस्स होइ भागी थिरथरतो दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचति ॥ ३ ॥ (विशे. ३४५७-८-९ ) अन्यच्च सामायिकस्यादौ गुर्यामन्त्रणवचनमभिदधान एवं ज्ञापयति- सर्वकालं प्रतिक्रमणं गुरुपादमूले कर्त्तव्यं, वसत्यन्तरेऽपि पृथक कारणवशतः स वस्तुकामो गुरुपादमूले प्रतिक्रम्य वसति तथा चकल्पाध्ययनोक्ता एवं सामाचारी - "यदि लध्वी वसतिः ततोऽन्यत्र कतिपये साधवः संवस्तुकामा आचार्यसमीपे प्रतिक्रम्य प्रादोपिककालग्रहणोत्तरकालं सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषीं च कृत्वा अन्यस्यां वसतौ गच्छन्ति, अथान्तरा श्वापदादिभयं Por Private & Personal Use Only ~ 268~ आमंत्रणप्रयोजनं ॥ ५७३ ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०४२], वि०भा०गाथा [३४६१-३४६६], भाष्यं [१८५], मूलं [१] | गाथा H मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यकनियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत क सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] +CPCRACANCOM ततः अर्थपौरुषी हापयन्ति, ततः सूत्रपौरुषीमपि, कालमंपि, तथा चरम कायोत्सर्ग द्वितीयमाचं यावतिष्ठत्यपि सहस्ररश्मा तत्र यान्ती"ति, तथेदमपि ज्ञापयति-सर्वाणि कार्याणि गुरूनापृच्छय कत्तव्यानि, नान्यथा, सामायिकप्रतिपत्तेरपि गुर्वाम-10 त्रणपूर्वकत्वात् , उक्तं च-"आवस्सयपि निच्चं गुरुपामूलंमि देसियं होइ । वीसुपि संबसंता कारणतो जइवि सेआए| ॥१॥ एवं चिय सबाक्स्सयाई आपुच्छिऊण कज्जाई । जाणावियमामंतणवयणातो जेण सवेसि ॥२॥ सामाइयमादि मयं भदंतसद्दो य ज तदादीए । तेणाणुषत्तइ ततो करेमि भन्तेत्ति सबेसु ॥३॥ (विशे. ३४६१-२-३) अथ किमिति गुरूनापृच्छयैव सर्वाणि कार्याणि कर्तव्यानीति चेत् , उच्यते, इह परमार्थतः कृत्यमकृत्यं वा गुरवो जानते, विनयपति-14 |पत्तिश्च शिष्येण कृता भवति, भगवदाज्ञा चाराधिता स्थात् , तथाहि-भगवतामियमाज्ञा-उच्छासादि प्रमुच्य शेषं गुर्वना पृच्छया न किमपि कर्त्तव्यमिति, उक्तं च-"किच्चाकिच्चं गुरवो विदंति विणयपडिवत्तिहेउंति । उस्सासाइ पमोत्तुं तदणा-3 हापुच्छाए पडिसिद्ध ॥१॥" (विशे. ३४६४) अथ यत्र गुरुर्न भवति तत्र कधं कर्त्तव्यमिति चेत्, प्रतिसमाहितमत्र भाष्यकारेण-"गुरुबिरहंमि य ठवणा गुरूवएसोवर्दसणत्थं च । जिणविरहंमिव जिणबिंब सेवणामंतणं सफलं ॥१॥रनो। व परोक्खस्सवि जह सेवा मंतदेवयाए वा । तह चेव परोक्खस्सवि गुरुणो सेवा विणयहेउं ॥२॥" (विशे. ३४६५-६) ट्र इति कृतं विस्तरेण ॥ सम्प्रति सामायिक व्याख्येयं, अथ सामायिकमिति कः शब्दार्थः ?, उच्यते-समो रागद्वेषरहितः, अयनं गमनं, समस्यायः समायः, अयनग्रहणं शेषक्रियाणामुपलक्षणं, सर्वासामपि साधुक्रियाणां समस्य सतस्तत्त्वतो भावात्, समाय एवं सामायिकं, अथवा समानि-ज्ञानदर्शनचारित्राणि तेप्वयनं समायः स एव सामायिकं, यदिवा सर्वजीवेषु ... अथ 'सामायिक' शब्दस्य व्याख्या क्रियते ~269 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [२] श्री आव ० मलयगि० वृत्ती सूत्रस्पर्शिका ॥ ५७४ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [१०४३-१०४४] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१८५...], मूलं [१] / गाथा [-1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | मैत्री साम, साम्न आयो- लाभः सामायः स एव सामायिकं, अथवा सम्यक्शब्दार्थः समशब्दः सम्यगयनं वर्त्तनं समयः, | अथवा सम्यगायो - लाभः समायः, यदिवा समस्य भावः साम्यं तस्यायः साम्यायः, सर्वत्र स्वार्थिक इकण प्रत्ययः, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः, अथवा अन्यथा निरुक्तविधिः, तमुपदर्शयति सामं समं च सम्मं इगमिति सामाइ अस्स एगड्डा । नामं ठवणादविए भावम्मि य तस्स निक्खेवो ॥। १०४३ ॥ इह सामायिकशब्दः पदद्वयनिष्पन्नः, तत्र आद्यं पदं त्रिधा, तद्यथा - सामं समं च सम्यकू, इकमिति द्वितीयं पदं, तच्च देशीपदं कापि प्रवेशार्थे प्रवर्त्तते, अत्र पदयोजनां स्वयमेवाग्रे वक्ष्यति, तथा सामायिकस्य एकार्थिकानि वक्तव्यानि । सम्प्रति सामादिशब्दानां निक्षेपप्रदर्शनायाह-'नामे' त्यादि तेषां सामप्रभृतीनां शब्दानां निक्षेपः कर्त्तव्यः, तद्यथा- 'नामस्थापने द्रव्ये भावे च' इयमत्र भावना - चतुर्विधं साम, तद्यथा - नामसाम स्थापनासाम द्रव्यसाम भावसाम च, एवं समसम्यकूपदयोरपि भावनीयं । तत्र नामस्थापने प्रतीते, द्रव्यसामप्रभृतीन् प्रतिपादयति- महुरपरिणाम सामं समं तुला सम्म खीरखंडजुई । दोरे हारस्स चिई इगमेयाई तु दबंमि ॥ १०४४ ॥ ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यसाम मधुरपरिणामं शर्करादिद्रव्यं, द्रव्यसमं सद्भूतार्थालोचनया तुलाद्रव्यं, द्रव्यसम्यक् क्षीरखंडयुतिः - क्षीरखण्डयोजनं, इकमपि चतुर्द्धा तद्यथा नामेकं स्थापनेकं द्रव्येकं भावेकं च तत्र नामस्थापने प्रतीते, द्रव्येकं दोरे इति सूत्रदवरके मौक्तिकान्यधिकृत्य भाविपर्यायापेक्षया हारस्य मुक्ताफलकलापस्य चितिः- चयनं ~270~ सामादीन्येकार्थिकानि ॥ ५७४॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०४५-१०४६], वि०भा०गाथा , भाष्यं [१८५...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] प्रवेशनं द्रव्येकं, अत एवाह-'एयाई तु वर्षमि' एतान्युदाहरणानि द्रव्ये-द्रव्यविषयाणि ॥ साम्प्रतं भावसामादिप्र-18 तिपादनार्थमाहI आयोवमाए परदुक्खमकरणं रागदोसमझत्थं । नाणाइतिगं तस्सायपोअणं भावसामाई ॥१०४५ ॥ आत्मोपमानेन परदुःखाकरणं, मकारोऽलाक्षणिकः, भावसामेति गम्यते, किमुक्कं भवति ?-आत्मनीव परदुःखाकरणपरिणामो भाषसाम, तथा रागद्वेषमाध्यस्थ्य, अनासेवनया रागद्वेषमध्यवर्तित्वं, सर्वत्रात्मनस्तुल्यरूपेण वर्तनं भावसम, तथा ज्ञानादिवयं-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपमेकत्रावस्थितं भावसम्यक्, तथाहि-ज्ञानदर्शनचारियोजनं भावसम्यगेव, मोक्ष-101 साधकत्वात् , 'तस्येति सामादि सम्बध्यते, तस्य सामादेरात्मप्रोतनं-आत्मनि प्रवेशनं भावे, क्रमत एवाह-भावसामादीनि प्रतिपत्तव्यानि । सम्प्रति निरुक्तिविधियोजना क्रियते, आत्मन्येव साम्न इक-प्रवेशनं सामायिकं, यलक्षणेनानुपपन्नं तत्सर्वे नैरुक्तिनिपातनादवसेयं, तथाहि-सामन्शब्दनकारस्य आयआदेशः, तथा समस्य-रागद्वेषमध्यस्थस्यात्मनि इक-प्रवेशनं सामायिक, समशब्दात्परः अयागमः सकारस्य च दीर्घता, तथा सम्यगित्येतस्य सम्यगज्ञानदर्शनचारित्रयोजनरूपस्यात्मनि इक-प्रवेशनं सामायिक यकारादेरायादेशनिपातनं सकारस्य च दीर्घता ॥ सम्प्रति सामायिकपर्यायशब्दान् प्रतिपादयतिसमया संमत्त पसत्थ संति सिव हिअ सुहं अणिदं च । अदुगुंछिअमगरहियं अणवजमिमेऽवि एगट्ठा ॥१०४६॥ समता रागद्वेषमध्यवर्त्तिनस्तद्रूपत्वात् , सम्यक्त्वं ज्ञानदर्शनचारित्राणां परस्परं यत् प्रयोजनं तदात्मकत्वात्, प्रशस्तं X RAMES * H imastram ~271 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०४७], विभा गाथा , भाष्यं [१८५...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत कृतादी सुत्रांक ॥५७५॥ दीप अनुक्रम श्रीमाषIमोक्षसाधकत्वात् , शान्तिः मिथ्यात्वादिदावानलविध्यापनात्, शिवमुपद्रवकारित्याभावात् , हितं परिणामसुखावहत्वात, मलयगि018|शुभं शुभाध्यवसायात्मकत्वात् , अजुगुप्सितं स्वरूपतः प्रशमरूपतया जुगुप्सनीयाभावात् , अगर्हितं परममुनिभिरपिचालनाप्रप्रची सूत्र- महापुरुषैः सेवितत्वात् , अनवयं सावद्ययोगप्रत्याख्यानात्मकत्वात्, 'इमेऽवि एगट्टे'ति इमे-अनन्तरोदिता अपि, त्यवस्थाने स्पर्शिका अनन्तरोदितं 'सामाइय'मित्यादय इत्यपिशब्दार्थः, एकार्थिकाः पर्यायशब्दाः ॥ आह-ननु निरुक्तद्वार एव 'सामाइयं 18 समइय'मित्यादयो यदि पर्यायशब्दा उक्काः ततो भूयः किमर्थमेतेषामभिधानमिति !, उच्यते, तत्र पर्यायशब्दमात्रता, इह तु वाक्यान्तरेणार्थनिरूपणमित्यदोषः, अथवा तत्रोक्तावप्यत्राभिधानमसम्मोहार्थमदुष्टमेव, अत एवोक्तं 'इमेऽवि | Pाएगट्ठा' इति, एतेऽपि तेऽपि इति ॥ सम्प्रति कण्ठतः स्वयमेव चालनां प्रतिपादयति को कारओ ? करितो, किं कम्म?, जंतु कीरई तेण। किं कारय-करणाण य अन्नमणन्नं च ? अक्खेवो ॥१०४७॥ हैइह 'करोमि भदन्त ! सामायिक मित्यत्र कर्तृकर्मकरणव्यवस्था कर्तव्या, यथा 'करोमि राजन् ! घटक'मित्युक्ते कुलाला काकर्ता घटः कर्म दण्डादि करणमिति, अन्न का कारकः कुलालस्थानीयः?, अत्राह-'करितोत्ति, तत् सामायिकं कुर्वन आत्मैव कारकः, अथ किं कर्म घटस्थानीय, अत्राह-यत्तु क्रियते-निर्वय॑ते तेन का, तच तद्गुणरूपं सामायिकXमेव, तुशब्दः करणप्रश्ननिर्वचनसचाहणार्षः, तत्र किं करणं? दण्डादिस्थानीयमिति प्रश्नः, निर्वचनमुद्देशादि चतुर्विध. तद्यथा-उद्देशो वाचना समुद्देशः अनुज्ञा चेति, एवं व्यवस्थिते सत्याह-'किं कारगकरणाण य' इति किं कारककर-3 णयोः चशब्दात् कर्मणश्च परस्परतः कुलालघटदण्डादीनामिवान्यत्वमाहोश्विदनन्यत्वं ?, किंचातः!, उभयथापि दोषः, २] I malbringarg. ~272 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०४८], विभा गाथा , भाष्यं [१८५...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम तथाहि-अन्यत्वे सामायिकवतोऽपि तत्फलस्य मोक्षस्याभावः, तदन्यत्वात् , मिथ्यादृष्टेरिय, अनन्यत्वे तस्योत्पत्तिविनाशाभ्यामात्मनोऽप्युत्पत्तिविनाशप्रसङ्गः, अनिष्टं चैतत् , तस्यानादिमत्त्वाभ्युपगमात् , एष आक्षेपः-चालना । इत्थं चालनाम-12 भिधाय साम्प्रतं प्रत्यवस्थानमाहआया हु कारओ मे सामाइअ कम्म करणमाया य । परिणामे सइ आया सामाइअमेव उ पसिद्धी॥१०४८MA इह ममात्मैव कारको मतः, तस्य स्वातन्येण प्रवृत्तेः, तथा सामायिक कर्म, तद्गुणत्वात्, करणमपि चोदे-15 शादिलक्षणं तद्रूपत्वादात्मैच, तथापि यथोक्तदोषाणामसम्भवः, कुत इत्याह-यस्मात् परिणामे सति आत्मा सामायिक परिणमनं परिणामः कथञ्चित् पूर्वरूपापरित्यागेनोत्तररूपापत्तिः, उक्तं च-"नार्थान्तरगमो यस्मात् , सर्वथैव न चागमः। परिणामः प्रमासिद्धः, इष्टश्च खलु पण्डितैः॥१॥" तस्मिन् परिणामे सति आत्मा सामायिकमुपपद्यते, तथाहि-परिणामे दसति तस्यात्मनो नित्यानित्याद्यनेकरूपता, अन्यथा परिणामित्वायोगात्, सा च नित्यानित्याद्य नेकरूपता द्रव्यगुणपर्या याणां भेदाभेदसिद्धी, अन्यथा सकलव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् , ततो नात्र कर्तृकर्मकरणानामेकाम्तेन अन्यत्वं, तद्गुणत्वात्, न खलु गुणगुणिनोरेकान्तेन भेदः, तथा सति विप्रकृष्टगुणमात्रोपलब्धौ प्रतिनियतगुणिविषयसंशयायोगात्, तदन्येभ्योऽपि तस्य भेदाविशेषाद्, अथ च यदा कश्चिद्धरिततशाखाविसररन्धोदरान्तरतः किमपि शुक्त पश्यति तदा किमियं पताका किंवा बलाका ? इति दृश्यते प्रतिनियतगुणिविषयः संशयः, नाप्येकान्तेनानन्यत्वं, तद्गुणत्वादेव, नहि गुणगुणिनोरेकातेनानन्यत्वं, तद्गुणत्वादेव, नहि गुणगुणिनोरेकान्तेनाभेदोऽपि, तथा सति गुणग्रहणे सति गुणिविषयसंशयानुत्पत्तिरेव, CARSCIENCECRECR [२] ANCCCCRAK न स्टा ~273 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०४९-१०५०], विभा गाथा , भाष्यं [१८५...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [१] दीप अनुक्रम [२] गुणग्रहण एष तस्यापि गृहीतत्वात् , किंतु जात्यम्तरात्मकमन्यत्वानन्यत्वं घटते, आत्मैव कारक: आत्मैव सामायिका कृवादी मलयगि आत्मैव करणमिति प्रसिद्धिः-प्रत्यवस्थानं ॥ संप्रति परिणामपक्षे सत्यप्येकत्वेऽप्यनेकरवेऽपि चाविरोधेन कर्तृकर्मकरण-12 चालनाम वृत्तौ सूत्र-18 व्यवस्था घटते इति दर्शयन्नाह त्यवस्थाने स्पर्शिका एगत्ते जह मुट्ठि करेइ अत्यंतरे घडाईणि । दश्वत्थंतरभावे गुणस्स किं केण सम्बद्धं ? ॥ १०४९॥ एकत्वे-कर्तृकरणानाममेदे दृष्टः कर्तृकरणभावो, यथा मुष्टिं करोति, अत्र हि देवदत्तः कर्ता, तस्य हस्तः कर्म, तस्यैव ।। ॥५७६॥ प्रयत्नविशेष: करणमिति । तथाऽर्थान्तरे-कर्तृकरणानां भेदे दृष्टः कर्तृकर्मकरणभावो, यथा घटादीनि करोति, अत्र सहि कुलालः कर्ता घटादिक कर्म दण्डादिकं करणमिति, इह सामायिकमात्मनो गुणो वर्तते, स च गुणिनः कथञ्चिदेव, |भिन्नः, अत्रैव विपक्षे बाधामुपदर्शयति-द्रव्यात् सकाशाद् गुणिन इत्यर्थः, एकान्तेनैवार्थान्तरभावे-भेदे सति गुणस्य 5 कि केन सम्बद्ध है, न किञ्चित् केनचित्सम्बद्धमिति भावः, तथा च सति ज्ञानादीनामपि गुणत्यात् तेषामपि चात्मादिगुणिभ्य एकान्तभिन्नत्वात् संवेदनाभावतः सर्वव्यवस्थानुपपत्तिः, एवमेकान्तेनानन्तरभावेऽपि दोषा अभ्यूह्या इति, गुणगुणिनोरर्थान्तरत्वात् सर्व सुस्थमिति । तदेवमुक्त कण्ठतश्चालनापत्यवस्थाने, सम्पति 'सर्व सावधं योग'मित्यत्र या सर्वशब्दस्तन्निरूपणायाह नामंठवणादविए आएसे निरवसेसए चेव । तह सबधत्तसवं च भावसवं च सत्तमयं ॥ १०५०॥ नियते इति सर्वः, तस्य सप्तधा निक्षेपस्तद्यथा-नामसर्व स्थापनासर्व द्रव्यसर्व आदेशसर्व निरवशेषसर्व सर्वधत्तसर्व SRANA JMEducation ... अत्र 'सव्वं सावज्ज' पदयो: व्याख्यायेते ~274 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] आ. सू. ९७ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [१०४९-१०५० ], वि० भा० गाथा [ ३४८८ ], भाष्यं [१८६], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि रचिता वृत्तिः भावसर्वं च सप्तमं एवं गाथासमासार्थः, व्यासार्थं तु भाष्यकारः स्वयमेव वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य शेषभेदण्याख्यानार्थमाह दविए चउरो भंगा सक्षमतवे य दवदेसे य । आएस सहगामे नीसे से सबगं दुविहं ॥ १८६३ ॥ (भा.) द्रव्ये-द्रव्यसर्वे चत्वारो भङ्गाः, तानेव सूचयति - 'सबमसवे य दवदेसे य'त्ति इह अङ्गुल्यादिद्रव्यं यदा सर्वैरपि निजावयवैः परिपूर्ण विवक्ष्यते तदा सर्वमुच्यते, एवं तस्यैवाङ्गुल्यादिद्रव्यस्य कश्चित् स्वावयवो देशो निजावयवपरिपूर्ण तया यदा सकलो विवक्ष्यते तदा सोऽपि देशः सर्व एव उभयस्मिन् द्रव्ये तदेशे च सर्वत्वं एतदेवाङ्गुल्यादिद्रव्यं तद्देशो वा यथास्वमपरिपूर्णतया विवक्ष्यते तदा प्रत्येकम सर्वत्वं ततो द्रव्ये देशे चैवं विवक्षिते चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा-द्रव्यं सर्व देशोऽपि सर्वः १, द्रव्यं सर्व देशोऽसर्वः २, देशः सर्वो द्रव्यमसर्व ३, देशोऽसर्वो द्रव्यमप्यसर्व ४, अत्र यथाक्रममुदाहरणम् - अंगुलिद्रव्यं संपूर्ण विवक्षितं द्रव्यसर्वं तदेव देशोनं विवक्षितं द्रव्यासर्व पर्व पुनः सम्पूर्ण विवक्षितं देशसर्व, पर्वैकदेशस्तु देशासर्व तथा आदेश - उपचारः, स च बहुतरे प्रधाने वा देशेऽपि आदिश्येत तत्र बहुतरे यथा विवक्षितं घृतमभिवीक्ष्य बहुतरे भुके स्तोकेऽवशेषे सर्वशब्दोपचारः क्रियते सर्व घृतं भुक्तमिति, प्रधानेऽप्युपचारो यथा ग्रामप्रधानेषु नरेषु गतेषु सर्वो ग्रामो गतः उक्तं च- आदेसो उवयारो बहुतरगे वा पहाणतरगे वा । देसेऽवि जहा सबं भुतं सबो गतो गामो ॥ १ ॥ ( विशे. १४८८ ) इति, तत्र प्रधानपक्षमधिकृत्याह - ' आदेस सबगामो' इति, आदेशसर्व सर्वो For Pate & Personal Use Only ~275~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०४९-१०५०], विभा गाथा [३४८८], भाष्यं [१८७-१८८], मूलं [१] / गाथा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ISRO सत्राक [१] दीप श्रीआव०ग्रामो गत इति आयात इति वा क्रिया । उक्तमादेशसर्वमथ निरवशेषसर्वमाह-'निस्सेसे सबगं दुविहंति निरवशेषसर्व निरवशेमलयगि०|| द्विविध-द्विप्रकार, तद्यथा-सर्वापरिशेषसर्व तद्देशापरिशेषसर्व च, तत्र पादिसर्व वृत्तौ सूत्र- अणिमिसिणो सबसुरा सबापरिसेससवगं एअंतहेसापरिसेसं सवे काला जहा असुरा ॥ १८७ ।। (भा.) | स्पर्शिका अनिमेषिणः अनिमेपनयनाः सर्वसुराः, एतत्सर्वापरिशेषसर्व, न कश्चित् देवानां मध्येऽनिमिषत्वं व्यभिचरतीति, तहे शापरिशेपसर्व यथा सर्वे काला असुरा इति, इयमत्र भावना-तेषामेव देवानां देश एको निकायोऽसुरः, ते च सर्व एवासितवर्णा इति । सर्वधत्तासर्वप्रतिपादनायाहसा हवइ सवधत्ता दुपडोआरा जिया य अजिया य । दवे सबघडाई सबधत्ता पुणो कसिणं ॥ १८८ ॥ (भा.) सा भवति 'सर्वधत्ते'ति सर्व जीवाजीवाख्यं वस्तु धत्तं-निहितं यस्यां विवक्षायां सा सर्वधत्ता, ननु ददातेहिं शब्दाINदेशात् हितमिति भवितव्यं, कथं धत्तमिति !, उच्यते, पृषोदरादितया शब्दान्तरत्वेनाविरोधाददोपः, अथवा धत्त इति | डित्थवत् अव्युत्पन्न एव, यथा शब्दः, यदिवा-सर्व दधातीति सर्वध, एतन्निरवशेषवचनं, सर्वधमात्तं-निगृहीतं यस्यां विवक्षायां सा सर्वधात्ता, अत्र निष्ठांतस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात् , अथवा सर्वधमाता सर्वधात्ता तया यत् सर्व तत्सर्वेधात्तिासर्व, सा भवति सर्वधाता, यथा द्विप्रत्यवताराः सर्वे पदार्थास्तद्यथा-जीवाश्च अजीवाश्च, तथाहि-यत्किनेह लोके सम-18 स्ति तत्सर्व जीवाश्च अजीवाश्च, नैतद्व्यतिरिक्तमस्ति, अत्राह-ननु द्रव्यसर्वस्य सर्वधात्तासर्वस्य च कः प्रतिविशेषः, अय-12 मित्राभिप्राय:-द्रव्यसर्वमपि विवक्षया अशेषद्रव्यविषयं भवतीति, तत आह-'दवे सबघडादी' इह द्रव्यसवें घटादयो। अनुक्रम [२] 456456 SMEducstori ~276~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०५१], विभा गाथा H, भाष्यं [१८९], मूलं [१] / गाथा -1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] गृह्यते, आदिशब्दादङ्गस्यादिपरिग्रहः, सर्वधत्ता पुनः समस्तवस्तुजातं व्याप्य व्यवस्थितेति विशेषः॥ अथ भावसर्षमाह-1 भावे सबोदइओदयलक्खणओ जहेब तह सेसा । इत्थ उ खओवसमिए अहिगारोऽसेससवे य ॥१८९॥ (भा.) भावे इति द्वारपरामर्शः, सर्वः शुभाशुभभेदेन द्विप्रकारोऽपि उदयलक्षणः-कर्मोदयनिष्पन्नत्वरूप औदयिकः, यथाऽयमुक्ता तथा शेषा अपि, स्वलक्षणतो वाच्या इति वाक्यशेषः, तद्यथा-मोहनीयकर्मोपशमस्वभावः शुभः सर्व एवीपशमिको भावः, कर्मक्षयस्वभावः पुनः शुभः सर्वः क्षायिकः, कर्मक्षयोपशमनिष्पन्नः शुभाशुभः सर्वक्षायोपशमिकः, द्रव्यपरिणतिस्वभावः सर्वः परिणामः, एवं शिष्यमतिव्युत्पादनार्थ प्ररूपणां कृत्वा प्रकृतयोजनामुपदर्शयति-'एल्थ तु' इत्यादि,18 अत्र क्षायोपशमिकभावसर्वेऽधिकार:-अवतारः उपयोगोऽशेषसर्वे च-निरव शेपसर्वे च ॥ व्याख्यातः सौत्रः सर्वावयवः, साम्प्रतं सावद्यावयवव्याख्यानार्थमाह- . कम्ममवजं जं गरहिअंति कोहाइणो व चत्तारि । सह तेण जो उ जोगो पञ्चक्खाणं हवह तस्स ॥ १०५१॥ कर्म अनुष्ठानमवा भण्यते, किमविशेषेण ?, नेत्याह-यद् गर्हित-निंद्य, अथवा क्रोधादयश्चत्वारोऽवद्यं, तेषां सर्वावद्यहेतुतया कारणे कार्योपचारात् , सह तेनावधेन यो योगो-व्यापारस्तस्य सावद्ययोगस्य प्रत्याख्यान-निषेधलक्षणं भवति, है।पाठान्तरं 'कम्मं वजं जंगरहियं ति, तत्र 'वजी वर्जने' व्रज्यते इति वज्यं, वर्ण्य वर्जनीयं, त्यजनीयमित्यर्थः, शेषं पूर्ववत्, नवरं सह वज्येन सवर्ण्यः, प्राकृतत्वात् सकारस्य दीर्घत्वे सावद्येति भवति । अधुना योगोऽभिधातव्यः, स च द्विधा-द्र-* व्ययोगो भावयोगश्च, तथा चाह RECECRESEARCH दीप अनुक्रम [२] Smooto18 XLranyaro अत्र 'योग' शब्दस्य व्याख्या क्रियते ~2770 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०५२], विभागाथा H, भाष्यं [१८९], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [१] श्रीआव. दवे मणवइकाए जोगा दवा वुहा उ भावंभि । जोगो सम्मत्ताई पसत्य इयरो य विवरीओ ॥ १०५२ ।। प्रत्याख्यामलयगि IF द्रव्य इति द्वारपरामर्शः 'मणवइकाए जोग्गा दवा' इति मनोवाकाययोग्यानि द्रव्याणि द्रव्ययोगः, इयमत्र भावना- ननिक्षेपाः वृचौ सूत्र-18जीबेनागृहीतानि गृहीतानि वा स्वब्यापाराप्रवृत्तानि द्रव्ययोग इति, द्रव्याणां वा हरीतक्यादीनां योगो द्रव्ययोगः, 'वहार स्पर्शिकाउ भावंमित्ति द्विधैव तुशब्दस्य एवकारार्थत्यात् द्विप्रकार एव, भावे भावविषयो योगः, तद्यथा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, तत्र प्रशस्तः सम्यक्त्वादिः, आदिशब्दात् ज्ञानचरणपरिग्रहः, प्रशस्तता चात्य युज्यते अनेनात्माऽपवर्गेणे त्यन्वर्थवलात, इत-12 रो-मिथ्यात्वादियोगो विपरीतः-अप्रशस्तः, युज्यतेऽनेनात्मा अष्टविधेन कर्मणेति व्युत्पत्तिभावात् । तदेवं सावद्ययोगमिति सूत्रावयवी व्यख्याती । सम्प्रति प्रत्याख्यामीत्यवयवप्रस्तावात् प्रत्याख्यानं निरूपणीयं, 'पच्चक्खामी'त्यस्य संस्कारः प्रत्याख्यामि प्रत्याचक्षे इति वा, तत्र प्रत्याख्यामीति कोऽर्थः, प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं सावधयोगस्य करोमि, तथा प्रत्याचक्षे इति कोऽर्थः ?, प्रतिषेधस्यादरेणाभिधानं करोमि प्रत्याख्यान, प्रतिषेधस्याख्यानं प्रत्याख्यानं निवृत्तिरित्यर्थः, तन्निक्षेपप्ररूपणार्थमाहनामंठवणादविए खित्तमइच्छा अभावओतं च । नानाभिहागमुसं ठवणागारक्वनिक्खेवो'॥१॥ C ॥५७९॥ तच्च प्रत्याख्यानं पोढा, तद्यथा-नामप्रत्याख्यानं स्थापनाप्रत्याख्यानं द्रव्यप्रत्याख्यानं क्षेत्रप्रत्याख्यानं अदित्साप्रत्या१ गाथेयं कचित् हारिभद्रीयादशैंऽपि, मूलस्थानं तु प्रत्याख्याननियुक्ती, न श्रीहरिभद्रसूरिभिर्मवेयमत्र । RECERES दीप अनुक्रम [२] - - * ~278 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०५३-१०५४], विभा गाथा , भाष्यं [१८९...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम दाख्यानं भावप्रत्याख्यानं च, तत्र नामप्रत्याख्यानं प्रत्याख्यानमित्यभिधानमुक्तं, यदिवा यस्य प्रत्याख्यानमिति नाम स नाम नामवतोरभेदोपचात् नामप्रत्याख्यानं, स्थापनाप्रत्याख्यानम् आगारक्वनिक्खेवो इति, आकारोऽनिक्षेपश्च, अक्षग्रहणमन्येषामपि निराकाराणामुपलक्षणं, इयमत्र भावना-चित्रकम्मादो प्रत्याख्यानं कुर्वतो या स्थापना सा प्रत्याख्यानप्रत्या-1 ख्यानवतोरभेदोपचारात् स्थापनाप्रत्याख्यानं आकारवत् , अक्षवराटकादी स्थापना निराकार स्थापनाप्रत्याख्यानं ॥ सम्पहति द्रव्यप्रत्याख्यानादिप्रतिपादनार्थमाह दधम्मि निहगाई निविसयाई अहुति खित्तम्मि । भिक्खाईणमदाणे अइच्छ भावे पुणो दुविहं ॥१०५३॥ GI द्रव्ये द्रव्यविषयं प्रत्याख्यानं निवः, आदिशब्दात् द्रव्यस्य द्रव्ययोर्द्रयाणां द्रव्यभूतस्य द्रव्यहेतोर्वा प्रत्याख्यानं. निविलयाई य होन्ति खित्तम्मि' निर्विषयादि भवति प्रत्याख्यानं क्षेत्रे, तब यो निर्विषय आदिष्टस्तस्य क्षेत्रप्रत्याख्यानं, आदिशब्दानगरादिप्रतिषिद्धपरिग्रहः, तथा भिक्षादीनां भिक्षणं भिक्षा-पाभूतिका, आदिशब्दाखादिपरिग्रहः.15|| तेषामदाने अतिगच्छेति अदित्सेति वा वचनं, अतिगच्छप्रत्याख्यानमदित्साप्रत्याख्यानं वा, भावे भावविषयं पुनर्द्विविधत प्रत्याख्यानं, भावग्रत्याख्यानमित्या चवं व्युत्पत्तिः, भावस्य-सावधयोगस्य प्रत्याख्यानं भावप्रत्याख्यान, भावतो वा शुभात परिणामात् प्रत्याख्यानं भाव एव वा सावधयोगविरतिलक्षणः प्रत्याख्यानं भावप्रत्याख्यानं ।। सम्पति द्वैविध्यमेयोपदर्शयतिसुअ-नोसुअ सुअ दुविहं पुषमपुवं तु होइ नायवं । नोसुअपचक्याणं मूले तह उत्तरगुणे य॥ १०५४॥ द्विविधं भावप्रत्याख्यान-श्रुतप्रत्याख्यानं नोश्रुतप्रत्याख्यानं च, 'सुय दुविहति श्रुतप्रत्याख्यानं द्विविध भवति ज्ञातव्यं, [२] ~279 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] श्रीभाव० मलयगि० वृत्तौ सूत्रस्पर्शिका ॥ ५७९ ॥ Jam Educatio आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०५५] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १८९...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तद्यथा- पूर्व श्रुतप्रत्याख्यानमपूर्वश्रुत प्रत्याख्यानं च तत्र पूर्वश्रुत प्रत्याख्यानं प्रत्याख्यानसंज्ञितं पूर्व, अपूर्व श्रुतप्रत्याख्यानं त्वातुरप्रत्याख्यानादि, तथा नोश्रुतप्रत्याख्यानं श्रुतप्रत्याख्यानादन्यत्, तच्च द्विधा 'मूले तह उत्तरगुणे य' मूलगुणप्रत्याख्यानं उत्तरगुणप्रत्याख्यानं च, मूलगुणप्रत्याख्यानं द्विभेदं तद्यथा देशप्रत्याख्यानं सर्वप्रत्याख्यानं च, देश| प्रत्याख्यानं श्रावकाणां, सर्वप्रत्याख्यानं संयतानां सर्वप्रत्याख्यानेन चेहाधिकारः, सामायिकानन्तरं सर्व सावधं योगं प्रत्याख्यामीत्युपादानात्, इह वृद्धसम्प्रदायः - पश्ञ्चक्खाणे उदाहरणं, रायभूयाए पच्चक्खायं वरिसं जाव मंसं न खइयचं, पारणगे अणेगाणं जीवाणं घातो कतो, साहू विहरंता आगया, मंसं न पडिग्गहियं, तीए भणियं किं तुझं अज्जवि वरिसं न पुजइ ?, साहूहिं भणियं - जावजीवमहं मंसपञ्चक्खाणं, एत्थ धम्मकहा, सा संबुद्धा, पवइया, पुर्व दवपञ्चक्खाणं, पच्छा भावपच्चक्खाणं ॥ तदेवं व्याख्यातः प्रत्याख्यानमिति सूत्रावयवः, अधुना 'यावज्जीवये'ति व्याख्यायते, तत्रादी भावार्थमभिषित्सुराह-जावदवधारणम्मि जीवणमवि पाणधारणे भणिअं । आ पाणधारणाओ पावनिवत्ती इहं अत्थो । १०५५ ॥ यावदित्ययं शब्दोऽवधारणे वर्त्तते, जीवनमपि प्राणधारणे भणितं, 'जीव प्राणधारण इति वचनात् ततो यावज्जीवया प्रत्याख्यामीति, कोऽर्थः ?-आ प्राणधारणात् प्राणधारणं यावत् पापनिवृत्तिरिति, परतस्तु न विधिर्नापि प्रतिषेधः, विधावाशंसादोषप्रसङ्गात् प्रतिषेधे तु सुरादिषूत्पन्नस्य भङ्गप्रसङ्गात्, इह च जीवनं जीव इति क्रियाशब्दो, न जीवतीति जीवः - आत्मा पदार्थः, जीवनं च प्राणधारणं, जीवनं जीवितं चेत्येकार्थ, तत्र जीवितं दशधा, तथा चाह Por Private & Personal Use Only 280~ जीवितनिक्षेपाः ॥ ५७९ ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०५६], विभा गाथा H, भाष्यं [१९०], मूलं [१] / गाथा -1 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] नाम १ ठवणा २ दविए ३ ओहे४ भव ५तम्भवे ६य भोगे ७ य। संजम ८ जस ९ कित्ती १० जीवियं च तं भण्णई दसहा ॥१०५६॥ ___ तज्जीवितं दशधा भण्यते, तद्यथा-नामजीवितं स्थापनाजीवितं द्रव्यजीवितमोघजीवितं भवजीवितं तद्भवजीवितं भोगजीवितं संयमजीवितं यशोजीवितं कीर्तिजीवितं च, एष गाथासमासार्थः॥ व्यासार्थ तु भाष्यकारः स्वयमेव वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनाहत्य शेषभेदव्याख्यानार्थमाह- . द दधे सच्चित्ताई आउयसदबया भवे ओहे।नेरइयाईण भवे तब्भव तत्थेव उप्पत्ती ॥ १९० ॥ (भा.) द्रव्ये-द्रव्यविषयं जीवितं, द्रव्यजीवितमित्यर्थः, सचित्तादि सचित्तमचित्तं मिश्रं वा, इह कारणे कार्योपचारात् येन द्रव्येण सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन पुत्रहिरण्योभयरूपेण यस्य यथा जीवितमायत्तं तस्य तथा तद् द्रव्यजीवितमुच्यते, उक्त द्रव्यजीवितं, 'आउयसद्दबया भवे ओहे' ओघजीवितं-सामान्यजीवितं आयुस्सट्रव्यता-आयुःप्रदेशकर्म तस्य द्रव्यैः सह(वर्त)मानता आयुःसट्रव्यता, आयुःकर्मद्रव्यसहचारिता जीवस्येत्यर्थः, इदं च सामान्यजीवितं सकलसंसारिणामविशेषेण सदा भावि, तत इदमङ्गीकृत्य यदि पर सिद्धा एव मृता, न पुनरन्ये केचन, उक्तमोघजीवितं, नैरयिकादीनां नैरयिकतियेहै नरामराणां भव इति स्वस्वभवे स्थितिर्भवजीवितं, उक्कं भवजीवितं,'तम्भव तत्थेव उववत्ती' तस्मिन् भवे भूयो जीवितं तद्भवजीवितं, किं तदित्याह-तत्रैवोत्पत्तिः तत्र-तस्मिन् अधिकृते तिर्यग्भवे मनुष्यभवे वा स्वकायस्थित्यनुसारेण भूयो भूय उत्पत्तिः, इदं चौदारिकशरीरिणामेवावसातव्यं, अन्यत्र निरन्तरं भूयो भूयस्तत्रैवोत्पत्त्यभावात् । उक्तं तद्भवजीवितं ॥ KAL ... अथ 'जीवित' शब्द व्याख्यायते ~281 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] श्रीआव० मलयगि० वृत्तौ सूत्रस्पर्शिका ॥ ५८० ॥ Jan Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [१०५६ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१९१] मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः %%% Gi भोगम्मि चकिमाह संजमजीयं तु संजयजणस्स । जस किती य भगवओ संजमनरजी व अहिगारो ॥१९१॥ (भा.) 'भोगे' भोगजीवितं चक्रवर्त्यादीनाम्, आदिशब्दाद्वलदेववासुदेवादिपरिग्रहः, उक्तं भोगजीवितं, संयमजीवितं 'संयतजनस्य' साधुलोकस्य, उक्तं संयमजीवितं, यश कीर्त्तिः (श्च) भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः, ततो यशोजीवितं कीर्त्तिजीवितं च भगवतः प्रतिपत्तव्यं, यशकीयश्चायं विशेषः, “दानपुण्यफला कीर्त्तिः, पराक्रमकृतं यशः " अन्ये विदमेकमेवाभिदधति केवलं संयमप्रतिपक्षभावतो दशममसंयमजीवितमविरतिगतं प्रतिभणन्ति, 'संजमनरजीव अहिगारो'त्ति संयम जीवितेन नरभवजीवितेन चेहाधिकारः, 'यावज्जीवाएं' इत्यत्र यावज्जीवतयेत्यपि संस्कारः, तत्र यावत् जीवो- जीवनंप्राणधरणं यावज्जीवं, 'यावदवधारणे' इत्यव्ययीभावः समासः, यावज्जीवं भावो यावज्जीवता तया यावज्जीवता, तत्र प्राकृते तकारस्यालाक्षणिको लोप इति यावजीवाए इति सिद्धं, अथवा प्रत्याख्यानक्रिया अन्यपदार्थः, यावज्जीवो यस्यां सा यावज्जीया तथा यावज्जीवयेति कृतं प्रसङ्गेन । तथा तिस्रो विधा यस्य स त्रिविधः सावद्ययोगः, स च प्रत्याख्येय इति कर्म, कम्र्म्मणि च द्वितीया विभक्तिः, तं त्रिविधं योगं, त्रिविधेन करणेन, अस्यैव विवरणमाह-मनसा वाचा कायेन तस्य च करणस्य कर्म्म प्रत्याख्येयो योगः, तमपि सूत्रेण एव विवृणोति, न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुंजानामि- नानुमन्ये । आह-किं पुनः कारणमुद्देशक्रममभिलक्ष्य व्यत्यासेन निर्देशः कृतः ?, उच्यते, योगस्य करणतन्त्रतोपदर्शनार्थ, तथाहि-योगः करणवश एव, करणानां भावे योगस्यापि भावाद् अभावे चाभावात्, करणानामेव तथाक्रियारूपेण प्रवृत्तेः, अपरस्त्वाह-न करोमि न कारयामि कुर्वन्तं न समनुजानामि इत्येतावता ग्रन्थेन गतेऽन्यमपीत्यतिरिच्यते, 282~ सामायिकसूत्रार्थः ॥ ५८० ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०५७], विभागाथा H, भाष्यं [१९१], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] FIन चातिरिक्तण सूत्रेण चार्थः, उच्यते, साभिप्रायमिदमनुक्त त्याप्यर्थस्य सङ्ग्रहार्थ, तथाहि-सम्भावनेऽयमपिशब्दः, स चोभ-18 यमध्यस्थः एतत्सम्भावयति, यथा कुर्वन्तं नानुजानामि एवं कारयन्तमप्यन्यं अनुज्ञापयंतमप्यन्यं नानुजानामीति, यथा का वर्तमानकाले कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि, एवमपिशब्दादतीते काले कृतवन्तमपि कारितवंतमपि अनुज्ञापितवंतमपि,12 तथाऽनागते काले करिष्यन्तमपि कारयिष्यन्तमपि अनुज्ञापयिन्यन्तमपीति त्रिकालमपि सङ्ग्रहो वेदितव्यः, इह न क्रियाक्रियावतोरेकान्तेनाभेद एव, ततो न केवला क्रिया सम्भवति इति ख्यापनार्थमन्यग्रहणं, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, मा भद' मुग्धमतिविनेयसम्मोह इति । किचिनु सूत्रस्पर्श नियुक्ती वक्ष्यामः । तदेवमिदमेतावत्सूत्रस्य व्याख्यातम् , इह त 'सर्वर दासावयं योग प्रत्याख्यामी'त्यत्र प्रत्याख्यानं गृहस्थान् साधूनपि प्रतीत्य भेदपरिणामतो निरूपयति, गुरवस्तु व्याचक्षते-त-14 विदमेतावत् सूत्रस्य व्याख्यातं, सम्प्रति 'त्रिविधं त्रिविधेनेत्येतदेव व्याचष्टे, तत्र त्रिविधं सावद्ययोग प्रत्याख्येयं कृत-18 कारितानुमतिभेदभिन्नं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेनेति करणेन प्रत्याख्याति, ततस्तझेदोपदर्शनार्थमाहICT सीआलं भंगसयं तिविहं तिविहेण समिईगुत्तीहिं । सुत्तष्कासियनिजुत्तिवित्थरस्थो गओ एवं ॥१०५७॥ IM तत्राह-यद्येवमिह सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानाधिकारात् सप्तचत्वारिंशदधिकशतं प्रत्याख्यानभेदानां गृहस्थप्रत्याख्यान भेदत्वात् अयुक्तभेतदिति, अबोच्यते, प्रत्याख्यानसामान्यतो गृहस्थप्रत्याख्यानभेदाभिधानेऽप्यदोषात् , तत्र सप्तचत्वारि-15 दशदधिकं भेदशतं भाव्यते-सीयालं भंगसयं गिहिपञ्चक्खाणभेयपरिमाणं । तं च विहिणा इमेणं भावेयवं पयत्तेणं ॥१॥ इह योगविषये त्रयस्त्रिकाःत्रयो द्विकाः त्रय एककाः, करणानि पुनर्योगेष्वथ एवं-त्रिव्येकं त्रिव्येकं त्रिोकं चेति, "तिन्नि। 49 SmEn n ati ... अथ 'प्रत्याख्यानस्य भंगा: उच्यते ~283 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०५७ ], वि० भा० गाथा [ ३५४२- ३५३४ ], भाष्यं [१९१], मूलं [१] / गाथा [-] नदीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीआव० मलयगि० वृत्ती सूत्रस्पर्शिका ॥ ५८१ ॥ तिया तिनि दुया तिन्निकाका य होंति जोगेसु । तिदुएकं तिदुइकं तिदुएकं चेब करणाई ॥ १॥" आगतफलं तु क्रमेणैवम् - एक एककायत्रिका द्वौ नवकी एकखिको द्वौ नवकाविति, स्थापना १३३२२२१११ का पुनरत्र भावना न करेइ न कारवेइ करंतंपि अन्नं न समणुजाणइ मणेणं वायाए कारणं एस एको १२३३११३९९ भेदो, नन्वेष भङ्गो देशविर - तस्य कथमुपपद्यते ?, अनुमतेस्तस्य प्रतिबन्धासम्भवात् नैष दोषः, स्वविषयाद्वहिरनुमतेरपि प्रतिषेधसंभवात् यथा स्वयंभूरमणसमुद्रमत्स्यादिधाते, उक्तं च- “न करेईच्चाइ तिगं गिहिणो कह होइ देसविरयस्स ? । भन्नइ विसयस्स वहिं पडि - सेहो अणुमती ॥ १ ॥” अत्रैवाक्षेपपरिहारी भाष्यकृदाह - " केई भणति गिहिणो तिविहं तिविद्वेण नत्थि संवरणं । तं न जतो निद्दिकं पन्नत्तीए विसेसेउं ॥ १ ॥ तो कह निजत्तीएऽणुमइनिसेहोत्ति ? सो सविसयंमि । सामन्नेणं नत्थि उ तिविहं तिविण को दोस्रो ? ॥ २ ॥ पुत्ताइसंततिनिमित्तमेत्तमेकादसिं पयन्नस्स । जंपति केइ गिहिणो दिक्खाभिमुहस्स तिविहंपि ॥ ३ ॥ ( विशे ३५४२-३-४) एतास्तिस्रोऽपि गाथा भावार्थमङ्गीकृत्योपोद्घातनिर्युक्ता भाविता इति न भूयः प्रतन्यन्ते । आह कहं पुण माणसा करणं कारावणं अणुमती य ? । जह वइतणुजोगेहिं करणाई तह भवे मणसा ॥ १ ॥ तयहीणता वइतणुकरणाईणमहव मणकरणं । सावज्जजोगमनणं पद्मत्तं बीयरागेहिं ॥ २ ॥ कारवर्ण पुण मणसा चिंतेइ करेड एस सावजं । चिंतेती उ कए पुण सुट्ठ कथं अणुमती होइ ॥ ३ ॥ गाथात्रयमपीदं सुगमं एष गतः प्रथमो भेदः, न करेइ न कारवेइ करंतंपि अन्नं न समणुजाणइ मणेणं वायाए एस एको १, मणेणं कारण य विइओ २, वायाए कारण य तईओ ३, एस बिइओ मूलभेदो गतो । इदाणिं तइओ न करेइ न कारयेइ करंतंपि अन्नं न समणुजाणइ ~284~ प्रत्याख्यानभंगाः ॥ ५८१ ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०५७], वि०भा०गाथा [३५४२-३५३४], भाष्यं [१९१], मूलं [१] / गाथा । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] Mमणेणं एको १ वायाए बिइओ २ कारण तइओ ३, एस तइयो मूलभेदो गतो । इयाणिं चउत्थो-न करेइ न कारवेमि |मणेणं वायाए कारणं एको १ न करेइ करतं नाणुजाणइ बिडओ २, न कारवेइ करतं नाणुजाणइ तईओ ३ । एस चहाउस्थो मूलभेदो गतो । इदाणि पंचमो-न करेइ न कारवेमि मणेणं वायाए एस एको १ न करेइ करेंतं नाणुजाणइ एस है। वितिओ २, न कारबेइ करतं नाणुजाणइ एस तइओ ३, एए तिन्नि भंगा मणेणं वायाए य लद्धा, अण्णेऽवि तिष्णि मणेण कारण य एवमेव लग्भति, तहा अबरेऽवि तिन्नि वायाए काएण य लभंति, एवमेते सबे नव, एवं पंचमोऽप्युक्तो मूलभेदः । इयाणि छट्ठो-न करेइन कारवेइ मणेणं एस एको १ तह य न करेइ करतं नाणुजाणइ मणेर्ण एस विडओ २, न कारवेइ करेंतं नाणुजाणइ मणेणं एस तईओ, एवं वायाएवि तिण्णि, कारण तिणि लभंति, उक्तः षष्ठो मूलभेदः ।। अधुना सप्तमः-न करेइ मणेणं वायाए कारण य एक्को, न कारवेइ मणमाईहिं एस बितिओ, करेंतं नाणुजाणइ एस तइओ, सप्तमोऽप्युक्तो मूलभेदः । इदानीमष्टमः-न करेइ मणेण वायाए एको, तहा मणेण कारण य एस बिइओ, तहा वायाए काएण य एस तइओ, एवं न कारवेइ, एथवि तिणि भंगा, करेंतं नाणुजाणइ, एत्थवि तिष्णि, उक्कोऽष्टमो मूलभेदः । सम्पति नवमः-न करेइ मणेणं एक्को, न कारवेइ बितिओ, करेंतं नाणुजाणइ एस तइओ, एवं वायाए तिन्नि, काएण य तिन्नि, उक्तो नवमः । इह प्रथमभङ्गे एक एव भङ्गः द्वितीयभने त्रयः तृतीयभङ्गे त्रयः, चतुर्थभने त्रयः पञ्चमे भङ्गे नव षष्ठभने नव सप्तमभङ्गे त्रयः अष्टमभङ्गे नव नवमभङ्गेऽपि नवेति, सर्वसङ्ख्यया एकोनपञ्चाशद्भङ्गाः, तत्रातीतात् सावधयोगात् प्रतिक्रमणं प्रत्युत्पन्नस्य संवरणं अनागतस्य प्रत्याख्यानमिति कालत्रयेण एकोनपञ्चाशद् गुणिताः RE5%9764562-560%A5402564559 ~285 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०५७], वि०भा०गाथा [३५४२-३५३४], भाष्यं [१९१], मूलं [१] | गाथा H मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम श्रीआव. सप्तचत्वारिंशदधिकं भङ्गशतं भवति, उकै च-“लद्ध फलमाण नेयं भंगा उ भांति अउणपन्नासं । तीयाणागयसंपइगुणियं सामायिक मलयगि कालेण होइ इमं ॥१॥ सीयालं भंगसयं कह ? कालतिएण होइ गुणगाओ । तीयस्स पडिकमणं पचुप्पण्णस्त संवरणं कालत्रयं वृत्तौ सूत्र-15॥२॥ पञ्चक्खाणस्स तहा होइ एसस्स एव गुणणाओ। कालतिएणं भणियं जिणगणहरवायगे हे च ॥३॥ एवं तावत् स्पर्शिका गृहस्थप्रत्याख्यानभेदाः प्रतिपादिताः, सम्प्रति साधुप्रत्याख्यानभेदान् सूचयति-तिविहे गति, अयमत्र भावार्थ:-त्रिविध त्रिविधेनेत्यनेन सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानादर्थतः सप्तविंश ते मेदानाह, ते चै भवति-इह सावद्य योगः प्रसिद्ध एव हिंसा-16 दिः, तं स्वयं न करोति न कारयति कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानाति, एक करणत्रिकेण मनसा वाचा कायेनेति नवभेदाः, अतीतानागतवर्तमानकालत्रयसम्बन्धाच सतविंश.तेरिते, इदं च प्रत्याख्यानभेदजालं 'समितिगुत्तीहिंति समितिगुप्तिभिर्निष्पद्यते, तत्र ईर्यासमितिप्रमुखाः प्रवीचाररूपाः पञ्च समितयः, गुप्तवस्तु प्रबीचारापत्रीचाररूपा मनोगुस्या-पटू दयस्तिस्रः, अन्ये व्याचक्षते-किलैता अष्टौ प्रवचनमातरः सामायिकतूत्रेण गृहीताः, तत्र 'करेमि भंते ! सामाइयंति पञ्च समितयो गृहीताः, 'सपं सावज जोगं पचक्वानी ति तिस्रः गुप्तयः, अत्र समितयः क्रियायाः प्रवर्तने निग्रहे दिगुप्तयः, एताः खल्वष्टी प्रवचनस्य मातर इव मातरः, सामायिकसूत्रत्य चतुर्दशपूर्वाणां चात्रैव परिसमाप्तत्वात् , उक्तं च ॥५८२॥ "एआओ अट्ठ पवयणमायाओ जासु सामाइयं चउद्दस पुराणि अ मायाणि, माजगातोत्ति मूलं भणियं होइ ।।" इहैव ते प्रायः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिवक्तव्यताया उक्तत्वात् मध्यग्रहणे च तुलादण्डन्यावेनाद्यन्तयोरप्याक्षेपात् इदमाह-'सुत्तप्फा [२] ~286 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [२] आ. सु. ९८ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०५८] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१९१...], मूलं [१] / गाथा [-] दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः सियनित्तिवित्थरस्थो गतो एवं ति, सूत्रस्पर्शक नियुक्तिविस्तरार्थो गत एवमुकेनेति ॥ सम्प्रति सूत्र एवातीतादित्रिवि - धकालग्रहणमुक्तमिति दर्शयन्नाह - सामाइयं करेमि पश्चखामी पडिकमामिति । पचुप्पन्नमणागयअई अकालाण गहणं तु ।। १०५८ ।। 'सामायिकं करोमि', तथा 'प्रत्याख्यामि सावद्ययोग' मिति, तथा 'प्रतिक्रमामि प्राकृतात् सावद्ययोगात्, इदं हि यथासङ्ख्यमेव प्रत्युत्पन्नानागतातीतकालानां ग्रहणमिति, उकं च- "अतीतं निंदर पडुप्पन्नं संवरेइ अणागयं पञ्चकखाति", इति ॥ सम्प्रति तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमामीत्येतद् व्याख्यायते- 'तस्येत्यधिकृतो योगः सम्बध्यते, ननु च प्रतिक्रमामीत्यस्याः क्रियायाः सोऽधिकृतो योगः कर्म्म, कर्म्मणि च द्वितीया विभक्तिरतस्तमित्यमिधेये किमर्थं तस्येत्यभिधीयते ?, उच्यते, विशेषख्यापनार्थ, तथाहि - 'तस्ये' त्यत्रावयवावयविसम्बन्धे षष्ठी, ततोऽयमर्थः - योऽसी योगस्त्रि कालविषयः तस्यातीतं सावद्यमंशं प्रतिक्रमामि, न शेषं वर्त्तमानमनागतं वा, केचित् पुनरविभागज्ञा अविशिष्टमेव सामाम्येन योगं सम्बन्धयति, तन्न युक्तं, अविशिष्टस्य त्रिकालविषयस्य प्रतिक्रमणासम्भवात् अतीतविषयस्यैव प्रतिक्रमणस्य तत्र तत्र सूत्रेऽभि धानात्, अथ मन्येथाः - अविशिष्टमपि योगं सम्बध्य पुनर्विशेष्येऽवस्थापनीयस्तच्छब्दस्ततो न कश्चिद्दोषः, तदप्यसमीचीनं, एवं सति प्रतिपत्तिगुरुताप्रसक्तेः, पूर्व अविशेषेण योगस्य सम्बन्धः, तदनन्तरं पुनरेतच्छन्दस्य विशेपेऽवस्थापनमिति न ऋज्वी प्रतिपत्तिः, यद्येवं तर्हि 'अतीतं भंते! पडिकमामि' इत्येतावदेव सुखप्रतिपत्तये कस्मान्न कृतं ?, उच्यते, पुनरुक्तत्वदोषप्रसङ्गात् तथाहि प्रतिक्रमणमेतत् प्रायश्चित्तमध्ये पठितं तच प्रायश्चित्तमासेविते भवति, ततोऽर्थादतीत विष ... प्रत्याख्यानास्य अतीत आदि त्रिविध-कालग्रहणं दर्शयते Pur Private & Personal Use Only 287 *6*৬%%%% Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०५९], विभा गाथा , भाष्यं [१९१...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] बीवावयमेवेत्यतीतग्रहणमतिरिच्यते, तस्मात् प्रतिक्रमामीति शब्दस्यावश्यं कर्मणा भवितव्यं, तच्च भूतं सावद्ययोग मुक्त्या त्रिकालिनान्यत् कर्म भवितुमर्हतीत्यर्थात् तस्येत्यवयवावयविसम्बन्धलक्षणा षष्ठीति न कदाचिदर्थहानिः प्रतिपत्तिगुरुता चेति ।। कता पदवृत्तौ सूत्र-द्र आह-यदि पुनरुक्तादिभयादेवमभिधीयते तदा इदमपरमनर्थकं पदमिति दर्शयति चिन्ताच स्पर्शिका तिविहेणं तु न जुत्तं पडिवयविहिणा समाहि जेण। अत्यविगप्पणयाए गुणभावणयत्ति को दोसो? ॥१०५९॥ __ 'त्रिविधं त्रिविधेने त्यत्र त्रिविधेनेति न युक्तं, किमित्यत आह-प्रतिपदविधिना समाहितं येन, यस्मादस्यार्थः प्रतिपदम॥५८३॥ दाभिहित एव, तद्यथा-मनसा वाचा कायेनेति, अत्रोच्यते-अर्थविकल्पनया गुणभावनयेति को दोषः?, अर्थविकल्पना नामा भेदोपदर्शनं गुणभावना-गुणाभ्यासस्ताभ्यां हेतुभ्यामेवमभिधाने न कश्चिद्दोषः, इयमत्र भावना-एवं युक्त सामान्य वि४/शेषरूपत्वं सर्वस्याप्यर्थस्योपदर्शितं भवति, तथाहि-तिविहं तिविहेणेति सामान्यरूपता दर्शिता, मणेणं वायाए इत्यादिना हात विशेषरूपतेति, तथा एवमभिहिते यः सामायिक लक्षणो गुणस्तस्य पुनः पुनरभिधानामिका भावना भवति, गुणभा-Ix वना च कर्मनिर्जरणहेतुरित्यदोषः, अन्यत्र-मनसा वाचा कायेनेत्यमिहिते प्रतिपदं न करोमि न कारयामि नानुजाना-1 मीति 'यथासङ्ख्यमनुदेशः समाना मिति न्यायतो यथासङ्ख्यमनिष्टं मा प्रापदिति त्रिविधेनैकक(नेत्येव)मुच्यते, एवं | त्रिविधमित्यत्राप्याक्षेपपरिहारौ स्वयमनुगन्तव्यौ, प्रायः समानगमत्वादिति कृतं प्रसङ्गेन । तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमा-है| मीत्यत्र भदन्तेति पूर्ववत् , इदं चामन्त्रणमतिचारनिवृत्तिक्रियाभिमुखः सन् तद्विशुद्ध्यर्थ कुरुते, आह-ननु पूर्वमुत्तो यो भदन्तशब्दः स एवात्राप्यनुवतिष्यते, एवमर्थ ह्यादौ स प्रयुक्त इति, किमर्थमस्योपादानमिति ?, उच्यते, अनु TEACHEACHECH ॥५८३11 ~288 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०६० ], वि० भा० गाथा [३५७१ ], भाष्यं [१९१...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वर्तनार्थमेवायं पुनरनुस्मरणाय प्रयुक्तः, तथा च इयं पाणिनिप्रभृतीनां परिभाषा-अनुवर्त्तन्ते च नाम विधयो न चानु वर्त्तनादेव भवन्ति, किन्तर्हि ?, यत्नाद् भवन्ति, स चार्य यलः पुनरुच्चारणमिति, अथवा सामायिक क्रियाप्रत्यर्पणवचनोऽयं भदन्तशब्दः, अनेन चैतत् ख्यापितं भवति सर्वक्रियावसाने गुरोः प्रत्यर्पणं कार्यमिति, उक्तं च भाध्यकारेण"सामाइयपच्चप्पणवयणो वाऽयं भदंतसहोत्ति । सव्वकिरियावसाणे भणियं पञ्चष्पणमणेणं ॥ १ ॥ " ( विशे. ३५७१ ) प्रति क्रमामीत्यत्र प्रतिक्रमणं मिथ्यादुष्कृतमभिधीयते तच्च द्विधा द्रव्यतो भावतश्च तथा चाह नियुक्तिकारः दम्म निहगाई कुलालमिच्छंति तत्थुदाहरणं । भावम्मि तदुवउत्तो मिगावई तत्धुदाहरणं ॥ १०६० ॥ द्रव्ये द्रव्यप्रतिक्रमणं प्रतिक्रमण प्रतिक्रमणवतोरभेदोपचारात् निवादिः, आदिशब्दादनुपयुक्तादिपरिग्रहः, तत्रोदाहरणं कुठारमिध्यादुष्कृतं तच्चेदं एगस्स कुंभगाररस कुडीए साहुणो ठिया, तत्थेगो चेहगो तस्स कुंभगारस्त भंडाणि अंगुलिधणुहरण कक्करेहिं विंधर, कुंभगारेण पडिजग्गयंतेण दिट्ठो, भणिओ य-कीस मे भंडाणि काणेति ?, खुड्डगो भइमिच्छादुक्कडंति, एवं सो पुणो पुणो विधिऊण मिच्छादुकडं देह, पच्छा कुंभगारेण तस्स खुड्डुगस्स कण्णामोडओ दिन्नो, सो भाइ - दुकूखाविज्जामि अहं, कुंभगारो भगइ-मिच्छामि दुक्कडं, एवं सो पुणो पुणो कृष्णामोडयं दाऊण मिच्छादुकर्ड करेइ, पच्छा चेल्लगो भइ अहो सुंदरं मिच्छादुक्कडंति, कुंभगारो भणति तुज्झवि एरिसं चैव मिच्छादुक्कडंति, पच्छा ठितो विधियवयस्स, एवं द्रव्यपडिकमणं । भावप्रतिक्रमणं प्रतिपादयति- 'भावंमी' त्यादि, भावे- भावप्रतिक्रमणं 'तदुपयुक्तः' तस्मिन्नधिकृते शुभव्यापारे उपयुक्तस्तदुपयुक्तो यत् करोति प्रतिक्रमणं भावप्रतिक्रमणं तत्रोदाहरणं मृगावती, भयवं वद्ध ... प्रतिक्रमणस्य द्रव्य एवं भाव-भेदः उच्यते Por Private & Personal Use Only 289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [२] श्रीआव० मलयगि० वृत्ती सूत्रस्पर्शिका ॥ ५८४ ॥ Jan Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०६० ], वि० भा० गाथा [३५७१], भाष्यं [१९१...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः माणसामी कोसंबीए समोसरितो, तत्थ चंदसूरा भयवंतं वंदगा सचिमाणा ओइण्णा, तत्थ मिगावती अज्जा उदयणमाया दिवसोत्तिकाउं चिरं ठिया, सेसाओ साहुणीओ तित्थयरं बंदिऊण पडिगया, सिग्धमेव वियालीभूयं, मिगावती संभंता गया अज्जचंदणासगासं, एयातो ताव पडिकंताओ, मियावती आलोएडं पवता, अज्जचंदणाए भणिया-अज्जो ! चिरं ठियासि, किं जुत्तं नाम तुज्झ उत्तमकुलप्पसूयाए एगागिणीए चिरं अच्छिदंति ?, सा सम्भावेण मिच्छादुकडंति भणमाणी अज्जचंदगाए पाए पडिया, अजचंदणाएवि तीए वेलाए संधारगं गयाए निद्दा आगया, पसुत्ता, मिगावती एवि तिषसंबेगमावन्नाए पायवडिया ए वेव केवलनाणं समुप्पण्णं, सप्पो य तेणंतेणमुवागतो, अज्जचंदगाए य संथारगातो हत्थो लंबति, मिगावतीए मा खजिहित्ति सो हत्थो संथारगं चडावितो, सा विबुद्धा, भणइ-किमेयंति ?, अजवि तुमं अच्छा सित्ति मिच्छादुक्कडं, निद्दापमाएणं न उट्ठवियासि, मियावती भणति एस सप्पो मा ते खाहितित्ति हत्थो चडावितो, सा भणइ कहिं सो ?, सा दाएर, अज्जचंदणा अपेच्छमाणी भणइ-अजो! किं ते अतिसयो ?, सा भणइ-आमं, तो किं छउमत्थो केवलिगो वा ?, सा भणइ केवलिगो, पच्छा अज्जचंदणा पाएसु पडिडं भणइ - मिच्छादुक्कडं, केवली आसाइतो, एवं भावपडिकमणं, एत्थ गाहा-जइ य पडिकमियवं, अवस्स काऊण पावयं कम्मं । तं चैव न काय, ता होइ पए पटिकंती ॥ १ ॥ ( आव. ६८३ ) इह च प्रतिक्रमामि, भूतात् सावद्ययोगान्निवर्त्तेऽहमित्युक्तं भवति, तस्माच्च निवृत्तिर्यत्तदनुमतिविरमणमिति, तथा निंदामि गर्हे इति, अत्र निन्दामि जुगुप्से इत्यर्थः, गर्हे इति च तदेवोकं भवति, यद्येवं तत एकार्थत्वे को भेदः १, उच्यते, सामान्यार्थाभेदेऽपि इष्टविशेषार्थो गर्हाशब्दः, यथा सामान्ये गमनार्थे गच्छतीति गौः सर्पतीति सर्पः, Por Private & Personal Use Only ~ 290~ कुंभकार - क्षुलकयोमृगावल्या-श्व रष्टश न्तो ॥ ५८४ ॥ brary.org Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०६१-१०६२] वि० भा० गाथा [ ३५७१ ], भाष्यं [१९१...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः तथापि गमनविशेषोऽवगम्यते शब्दार्थादेव, एवमिहापि निन्दा गर्हयोरर्थविशेषोऽवसातव्यः, तमेवार्थविशेषं दर्शयतिसरितपच्छयावो निंदा तीए चउक्कनिक्खेवो । दबे चित्तगरसुआ भावे सुबह उदाहरणा ॥ १०६१ ॥ सचरित्रस्य सवस्य पश्चात्तापः स्वप्रत्यक्षं जुगुप्सा निन्दा, उक्तं च- 'आत्मसाक्षिकी निन्देति, तस्याश्च निन्दाया नामादिभेदश्चतुष्को निक्षेपः, तत्र नामस्थापने प्रतीते, द्रव्यनिन्दायां चित्रकरसुता उदाहरणम्-सा जहा रण्णा परिणीया, अप्पाणं निंदियाश्या तहा कहेयबा, हेट्ठा कहाणगं कहियंति पुणो न भन्नइ, भावनिंदायां सुबहून्युदाहरणानि योगसङ्ग्रहे वक्ष्यंते, लक्षणं पुनरिदम्-हा दुट्टु कथं हा दुहु कारिअं हा दुड्डु अणुमयं हत्ति । अंतो अंतो डज्झइ, पच्छातावेण वेयंतो ॥ १ ॥ रिहावि तहाजाइयमेव नवरं परप्पगासणया । दुबंमि य मरुणायं भावे सुबह उदाहरणा ।। १०६२ ।। गपि तथाजातीयैव - निन्दाजातीयैव, नवरं - एतावान् विशेषः, परप्रकाशनया गर्दा भवति, किमुक्तं भवति ? - या गुरोः प्रत्यक्षं जुगुप्सा गर्हेति, 'परसाक्षिकी गर्हे ति वचनात् सापि नामादिभेदाच्चतुर्विधा, तत्र नामस्थापने अनारत्याह- द्रव्ये द्रव्यगर्हायां मरुकोदाहरणं तच्चेदम्-आणंदपुरे मरुओ पहुसाए समं संवासं काऊण उवज्झायरस कहेइ, जहा सुमिणए पहुसाए समं संवासं गतोमित्ति । भावगर्हायां साधोरुदाहरणं, गंतूण गुरुसमीवं काऊण य अंजलिं विणयमूलं । जह अप्पणो तह परे जाणावण एस गरिहा उ ॥ १ ॥ ( ओघ. १५८ )ति । किं निंदामि गर्हे इत्यत आह-'आत्मानं' अतीतसावद्ययोगकारिणमश्लाध्यं, अथवा अत्राणं त्राणविरहितं अतीत सावद्ययोगं निंदामि गर्हे, सामायिकेनाधुना त्राणमिति, अथवा 'अत सातत्यगमने' अतनं सततभवनप्रवृत्तं अतीतं सावद्यं योगं निन्दामि गर्डे, निवर्त्तयामीति तात्पर्यार्थः, 'व्युत्सृज्ञामी 'ति •••• अथ निंदा, गर्हा, व्युत्सर्जन पदानां व्याख्या: उच्यते Por Private & Personal Use Only ~ 291~ webay.org Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] श्रीभाव० मलयगि० वृत्तौ सूत्रस्पर्शिका 1146411 Jan Education आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [ १०६३ ], वि० भा० गाथा [३५७१], भाष्यं [१९१...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विविधार्थी विशेषणार्थो वा विशब्दः उच्छन्दो भृशार्थे सृजामि-त्यजामि, विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि अतीत सावद्ययोगमिति भावः, ननु करोमि भदन्त ! सामायिकमिति सावद्ययोगविनिवृत्तिरित्युच्यते, तस्य व्युत्सृजामीति शब्दप्रयोगे वैपरीत्य मापद्यते, तन्न, यस्मात् मांसादिविरमणक्रियानन्तरं व्युत्सृजामीति प्रयोगे तद्विपक्षत्यागो मांसभक्षणनिवृत्तिरभिधीयते, एवमिहापि सामायिकानन्तरं व्युत्सृजामीति प्रयोगे तद्विपक्षत्यागः सावद्ययोगनिवृत्तिरवगम्यते इति, स च व्युत्सर्गो नामादिभेदाच्चतुष्प्रकारः, तत्र नामस्थापने अनाहत्याह दयविउस्सग्गे स्वलु पसन्नचंदो भवे उदाहरणं । पडियागयसंवेगो भावस्मिवि होइ सो चेव ॥ १०६३ ॥ द्रव्ययुत्सग - गणोपधिशरीरान्नपानादिध्युत्सर्गः, अथवा द्रव्यव्युत्सगों नाम आर्त्तध्यानादिध्यायिनः कायोत्सर्गः, अत एवाह द्रव्यव्युत्सर्गे खलु प्रसन्नचंद्रो राजर्षिर्भवत्युदाहरणं, भावभ्युत्सर्गस्त्वज्ञानादिपरित्यागः, अथवा धर्म्मशुक्लध्यायिनः कायोत्सर्गः तथा चाह-प्रत्यागतसंवेगो भावव्युत्सर्गेऽपि स एव प्रसन्नचन्द्रो राजर्षिरुदाहरणमिति गाथाक्षरार्थः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्- पोयणपुरे नगरे पसन्नचंदो राया, तत्थ भयवं महाबीरो समोसो, ततो राया धम्मं सोऊण संजायसंवेगो पइतो, गीयत्थो जाओ, अन्नया जिणकप्पं पडिवज्जिकामो सतभावणाए अप्पाणं भावेति, तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे मसाणपडिमं पडियन्नो, भयकंपि महावीरो तत्थेव रायगिहे समोसढे, लोगो पवंदओ नीति, दुवे य वाणियगा पोयणपुरातो तत्थेव आगया, तत्थेगो पसन्नचंदं पासिऊण भणइ एस अम्हाण सामी रायसिरिं परिचऊण तवसिरिं पडिवन्नो, अहो एयस्स घण्णया, बिइओ भणइ कत्तो एयस्स धन्नया ? जो य असंजायबलं पुत्तं रजे ठवेऊण Por Private & Personal Use Only ~ 292~ व्युत्सर्गे प्रसन्नचेन्द्रोदाहरणं ।। ५८५ ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०६३], विभा गाथा [३५७१], भाष्यं [१९१...], मूलं [१] / गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] दोपचइतो, सो तबस्सी पचंतनिवेहि मंतीहि य परिहविजइ, नगरं च उत्तमखयं पवनं, अंतेउरंपि कमपि अवत्थं गयं न जाणि अइ, ता एवमणेण बह लोगो दुक्खे ठवितोत्ति अदट्ठबो एस, तं सोऊण तस्स कोवो जातो, चिंतियं चडणेण-को मम पू पुत्तस्स अबकरेइ ?, नूणममुगो, ता किं तेण ?, एयावत्वगतोवि विणिवाएमि, माणससंगामेण रोदज्झाणं पवन्नो, हस्थिणा | हत्थिं वावाएइ, आसेण आसं, इच्चाइ विभासा, एत्थंतरे सेणिओ भयवं बंदतो जाइ, तेण दिट्ठो, बंदितो, णेण ईसिपि नोट निज्झाइतो, सेणिएण चिंतियं-सुकज्झाणोवगतो एस भयवं, एरिसंमि झाणे कालगयस्स का गई हवइत्ति भयवं पुच्छिस्सं, ततो गतो, बंदिऊण पुच्छितो णेण भयवं, जंमि ठाणे ठितो वंदितो मए पसन्नचंदो तंमि मयस्स कहिं उवयातो भवति !, भयवया भणियं-अहेसत्तमाए पुढबीए, ततो सेणिएणचिंतियं-हा किमेयं ?, पुणो पुच्छिस्सं, एत्थंतरंमि पसन्नचंदस्स माणसे ही संगामे पहाणनायगेण सहावडियस्स असिसत्तिचक्ककप्पणिपमुहाणि पहरणाणि खयं गयाणि, ततोऽणेण सिरत्ताणेणं वावाएमित्ति परामुसियमुत्तमंगं जाव लोअं कडं पासइ, ततो संवेगमावन्नो महया विसुज्झमाणपरिणामेणं अत्ताणं निदि पवत्तो, समाहियं पुणरवि अणेण सुकज्झाण, एत्यंतरंमि पुणरवि पुच्छितो सेणिएणं भयवं-जारिसे झाणे संपर पसन्नचंदो वट्टा तारिसे मयस्स कहिं उववातो?, भगवया भणियं-अणुत्तरेसु, ततो सेणिएण भणियं-पुर्व किमन्नहा परूवियं ? उयाहु मया अन्नहा अवगच्छियं ?, भयवया भणियं-न अन्नहा परूवियं, सेणिएण भणियं-कहमेयंति ?, भयवया सबो वुत्तंतो कहितो, एत्थंतरे पसन्नचंदसमीवे दियो देवदुंदुभिसणाहो महंतो कलयलो उद्धाइतो, ततो सेणिएण भणियं-भयवं! किमेयंति , || भयवया भणितं-तस्सेव विसुज्झमाणपरिणामस्स केवलनाणं समुप्पण्णं, ततो से देवा महिमं करेंति, एस एव दबविउस्सग्ग keSCRECENGALASACAREER SMECation ~293 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०६४-१०६६], विभा गाथा , भाष्यं [१९१...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक E [१] श्रीआवाभावविउस्सग्गेसु उदाहरणं ॥ साम्प्रतं समाप्ती यथाभूतोऽस्य सामायिकस्य कत्ता भवति तथाभूतं सहेपतोऽभिषित्सुराह- जानकिमलयगिदा सावजजोगविरओ तिविहं तिविहेण वोसरिअ पावो । सामाइअमाईए एसोऽणुगमो परिसमत्तो॥१०६४ ॥ यानयो वृत्तौ सूत्र-INT सावद्ययोगविरतः, कथमित्याह-विविधंत्रिविधेन व्युत्सृज्य-परित्यज्य पापं, पाठांतरं सावद्ययोगविरतः सन् त्रिविधं स्पर्शिका त्रिविधेन व्युत्सृजति-परित्यजति पापमेष्यत् सामायिकादी-सामायिकारम्भसमये । एषोऽनुगमः परिसमासः, अथवा सामायिकादी सूत्रे, आदिशब्दात् सर्वसावा योगं प्रत्याख्यामीत्याद्यवयवपरिग्रहः, उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयास्ते च नैगमसङ्घहव्यवहारजुसूत्रशब्दसमभिरूढवंभूतभेदभिन्नाः खल्वोघतः सप्त भवन्ति, स्वरूपं चैतेपामधो न्यक्षेण प्रदर्शित-IN मिति नेह प्रतम्यते, केवलमत्र स्थानाशून्यामेते ज्ञानक्रियाद्वयान्तभावेन समासतः प्रोच्यन्ते, तथा चाहदा विजाचरणनएK सेससमोआरणं तु कायवं । सामाइअनिजुत्ती सुभासिअत्था परिसमत्ता ॥१०६५॥ SH IPL विद्याचरणनययोः, ज्ञानक्रियानययोरित्यर्थः, 'सेससमोयारणं तु कायद्य'मिति शेषनयसमवतारः कर्तव्यः, तुशब्दो विशेषणार्थः, स चैतद्विशिनष्टि-तौ च ज्ञाननयक्रियानयी वक्तव्यौ, एवं सामायिकनियुक्तिः सुभाषितार्था परिसमाप्ता॥ | सम्प्रति स्वद्धार एव शेषनयान्त धेनाविष्कृतनामानावनन्तरोपन्यस्तगाथागततुशब्देन चावश्यवक्तव्यतयाऽभिहिती ज्ञानचरणनयावुच्येते, तत्र ज्ञाननयदर्शनमिदं-ज्ञानमेवैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं प्रधान, युक्तियुक्तत्वात् , तथा चाह R ५८६। नायम्मि गिण्हियचे अगिव्हिअवम्मि चेव अत्यम्मि । जइअश्वमेव इय जो उवएसो सोणओ नाम ॥ १०६६ ॥ 'नायंमि' ज्ञाते सम्यकपरिच्छिन्ने 'ग्रहीतब्ये' उपादेये, 'अगिव्हियचंमित्ति अग्रहीतव्ये-अनुपादेये, हेये इति भावः, अनुक्रम [२] ~294 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०६४-१०६६], विभा गाथा , भाष्यं [१९१...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] चशब्दः खलूभयोग्रहीतव्याग्रहीतव्ययोतित्वानुकर्षणार्थः उक्षेपणीयवस्तुसमुच्चयार्थों वा, एवकारस्स्ववधारणार्थः, तस्य | चैवं व्यवहितं प्रयोगो द्रष्टव्यः-ज्ञात एव ग्रहीतव्ये, तथा अग्रहीतव्ये उपेक्षणीये च ज्ञात एव, नाज्ञातेऽर्थे ऐहिकामुमिके, तत्र ऐहिको ग्रहीतव्यः सवन्दनादिः अग्रहीतव्यो विषशस्त्रकण्टकादिः उपेक्षणीयस्तृणादिः, आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सम्यग्दर्शनादिः अग्रहीतव्यो मिथ्यात्वादिः उपेक्षणीयो विवक्षया अभ्युदयादिः, तस्मिन्नर्थे यतितव्यमेव, अनुस्वारलोपात् यतितव्यं, एवमनेन क्रमेण ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्स्यर्थिना सत्त्वेन प्रवृत्त्यादिलक्षणो यत्नः कार्य इत्यर्थः, इत्थं चैतदङ्गी-| कर्तव्यं, सम्यक् अज्ञाते प्रवर्त्तमानस्य फलविसंवाददर्शनात् , तथा चोक्कमन्यैरपि-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा। मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् ॥१॥” तथा आमुष्मिकफलप्राप्यर्थिनाऽपि ज्ञान एवं यतितव्यं, तथा चागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः, यत उक्तम्-"पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सबसंजए । अन्नाणी किं काहिति 18 किंवा नाही हेयपावगं? ॥१॥" इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यं, यस्मात् तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारक्रियापित निपिडा तथा चागमः-"गीयत्थो य विहारो वीओ गीयत्थमीसितो भणितो। एत्तो तइयविहारो नाणनातो जिणवरेहिं न खल्बन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक्पन्धान प्रतिपद्यते इत्यभिप्रायः, एवं तावत् क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकन्योन. क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव वेदितव्यं, यस्मादहतोऽपि भवाम्भोधितटस्थस्य दीक्षाप्रतिपन्नस्य उत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिरुपजायते यावञ्जीवाजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्नमिति, तस्माद ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थित, 'इइ जो उवदेसो सो नओ नामति एवमुक्तन्यायेन SUSUUSAASCASAS दीप अनुक्रम [२] SARE ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०६४-१०६६], विभा गाथा , भाष्यं [१९१...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ज्ञानकि सूत्रांक [१] श्रीभाव य उपदेशो ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, ज्ञाननय इत्यर्थः, अयं च चतुर्विधे सम्यक्त्वादिसामायिके सम्यक्त्वमळ्यगि०13सामायिकं श्रुतसामायिकं चेच्छति, अस्य ज्ञानात्मकत्वात् , देशविरतिसामायिकं सर्वविरतिसामायिकं तु नेच्छति, तयोस्तत्का-15 यानयो वृत्तौ सूत्र- यत्वात् , गुणभूते वेच्छति, उक्तो ज्ञाननयः, सम्प्रति क्रियानयावसरः, तदर्शनं चेदं-क्रियैव ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्तिस्पर्शिका कारणं प्रधान, युक्तियुक्तत्वात् , तथा चायमप्युक्तलक्षणामेव स्वपक्षसिद्धये गाथामाह-'नायंमि गिणिहयवे' इत्यादि, अस्य 18 क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या-ज्ञाते ग्रहीतव्याग्रहीतव्ये चैव अर्थे ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना यतितव्यमेव, न ॥१८॥ यस्मात् प्रवृत्त्यादिलक्षणप्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यभिलषितार्थावाप्तिरुपलभ्यते, तथा चोक्तमन्यैरपि-"क्रियेव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥१॥" तथाऽऽमुष्मिकफलप्रात्यार्थि18 नापि क्रियैव कर्तव्या, तथा च भगवद्वचनमप्येवमेव व्यवस्थितं, यत उक्तम्-"चेइयकुलगणसंघे आयरियाणं च पवयण ४ सुए य । सबेसुवि तेण कयं तवसंजममुजमंतेणं ॥१॥" इतश्चैतदेवमङ्गीकरणीयं, यस्मात्तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेवोतं, तथा चागमः-सुबहुंपि सुयमहीयं किं काहिइ चरणविप्पहीणस्स ? | अंधस्स जह पलिता दीवसयसहस्सकोडीवि ॥१॥" दृशिक्रियाविकलत्वात् तस्येत्यभिप्रायः, एवं तावत् क्षायोपशमिकं चारित्रमङ्गीकृत्योक्तं, चारित्रं |क्रियेत्यनर्थान्तरं, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादहतोऽपि भगवतः समुत्पन्न केवलज्ञान 1५८७॥ स्थापि न तावत् मुक्त्यवाप्तिः सम्भवति यावदखिलकर्मेन्धनानलभूता पञ्चहस्वाक्षरोशिरणकालमात्रावस्थायिनी सर्वसं-17 पररूपा चारित्रक्रिया नावाप्यते, ततः क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितं, 'इड जो उवदेसो सो SRIGANESH %AC-र अनुक्रम [२] ROCRACT SMEducational ~296~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०६७], विभा गाथा -1, भाष्यं [१९१...], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: * * प्रत सूत्रांक [१] * दीप अनुक्रम [२] नयो नामंति एवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशः क्रियायाः प्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, क्रियानय इत्यर्थः, अयं चतुर्विधे सामायिके देशविरतिसर्वविरतिरूपं सामायिकद्वयमेवेच्छति, क्रियाप्रधानत्वादस्य, सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिके तु तदर्थमुपादीयमानत्वेनाप्रधानत्वान्नेच्छति, गुणभूते वा इच्छतीति, उक्तः क्रियानयः, इत्थं ज्ञाननयक्रियानयस्वरूपं श्रुत्वाऽविदिततदभिप्रायो विधेयः संशयापन्नः सन्नाह-किमत्र तत्त्वं ?, पक्षद्वयेऽपि युक्तिसम्भवात् , आचार्यः पुनराह ससिपि नयाणं बहुविहवत्तवयं निसामित्ता। तं सवनयविसुद्धं जं चरणगुणडिओ साहू ॥१०६७॥ अथवा ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमभिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयति-'सवेसिपि नयाण मित्यादि, सर्वेषामपि-मूलनयानां, अपिशब्दात् तद्भेदानां द्रव्यास्तिकादीनां बहुविधवक्तव्यता-सामान्यमेव विशेषा एव उभयमेव परस्परमनपेक्ष मित्यादिरूपं, अथवा नामादिनयानां मध्ये को नयः कं साधुमिच्छतीत्यादिरूपां निशम्य-श्रुत्वा तत् सर्वनयविशुद्धं-सर्व-1 दिनयसम्मतं वचनं यच्चरणगुणस्थितः साधुः, यस्मात्सर्वे नयास्तत्त्वतो भावनिक्षेपमिच्छंतीति ।। इति श्रीमलयगिरिविरचितायामावश्यकटीकायां सामायिकाध्ययनं समाप्तम् ॥ सामायिकस्य विवृतिं कृत्वा यदवाप्तमिह मया कुशलम् । तेन खलु सर्वलोको लभतां सामायिक परमम् ॥१॥ यस्माजगाद भगवान् सामायिकमेव निरुपमोपायम् । शारीरमानसानेकदुःखनाशस्य मोक्षस्य ॥२॥ग्रन्था २२००० RREARSeasomassassassantdasesasedavasa25 इति श्रीमलयगिरिविरचितायामावश्यकवृहद्वत्ता सामायिकाध्ययनं समाप्तम् । MeresEAsERSEASERECTRETREERSecserseasesERSEAGERSEEM MECTI ... अत्र अध्ययनं १ 'सामायिक' परिसमाप्तं ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [१], नियुक्ति: [१०६७], विभागाथा ], भाष्यं [१९१...], मूलं [१] / गाथा [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [२] इत्याचार्यश्रीमलयगिरिविरचितायामावश्यकबृहत्तौ सामायिकाध्ययनविवरणं ॥ ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०६७], विभा गाथा -1, भाष्यं [१९१...], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अथ चतुर्विंशतिस्तवाख्यं द्वितीयमध्ययनं ॥ प्रत सूत्रांक [१] दीप ॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुक्रम [२] तदेवमुकं सामायिकाध्ययनम् , अधुना चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनं प्रारभ्यते तत्राध्ययनोदेशसूत्रारम्भेषु सर्वेष्वेव कारणाभिसम्बन्धी वक्तव्यावित्येष वृद्धपवादः, ततः प्रथमतः कारणमुच्यते, | तच्चेदं-जात्यादिगुणसम्पत्समन्वितेभ्यो विनेयेभ्यो गुरुणा सूत्रतोऽर्थतश्चावश्यकश्रुतस्कन्धः प्रदातव्या, स चाध्ययनसमुदायरूपः, तथा चोक्तम्-'एत्तो एकेक पुण अग्झयणं कित्तइस्सामिति, प्रथम चाध्ययन सामायिक, तच्चोपदर्शितम.हदानी द्वितीयं चतविंशतिस्तवाध्ययनमारभ्यते, द्वितीयता चास्य द्वितीयावयवत्वात्, द्वितीयावयवत्वमप्यस्य सिद्धमाचार्योपद-दा |र्शिताधिकारगाथाप्रामाण्यात्, सा चेयम्-"सावजजोगविरई उकित्तण गुणवतो व पडिवत्ती। खलियस्स निंदणा वणति-14 गिच्छ गुणधारणा चेव ॥१॥" इयमत्र भावना-यथा किल युगपदशक्योपलम्भस्य पुरुषस्य दिरक्षोः क्रमेणांगास्यपद-18|| श्यन्ते, एवमत्राप्यावश्यकश्रुतस्कन्धस्य क्रमेण सामायिकादीन्यतान्युपदश्यन्ते इति, इदमेव कारणमुद्देशसूत्रेष्वपि योज-त नीयं, एतदेव च सर्वाध्ययनेषु, न पुनर्भेदेन वक्ष्यामः, सम्प्रति सम्बन्ध उच्यते-इहानन्तराध्ययने सावधयोगविरतिलक्षणं सामायिकमुपदिष्टं, इह तु तदुपदेष्टणामहतामुत्कीर्तनं प्रतिपाद्यते, अथवा सामायिकाध्ययने तदासेबनात कर्मक्षय उक्ता, यत उक्तं निरुक्तिद्वारे-"सम्मदिही अमोहो सोही सम्भाव दंसणं बोही । अविवजओ सुदिहित्ति एक्माई निरुत्ताई ॥॥" आ.सू.९९ ... अत्र अध्ययनं २ 'चतुर्विशति:' आरभ्यते ~299~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०६८], विभागाथा H, भाष्यं [१९२], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत चतुर्विंश त्यादेनि सूत्रांक क्षेपः [१] दीप श्रीआवशोधिः कर्मक्षय इत्यनांतरं, इहापि चतुर्विंशतिस्तवाध्ययने भगवदर्हद्गुणोत्कीर्तनरूपाया भक्तेस्त स्वतोऽसावेव कर्म-15 मलयगिक्षयः प्रतिपाद्यते, तथा च वक्ष्यति-"भत्तीऐं जिणवराणं खिजंती पुषसंचिया कम्मा' इत्यादि, एवमनेन सम्बन्धेनायातवृत्तौ सूत्र- स्यास्य चतुर्विशतिस्तवाध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि प्रपञ्चतो वक्तव्यानि, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे चतुर्विंशतिस्तवाध्य-13 स्पर्शिका पनमिति नाम, ततश्चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनशब्दाः प्ररूपणीयाः, तथाचाह चउबीसगत्थयस्स उ निक्खेयो होइ नामनिष्फलो। चउवीसगस्स छको थयस्स उ चउक्कओ होइ॥१०६८॥ ॥५८९॥ चतुर्विंशतिस्तवस्य निक्षेपो नामनिष्पन्नो भवति, स चान्यस्याश्रुतत्वादयमेव यदुत चतुर्विंशतिस्तव इति, तुशब्दो वाक्यभेदोपदर्शनार्थः, वाक्यभेदश्च अध्ययनान्तरवक्तव्यताया उपक्षेपादिति, तत्र चतुर्विंशतिशब्दस्य निक्षेपः पड्डिधः, स्तवशब्दस्य चतुर्विधः, तुशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वादध्ययनस्य च, एष गाथासमासार्थः । अवयवार्थ तु भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्राद्यमवयवमधिकृत्य निक्षेपोपदर्शनार्थमाहनामंठवणादविए खित्ते काले तहेव भावे य । चउबीसगस्स एसो निक्खेवो छविहो होइ ॥ १९ ॥ (भा.) 'नाम'ति नामचतुर्विंशतिः स्थापनाचतुर्विशतिर्द्रव्यचतुर्विंशतिः क्षेत्रचतुर्विंशतिः कालचतुर्विंशतिस्तथैव भावचतुर्वि-17 शतिः, चतुर्विशतिशब्दस्य एषोऽनन्तरोदितो निक्षेपः पड्डिधो भवति । तत्र नामचतुर्विंशतिः जीवस्य अजीवस्य वा यस्य चतुर्विशतिरिति नाम क्रियते, चतुर्विशत्यक्षरायली वा, स्थापनाचतुर्विश्चतिश्चतुर्विंशतः केषांचिरस्थापना, द्रव्यचतुर्विंशतिश्चतुर्विशतिर्द्रव्याणि, सचित्ताचित्तमिश्रभेदभिन्नानि, तत्र सचित्तानि द्विपदचतुष्पदापदभेदभिन्नानि, अचित्तानि RECENSECORRENSE अनुक्रम [२] RECE ॥५८ 1 ~300~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०६८], विभागाथा H, भाष्यं [१९३], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ( प्रत E-RESCHE सूत्रांक [१] SAL दीप अनुक्रम [२] कार्षापणादीनि, मिश्राणि द्विपदादीन्येव कटकाधलङ्कतानि, क्षेत्रचतुर्विशतिर्विवक्षया चतुर्विंशतिः क्षेत्राणि भरतादीनि, क्षेत्रप्रदेशा वा चतुर्विंशतिः क्षेत्रचतुर्विंशतिः, चतुर्विंशतिप्रदेशावगाढं वा द्रव्यं क्षेत्रचतुर्विंशतिः, कालश्चतुर्विशतिश्चतुर्विंशतिः। समयादयः, एतत्कालस्थिति वा द्रव्यं कालचतुषिशतिः, भावचतुर्विंशतिः चतुर्विंशतिर्भावसंयोगाः, चतुर्विशतिगुणकृष्णा-1 | दिद्रव्यं वा भावचतुर्विशतिः, इह सचित्तद्विपदमनुष्यचतुर्विशत्याऽधिकार इति गाथार्थः । उक्ता चतुर्विंशतिः, अधुना स्तवनिक्षेपप्रतिपादनार्थमाहनामंठवणादविए भावे य थयस्स होइ निक्खेवो । दधत्थओं पुप्फाई संतगुणकित्तणा भावे ॥१९३ ॥ (भा.) 'नामं ति नामस्तवः स्थापनास्तवः द्रव्यविषयो द्रव्यस्तवः 'भावे येति भावविषयो भावस्तवः, इत्थं स्तवस्य निक्षेपोन्यासो भवति चतुष्पकार इति शेषः, तत्र क्षुण्णत्वान्नामस्थापने अनाहत्य द्रव्यस्तवभावस्तवस्वरूपमाह-द्रव्यस्तवः । पुष्पादिः, आदिशब्दात् गन्धधूपादिपरिग्रहः, कारणे कार्योपचाराचैवमाह, अन्यथा द्रव्यस्तवः पुष्पादिभिः समभ्यर्चन-18 |मिति द्रष्टव्यं, तथा सद्गुणोत्कीर्तना भाव इति, सन्तश्च ते गुणाश्च सद्गुणाः, अनेनासत्सु गुणेषत्कीर्तनानिषेधमाह, करणे मृषावाददोषप्रसङ्गात् , सद्गुणानामुत्कीर्तना उत्-प्रावल्येन परया भक्त्या कीर्तना-संशब्दना यथा-'प्रकाशित दायधैकेन, त्वया सम्यक् जगत्रयम् । समग्रैरपि नो नाथ!, परतीर्थाधिपैस्तथा ॥१॥ विद्योतयति वा लोकं. यथैकोऽपि | निशाकरः । समुद्गतः समग्रोऽपि, किं तथा तारकागणः॥२॥” इत्यादिलक्षणो भावे इति द्वारपरामर्शो, भावस्तव इत्यर्थः । इह चालितप्रतिष्ठितोऽर्थः सम्यग्ज्ञानाय प्रभवतीति चालनां कदाचिद् विनेयः करोति, कदाचित्स्वयमेव गुरु ESEARCANESS C RECENGACASS ~301 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०६८], विभागाथा , भाष्यं [१९४-१९५], मूलं [१] / गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] %ACHE स्तवनिक्षेप भावस्तवाधिक्यं च दीप अनुक्रम [२] श्रीआवारपि, तथा चोक्तम्-"करथइ पुच्छइ सीसो कहिंघऽपुट्ठा कहिंति आयरिया ॥" इत्यादि, तत्र वित्तपरित्यागादिना द्रष्य- मलयगि० स्तव एव ज्यायानित्यल्पबुद्धीनामाशङ्कासम्भवः, तव्युदासार्धं तदनुवादपुरस्सरमाहवृत्तौ सूत्र दवत्थओं भावत्थओं दवथओ बहुगुणत्ति बुद्धि सिआ। स्पर्शिका अनिउणमइचयणमिणं छज्जीवहिअं जिणा विति ॥ १९४ ॥ (भा.) छज्जीवकायसंजम दवथए सो विरुज्झई कसिणो । तो कसिणसंजमविऊ पुफाई न इच्छति ॥१९५॥ (भा.) ॥५९०॥ | द्रव्यस्तवो भावस्तव इत्यनयोर्मध्ये द्रव्यस्तचो बहुगुणः-प्रभूतगुण इत्येवं बुद्धिः स्याद्, एवं चेन्मन्यसे इति भावः, तथाहि-किलास्मिन् क्रियमाणे वित्तपरित्यागाच्छुभ एवाध्यवसायः तीर्थस्य चोन्नतिकरणं, दृष्ट्वा च तं क्रियमाणमन्येऽपि प्रतिबुद्ध्यन्ते इति स्वपरानुग्रहः, सर्वमिदं सप्रतिपक्षं चेतसि निधाय द्रव्यस्तयो बहुगुण इत्यस्यासारतारव्यापनायाह-अनिपुणमतिवचनमिदमिति, अनिपुणमतेर्वचनमिदं यत् द्रव्यस्तवो बहुगुण इति, किमित्यत आह-'षड्जीवहितं पण्णां-पृथिवीकायिकादीनां जीवानां हितं जिना:-तीर्थकृतो युवते ॥ किं षड्जीवहितमित्यत आह-पण्णां जीवनिकायानां-पृथिव्यादिलक्षणानां संयमः-सङ्घाटनापरित्यागः षड्जीवकायसंयमः असौ हितं, यदि नामैवं ततः किमित्यत आह-'द्रव्यस्तवें पुष्पादिसमभ्यर्चनलक्षणे 'स' षड्जीवकायसंयमः कृत्ला' सम्पूणों 'विरुध्यते' न सम्यक् सम्पद्यते, पुष्पादिसंलुश्चनसङ्घहनादिना कृत्स्नसंयमव्याघातभावात् , यतश्चैवं 'तो'त्ति तस्मात् कृत्स्नसंयम प्रधान विद्वांसः, ते तत्त्वतः साधव उच्यन्ते, कृत्स्नसंयमग्रहणमकृत्स्नसंयमविदुषां श्रावकाणां ध्यपोहार्थ, पुष्पादिकं द्रव्यस्तवं C CARECX malbring ~302 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०६८], विभागाथा H, भाष्यं [१९६], मूलं [१] / गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक SAKASCACRACK [१] + दीप अनुक्रम [२] नेच्छन्ति-न बहु मन्यन्ते, यच्चोक्तं-'द्रव्यस्तवे क्रियमाणे वित्तपरित्यागात् शुभ एवाध्यवसाय' इत्यादि, तदपि यत्किचित्, व्यभिचारात्, कस्यचिदल्पसत्त्वस्य अविवेकिनो वा शुभाध्यवसायानुपपत्तेः, दृश्यते यश-कीर्त्याद्यर्थमपि सरवानां द्रव्यस्सवे प्रवृत्तिः, शुभाध्यवसायभावे तु स एव भावस्तवः, इतरस्तु तत्कारणत्वेनाप्रधानमिति, तथा भावस्तव एव सति | तत्त्वतस्तीर्थस्योन्नतिकरणं, भावस्तववतः सम्यगमरादिभिरपि पूज्यत्वात् , तमेव च दृष्ट्वा क्रियमाणमन्ये सुतरां प्रतिबुद्ध्यंते इति स्वपरानुग्रहोऽपीहेवेति गाथाद्वयभावार्थः॥ आह-ययेवं किमयं द्रव्यस्तव एकान्ततो हेय एव वर्तते ?, आहोश्चिदुपादेयोऽपीति !, उच्यते, साधूनां हेय एव, श्रावकाणामुपादेयोऽपि, तथा चाहअकसिणपवत्तगाणं विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसारपयणुकरणो दवथओ कूवदिढतो॥१९६ ॥ (भा.) | अकृत्स्नं, संयममिति सामथ्यात् गम्यते, प्रवत्तेयन्तीत्यकृत्रप्रवर्तकारतेषां, विरताविरतानां श्रावकाणामेष-द्रव्यस्तवः। खलु युक्त एव, खलुशन्दस्यावधारणार्थत्वात्, किंकृदयमित्याह-संसारमतनुकरणः, संसारक्षयकारक इति भावः, आह-यः। प्रकृत्यैवासुन्दरः स कथं श्रावकाणामपि युक्तः, उच्यते, अत्र कूपदृष्टान्तः, जहा नवनगराइसंनिवेसे केई पभूतजला-| भावतो तण्हादिपरिगया तदपनोदार्थ कूपं खणंति, तेसिं च जइवि तण्हाइया बहुंति महियाकद्दमादीहि य मलिणिजंति तहावि तदुब्भवेणं चेव पाणीएणं तेसिं ते तिहाइया सो य मलो पुषगो य फिट्टा, सेसकालं च ते तदने य लोगा सुह-| भागिणो य भवन्ति, एवं दवत्थए जइवि असंजमो तहावि ततो चेव सा परिणामवुही भवति जा असंजमोवज्जियं अन्नं पाच निरवसेसं खति, तम्हा विरताविरतेहिं एस दपत्थओ कायद्यो, सुभाणुबंधी पभूयतरनिजराफलो यत्ति, उक्तः स्तवः। CRER SMEncator ~303 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] गाथा |||| दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], निर्युक्तिः [१०६८ ], वि० भा० गाथा [ २८०९ २८१० ], भाष्यं [१९६], मूलं [१] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीआव० मलयगि० वृत्तौ सूत्रस्पर्शिका ॥५९१ ॥ अत्रान्तरेऽध्ययनशब्दार्थो निरूपणीयः, स चानुयोगद्वारचिन्तायां न्यक्षेण निरूपित एवेति नेह प्रतन्यते । सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपावसरः, स च सूत्रे भवति, सूत्रं चानुगमे, स चानुगमो द्विधा - सूत्रानुगमो निर्युक्तत्यनुगमश्च तत्र निर्युक्त्यनुगमस्त्रिविधः, तद्यथा-निक्षेपनिर्युक्त्यनुगम उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शक निर्युक्तयनुगमश्च तत्र निक्षेपनिर्युक्तत्यनुगमोऽनुगतो वक्ष्यते च उपोद्घातनिर्युक्त्त्यनुगमस्त्वाभ्यां द्वारगाथाभ्यां समवगन्तव्यः, तद्यथा-'उद्देसे निद्देसे य निगमे' इत्यादि, 'किं कइविहं कस्स कहि मित्यादि, सूत्रस्पर्शकनिक्षेपनिर्युक्तत्यनुगमस्तु सूत्रे सति भवति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चावसरप्राप्त एव, युगपश्च सूत्रादयो व्रजंति, तथा चोक्तम्- “सुत्तं सुत्ताणुगमो सुत्तालावयकतो अ निक्खेवो । सुत्तष्फासियनिज्जुत्ति नया य समगं तु वच्चंति ( विशे. २८०९) विषयविभागः पुनरयममीषां वेदितव्यो- “होइ कयत्थो वोतुं सपयच्छेयं सुयं सुयाणुगमो । सुतालाबगनासो नामान्नासविणियोगं ॥ १ ॥ सुतप्फासियनिज्जुत्तिनियोगो सेसओ पयत्यादी । | पायं सो चिय नेगमनयाइमयगोयरो भणितो ॥ २ ॥” ( विशे. २००९-१० ) अत्राक्षेपपरिहारा न्यक्षेण सामायिकाभ्ययने एव निरूपिता इति नेह वितन्यन्ते, तत्र सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्, तच्चेदम् लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं, चडवीसंपि केवली ॥ १ ॥ सूत्रं ) अस्य व्याख्या, तलक्षणं चेदं "संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या सूत्रस्य [ षड़िधा ॥ १ ॥ तत्रास्खलित पदोच्चारणं संहिता, सा च प्रतीता, अधुना पदानि-लोकस्य उद्योतकरान् धर्मतीर्थकरान जिनान् अर्हतः कीर्तयिष्यामि चतुर्विंशतिमपि केवलिन इति । अधुना पदार्थ:-लोक्यते प्रमाणेन दृश्यते इति लोकः, ... अत्र 'चतुर्विंशति' अध्ययनस्य गाथा- १ आरभ्यते Pur Private & Personal Use Only ~ 304~ द्रव्यस्तवे कूपष्टान्तः ॥५९१ ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं २], नियुक्ति: [१०६९], विभा गाथा [२८०९-२८१०], भाष्यं [१९७], मूलं [१...] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक REC++ गाथा ||२|| अयं चेह तावत् पश्चास्तिकायात्मको गृह्यते, तस्य लोकस्य उद्योतकरणशीला उद्योतकरास्तान , केवलालोकेन तत्पूर्वकवचनदीपेन वा सर्वलोकप्रकाशकरणशीलानित्यर्थः, तथा दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, उक्तं च-"दुर्गतिप्रस-1 तान् जन्तून् , यस्माद् धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥१॥" तीयते संसारसागरोऽनेनेति है तीर्थ, धर्म एव धर्मप्रधानं वा तीर्थ धर्मतीर्थ तत्करणशीला धर्मतीर्थकरास्तान , तथा रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीपहोप-16 सर्गाष्टप्रकारकर्मजेतृत्वाजिनास्तान , अशोकाद्यष्टमहापातिहार्यादिरूपां पूजामहतीत्यर्हन्तस्तान् अर्हतः, कीर्तयिष्यामि-10 स्वनामभिः स्तोष्ये, चतुर्विंशतिः सङ्ख्या, अपिशब्दो भावतस्तदन्यसमुच्चयार्थः, केवलं ज्ञानमेषां विद्यत इति केवलिनः तान् केवलिनः, इति पदार्थः, पदविग्रहोऽपि यानि समासभाञ्जि पदानि तेषु दर्शित एव । सम्प्रति चालनावसरः-तत्र सा तावत् तिष्ठतु , सूत्रस्पर्शनियुक्तिरेवोच्यते, स्वस्थानत्वात् , उक्तं च-"अक्खलियसंहियाई वक्खाणचउकए दरिसियंमि। दासत्तप्फासियनिजुत्तिविस्थरत्थो इमो होइ ॥१॥" चालनामपि चात्रय वक्ष्यामः, तत्र 'लोकस्योद्योतकरा'निति यदुक्तं तत्र लोकनिरूपणायाह81 नामंठवणादविए खित्ते काले भवे य भावे य । पज्जवलोगे य तहा अट्टविहो लोगनिक्खेवो ॥१०६१॥ द नामलोकः स्थापनालोकः द्रव्यलोकः क्षेत्रलोकः काललोकः भवलोकः भावलोकः पर्यायलोकश्च, एवमष्टविधो लोकनिक्षेप इति गाथासमासार्थः, व्यासार्थन्तु भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यलोकमभिधित्सुराह11 जीवमजीवे रूवमरूवी सपएसमप्पएसे य । जाणाहि दवलोगं निचमनिचं च जं दवं ।। १९७ ॥ (भा.) क दीप अनुक्रम [३] Gallant ... अत्र 'लोक' शब्दस्य 'नाम' आदि निक्षेपा: वर्णयते ~305 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०६९], विभा गाथा H, भाष्यं [१९८-१९९], मूलं [१...] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: CM प्रत सूत्रांक क्षपः [१..] %ERSACRECR गाथा ||१|| श्रीआवक जीवाजीवावित्यत्रानुस्वारः प्राकृतत्वादलाक्षणिकः, तत्र सुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणो जीवः, विपरीतस्त्वजीवः, एती चालोकनिमलयगि. द्वी भेदी प्रत्येकं रूप्यरूपिभेदो, तथा चाह-रूप्यरूपिण'इति, तत्रानादिकर्मसन्तानपरिगता रूपिणः, अरूपिणस्तु वृत्ती सूत्र-18 कर्मरहिताः सिद्धाः, अजीवास्तेऽरूपिणो धर्माधर्माकाशास्तिकायाः, रूपिणः परमाण्वादयः, एतौ च जीवाजीवावोघतः स्पर्शिका सप्रदेशाप्रदेशावगन्तव्यौ, तथा चाह-सप्रदेशाप्रदेशा विति, तत्र परमाणुव्यतिरेकेण सर्वेऽप्यस्तिकायाः सप्रदेशाः, परमाण वस्त्वप्रदेशाः, अथवा पुद्गलास्तिकायो द्रच्याद्यपेक्षया चिन्तनीयः, तद्यथा-द्रव्यतः परमाणुरप्रदेशः व्यणुकादयः सप्रदेशा, ॥ ५९२॥ क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढोऽप्रदेशः ब्यादिप्रदेशावगाढाः सप्रदेशाः, कालत एकसमयस्थितिकोऽप्रदेशो ब्यादिसमयस्थितिकाः सप्रदेशाः, भावत एकगुणकृष्णादिकोऽप्रदेशः द्विगुणकृष्णादिकाः सप्रदेशाः, इदमेव जीवाजीवनातं जानीहि द्रव्यलोकं, द्रव्यमेव लोको द्रव्यलोकस्तं, अस्यैव शेषधम्मोपदर्शनायाह-नित्यानित्यं यद्रव्यं, चशब्दादभिलाप्यानभिलाप्यादिसमुच्चयः॥ द्र साम्प्रतं जीवाजीवयोर्नित्यतानित्यतामेवोपदर्शयति गह १ सिद्धा २भविआया ३ अभविअ ४ पुग्गल १ अणागयद्धा २ य । - तीअद्ध ३ तिनि काया ४ जीवाजीवट्टिई चउहा ॥ १९८ ॥ (भा.) __ अस्या सामायिकाध्ययन इव व्याख्या कर्त्तव्या ॥ अधुना क्षेत्रलोकः प्रतिपाद्यते ॥५९२॥ आगासस्स पएसा उड्ढे य अहे अतिरिअलोए अ। जाणाहि खित्तलोग अणंत जिणदेसियं सम्म ॥१९९॥ (भा.) हा प्रकृष्टाः देशाः प्रदेशाः आकाशस्य प्रदेशान् ऊवं चेति ऊर्ध्वठोके अधश्चेति अधोलोके तिर्यग्लोके च जा दीप अनुक्रम [३] CES NElication Cameshrine ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०६९], विभा गाथा H, भाष्यं [२००-२०२], मूलं [१...] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 4-0- ९ गाथा ||१|| नीहि क्षेत्रलोक क्षेत्रमेव लोकः क्षेत्रलोकः तं, ऊर्ध्वादिविभागस्तु प्रतीतः, अनन्तं-अंतरहितमलोकाकाशस्थापरिमित-1| त्वात् , अत्र सूत्रेऽनुस्वारलोपः प्राकृतत्वादवसेयः, जिनदेशितं सर्वज्ञकथितं सम्यक् शोभनेन विधिना ॥ साम्प्रतं काललोकप्रतिपादनार्थमाह समयावलिअमुहुत्ता दिवसमहोरत्त पक्ख मासा य । संवच्छर जुग पलिआ सागर ओसप्पि परिपहा ॥ २०० ॥ (भा.) परमनिकृष्टः कालः समयः, असङ्खधेयसमयात्मिका आवलिका, द्विघटिको मुहूर्तः, द्वादशादिमुहतो दिवसः, त्रिंशन्मुह-६ दर्शोऽहोरात्रः, पञ्चदश अहोरात्राणि पक्षः, द्वौ पक्षी मासः, द्वादश मासा संवत्सरः, पञ्चसंवत्सरं युगं, पल्योपमं उद्धारादि भेदात् त्रिविधं, पल्योपमानां दशकोटीकोव्यः सागरोपम, दशसागरोपमकोटीकोटीपरिमाणा उत्सर्पिणी, एवमवसर्पिण्यपि द्रष्टच्या, परावतः पुद्गलपरावतः, स चानन्तोत्सपिण्यवसर्पिणीप्रमाणः, ते अनन्ता अतीतः कालः, अनन्ता एवानागतः कालः ॥ उक्तः काललोकः, काल एव लोकः काललोकः ॥ अधुना भवलोकमभिषित्सुराहभनेरइयदेवमणुआ तिरिक्खजोणीगया य जे सत्ता । तम्मि भवे वहृता भवलोगं तं विआणाहि ॥२०१॥ (भा.) नैरयिकदेवमनुष्यास्तिर्यग्योनिगताच ये सवाः-प्राणिनस्तस्मिन् भवे वत्तेमाना यदनुभावमनुभवन्ति तं भवलोकन ट्रजानीहि, भव एव लोको भवलोक इति व्युत्पत्तेः ॥ साम्प्रतं भावलोकमुपदर्शयति ओवइए उपसमिए खहए अतहा खओवसमिए ।परिणामि सन्निवाए छविहो भावलोगोय ॥२०२।। (भा.) दीप अनुक्रम करवाकर [३ CARE SMEDIC ... अत्र 'समय' आदि काल-गणित वर्णयते ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8..] गाथा |||| दीप अनुक्रम [3] ॥ ५९३ ॥ आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], निर्युक्तिः [१०६९], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ २०३ २०४ ], मूलं [१...] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः कर्मण उदयेन निर्वृत्तः औदयिकः, तथा उपशमेन, कर्म्मण इति गम्यते, निर्वृत्त औपशमिकः, क्षयेण निर्वृत्तः क्षायिकः; तथा उदितकर्माशस्य क्षयेण अनुदितस्योपशमेन निर्वृत्तः क्षायोपशमिकः, परिणाम एव पारिणामिका, सन्निपातोद्वित्रिभावानां संयोगः, सन्निपाते भवः सान्निपातिकः, स च ओघतोऽनेकमेदोऽवसेयः, अविरुद्धास्तु पश्चदश भेदाः, उक्तं च - "ओदश्यखतोवसमे परिणामेकेक गतिश्चउक्केवि । खयजोगेणवि चउरो तदभावे उवसमेणपि ॥ १ ॥ उवसमसेदी एको केवलिणोऽवि य तहेव सिद्धस्स । अविरुद्धसन्निवाइय भेदा एमेव पन्नरस ॥ २ ॥” एवमनेन प्रकारेण षड्विधः - पट्पकारो भावठोकः, भाव एव लोको भावलोकः ॥ तिष्ठो रागो य दोसो य, उइन्नो जस्स जंतुणो । जाणाहि भावलोगं अनंतजिणदेसिअं सम्मं ॥ २०३ ॥ (भा.) ती:- उत्कटो राग :- अभिष्वङ्गलक्षणो द्वेषः - अप्रीतिलक्षणो यस्य जन्तोः प्राणिन उदीर्णस्तं प्राणिनं तेन भावेन लोक्यत्वात् जानीहि भावलोकमनन्तजिनदेशितं एकवाक्यतया अनन्तजिनकथितं सम्यक्-अवैपरीत्यन ॥ सम्प्रति पर्यायलोको वक्तव्यः, तत्रौघतः पर्याया धर्मा उच्यन्ते, इह पुनर्नैगमनयदर्शनं मूढनयदर्शनं चाधिकृत्य पर्यायलोकमाहगुणवित्त पज्जव भवाणुभावे अ भावपरिणामे । जाण चउहिमेअं पज्जवलोअं समासेण ॥ २०४ ॥ (भा.) द्रव्यस्य गुणा-रूपादयः तथा क्षेत्रस्य पर्याया-अगुरुलधवः, भरतादिभेदा इत्यन्ये, भवस्य नरकादेरनुभावाः - तीव्रतमदुःखादिरूपाः, तथो चोक्तम्- "अच्छिनिमीलियमेत्तं नत्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं । नरए नेरइयाणं अहोनिसं पञ्चमागाणं ॥ १ ॥ असुभा उबियणिजा सहरसा ख्वगंधफासा य । नरए नेरइयाणं दुकयकम्मोवलित्ताणं ॥ २ ॥ इत्यादि, Pur Private & Personal Use Only ~308~ भवभाव र्यवलोक ॥ ५९३ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक"- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०७०], विभा गाथा , भाष्यं [२०५], मूलं [१...] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथा ||२|| है एवं शेषभवानुभावा अपि वाच्याः, तथा भावस्य-जीवाजीवादिसम्बन्धिनः परिणामाः-तेन तेन अज्ञानात ज्ञानं नीला-IN लोहितमित्यादिप्रकारेण भवनानि भावपरिणामाः, एवमेनं चतुर्विधमोघतः पयोयलोकं समासेन सद्देपेण जानीहि अव-IN 8| बुध्यस्ख ॥ तत्र यदुक्तं द्रव्यगुणा इत्यादि तदुपदर्शनेन निगमयन्नाहद्रवन्नरसगंधसंठाण-फासठाणगइवन्नभेए या परिणामे य बहुविहे पज्जवलोगं विआणाहि (समासेणं)॥२०॥(भा.काही वर्णरसगन्धसंस्थानस्पर्शस्थानगतिवर्णभेदान् , चशब्दात् रसगन्धसंस्थानादिभेदांश्च, इयमत्र भावना-वर्णादयः सप्रभेदा ग्रहीतव्याः, तत्र वर्णस्य भेदाः कृष्णादयः पश, रसस्यापि तिक्कादयः पञ्च, गन्धस्य सुरभीतररूपी द्वी भेदी, संस्थान परिमण्डलादिभेदात् पञ्चधा, स्पर्शः कठिनादिभेदादष्टधा, स्थानमवगाहनालक्षणं, तद् आश्रयप्रदेशभेदादनेकधा, गतिबिधास्पृशदूगतिरस्पृशदूगतिश्च, अथवा चशब्दः कृष्णादिवर्णादीनां स्वभेदापेक्षया एकगुणकृष्णाद्यनेकभेदोपसचहार्थः, अनेन किल द्रव्यगुणा इत्येतद् व्याख्यातं, परिणामांश्च बहुविधानित्यनेन तु चरमद्वारम् , शेषद्वारद्वयं पुनः स्वयमेव भावनीयं,5 परिणामांश्च बहुविधानिति जीवाजीवभावगोचरान् , किमित्यत आह- पर्यायलोकं जानीहि, पर्याय एव लोकः पर्याय-17 लोक इति व्युत्पत्तेः॥ सम्प्रति लोकपर्यायशब्दान् निरूपयति___ आलुकई पलुकहलुका संलुक्कई य एगहा। लोगो अहविहो खलु तेणेसो वुचई लोगो॥१०७०॥ आलोक्यते इत्यालोकः, प्रलोक्यते इति प्रलोकः, लोक्यते इति लोका, संलोक्यते इति संलोका, एते चत्वारोऽपि SARKA दीप अनुक्रम [३] HOSROGRA नकलकलन ( Nimesbraryng ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०७१-१०७२], विभा गाथा [-], भाष्यं [२०५...], मूलं [१...] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक GAC गाथा ||१|| श्रीआव० शब्दा एकाधिकाः, यत एवं लोकशब्दस्य व्युत्पत्तिः-लोक्यते इति लोक, आलोकादयश्च पर्यायाः, तेन कारणेन अष्ट-2 उद्योतमलयगि विधः खलु लोको लोक उच्यते ॥ व्याख्यातो लोकः, साम्प्रतं उद्योत उच्यते, अत्राह निक्षेप वृत्तौ सूत्र- दुविहो खलु उज्जोओ नायबो दवभावसंजुत्तो । अग्गी दबुजोओ चंदो सूरो मणी विजू ॥१०७१ ॥ स्पर्शिका त 'विविधो द्विप्रकारः, खलुशब्दो मूलभेदापेक्षया न व्यक्त्यपेक्षयेतिविशेषणार्थः, उद्योत्यते-प्रकाश्यतेऽनेनेति उद्योतो ज्ञातव्यो विज्ञेयो द्रव्यभावसंयुक्तः, द्रव्योधोतो भावोद्योतश्चेति भावः, तत्र द्रव्योद्योतोऽग्निश्चन्द्रः सूर्यों मणिः-चन्द्र॥५९४॥ ४ कान्तादिलक्षणो विद्युत् प्रतीता, एते द्रव्योद्योतः, एतैर्घटादीनामुद्योतेऽपि तद्गतायाः सम्यक्प्रतिपत्तेरभावात् सकल वस्तुधानुद्योतनाच, न ह्यम्यादिभिः सदसन्नित्यानित्याद्यनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः सर्व एव धर्माः धर्मास्तिकायादयो || Pावा द्योत्यन्ते, तस्मादयादयो द्रव्योद्योत इति । अधुना भावोद्योतमाह नाणं भावुज्जोओ जह भणियं सवभावदंसीहिं । तस्स उवओगकरणे भावुजो विआणाहि ॥ १०७२॥ ज्ञायते यथावस्थितं वस्त्वनेनेति ज्ञानं, ततो भावोद्योतः, तेन घटादीनामुधोतने तद्गतायाः सम्यक्प्रतिपचेनिश्चयप्रतिपत्तेश्च भावात् , तस्य तदात्मकत्वात् , एतावता चाविशेषेणैव ज्ञानं भावोद्योत इति प्राप्तमत आह-यथा भणितं यथावस्थितं सर्वभावदार्शभिः, तथा यत् ज्ञानं, सम्यग्ज्ञानमिति भावः, तदपि नाविशेषेणोद्योतः, किन्तु, तस्य ज्ञानस्यो * ॥५९४॥ पयोगे करणे सति भावोद्योतं विजानीहि, नान्यदा, तदैव तस्य वस्तुनो ज्ञातत्वसिद्धेः इति गाथार्थः॥ इत्थमुद्योतस्वरूपमभिधाय साम्प्रतं येनोद्योतेन लोकस्योद्योतकरा जिना भवन्ति तेनैव युक्तानुपदर्शयन्नाह CASSELCASES ARCHESTEEKSI दीप अनुक्रम [३] A SES ... अथ 'उद्योत' शब्दस्य निक्षेपा: क्रियते ~310~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [8..] गाथा |||| दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [ २ ], निर्युक्तिः [ १०७३-१०७५] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ २०५...] मूलं [१...] / गाथा [१] रत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मा. सु. १०० लोगोअगरा दोरण न हु जिणा हुंति । भावुज्जोअगरा पुणे हुंति जिणवरा चडवीसं ॥ १०७३ || लोकस्योद्योतकरा द्रव्योद्योतेन नैव जिना भवन्ति, किन्तु तीर्थकर नामकम्मोंदयतो अतुल सत्त्वार्थसम्पादनेन भावोद्यो तकराः पुनर्भवन्ति जिनवराश्चतुर्विंशतिरिति, अत्र पुनः शब्दो विशेषणार्थः, स चैतद् विशिनष्टि - आत्मानमधिकृत्य केवलज्ञानेनोद्योतकराः, लोकप्रकाशकवचनप्रदीपापेक्षया तु शेषकतिपयभव्य विशेषानधिकृत्योद्योतकराः अत एवोक्तं भवति, कोऽर्थः ?, न न भवन्ति, ननु भवन्त्येव, कांश्चन प्राणिनोऽधिकृत्योद्योतकरत्वस्यासम्भवात् चतुर्विंशतिग्रहणमधिकृतावसर्पिणीगततीर्थकर सङ्ख्या प्रतिपादनार्थ || उद्योताधिकारे एव द्रव्योद्योतभावोद्योतयोविंशेषप्रतिपादनार्थमाह दबुजोओजओ पगासई परिमिअम्मि वित्तम्मि । भावुजो ओजोओ लोगालोग पयासे ॥ १०७४ | द्रव्योद्योतोद्योतो- द्रव्योद्योतप्रकाशः पुद्गलात्मकत्वात् तथाविधपरिणामयुक्तत्वाच्च प्रकाशयते, पाठान्तरं प्रभासते, परिमिते क्षेत्रे, अत्र यदा प्रकाशयति तदा प्रकाश्यं वस्तु अध्याहियते, यदा तु प्रभासते तदा स एव दीप्यते इति गृह्यते, भावोद्योतोद्योतो लोकालोकं प्रकाशयति प्रकटार्थ । उक्त उद्योतः सम्प्रति करमवसरप्राप्तमपि धर्मतीर्थकरानित्यत्र वक्ष्यमाणत्वाद्विहाय धम्मं प्रतिपिपादयिषुराह दुह भावम्मोद सङ्घस्स दवमेवऽहवा । तित्ताइसहायों वा गम्माइत्थी कुलिंगो वा ॥ १०७५ ।। धर्मो द्विविधः, तद्यथा-द्रव्यधर्मो भावधम्मंश्च तत्र द्रव्ये इति द्वारपरामर्शः, द्रव्यविषयो धर्म्म उच्यते-द्रव्यस्य-अनुपयुक्तस्य धर्मो मूलोत्तरगुणानुष्ठानं द्रव्यधर्म, इहानुप्रयुक्तो द्रव्यं 'अनुपयोगो द्रव्य मिति वचनात्, द्रव्यमेव वा ... अथ 'धर्म' शब्द व्याख्यायते Por Private & Personal Use Only ~311~ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] गाथा |||| दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [ २ ], निर्युक्तिः [ १०७६-१०७८] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ २०५...] मूलं [१...] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीभव० मलयगि० वृत्तौ सूत्रस्पर्शिका ॥५९५ ॥ धम्मों द्रव्यधर्म्मः- धर्मास्तिकायः 'तित्ताइसहावो वा' इति तिक्तादिर्वा द्रव्यस्य स्वभावो द्रव्यधर्मः 'गम्माइत्थी कुलिंगो वत्ति गम्यादिर्धर्म्मः स्त्रीविषयो द्रव्यधर्म्मः, तत्र केषाञ्चित् मातुलदुहिता गम्या केषांचिदगम्येत्यादिः तथा कुलिङ्गो वा कुतीर्थिकधम्र्मो द्रव्यधर्म्मः, पाठान्तरं 'दुविहो य होइ धम्मो दवधम्मो य भावधम्मो य । धम्मस्थिकाउ दबे दबस्स व जो भवे भावो ॥ १ ॥' सुगमं । भावधर्म्मप्रतिपादनार्थमाह दुह होइ भावधम्मो सुअ चरणे वा सुअम्मि सज्झाओ। चरणम्मि समणधम्मो खेतीमाई भवे दसहा १०७३ द्विविधो भवति भावधर्म्मः, तद्यथा श्रुते चरणे च श्रुतधर्मश्चरणधर्म्मश्चेत्यर्थः, तत्र श्रुते श्रुतविषयो धर्म्मः स्वाध्यायो-वाचनादिः, चरणे चरणविषयो धर्म्मः श्रमणधम्र्म्मो, दशधा दशप्रकारः क्षान्त्यादिः, पाठान्तरं वा 'भावंमि होइ दुविहो सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य । सुयधम्मो सज्झातो चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥ १ ॥' सुगमं । संप्रति तीर्थ निरूपणायाह नामं उवणातित्थं दषतित्थं च भावतित्थं च । इक्किकंपि अ इत्तो णेगविहं होइ नायां ।। १०७७ ॥ 'नाम' ति नामतीर्थं स्थापनातीर्थं द्रव्यतीर्थं भावतीर्थं च 'एत्तोत्ति नामादिनिक्षेपमात्रकरणादनन्तरमेकैकं नामतीर्थादि अनेकविधं भवति ज्ञातव्यं ॥ तत्र नामतीर्थमनेकविधं जीवाजीव विषयादिभेदात्, स्थापनातीर्थ साकारानाकार भेदात्, | द्रव्यतीर्थं आगमनोआगमादिभेदात्, तत्र ज्ञशरीर भव्य शरीरद्रव्यतीर्थप्रतिपादनार्थमाह दाहोवसमं तन्हाइ छे अणं मलपवाहणं चैव । तीहिं अत्थेहिं निउतं तम्हा तं दद्दओ तित्थं ॥ १०७८ ॥ ... अथ 'तीर्थ' शब्द व्याख्यायते Por Private & Personal Use Only ~312~ धर्मनिक्षेप ।। ५९५ ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०७९-१०८१], विभा गाथा [-], भाष्यं [२०५...], मूलं [१...] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| इह ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं नोआगमतो द्रव्यतीर्थ मागधवरदामादि परिगृह्यते, बाह्यदाहादेरेव तत उपशमसद्भावात् , तथा चाह-दाहोपशममिति, दाहो-बाह्यः सन्तापः तस्योपशमो यस्मिन् तद्दाहोपशमं 'तण्हावुच्छे(इछे)यण'ति | तृषः-पिपासायाः छेदनं जलसङ्घातेन तदपनयनात्, तथा मलो बाह्यः अङ्गसमुत्थस्तस्य प्रवाहणं, प्रवाह्यतेऽनेनेति प्रवाहणं, जलेन तस्य प्रक्षालनात , एवं त्रिभिरथैः कारणगतैर्निर्युक्तं निश्चयेन युक्तं निर्युकं-प्ररूपितं, यदिवा प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे तृतीया, त्रिषु अर्थेषु नियोजितं, यस्मादेवं बाह्यदाहादिविषयमेव तस्मात् मागधादि द्रव्यतीर्थ, मोक्षसाधकत्वाभावात् ॥ सम्पति भावतीर्यमधिकृत्याहकोहम्मि उ निग्गहिए दाहस्सोवसमणं हवइ तत्थं । लोहम्मि उ निग्गहिए तण्हावुच्छेअणं होइ ॥ १०७९॥ अहविहं कम्मरयं यहुएहिं भवेहिं संचिअं जम्हा । तव-संजमेण धोवइ तम्हा तं भावओ तित्थं ॥ १०८०॥ इह भावतीर्थमपि आगमनोआगमभेदतोऽनेकप्रकारं, तत्र नोआगमतो भावतीर्थ क्रोधादिनिग्रहसमर्थ प्रवचनमेव गृह्यते, तथा चाह-क्रोधे एव निगृहीते दाहस्य द्वेषानलजातस्यान्तः प्रशमनं भवति तथ्य-निरुपचरितं, नान्यथा, तथा लोभ शाएव निगृहीते 'तण्हावुच्छेयणं होति'त्ति तृपः-अभिष्वंगलक्षणायाः छेदन-व्यपगमो भवति, तथा अष्टविध अष्टप्रकार कर्मैव जीवानुरंजनात् कर्मरजः बहुभिर्भवैः सश्चितं तपःसंयमेन धाव्यते-शोध्यते यस्मात् तस्मात् प्रवचनं भावतीर्थम् ।। दसणनाणचरित्तेसु निउत्तं जिणवरेहिं सोहिं । एएण होइ तित्थं एसो अन्नोऽवि पज्जाओ ॥१०८१॥ दर्शनज्ञानचारित्रेषु नियुक्त-नियोजितं सर्वैः ऋषभादिभिर्जिनवरैः-तीर्थकृद्भिः, यस्मादित्थंभूतेषु नियुक्कं तस्मात् दीप अनुक्रम [३] ~313 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०८२-१०८४], विभा गाथा [-], भाष्यं [२०५...], मूलं [१...] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१..] गाथा ||१|| श्रीआव० प्रवचनं भावतीर्थ, अथवा येन कारणेनेत्थंभूतेषु त्रिध्वर्थेषु नियुक्तमेतेन कारणेन प्रवचनं भावतस्विस्थ, एष त्रिस्थलक्षणः । मलयगि तीर्थशब्दापेक्षया अन्यः पर्यायः॥ उक्त तीर्थ, अधुना कर उच्यते योनिक्षेप वृत्तौ सूत्र-18|नामकरो ठवणकरो दबकरो खित्त-काल-भावकरो । एसो खलु करगस्स उ निक्खेवो छबिहो होई ॥१०८२॥ स्पर्शिका नामकरः स्थापनाकरः द्रव्यकरः 'क्षेत्रकालभावकरों' इति करशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते क्षेत्रकरः कालकरो भाव करच, एष खल्लु कर एव करकस्तस्य निक्षेपः पडिधो भवति ॥ तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यकरमभिधित्सुराह| गो-महिसु-हि-पसूणं छगलीणंपि अकरा मुणेअवा । तत्तो अतणपलाले भुसकटुंगारकरमेव ॥१०८३॥ हि सीउंबरजंघाए बलिवद्दकरे घडे अ चम्मे य । चुल्लगकरे अ भणिए अट्टारसमा करुप्पत्ती ॥ १०८४ ॥ गोमहिषोष्ट्रपशूनां छगलीनामपि च करा ज्ञातव्याः, तत्र गोकरो गोयाचनं, यथा एतावतीषु विक्रीतास्त्रेका गौतव्येति, यदिवा गोविक्रयस्य रूपकयाचनं गोकरः १ एवं महिपकर, २ उष्ट्रकरः ३ पशुकरः ४ छगली-उरचा तत्करः अगलीकरः ५ ततस्तृणविषयः करः तृणकरः ६ पलालकरः ७ तथा बुसकरः ८ काष्ठकरः ९ अङ्गारकरः १. शीता-लाङ्गपद्धतिस्तामाश्रित्य करो-भागो धान्ययाचनं शीताकरः ११ उम्बरो-देहली तद्विषयः करो रूपयाचनं उम्बरकरः १२, एवं जङ्घाकरः १३ बलीवईकरः १४ घटकरः १५ चर्मकरः १६ चुल्लगो-भोजनं तदेव करः घुलगकरः, स चायं ग्रामेषु । ॥५९६ पञ्चकुलादीनधिकृत्य प्रसिद्ध एव १७ अष्टादशा करस्योत्पत्तिः स्वकल्पनाशिल्पिनिम्मिता, पूर्वोक्तसप्तदशकरव्यतिरिक्तः स्वे-15 हाच्छया कल्पितोऽष्टादशः करः, स त्वौत्पत्तिक इति प्रसिद्धः ॥ उक्को द्रव्यकरः, सम्प्रति क्षेत्रकरादीनभिधित्सुराह दीप अनुक्रम [३] SmECT I mastringaro ~314 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [..] गाथा |||| दीप अनुक्रम [3] आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [ २ ], निर्युक्तिः [ १०८५-१०८७] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ २०५...] मूलं [१...] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः स्वित्तम्मि जंमि खित्ते काले जो जम्मि होइ कालम्मि । दुविहो उ होइ भावे अपसत्थो तह पसत्थो अ || १०८५ ॥ यो यस्मिन् क्षेत्रे शुल्कादिरूपो विचित्रः करः स क्षेत्रे क्षेत्रविषयः करः, तथा यो यस्मिन् काले भवति कुटिकादानादिरूपः करः स काले कालकरः, द्विविधश्च भवति भावे भावकर, द्वैविध्यमेव दर्शयति-प्रशस्तः तथा अप्रशस्तश्च तत्राप्रशस्तपरित्यागात् (प्रशस्तो महतीति ) प्रशस्तमेवाभिधित्सुराह कलहकरो डमरकरो असमाहिकरो अनिवुझ्करो अ । एसो अ अप्पसत्थो एवमाई मुणेअघो । १०८६ ॥ आह-उक्तप्रयोजन सद्भावात् तदुद्देशेऽप्ययमेवादावप्रशस्तः कस्मान्नोपन्यस्तः १, उच्यते, इह मुमुक्षुणा प्रशस्त एव भाव आसेवनीयो, नेतर इति ख्यापनार्थमादौ प्रशस्त उक्त इत्यदोषः, तत्र कलहो - वाचिकं भण्डनं तत्करणशीलोsप्रशस्तक्रोधाद्यौदयिक भाववशतः कलहकरः, कायवाङ्मनोभिर्विचित्रं ताडनं डमरं तत्करणशीलो डमरकरः, तथा समाधानं | समाधिः- स्वास्थ्यं न समाधिरसमाधिः - अस्वास्थ्यनिबन्धना सा सा कायादिचेष्टा तत्करणशीलोऽसमाधिकरः, निर्वृत्तिः-सुखं अनिर्वृत्तिः पीडा तत्करणशीलोऽनिर्वृत्तिकरः, एप तुशब्दस्यावधारणार्थत्वादेप एव जात्यपेक्षया न व्यक्त्यपेक्षया, एवमादिर्व्यक्त्यपेक्षया, अप्रशस्तो भावकरो ज्ञातव्यः ॥ सम्प्रति प्रशस्तं भावकरमभिधित्सुराह— अत्थकरो हिअकरो कित्तिकरो गुणकरो जसकरो अ । अभयंकर निव्वुइकरो कुलगर तित्थंकरतकरो || १०८७ || अर्थो नाम विद्याsपूर्व धनार्जनं शुभमर्थ इति ततः प्रशस्तविचित्रकर्म्मक्षयोपशमादिभावतस्तत्करणशीलोऽर्थकरः, एवं हितादिष्वपि भावनीयं, नवरं हितं परिणामपथ्यं यत्किञ्चित्कुशलानुबन्धि, कीर्त्तिः- दानपुण्यफला गुणा-ज्ञानादयः Por Private & Personal Use Only ~315~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०८८-१०९१], वि०भागाथा -, भाष्यं [२०५...], मूलं [१...] | गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१..] गाथा ||१|| यश:-पराक्रमकृतं, पराक्रमसमुत्थः साधुवाद इति भावः, अभयादयः प्रकटार्थाः, नवरमन्तकर इत्यत्रान्तः कर्मणांटा जिनादिमलयगि छातत्फलभूतस्य वा संसारस्य परिगृह्यते ॥ उक्तो भावकरः, अधुना जिनादिप्रतिपादनार्थमाह स्वरूप वृत्तौ सूत्र- जिअकोह-माण-माया जिअलोभा तेण ते जिणाहुति। अरिणो हन्ता रयं हंता अरिहंता तेण बुचंति ॥१०८॥ स्पर्शिका | जितक्रोधमानमाया जितलोभा येन कारणेन भगवन्तस्तेन कारणेन जिना भवन्ति, 'अरिणो हंता' इत्यादि गाथा॥५९७॥ दलं यथा नमस्कारनियुक्ती व्याख्यातं तथैव द्रष्टव्यं ॥ साम्प्रतं 'कीर्तयिष्यामि' इत्यादि व्याचिख्यासुरिदमाहकित्तेमि कित्तणिज्ने सदेवमणुआसुरस्स लोगस्स । दसणनाणचरित्ते तवविणयो दंसिओ जेहिं ॥१०८९॥ 'कित्तेमि'त्ति प्राकृतत्वात् कीर्तयिष्यामि, नामभिर्गुणैश्च, किंभूतान् ?-कीर्चनीयान् , स्तवार्दानित्यर्थः, कस्येत्यत्राह-सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य त्रैलोक्यस्येति भावः, गुणानुपदर्शयति-दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षकारणानि, सूत्रे चैकवचनं समाहारत्वात् , तथा तपोविनयोऽत्र दार्शतः यः, तत्र तप एव कर्मविनयात् तपोविनयः॥ चउवीसंति असंखा उसभाईआ उ भण्णमाणा उ । अविसद्दग्गहणा पुण एरवयमहाविदेहेसु ॥ १०९०॥ II चतुर्विशतिरिति संख्या, ते तु ऋषभादिका भण्यमाना एव, तुशब्द एवकारार्थः, अपिशब्दग्रहणात् पुनः ऐरवत-15 महाविदेहेषु ये भगवन्तस्तग्रहोऽपि वेदितव्यः, इह सूत्रे 'तास्थ्यात्तव्यपदेश' इति न्यायादैरावतमहाविदेहाश्चेत्युक्तम् ॥ कसिणं केवलकप्पं लोगं जाणंति तह य पासंति । केवलचरित्तनाणी तम्हा ते केवली हुंति ॥१०९१॥ | 'कृल्लं' सम्पूर्ण 'केवलकल्प' केवलोपम, इह कल्पशब्द औपम्ये गृह्यते, उक्तं च-"सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदने | दीप अनुक्रम [३ 996 SanElication ) ... अथ 'जिन' एवं अरिहंत' शब्द व्याख्यायेते ~316~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०८८-१०९१], विभा गाथा [-], भाष्यं [२०५...], मूलं [१...] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथा ||१|| करणे तथा । औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्दं विदुर्बुधाः ॥१॥" लोकं पञ्चास्तिकायात्मकं जानन्ति विशेषरूपतया, तथैव | सम्पूर्णमेव, चशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , पश्यन्ति सामान्यरूपतया, इह ज्ञानदर्शनयोः सम्पूर्णलोकविषयत्वे बहु वक्तव्यं, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थविस्तरभयात् , केवलं 'निर्विशेष विशेषाणां, ग्रहो दर्शनमुच्यते । विशिष्टग्रहणं ज्ञानमेवं सर्वत्रगं द्वय ॥शा-1 मित्यनया दिशा स्वयमेवाभ्यूज़, धर्मसङ्ग्रहणीटीका च परिभावनीया, यतश्चैवं केवलचारित्रिणः केवलज्ञानिनश्च तस्मात्ते केवलिनो भवन्ति, केवलमेषां विद्यते इति केवलिनः इति व्युत्पत्तेः, अहोऽत्राकाण्ड एवं केवलचारित्रिण इति किमर्थमुक्तं', उच्यते, केवलचारित्रप्राप्तिपूर्विका नियमतः केवलज्ञानावाप्तिरिति न्यायदर्शनार्थमित्यदोषः । तदेवं व्याख्यातो || लोकस्येत्यादिरूपः सूत्रप्रथमश्लोकः ।। जा साम्प्रतमत्रैव चालनाप्रत्यवस्थाने विशेषतो निदर्येते, तत्र लोकस्योद्योतकरानिस्युक्तं, अत्राह-अशोभनमिदं यदुक्तं लोकस्येति, लोको हि चतुर्दशरज्वात्मकत्वेन परिमितः, केवलोद्योतश्चापरिमितो,लोकालोकव्यापकत्वात् , यद्वक्ष्यति-'केव-18 लियनाणलंभो लोगालोग पगासेई ततः सामान्यतः उद्योतकरान् यदिवा लोकालोकयोरुद्योतकरानिति वाच्यं, नतु लोकस्थति, तदयुक्तं, अभिप्रायापरिज्ञानात्, इह लोकशब्देन पश्चास्तिकाया एवं गृह्यन्ते, ततः आकाशास्तिकायभेद एव लोक इति न पृथगुक्तः, नचेतदनार्ष, यत उक्तम्-"पंचस्थिकायमइओ लोगो' इत्यादि । अपरस्त्वाह-लोकस्योद्योतकरानित्येतावदेव साधु, धर्मतीर्थकरानिति न वक्तव्यं, गतार्थत्वात् , तथाहि-ये लोकस्योद्योतकरास्ते धर्मतीर्थकरा एवेति, उच्यते, इह लोकैकदेशे ग्रामैकदेशे ग्रामशब्दवत् लोकशब्दप्रवृत्तिदर्शनात् मा भूत्तदुद्योतकरेष्ववधिविभङ्गज्ञानिष्वर्कचन्द्रादिषु वा सम्प्रत्यय दीप अनुक्रम [३] CRECRABAR ~317~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०८८-१०९१], वि०भा गाथा H, भाष्यं [२०५...], मूलं [१...] / गाथा [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: १ प्रत सूत्रांक [१..] मलयगि. गाथा ||२|| श्रीआव० इति तद्व्यवच्छेदार्थ धर्मतीर्थकरानित्युक्तं । आह-ययेवं धर्मतीर्थकरानित्येतावदेवास्तु, लोकस्योद्योतकरानिति न वाच्यं, उच्यते, इह लोके येऽपि नद्यादिविषमस्थानेषु मुधिकया धर्मार्थमवतरणतीर्थकरणशीलास्तेऽपि धर्मतीर्थकरा भण्यन्ते, ततो वृत्ती सूत्र-3 मा भूदतिमुग्धवुद्धीनां तेषु सम्प्रत्यय इति तदपनोदाय लोकस्योद्योतकरानित्याह । अपरस्त्वाह-जिनानित्यतिरिच्यते, तथाहि-टू स्पर्शिका यथोक्तप्रकारा जिना एव भवन्तीति, उच्यते, इह केषांचिदिदं दर्शनं- "ज्ञानिनो धर्मातीर्थस्य, कारः परमं पदम् । गत्वाऽs-| ॥