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योगसार टीका |
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मानना एकांत मिथ्यात्व है । जैसे जगत छः द्रच्चका समुदाय हैं । ऐसा न मानकर यह जगत एक ब्रह्म स्वरूप ही है, ऐसा मानना या वस्तु द्रव्यकी अपेक्षा नित्य है व पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है ऐसा न मानकर सर्वथा नित्य हो मानना या सर्वथा अनित्य ही मानना एकान्त मिध्यात्व है । "सग्रंथी निर्मन्थाः केवली कलाहारी, स्त्री सिद्धयतीत्येवमादिः विपर्ययः ।"
भावार्थ- जो वान संभव न हो- विपरीत हो उनको ठीक मानना विपरीत मिध्यात्व हैं जैसे परिधारी साधुको निन्य मानना, केवली अरहंत भगवानको ग्रास लेकर भोजन करना मानना, खोके शरीरसे सिद्धगति मानना, हिंसामें धर्म मानना इत्यादि विपरीत मिथ्यात्व है । वस्त्रादि बाहरी व कोधादि अंतरंग परिग्रह रहित ही निर्मथ साधु होता है, केवली अनंतबदी परमोदारिक सात धातुरहित हशरीर रखते हैं, मोहकर्मको क्षय कर चुके हैं, उनको मुखकी बाधा होना- भोजनकी इच्छा होना व शिक्षार्थ भ्रमण करना व भोजनका खाना सम्भव नहीं है। वे परमात्मपद में निरन्तर आत्मानन्दामृतका वाद लेते हैं, इन्द्रियोंके द्वारा स्वाद नहीं लगे हैं । उनके - मतिज्ञान व ज्ञान नहीं है ।
कर्मभूमी स्त्री का शरीर पनाराच संहत बिना हीन मंहनना होता है इसीसे वह न तो भारी पाप कर सक्ती है न मोक्षके लायक ऊँचा ध्यान ही कर सक्ती है । इसलिये वह मरकत १६ स्वरीके ऊपर ऊर्द्ध लोकमें छठे नर्कमे नीचे अधोलोकमें नहीं जाती हैं। हिंसा या परपीड़ा पापबन्ध होगा कभी पुण्यबन्ध नहीं होक्ता | उल्टी प्रतीतिको ही विपरीत मिध्यावर्शन कहते हैं । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि किं मोक्षमार्गः स्याह न बेत्यन्य
तरपक्षापेक्षा परियहः संशयः " सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र रत्नत्रय धर्म
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