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योग-प्रयोग-अयोग/२५५
मंत्र जागृति अर्हत-कर्ण से नमस्कार मन्त्र की ध्वनि सुनकर दिव्य श्रवण की जागृति । सिद्ध-आँखों से नमस्कार मन्त्र का पान कर दिव्य दर्शन की जागृति । आचार्य-नाम से पंचाचार की पवित्र सुगंध फैलाकर दिव्य सुगंध की जागृति । उपाध्याय-जिह्वा से सत्य पीयूष रस पान कर दिव्य रस की जागृति । साधु-स्पर्श से सम्पूर्ण जगत में शुभ परमाणु का दिव्य भाव-स्पर्श की जागृति।
कुण्डलिनी योग जैनागमों में कुण्डली शब्द का प्रयोग तेजोलेश्या के नाम से प्रसिद्ध था । उत्तरवर्ती साहित्यों में इसका प्रयोग भिन्न-भिन्न शब्दों में पाया जाता है। जैसे सिद्धमातृकाभिधर्म प्रकरण में इसे शक्ति, पराकुंडलिनी तथा भक्ति कहा है।
अध्यात्म मातृका में नागिणी, बहुरूपिणी, जोगिणी आदि शब्दों से भी प्रसिद्ध है। गुणस्थान कमारोह में प्राणशक्ति, कला आदि और योगप्रदीपिका ग्रंथ में कुटिलोगी, भुजंगी, ईश्वरी, अरुंधती तथा कलावती अर्थ में प्रयुक्त हुई है। सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में प्रवण, गुदनाला, नलिनी, सर्पिणी, बंकनाली, क्षया सौरी, कुंडला इत्यादि रूप में मिलती है किन्तु भलि शब्द का प्रयोग सभी साहित्य में मिलता है।
हमारे स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर सम्पूर्ण स्थान पर व्याप्त है। सूक्ष्म शरीर में विद्युत, प्रकाश और ताप तीनों शक्तियाँ विद्यमान हैं। इसे तैजस शरीर कहते हैं । यह शरीर सूक्ष्म होने से अदृश्य होता है, ज्ञान, ध्यान, तप, संयम, वैराग्य आदि द्वारा इस शरीर का विकास होता है उसे तेजोलेश्या या तेजोलब्धि कहा जाता है। जो कार्य कुंडलिनी जागृत होने पर होता है वही कार्य तैजसशरीर, तेजोलेश्या या तेजोलब्धि का होता है। तपोजनित तैजस शरीर में अनुग्रह और निग्रह करने की शक्ति प्रकट होती है। इस शक्ति के प्रयोग को जैन दर्शन में तैजस समुद्घात कहते हैं ।
जब मन्त्र का ध्यान किया जाता है, तब गात्र में कम्पन का अनुभव होना चाहिये। कंपन शक्ति के सक्रिय होने पर हुआ करता है, और उस कंपन में "दिव्यानन्द की लहरें" प्रवाहित होती हुई अनुभव में आती हैं जिससे सिर में "आत्मानन्द की मस्ती प्रदान करने वाला नशा-सा चढ़ जाता है। मन्त्र चैतन्य का अर्थमन्त्र प्रयोग द्वारा शक्ति का जागरण कही समझना चाहिये। कुण्डलिनी शक्ति के जागने पर शरीर की जड़ता, आलस्य, भारीपन इत्यादि दोष तत्क्षण दूर हो जाते हैं और वह परमात्मा के अनुग्रह का पात्र हो जाता है।