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योग-प्रयोग-अयोग/२३३
समुच्छिन्नक्रिया - अप्रतिपाती
शुक्लध्यान का चौथा रूप समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती है। यह ध्यान चौदहवें गुणस्थान में होता है। अयोगी अवस्था में मन वचन और काया तीनों स्थिर हो जाते हैं। उनकी सभी सूक्ष्म क्रियाएँ बंद हो जाती हैं, आत्मप्रदेश सर्वथा निःस्पन्द हो जाते हैं। वस्तुतः देखा जाय तो "सर्व संवर परिपूर्ण संयम" अयोगी अवस्था में ही होता है, और इसी अवस्था में मोक्ष की उपलब्धि होती है।
योगशास्त्र ११/९ में इस चतुर्थ ध्यान को 'उत्सन्न क्रिया - अप्रतिपाति' नाम दिया है। उनके अनुसार पर्वत की तरह निश्चल केवली भगवान जब शैलेशीकरण प्राप्त करते हैं, उस समय होने वाला शुक्ल-ध्यान उत्सन्न-क्रिया-अप्रतिपाति कहलाता
__ ज्ञानार्णव के अनुसार चौदहवें गुणस्थान में स्थित अयोगी केवली भगवन्त निर्मल, शान्त, निष्कलंक, निरामय और जन्ममरण रूप संसार के योगों से रहित है इसलिये अयोगी है।
सर्वार्थसिद्धि में चतुर्थ शुक्लध्यान को, प्राणायान के प्रचार रूप क्रिया का तथा सब प्रकार के काययोग, वचनयोग और मनोयोग के द्वारा होने वाली आत्मप्रदेश परिस्पन्द रूप क्रिया का उच्छेद हो जाने से समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति ध्यान कहा है।
भगवती आराधना में चतुर्थ शुक्लध्यान के विषय में वितर्क-विचारयोग और अनिवृत्ति आदि क्रियाओं से सहित और शैलेषी अवस्था सहित जो साधक होता है तथा औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरों का बन्ध नाश करने के लिए अयोगी केवली भगवान् समुच्छिन्न क्रिया निवृत्त नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याते
ध्यातव्य द्वार
यथाख्यात चारित्र में वीतरागता जागृत होती है, और वीतरागदशा में ही शुक्लध्यान होता है । इस ध्यान में मोहनीय कर्म सर्वथा क्षीण हो जाते हैं। शुक्लध्यान के ध्याता
चार प्रकार के शुक्लध्यानों में से पहले के दो ध्यान पूर्वगत श्रुत में प्रतिपादित अर्थ का अनुसरण करने के कारण श्रुतावलम्बी हैं। वे प्रायः पूर्वो के ज्ञाता छद्मस्थ योगियों को ही होते हैं तथा कभी-कभी वे विशिष्ट पूर्वधरों को भी हो जाते हैं।
६४. भगवती आराधना - १८८८. २१२३