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योगसार टीका। अणादि) संसारी जीव अनादि है (भव सायरु जि अणंत) संसारसागर भी अनादि अनन्त है (मिच्छादसणमोहिया) मिथ्यादर्शन कर्मके कारण मोही होता हुआ जीव (सुहण चि दक्ख जि पत्तु) सुख नहीं पाता है, दुःख ही पाता है ।
भावार्थ-कालका चक्र अनादिम चला आ रहा है। हरसमय भूत भात्री वर्तमान तीनों काल पाए जाते हैं, कभी ऐसा सम्भव नहीं है कि काल नहीं था। जब काल अनादि है तब कालके भीतर काम करनेवाले संसारी जीव भी अनादि हैं। जीव कभी नवीन पैदा नहीं हुए । प्रवाहरूपसे चले ही आरहे हैं। वास्तवमें यह जगत जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल इन छः सत् द्रव्यांका समुदाय है । ये द्रव्य अनादि हैं तत्र यह जगत भी अनादि है । जगतमें प्रत्यक्ष प्रगट है कि कोई अवस्था किसी अवस्थाको बिगाड़कर लेती है परंतु जिसमें अवस्था होती है अह बना रहता है । सुवर्णकी उलीको गलाकर कड़ा बनाया गया, तब डलीकी अवस्था सिटी, कड़की अवस्था पैदा हुई, परंतु सुवर्ण बना रहा । कभी कोई सुवर्णका लोप नहीं कर सक्ता हैं। सुवर्ण पुद्गलक परमाणुओंका समुह है, परमाणु सब अनादि हैं।
संसारी जीत्र अनादिस संसारमें पाप-पुण्यको भोगता हुआ भ्रमण कररहा है। कभी यह जीव शुद्धधा फिर अशुद्ध हुआ ऐसा नहीं है। कार्मण और तैजस शरीरीका संयोग अनादिसे हैं, यद्यपि उनमें नाए स्कंध मिलते हैं, पुराने स्कंध छूटते हैं। इसलिये संसारीजीवोंका संसार-भ्रमणरूप संसार भी अनादि है। तथा यदि इसीतरह यह जीव कर्मबन्ध करता हुआ भ्रमण करता रहा तो यह संसार उस मोही अज्ञानी जीवके लिये अनन्त कालतक रहेगा । मिथ्यादर्शन नामकर्मके उदयसे यह संसारीजीव अपने आत्माके सधे स्वरूपको