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योग-प्रयोग- अयोग / २३९
यहाँ समता अर्थ में जो सामायिक शब्द का प्रयोग हुआ है वह भाव सामायिक के अर्थ में विलक्षण होता है। व्याकरण की दृष्टि से इसके प्रत्येक शब्द का भाव समतारस में परिपूर्ण होता है। सामायिक शब्द में, सम आय इक, तीन शब्द का समन्वय होता है। सम् अर्थात् रागद्वेष का अभावरूप माध्यस्थ परिणाम । आय अर्थात् ज्ञान-दर्शनचारित्र रूप लाभ | इक अर्थात् जो भाव होता है वह सामायिक कहलाता है।
भ्रदबाहु स्वामी के अनुसार जब साधक सावद्ययोग से निवृत्त होता है, छकाय जीवों के प्रति संयत होता है मन, वचन और काया से एकाग्र होता है, स्वस्वरूप में उपयुक्त होत है, यत्नपूर्वक विचार करता है, तब उस आत्मा को सामायिक कहा जाता है | ११
गोम्मटसार ग्रंथ के अनुसार परद्रव्य से निवृत्त साधक की ज्ञान चेतना जब आत्म-स्वरूप में प्रवृत्त होती है तब भाव सामायिक कही जाती है। रागद्वेष से रहित माध्यस्थ भावनायुक्त आत्मा सम कहलाता है। उस सम् में गमन करना भाव सामायिक
अणगार धर्मामृत ग्रंथ के अनुसार संसार के प्रत्येक प्राणी के प्रति मैत्रीभाव रखना | अशुभ परिणति का त्याग करके शुभ परिणिति में स्थित होना भाव सामायिक है। विशेषावश्यक भाष्य भी सामायिक का प्रभुत्व परिलक्षित होता है। जैसे
जिस साधक की आत्मा संयम में, नियम में तथा तप में लीन है, उनको वास्तविक सामायिक व्रत होता है। जैसे कैवल्यज्ञानी भगवन्त आत्मस्वरूप का निरोध करने वाले रागादि अंधकार का नाश सामायिकरूपी सूर्य से करते हैं। क्योंकि प्रत्येक आत्मा में स्वाभाविक रूप में परमात्मस्वरूप निहित है ।१३ जिस स्वरूप को योगी पुरुष जानते और देखते रहते हैं। वास्तव में सभी आत्मा परमात्मस्वरूप ही हैं। प्रत्येक आत्मा में कैवल्यज्ञान का अंश निहित है। आगम में परम महर्षियों ने कहा है
" सव्वजीवाणं पिं अणं अक्खरस्साणंतभागो निच्चुग्घाडियों चेवा ।
अर्थात् सभी जीवों में अक्षर का अंतवाँ भाग नित्य अनावृत्त खुला रहता है। सिर्फ गादि दोषों से कलुषित होने के कारणं ही आत्मा में साक्षात् परमात्मस्वरूप प्रगट नहीं होता। सामायिक रूपी सूर्य का प्रकाश होने से रागादि अंधकार दूर हो जाता है और आत्मा में परमात्म स्वरूप प्रगट हो जाता है ।
यही भाव प्रवचनसार में भी प्राप्त होते हैं, जैसे अज्ञानी साधक लाखों करोड़ों
११. आवश्यक नियुक्ति अन्तर्गत मूलभाष्य गा. १४९, पत्र ३२७/१
१२. गोम्मटसार जीवकाण्ड टीका गा. ३६८
१३. प्रवचन सार -३-३१