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योग-प्रयोग-अयोग/२२३
विपाक-विचय कर्मों के फलों को विपाक कहते हैं । कर्म का फल क्या है ? फल तीव्र है या मंद है? कौन-सा कर्म कितने समय तक स्थिर रहता है ? ज्ञानादि को कौन-सा कर्म स्थिर करता है ? शुभ और अशुभ कर्मों में बाधक और साधक कर्म कौन से होते हैं ।४२– इत्यादि प्रकृति आदि विपाक का विचिन्तन विपाक-विचय धर्मध्यान है।४३ संस्थान - विचय
संस्थान का अर्थ है आकार । जैसे लोक के आकार एवं स्वरूप का चिन्तन करना, धर्मास्तिकायादि द्रव्यों का लक्षण, आकृति, आधार, प्रकार प्रमाण कितना है? स्वर्ग-नरक कहाँ है ? उनका क्या स्वरूप है ? जड़-चैतन्य में क्या अन्तर है ? नये प्रमाण का क्या रहस्य है ? स्याद्वाद का क्या तात्पर्य है ? संसार परिवर्तनशील क्यों है? इत्यादि अनादि अनन्त, किन्तु उत्पाद, व्यय और धौव्य - परिणामी नित्य स्वरूप वाले लोक सम्बन्धी तात्त्विक विवेचन में तल्लीन हो जाना संस्थानविचय धर्मध्यान है। ४५ धर्मध्यान के अधिकारी
धर्मध्यान के अधिकारियों में श्वेताम्बर और दिगंबर मान्यता में विभिन्नता विलक्षित होती है । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार धर्ममप्रमत्तसंयतस्य के आधार पर सात से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के छहों गुणस्थानों में धर्मध्यान के अधिकारी हैं ।
अतः इस बीच में कभी शुभ अध्यवसाय के योग से धर्मध्यान हो जाता है। यहाँ जो धर्मध्यान का ध्याता है वह उत्तम, मध्यम और जघन्य के रूप में तीन प्रकार के हैं। उत्तम प्रकार के ध्याता प्रमत्तसंयत से अप्रमत्तसंयत में पहुँच जाता है अतः उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है। जघन्य ध्याता निकृष्ट होने से अस्पष्ट है। मध्यम ध्याता का लक्षण इन्द्रिय तथा मन का निग्रह करने वाला होता है। ध्याता के ९ प्रकार १. तच्चित्त
= सामान्योपयोग रूप चित्तवाला २. तन्मय
= विशेषोपयोग रूप मन वाला ३. तल्लेश्य
= शुभ परिणामरूप लेश्यावाला
४२. प्रशमरति - मा. २४९ पृ. १७३ ४३. ध्यानशतक - गा. ५१, पृ. १८०, अध्यात्मसार - गा. ६१५ पृ. ३५४ ४४. ध्यानशतक - गा. ५२ ४५. योगशास्त्र - १०/१४ ४६. तत्त्वार्थसूत्र, ९/३७