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योगसार टीका |
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कुल नहीं होता है । जैसे कोई मदिरा पीकर बावला होजावे व अपना नाम व अपना घर ही भूल जावे वैसे यह मोही प्राणी अपने स स्वभावको हुए हैं। चारों गतियोंमें जहां भी जन्मता है वहां ही अपनेको नारकी, निच, मनुष्य या देव मान लेता है। जो पर्याय छूटनेवाली है उसको स्थिर मान लेता है, यह अग्रहीत या निसर्ग मिथ्यात्व है। इस मिध्यात्व के कारण तत्वका श्रद्धान नहीं होता है । श्री यामीने सर्वार्थसिद्धि में कहा हैमियान विधि नसर्गिकं परोपदशकं च । तत्र परीपदेशमन्तरेण मिध्यात्वकर्मादिद्यवशात् आविर्भवति तत्वार्थाश्रद्धानलक्षणं नैसर्गिक
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भावार्थ - मियादर्शन दो प्रकार है- एक नैसर्गिक या अगृहीत. दूसरा अधिगमज या परोपदेश पूर्वक जो परके उपदेशक बिना ही मियात् कर्मके उदयके वा जीव अजीव आदि तत्वोंका अश्रद्धान प्रगत होता है वह सर्गिक है । यह साधारणता ही एकेन्द्रियमे पंचेन्द्रिय जीवोंमें पाया जाता है । जबतक मिध्यात्व कर्मका उदय नहीं मिटेगा तबतक यह मिथ्यात्व मात्र होता ही रहेगा । दूसरा पर्व पांच प्रकार है-एकान्त, विपरीत, संशय.. चैनयिक, अज्ञान, मिथ्यादर्शन। ये पांच प्रकार सैनी जीयोको परके उपदेश होता है. तब संस्कार बश असैनीक भी बना रहता है । इनका स्वरूप नहीं कहा है
(१) पुरुष एवेद
इदमेव इत्यमेवेति धर्मिधर्मयोरभिनिवेश एकान्तः या नित्यमेवेनि । "
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जो द्रव्य व धर्म जो उसके स्वभाव उनको ठीक
ऐसी ही है । वस्तु धर्मरूप वा एकनि
भावार्थ
न समझकर यह न करना कि वस्तु यही है व अनेक स्वरूप अनेकात होते हुए भी उसे एक