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यागसार टीका। · श्री अमृतचन्द्राचार्य पुरुपार्थसिद्धयुषाय ग्रंथमें कहते हैं
नित्यमपि निरूपलेपः म्वरूपसमवस्थितो निरूपयातः । गगनमिव परमपुरुषः परमपदे म्फुरति विशदतमः ॥ २२३ ।। कृतकृत्यः परमपदे परमात्मः कलविषयविषयाःनः । परमानन्दनिमग्नो ज्ञानम्यो नन्दति सदेव ।।२।।
भावार्थ-स्म पुरुष मोक्ष परम पदमं सदा ही कर्मक लेएरहित व बाधारहित अपने बरूपमें स्थिर आकाशक समान परम निर्मल प्रकाशमान रहते हैं । वह परमात्मा अपने परम पदमें कृतकृत्य व सब जाननेयोग्र विषयोंक झाता व परमानन्दमें मगन सदा ही आनन्दका भोग करते रहते हैं । श्री समन्तभद्राचार्य रत्नकरण्डारकाचाग्में कहते हैं
मजरमाचा शाकमयम ! काठागतानुग्न विद्याविभव विज मन दनणा: :०॥
भावार्थ-लन्यग्रूटी महात्म” परम आनन्द व परम ज्ञानको विभूतिमे पूर्ण शिवपदको बने हैं. जहा जरा नहीं. न अप नहीं, बाधा नहीं. रोक नहीं, मल नहीं का नहीं रहती है :
भी योगेन्द्र चाय संसो बरामी ब मोक्षपट-अनुफ प्रशियोंके लिये आमाका स्वभाव समायो । क्योंकि अरसा जन ही आत्मानुभव होम में, गई मोक्षका उपाय है :
मिथ्यादर्शन संभारका कारण है। कालु अभाइ अपाजीर भवसायक जि अणतु । मिच्छादसण्वमोहियड प के मुह दुक्त जि पत्तु ॥४|| अन्वयार्थ--(कालु अणाइ) काल अनादि है (जित