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योग-प्रयोग-अयोग/२३५
२. मन, वचन और काय इन तीन योग में से किसी एक योग के धारक साधक को द्वितीय एकत्व वितर्क निर्विचार नाम का शुक्लध्यान होता है।
३. मात्र काययोग का धारक कैवल्यज्ञानी को तृतीय सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान होता है।
४. योग रहित अर्थात् अयोगी केवली को चतुर्थ व्युपरत क्रिया निवृत्ति नाम का शुक्लध्यान होता है।
शुक्लध्यान के चार प्रकारों में प्रथम शुक्लध्यान अर्थात् पृथकत्व वितर्क-सविचार एक योग या तीनों योगवाले मुनियों को होता है। दूसरा शुक्लध्यान एकत्व वितर्क-निर्विचार अकयोग,वालों को ही होता है। तीसरा शुक्लध्यान सूक्ष्मक्रिया प्रतियाती सूक्ष्म काययोग वाले केवलि को होता है और चौथा समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति अयोगी केवलि को ही होता है ।६९ केवली और ध्यान
यहाँ प्रश्न होता है कि मन की स्थिरता को ध्यान कहते हैं परन्तु तीसरे और चौथे शुक्ल ध्यान के समय मन का अस्तित्व नहीं रहता है क्योंकि केवली भगवन्त अमनस्क होते हैं । ऐसी अवस्था में उन्हें ध्यान कैसे कहा जा सकता है ?
___ 'ध्यै' 'चिन्तायाम' धातु में 'ध्यै' से ध्यान शब्द का अर्थ मन से चिन्तन करना जैसा होता है किन्तु मन के बिना चिन्तन रूप ध्यान कैसे होता है ? - इसका समाधान इस प्रकार है कि यहाँ 'ध्यान' शब्द का अर्थ निश्चलता लिया। गया है फिर वह मन की निश्चलता हो या काया की निश्चलता हो किन्तु दोनों ध्यान स्वरूप हैं। ध्यान के विशेषज्ञ पुरुष जैसे छदमस्थ के मन की स्थिरता को ध्यान कहते हैं, उसी प्रकार केवली के काय की स्थिरता को भी ध्यान कहते हैं। क्योंकि, जैसे मन एक प्रकार का योग है, उसी प्रकार काय. भी एक योग है .७० अयोगी और ध्यान __ चौदहवें गुणस्थान में पहुँचते ही आत्मा तीनों योगों का निरोध कर लेती है। अतः अयोगी अवस्था में स्थित केवली में योग का सद्भाव नहीं रहता है, फिर भी वहाँ ध्यान का अस्तित्व माना गया है। उसका क्या कारण है ?
६९. ध्यानशतक - श्लो. ८३ पृ. २९०
योगशास्त्र - श्लो. ११/१० पृ. २६६ ७०. ध्यानशतक श्लो. ८४ पृ. २९२
योगशास्त्र ११/११ पृ. २६६