५९८॥ गच्छंति भूयोऽपि, भृशं (भवं) तीर्थनिकारतः ॥१॥” इत्यादि, ततस्तन्मतपरिकल्पितेषु यथोक्तप्रकारेषु मा भूत सम्प्रत्यय इति तदूव्यवच्छेदार्थ जिनानित्याह, जिना नाम रागादिजेतारः, ते च कुनयपरिकल्पिता जिना न भवन्तीति, तीर्थनिकारतः पुनरिह भवारोत्पादनाद्, अन्यथा स न स्यात्, बीजाभावात्, तथा चोकमन्यैरपि-"अज्ञानपांशुपिहितं पुरातनं| कर्मवीजमविनाशि। तृष्णाजलाभिषिक्तं मुञ्चति जन्माकुरं जन्तोः ॥ १॥ दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्मचीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः ॥२॥" आह-यद्येवं जिनानित्येतावदेवास्तु, लोकस्योद्योतकरानित्याद्यतिरिच्यते, उच्यते, इह प्रवचने सामान्यतो विशिष्टश्रुतधरादयोऽपि जिना उच्यते, तद्यथा-श्रुतजिना अवधिजिना मनःप यज्ञानिजिनाश्छमस्थवीतरागाच, ततो मा भूत्तेषु सम्प्रत्यय इति तदपनोदाय लोकस्योद्योतकरानित्याचप्यदुष्टं । अपरस्त्वाह-अर्हत इति न वाच्यं, न खल्वनन्तरोदितस्वरूपा अहव्यतिरेकेणापरे सम्भवन्ति, उच्यते, अर्हतामेव विशेप्यत्वान्न दोषः, आह-यद्येवं तहिं अर्हत इत्येतावदेवास्तु, लोकस्योद्योतकरानित्यादि पुनरपार्थक, न, तस्य विशेषणत्वात्, विशेषणसाफल्यस्य च प्रतिपादितत्वादिति । अपरस्त्याह-केवलिन इति न वाच्यं, यथोक्तस्वरूपाणामहतां केवलित्वव्याभि ROCESS दीप अनुक्रम [३] CARRORSCARROR ॥५९८॥ SAMEnication ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०८८-१०९१], विभा गाथा H, भाष्यं [२०५...], मूलं [१...] / गाथा [२-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथा ॥२-४|| चाराभावात् , सति च व्यभिचारसम्भवे विशेषणोपादानं फलवत्, तथा चोक्त-"सम्भवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद् भवति', यथा नीलोत्पलमिति, व्यभिचाराभावे तु तदुपादीयमानमपि न कंचनार्थ पुष्णाति, यथा कृष्णो भ्रमरः शुक्ला काबलाकेति, तस्मात् फेवठिन इत्यतिरिच्यते, न, अभिप्रायापरिज्ञानात् , इह केवलिन एवं यथोक्तस्वरूपा अहेन्तो, नान्ये इति नियमार्थेन स्वरूपज्ञापनार्थमिदं विशेषणमित्यनवयं, न खल्वेकान्ततो व्यभिचारसम्भवे एव विशेषणोपादानं फलवत्, उभयपदव्यभिचारे एकपदव्यभिचारे स्वरूपपरिज्ञापने च शिष्टोक्तिषु तत्प्रयोगदर्शनात् , तत्र उभयपदव्यभिचारे यथा नीलोत्पलमिति, एकपदव्यभिचारे अन् द्रव्यं पृथिवी द्रव्यमिति, स्वरूपपरिज्ञापने यथा परमाणुरप्रदेश इत्यादि, तस्मात्केवलिन इत्यदुष्टं । आह-यद्येवं केवलिन इत्येव सुन्दरं, शेषं तु लोकस्योद्योतकरानित्यादि किमर्थमिति, उच्यते, इह श्रुतकेवलिप्रभृतयोऽपि केवलिनो विद्यन्ते, तन्मा भूत्तेषु सम्प्रत्यय इति तत्प्रतिक्षेपार्ध लोकस्योद्योतकरानित्याद्यप्युक्तं । एवं व्यादिसंयोगापेक्षया विचित्रनयमताभिज्ञेन स्वधिया विशेषणसाफल्यं वाच्यमिति कृतं प्रसङ्गेन, प्रयासस्य गमनिकामात्रफलत्वात् ॥ सम्पति यदुक्तं 'कीर्तयिष्यामि' इति कीर्तनं कुर्वन्नाह सूत्रकृत् उसभमजिअं च बंदे संभवमभिनंदणं च सुमई च । पउमप्पर सुपासं जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ सुविहिं च पुप्फवंतं सीयल सिजंस वासुपुजं च । विमलमणंतं च जिणं धम्म संतिं च वंदामि ॥३॥ कुंथु अरं च महिं बंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्टनेमि पासं तह वद्धमाणं च ॥४॥ (सूत्राणि) एतासां तिसृणामपि सूत्रगाथानां व्याख्या-इह भगवतामहेतां नामानि अन्वर्थमधिकृत्य सामान्यलक्षणतो बिशेपल *SOLATAKAISLA ALEGRI अनुक्रम [४-६] ... अथ तिर्थंकरस्य 'ऋषभ', अजित आदि नामानाम् व्याख्या: क्रियते ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०९२], विभा गाथा H, भाष्यं २०५...], मूलं [१...] / गाथा [२-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक RECE वृत्ती सूत्र गाथा ॥२-४|| श्रीआव०क्षणतश्च वाच्यानि, तत्र सामान्यलक्षणमिदम्-'वृष उद्धहने' एष आगमिको धातुः, समग्रसंयमभारोद्वहनात् वृषभः, सर्व ऋषभदी. मलयगि एव भगवन्तो यथोक्तरूपा इति विशेषहेतुप्रतिपादनायाह नां सामाऊरूसु उसभलंछण उसभं सुमिणम्मि तेण उसभजिणो। न्यविशेस्पर्शिका जेण भगवतो दोसुवि ऊरूसु उसभा उप्पराहुत्ता लंछणभूया, जेणं च मरुदेवाए भयवतीए चोदसण्हं महासुमिणाणं पा: ॥५९९पढमं उसभो सुमिणे दिवो तेण तस्स उसभत्ति नाम कयं, सेसतित्थयराणं मायरो पढम गयं पासंति, तओ वसभो। अक्ष 13 रगमनिका त्वेवं-यतो भगवत ऊर्वोः वृषभावूर्ध्वमुखौ लाञ्छनं मरुदेवी च भगवती स्वमे प्रथमं ऋषभं दृष्टवती तेन भग-15 तवान् ऋषभजिनः । साम्प्रतमजितः, तस्य सामान्येनाभिधाननिबन्धनमिदं-परीपहोपसर्गादिभिने जितः अजितः, सर्व एव च भगवन्तो यथोक्तस्वरूपा इति विशेषनिवन्धनमभिधित्सुराह अक्खेसु जेण अजिआ जणणी अजितो जिणो तम्हा ॥ १०९२॥ अक्षेषु-अक्षविषयेषु येन कारणेन भगवतो जननी अजिता गर्भस्थे भगवत्यभूत् तस्मादजितो जिनः, अत्र वृद्धसम्प्रदायः-18 भयवतो अम्मापियरो जूयं रमंति, पढम राया जिणियाइतो, जाहे भयवं आयातो साहे देवी जिणाइ, नो राया, सतो अक्खेसु कुमारप्पभावा देवी अजियत्ति अजिओ नामं कयं ॥ तथा सम्भवन्ति-प्रकर्षेण भवंति चतुस्त्रिंशदतिशयगुणा यस्मिन् स सम्भवः, सर्व एव च भगवन्तो यथोक्तस्वरूपा इति विशेषनिबन्धनमभिधित्सुराह SAUSASHXHXSGRAFI अनुक्रम [४-६] RECR anEncou ~320 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०९३], वि०भा०गाथा H, भाष्यं २०५...], मूलं [१...] / गाथा [२-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथा ॥२-४|| अभिसंभूया सासत्ति संभवो तेण बुचई भयवं । अभिसम्भूतानि-सम्यक् भवन्ति स्म सस्यानि तस्मिन् गर्भजाते तेन कारणेन भगवान् सम्भव इत्युच्यते, 'पुनानी'त्य-18 ४ाधिकरणे धप्रत्ययः, तथा च वृद्धसम्प्रदायः-गभगए जेण अहिगा सस्सनिष्फत्ती जाया तेण संभवो इति ॥ तथा अभि-18 नन्द्यते देवेन्द्रादिभिरित्यभिनन्दनः, सर्व एव भगवन्तो यथोक्तस्वरूपा इत्यतो विशेषहेतुप्रतिपादमायाह अभिनंदेह अभिक्खं सक्को अभिनंदणो तेण ॥१०९३॥ शको गर्भादारभ्याभिक्षण-प्रतिक्षणं अभिनन्दितवानिति अभिनन्दनः, 'कृद्धहुल मिति वचनात् कर्मण्यनट् , तथा च वृद्धसम्प्रदायः-गम्भष्पभिई अभिक्खणं सकेण अभिनंदियाइतो तेण से अभिणंदणोत्ति नाम कयं । इदानी सुमतिः, तस्य सामान्याभिधाननिवन्धनमिदम्-शोभना मतिरस्येति सुमतिः, सर्व एव च भगवंतः सुमतय इति विशेषनिबन्धनप्रतिपादनार्थमाह . जणणी सत्वत्थ विणिच्छिएसु सुमइत्ति तेण सुमतिजिणो। 2 येन कारणेन गर्भगते भगवति सर्वेषु विनिश्चयेषु-कर्तव्येषु सुमतिः अतीव मतिः सम्पना जाता तेन कारणेन भगवान सुमतिजिनः, जननीसुमतिहेतुत्वात् सुमतिरिति भावः, शोभना मतिरस्मादभूदिति व्युत्पत्तेः, तथा च वृद्धसम्प्रदायःजणणी गम्भगए सवत्थ विणिच्छएसु अतीव मइसम्पन्ना जाया, दोण्हं सवत्तीण मयपइयाणं ववहारो छिन्नो, जहा मम पुत्तो भविस्सइ, सो जोवणत्यो एयस्स असोगवरपायवस्स आहे ववहारं तुभ छिदिहिति, ताव एगयाओ भवह, इयरी भणइ SASAKARSAKC *SESSE STESSES दीप अनुक्रम [४-६] ~321 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०९४-१०९५], विभा गाथा H, भाष्यं [२०५...], मूलं [१...] / गाथा [२-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१..] गाथा ॥२-४|| श्रीआ एवं भयतु, पुत्तमाया नेच्छाइ, भणइ-यवहारो छिजउ, ततो भावं नाऊण छिन्नो ववहारो, दिनो तीसे पुत्तो, एवमादीऋषभदीमलयगिगभगुणेणं जणणीए सुमती जायत्ति सुमइनाम कयं । इदानी पद्मप्रभः, तस्य सामान्यतोऽभिधानकारणमिदं-निष्पकतयानां सामावृत्तौ सूत्र- पास्येव प्रभा यस्य स पद्मप्रभः, तत्र सर्व एव भगवन्तो यथोक्तस्वरूपाः ततो विशेषकारणमाह न्यविशेस्पर्शिका पउमसयणम्मि जणणीऍ डोहलो तेण पउमाभो॥ १०९४ ॥ पार्थः येन कारणेन तस्मिन् भगवति गर्भगते जनन्या देव्या पद्मशयनीये दौईदमभूत् , तच देवतया सम्पादित, भगवांश्च ॥६००॥ स्वरूपतः पावर्णस्तेन कारणेन पद्मप्रभ इतिनामविषयीकृतः । सम्पति सुपायैः, तस्यायमोघतो नामान्वर्थः, शोभनानि|४|| पार्थाणि यस्यासी सुपार्थः, तत्र सर्व एव भगवन्त एवंभूतास्ततो विशिष्टं नामान्वर्थमभिधित्सुराह गभगए जं जणणी जाय सुपासा तओ सुपासजिणो। ६ यतो गर्भगते भगवति तत्प्रभावतो जननी जाता सुपार्था ततो जिनः सुपार्श्व इतिनामविषयीकृतः, एवं सामान्या-18 भिधानं विशेषाभिधानं चाधिकृत्यान्वर्थाभिधानविस्तरो भावनीयः, इह पुनः सुज्ञानत्वात् ग्रन्थविस्तरभयाच नाभिधीयते । सम्प्रति चन्द्रप्रभ:-चन्द्रस्येव प्रभा-ज्योत्स्ना सौम्यमस्येति चन्द्रप्रभः, तत्र सर्वेऽपि तीर्थकृतश्चन्द्रवत् सोमलेश्याकास्ततो विशेषमाह जणणीइ चंदपिअणम्मि डोहलो तेण चंदाभो ॥१०९५ ॥ येन कारणेन भगवति गर्भगते जनन्याः चन्द्रपाने दीर्हदमजायत चन्द्रसदृशवर्णश्च भगवान् तेन चन्द्राभ:-चन्द्रप्रभ REACOCHECCCCCACTERS अनुक्रम [४-६] ~322 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०९६-१०९७], विभा गाथा H, भाष्यं [२०५...], मूलं [१...] / गाथा [२-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक कर गाथा ||२-४|| इति विश्रुतः । सम्पति सुविधिः, शोभनो विधिरस्येति सुविधिः, विधिर्नाम सर्वत्र कौशलं, तत्र सर्व एव भगवन्त इदशा इति विशेषकारणमाह सबविहीसु अ कुसला गभगए तेण होइ सुविहिजिणो। | भगवति गर्भगते जननी सर्वविधिषु कुशलाऽभवत् तेन सुविधिजिन इति नाम कृतं । सम्पति शीतलः, सकलसवसन्तापकरणविरहादाल्हादजननाच शीतलः, तत्र सर्वेऽपि भगवन्तः शत्रूणां मित्राणां चोपरि शीतगृहसमानास्त तो विशेषमाह पिउणो दाहोवसमो गभगए सीअलो तेण ॥१०९६॥ भगवतः पितुः पूर्वोत्पन्नोऽसहशा पित्तदाहोऽभवत्, स चौपधैर्नानाप्रकारैर्नोपशाम्यति, भगवति तु गर्भगते देव्या परामर्श स दाह उपशान्तः, तेन शीतल इति नाम । इदानीं श्रेयान् , समस्तभुवनस्य हितकारित्वात् प्रशस्यतरः श्रेयान् , प्राकृतशेल्या छान्दसत्वात् सेयंस इत्युच्यते, तत्र सर्वेऽपि भगवन्तखेलोक्यस्यापि श्रेयांस इति विशेषमाह महरिहसिज्जारुहणम्मि डोहलो तेण होइ सिज्जंसो। है। तस्य राज्ञः पितृपरम्परागता देवतापरिगृहीता शय्या अच्येते, यस्तामाश्रयति तस्योपसर्ग देवता करोति, गर्भगते च भगवति देव्या दौईहमजायत-शय्यामारोहामि, तत्रोपविष्टा, देवता समारसितुमपक्रान्ता, सा हि तीर्थकरनिमित्तं देवतया रक्षिता, एवं गर्भप्रभावतो देव्याः श्रेयो जातमिति श्रेयांस इति नाम कृतम् । साम्पतं वासुपूज्यः-यासवो-देवाः तेषां पूज्यः। वासुपूज्यः, सर्व एव भगवन्त इदृशा इति विशेषमाह CACANCCCCC दीप अनुक्रम [४-६] आ.स.१०१ CC RECatory ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०९७-१०९८], विभा गाथा H, भाष्यं [२०५...], मूलं [१...] / गाथा [२-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ऋषभदी SAIREX AX पार्थः गाथा ॥२-४|| श्रीआव० गम्भगते तं वसूहिं पूएई तेण वसुपुज्जो ॥१०९७ ॥ मलयगि० तस्मिन् भगवति गर्भगते वासबो-देवराजः अभीक्ष्णं जननीं पूजयति, तेन वासुपूज्य इति नाम, पृषोदरादित्वादि-11 नां सामावृत्तौ सूत्र- पष्टरूपनिष्पत्तिः, अथवा वासवो नाम वैश्रमणः, स गर्भगते भगवति तत् राजकुलमभीक्ष्णं वसुमी-रसैः पूजयति न्यविशेस्पर्शिकापूरयति तेन कारणेन वासुपूज्यः । सम्प्रति विमलः, विगतो (मलो) विगतमलो विमला, ज्ञानादियोगाद्वा मलः, सत्र ॥६०१॥ सर्वेऽपि भगवन्त एवंभूता अतो विशेषमाह विमलतणु-बुद्धि जणणी गम्भगए तेण होइ विमलजिणो॥ I गर्भगते भगवति जनन्यास्तनुः-शरीरं बुद्धिश्च विमला, तद्दौइदं चेत्थमजायत, यथाऽहं विमला भवामि, तेन कारणेन | द्रनामतो भवति विमलजिनः । साम्प्रतमनन्तः, अनन्तकाशजयाद् अनन्तानि या ज्ञानादीन्यस्येत्यनन्तः, तत्र सर्वेऽपि | भगवन्त इदृशा अतो विशेपमाह रयणविचित्तमणतं दामं सुमिणे तओणतो॥१०९८ ॥ रत्नविचित्रं-रनखचितं अनन्तं-अतिमहाप्रमाणं दाम स्वप्ने जनन्या दृष्टं अतोऽनन्त इति । सम्पति धम्में, दुर्गती 15 प्रपतन्तं सत्त्वसातं धारयतीति धर्मः, तत्र सर्वेऽपि भगवन्त इदृशाः ततो विशेषमाह गभगए जं जणणी जाय सुधम्मत्ति तेण धम्मजिणो। भगवति गर्भगते येन कारणेन विशेषतो जननी जाता सुधर्मा-दानदयादिरूपशोभनधर्मपरायणा तेन नामतो| दीप अनुक्रम [४-६] SMEucation ~324 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) आवश्यक - मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-४ अध्ययनं [२], नियुक्ति: [१०९९-११००/१], विभा गाथा [-], भाष्यं [२०५...], मूलं [१...] / गाथा [२-४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक' नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथा ॥२-४|| धर्मजिनः । इदानीं शान्तिः, शान्त्यात्मकत्वात् शान्तिः, तत्र सर्व एव तीर्थकृत एवंरूपा अतो विशेषमाह जाओ असिवोवसमो गभगए तेण संतिजिणो ॥१०९९॥ दा पूर्व महदशियमासीत् , भगवति तु गर्भगते जातः अशिवोपशमः तेन कारणेन शान्तिजिनः। सम्पति कुन्थः, क-पृथिवी। *तस्यां स्थितवान् कुन्थुः, पृषोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः, तत्र सर्वेऽपि भगवन्त एवंविधाः, ततो विशेषमाह थूभं रयणविचित्तं कुंथु सुमिणम्मि तेण कुंथुजिणो। जननी स्वमे कुस्थ-मनोहरेऽभ्युन्नते महीप्रदेशे (स्थित) स्तूपं रत्नविचित्रं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धवती तेन कारणेन भगवान् नामतः कुन्थुजिनः ॥ साम्प्रतमरः ।। safaatsasaraswarastramsaRateaserIADAVastasAR इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविहिताया आवश्यकवृत्तः भाग-४ समाप्तः॥ ker serverSERENGERS engecedersen दीप अनुक्रम [४-६] RECECAREERUGRECESS इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविरचिता आवश्यकवृत्तिः समाप्ता॥ इति श्रेष्ठी-देवचन्द्र लालभ्रातृ-जैनपुस्तकोद्धारे प्रथाङ्कः ८५ आवश्यक- मूलसूत्र- [४०/४] नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com.M.Ed.,Ph.D..श्रुतमहर्षि ~325 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwww इति श्रीमन्मलयगिर्याचार्यविरचिता आवश्यकवृत्तिः समाप्ता ॥ DOPOCETERO ~326~ helbrary.org Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 40/4 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च "आवश्यक-मूलसूत्र” [नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरिजी-रचिता वृत्तिः] (किंचित वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "आवश्यक" नियुक्ति: एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्तः Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~327~