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२३६ / योग-प्रयोग-अयोग
उसका उत्तर यह है कि यहाँ ध्यानरूपता की शुद्धता अनुमान प्रयोग से सिद्ध की जा सकती है। अनुमान में पक्ष, साध्य, हेतु तथा दृष्टांत ये चार हेतुओं की आवश्यकता होती है। भवस्थ केवली की सूक्ष्म क्रिया और व्युपरत क्रिया ये दो अवस्था पक्ष हैं।७१
ध्यानरूपता यह साध्य है और बाकी के चार हेतु जैसे१. पूर्व प्रयोग होने से २. कर्म-निजरा का हेतु होने से ३. शब्द के अनेक अर्थ होने से
४. जिनेश्वर भगवन्त दा आगम कथन होने से तथा उसी के ही चार दृष्टान्त निम्नोक्त हैं -
१. जैसे कुम्हार का चक्र दण्ड आदि के अभाव में भी पूर्वाभ्यास से घूमता रहता है, उसी प्रकार योगों के अभाव में भी पूर्वाभ्यास के कारण अयोगी अवस्था में भी ध्यान होता है।
२. अयोगी केवली में उपयोग रूप भाव-मन विद्यमान है अतः उनमें ध्यान माना गया है।
३. जैसे पुत्र न होने पर भी पुत्र के योग्य कार्य करने वाला व्यक्ति पुत्र कहलाता है उसी प्रकार ध्यान का कार्य कर्म-निर्जरा है वहाँ यह भी विद्यमान है। अतः वहाँ भी ध्यान माना गया है।
४. एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । यहाँ "ध्यै" धातु जैसे चिन्तन अर्थ में है वैसे काय योग के निरोध अर्थ में भी हैं और अयोगित्व अर्थ में भी है, अतः अयोगित्व अर्थ के अनुसार अयोगी केवली में ध्यान का सद्भाव मानना उपयुक्त ही है।
ध्यानशतक-श्लो. ८५-८६ पृ. २९२ योगशास्त्र ११/१२ पृ. २६६