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१७८ / योग-प्रयोग-अयोग
कान्ता दृष्टि में स्थित साधक की आचार विशुद्धि, एकाग्रचित विशुद्धि और देहातीत बुद्धि होती है।
क्योंकि नित्य मीमांसा गुण की प्राप्ति होने से साधक को किसी प्रकार का मोह संभव नहीं होता अर्थात् सम्यग्दृष्टि साधक को दर्शन मोह का तो सर्वथा क्षय ही होता है और योग की ओर जैसे विकास क्रम में संवर्धन होता है वैसे चारित्र मोहनीय का भी क्रमशः क्षय होता रहता है। इस प्रकार यहाँ साधक को प्रायः मोह का अभाव होता है। आत्मसंप्रेक्षण होने से यहाँ साधक षट्पद मीमांसा का निरन्तर चिन्तन करता रहता है। जैसे-(१) आत्मा है, (२) आत्मनित्य है, (३) आत्मा कर्ता है, (४) आत्मा भोक्ता है, (५) मोक्षपद है और (६) मोक्ष का उपाय है।
कान्ता दृष्टि कोष्ठक नं. १८
दर्शन-तारा समान
अन्यमुद् चित्त दोषत्याग योगांग-धारणा
मीमांसा-गुण प्राप्ति ७. प्रभादृष्टि
प्रभादृष्टि से बोध सूर्य की प्रभा के समान होता है। जो लम्बे समय तक अतिस्पष्ट रहता है।
यहाँ तत्वबोध अति सूक्ष्म होने से प्रतिपत्ति गुण प्राप्त होता है। अतः तत्व परिणति अत्यन्त सूक्ष्म एवं श्लाघनीय होती है।
कान्ता दृष्टि में साधक मीमांसा अर्थात् तत्व विचारणा तक सीमित था। किन्तु प्रभादृष्टि में योग प्रवृत्ति वर्द्धमान होती है। अतः यहाँ स्वानुभव की प्राप्ति होती है ।१३ आभ्यंतर और बाह्य समस्त व्याधियों का यहाँ उच्छेद हो जाता है। चित्त की अपूर्व स्थिरता प्राप्त होती है। ध्यान में एकाग्रता बढ़ती है। इस ध्यान में साधक विषय वासना पर विजय प्राप्त कर सकता है। तथा विवेक ज्ञान, सामर्थ्य योग और विरति को प्राप्त कर सकता है।
किसी एक पदार्थ पर अंतर्मुहूर्त पर्यन्त होने वाली चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं। धारणा में चित्तवृत्ति की स्थिरता एक देशीय तथा अल्पकालीन होती है। जब
१३. प्रवचन सार टीका गा. ७१