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१७६ / योग-प्रयोग-अयोग
चित्राचित्र भक्ति
कोष्ठक नं. १५
देव
भक्त
लक्षण
चित्र भक्ति
अचित्र भक्ति लोकपालादि संसारी देव. मुक्त परमात्मा संसारीदेव कायगामी, भवाभि- संसारातीत अर्थगामी, भवभोग नंदी संसारासक्त । विरक्त मुमुक्षु मोहगर्भित होने से इष्टदेव में असंमोह भाव के कारण समसार राग, अनिष्ट में द्वेष । . पूर्ण समभाव १. संसारिदेव के चित्रस्थान के सदाशिव परब्रह्म, सिद्धात्मा साधन उपाय चित्र, विचित्र । आदि नाम भेद फिर भी निर्वाण
तत्व का २. चित्र आशय से चित्र फलभेद परम पद का अभेद स्वरूप संसार । ।
मोक्ष
चित्राचित्र
कारण
फल
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४. दीप्रादृष्टि कोष्ठक.नं. १६
प्रथम
प्रकाश
दर्शन योगांग दोषत्याग गुणप्राप्ति अन्यान्य विशेषता गुणस्थान दीप प्रभा उत्कृष्ट प्रीति उत्थान श्रवण
संसाराभिमुख सम दिव्य प्राणायाम निर्मलता धर्म के प्रति शक्ति मालिन्य ।
स्थिर एकाग्रता प्रीति तन्मयता अतात्त्विक सत् मिश्र
असत प्रवृत्ति ५. स्थिरादृष्टि
पाँचवीं दृष्टि, ग्रंथि भेद-अर्थात् राग, द्वेष इत्यादि के परिणामस्वरूप तीव्र कर्मगांठ के निर्जरित होने पर सम्यक दृष्टि प्राप्त होने पर होती है। इसकी उपमा रत्न के प्रकाश से दी गई है। रत्न का प्रकाश पराधारित नहीं होता स्वाधीन तथा स्थायी होता है। उसी प्रकार इस दृष्टि में बोध आत्मानुभव अर्थात् आत्मा और शरीर में क्या भेद है। इस भेद ज्ञान के सन्मुख होता है। फलतः साधक के कषाय शान्त होने के