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योग-प्रयोग-अयोग/२११
स्पन्दनों की तरंगें अति सूक्ष्म होती हैं । वे अध्यवसाय तक पहुँचती हैं और विविध रूपों में तरंगित होती हैं । ये तरंगें सघन बनकर संस्कार के रूप में जमा होती हैं । तरंग का सघन रूप संस्कार है और संस्कार का सघन रूप क्रिया है, जो मानसिक चंचलता को समाप्त होने नहीं देती। फिर शुद्ध भाव,शुद्ध लेश्या, शुद्ध अध्यवसाय, शुद्धयोग कैसे हो सकते हैं ? उपाय है एकमात्र साधना का । साधना द्वारा कषाय मंद होती है । मन सधता है और किसी एक पदार्थ पर केन्द्रित होता है।
मन जहाँ भी, जिस विषय में केन्द्रित होता है उस विषय का 'ध्यान' होता है। इसलिए 'ध्यान' का प्रथम अर्थ है मन का किसी एक विषय में स्थिर होना। तत्त्वार्थ में परिस्पंदन से रहित एकाग्रचित्त का निरोध ध्यान कहा है। और उसे ही निर्जरा एवं संवर का कारण माना है। इस प्रकार अन्य क्रियाओं से हटाकर एक विषय में स्थिर होना एकाग्रचिन्ता निरोध हैं ऐसा ध्यान संचित कर्मों की निर्जरा तथा नये कर्मों के आश्रव को रोकने रूप संवर से होता है। अतः एकाग्र ध्यान में संवर और निर्जरा की उभय शक्ति विद्यमान है।
"एकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानम्" इस ध्यान लक्षणात्मक वाक्य में एक शब्द संख्यापरक होने के साथ-साथ यहाँ पर प्रधान अर्थ में विक्षिप्त हैं और व्यग्रता की विनिवृत्ति के लिये आवश्यक है। ज्ञान व्यग्र होता है किन्तु ध्यान व्यग्र नहीं होता है। अर्थात् एकाग्रता से चिन्ता का निरोध होता है और वह ध्यान है। ऐसे ध्यान का अधिकारी उत्तम संहननवाला छद्मस्थ साधक होता है। वह अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही हो सकता है। योग निरोध यह जिनों का ध्यान है। यहाँ एकाग्र श.मानसिक व्यग्रता की निवृत्ति का द्योतक है। उत्तम संहनन वाला साधक ही ऐसा समर्थ हाता है जो अंतर्मुहूर्त में एकाग्रतापूर्वक चिन्ता से निवृत्त हो सकता है। अन्य संहनन वालों की धैर्यता इस विषय में असमर्थ होती है।
क्यों कि मन का स्वभाव चंचल है, प्रारम्भावस्था में मन को स्थिर करने का अभ्यास करना चाहिए। अभ्यस्थ दशा में विषयों में प्रवृत्त चित्त किसी एक विषय में निःप्रकंप वायुरहित ध्यान में स्थित दीपशिखा की तरह निश्चल हो जाता है, ऐसा ध्यान उत्तम संहनन वाले साधक में ही संभव है। जिसका काल परिमाण अन्तर्मुहूर्त स्थित होता है और बारहवें गुणस्थान तक रहता है।
११. सर्वार्थसिद्धि - ९-२७ १२. तत्त्वार्थ वार्तिक - ९/२७/२ १३. तत्त्वार्थ वार्तिक - ९/२७/२ १४. स्थिर प्रदीप सदशं - योगबिन्दु गा ३६२