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योगसार टीका।
[१९ भूल रहा है, इसलिये कभी सचे सुम्पको नहीं पहचाना, केवल इंद्रियोके द्वारा वर्तता हुआ कमी मुख, कभी दुःख उठाता रहा । इंद्रिय सुख भी आकुलताका कारण है व नागाबद्धक है, इसलिये दुःखरूप ही है।
मोहनीय कर्मके दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीयका एक भेद मिथ्यात्त्रकर्म है । चारित्रमोहनीयके भेदोंमें चार अनंतानुबन्धी कषाय है । इन पांच प्रकृतियोंके उदय या फलके कारण यह संसारीजीव मोही, मूह, बहिरात्मा, अज्ञानी, संसारासक्तः, पर्यायरत, उन्मत्त व मिथ्यापि होरहा है । इसके भीतर मिथ्याच भाव अन्धेरा किये हार है, जिसमें सम्पन्दर्शन गुणका प्रकाश रुक बहा है | मिथ्यातभाव दो प्रकारका हैं- एक अग्रहीत, दूसरा ग्रहीत । अग्रहीत मिथ्यात्व वह है जो प्रमादमे विभाव रूप चला आरहा है। जिसके कारण यह जीव जिस शरीरको पाता है उसमें ही आपापन मान लेता है। शरीरके जन्मको अपना जन्म, शरीरके मरताको अपना मरण, शरीरकी स्थितिको अपनी स्थिति मान रहा है। शरीरसे भिन्न मैं चेतन प्रभु हूं यह ग्वर इसे बिलकुल नहीं है । काँक उदयसे जो भावोंमें क्रोध, मान, माया, लोभ या राग द्वेष मोह होते हैं उन भायोंको अपना मानता है । में क्रोधी, मैं मायावी, मैं लोभी, मैं रागी, मैं ढेपी, मैं मोही, इसी तरह पाप पुण्यके उदयसे शरीरकी अच्छी या बुरी अवस्था होती है. उसे अपनी ही अच्छी या बुरी अवस्था मान लेता है। जो धन, कुटुम्ब, मकान, भूषण, उम्म आदि परद्रव्य हैं उनको अपना मान लेता है। इसतरह नाशवंत कर्मोदयकी भीतरी व बाहरी अवस्थाओंमें अहंकार में ममकार करता रहता है।
अपने स्वभावमें अहंधुद्धि व अपने गुणोंमें ममता माव बिल