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तृतीय विभाग ३. योग ऊर्जा और स्वरूप दर्शन
११७-१५७ अध्याय
पृष्ठांक १. साधना की फलश्रुति जड़-चैतन्य का विवेक ज्ञान
११७-१२४. ज्ञान योग-ज्ञानयोग का स्वरूप, ज्ञान की कसौटी, ज्ञान के भेद, ज्ञान
योग का फल । २. साधना की चरमावस्था प्रीति, अनुराग, भाव-भक्ति
१२५-१३२ भक्तियोग, भक्ति शब्दार्थ, भक्ति के पर्यायवाची शब्द, भक्ति और ज्ञान, भक्तियोग का महत्त्व, भक्ति योग का परिणाम, अरिहंत भक्ति
से बोधिलाभ की प्राप्ति, भक्ति की अचिन्त्य शक्ति, भक्ति के प्रकार । ३. प्रवृत्ति का परिणमन बन्ध हेतु का कारण
१३३-१४० कर्मयोग, कर्म का अर्थ, कर्म बन्ध के हेतु, कर्म के हेतु-भाव और द्रव्य, कर्म के हेतु-आश्रव, मिथ्यात्व; अविरति, प्रमाद, कषाय, योग, क्रिया
और ध्यान, क्रिया का अभाव, कर्मयोग और ज्ञानयोग से होने वाली
स्थितियाँ, क्रिया-योग का स्वरूप । ४. साधना का केन्द्रबिन्दु आश्रव निरोध-संवर
१४१-१४६ संवर योग, संवर शब्दार्थ, संवर की परिभाषा, संवर साधना और प्रक्रिया, संवर के कारण । आचार संविधा का प्राण विधानों में
१४७-१५२ आज्ञायोग, आज्ञायोग क्या है ? आज्ञायोग की चिन्तन विधि, आज्ञायोग ही धर्म है, जिनाज्ञा ज्ञेय स्वरूप में विरोधी पाँच हेतु, विधि
सेवन से लाभ, अविधि के सेवन से महा अकल्याण । ६. तनाव मुक्ति का परम उपाय आंतरिक दोषों की आवश्यक आलोचना
१५३-१५७ आवश्यक.योग, आवश्यक किसे कहते हैं ?, आवश्यक के पर्याय, सामायिक योग, चतुर्विंशतिस्तवयोग, वंदनयोग, प्रतिक्रमण योग, कायोत्सर्ग योग, कायोत्सर्ग से प्राप्त लाभ, प्रत्याख्यान आवश्यक ।