Book Title: Yog Prayog Ayog
Author(s): Muktiprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 279
________________ २३४ / योग-प्रयोग-अयोग ___ अन्तिम दो प्रकार के शुक्ल-ध्यान समस्त दोर्षों का क्षय करने वाले अर्थात् वीतराग सर्वज्ञ और सर्वदर्शी केवली में ही पाए जाते हैं। शुक्लध्यान की लेश्या शुक्लध्यान के प्रथम चरण और द्वितीय चरण में शुक्ललेश्या होती है । शुक्लध्यान के तृतीय चरण में परम शुक्ललेश्या मेरुवत् निश्चल है तथा चतुर्थ चरण लेश्यातीत है। अतः यहाँ लेश्या को अवकाश नहीं । ६५ शुक्लध्यान का फल शुक्लध्यान के दो चरण - १. पृथक्त्व-वितर्क सविचार और एकत्व-वितर्कअविचार इन दोनों में शुभ आस्रव होता है और इस शुभ आसव से अनुत्तर विमान पर्यंत के सुख की प्राप्ति होती है। शुक्लध्यान के अंतिम दो चरण तो केवलज्ञानी को होता है अतः यहाँ संवर और कर्म की निर्जरा होने से फलस्वरूप मोक्ष गमन ही है।६६ शुक्लध्यान के अधिकारी शुक्लध्यान के अधिकारियों का कथन दो प्रकार से किया गया है, एक तो गुणस्थान की अपेक्षा से और दूसरा योग की अपेक्षा से। .. गुणस्थान की अपेक्षा से शुक्लध्यान के चार भेदों में से प्रथम के दो भेदों के अधिकारी ग्यारहवे और बारहवें गुणस्थान वाले साधक होते हैं, उसमें भी पूर्वधर ही होते हैं ६"पूर्वधर' इस विशेषण की विशेषता यह है कि जो पूर्वधर नहीं है पर ग्यारह आदि अंगों का धारक है वहाँ ग्यारहवें बारहवें गुणस्थान में शुक्लध्यान न होकर धर्मध्यान ही होता है। यहाँ पूर्वधर श्रुतकेवंली को शुक्लध्यान होता है ऐसा कहा है। इस सामान्य विधान का एक अपवाद भी है और वह यह कि पूर्वधर न हो ऐसी आत्माओं - जैसे माषतुष मरुदेवी आदि को भी शुक्लध्यान संभव है। शुक्लध्यान के अंतिम दो भेदों के अधिकारी सिर्फ केवली अर्थात् तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान वाले होते हैं ।६८ १. योग की दृष्टि से मन, वचन और काय इन तीनों योग का धारक साधक को शुक्ल ध्यान का प्रथम प्रकार 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' होता है। ६५. ध्यानशतक - गा. ८९ पृ.३०१ ६६. ध्यानशतक - गा. ९४, पृ.३०७. ६७. शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः तत्त्वार्थ ९/३९ ६८. परे केवलिनः - तत्त्वार्थ ९/४०

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