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योग-प्रयोग-अयोग/२२५
अंतरंग चिह्न
शुभ योग, चित्त स्थैर्य, ज्ञान की रुचि, प्रताति, श्रद्धा, अनुप्रेक्षाएँ तथा शुभ भावनाएँ ध्यान का अन्तरंग चिह्न हैं।
धर्मध्यान का फल फल
धर्मध्यान से संवर, निर्जरा तथा शुभ योग परम्परा की प्राप्ति होती है। शील और संयम से युक्त योगी धर्मध्यान में स्थित होने से पुण्यानुबन्धी पुण्य का उपार्जन करता है, बोधिलाभ की प्राप्ति करता है, तथा असंक्लिष्ट भोग का उपभोग करता है। फलतः अनासक्त भाव, प्रव्रज्या और परम्परागत कैवल्यज्ञान की प्राप्ति एवं मोक्ष का शाश्वत सुख प्राप्त करता है। यह धर्मध्यान का फल है।
ध्येय तत्व ध्यान द्वारा ध्येय तत्त्व सिद्ध होता है । ध्येय तत्त्व सालम्बन (आलम्बन सहित) निरालम्बन (आलम्बन रहित) रूप से दो प्रकार का है - १. सालम्बन ध्यान
(१) पिण्डस्थ-शारीरिक-चक्र, श्वास, नाड़ीतन्त्र, प्राणवायु आदि का ध्यान (२) पदस्थ-मंत्रादि पदों का, अक्षरों का, यन्त्रों का ध्यान ।
(३) रूपस्थ-पद, आकार आदि के रूप को देखना । २. निरालम्बन ध्यान (४) रूपातीत -
कुछ भी न करमा केवल ज्ञाता दृष्टाभाव । पिण्ड अर्थात् ध्याता का शरीर और स्थ अर्थात् आत्मा। शरीर और आत्मा का विवेक ज्ञान जैसे-शरीर में ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक की कल्पना करके ललाट पर आज्ञाचक्र के स्थान पर श्वेत या रक्त किरणों से दैदीप्यमान सिद्ध शिला पर स्थित सिद्ध भगवान् का ध्यान करना । इस ध्यान की अनेक धारणाएँ भी हैं जैसे-पार्थिवी, आग्नेयी, मारुति, वारुणी इत्यादि ।
५१. शुचिगुणयोगाच्छुक्लम सर्वार्थसिद्धि अ. ९/सू. २८ (पृ. ४४५)