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२३२ / योग-प्रयोग-अयोग
परन्तु कभी किसी को पूर्वगत श्रुत के अभाव में अन्यश्रुत के आधार से भी हो सकता है। पहले प्रकार के शुक्लध्यान में शब्द, अर्थ और योगों का संक्रमण होता रहता है, और दूसरे में स्थिरता होती है। प्रथम शुक्ल-ध्यान में एक द्रव्य में विभिन्न पर्यायों का चिन्तन होता है, दूसरे में एक ही पर्याय को ध्येय बनाया जाता है। इस प्रकार प्रथम और द्वितीय शुक्ल ध्यान में विकल्प और निर्विकल्प का अंतर पाया जाता है । ६२
यहाँ एकत्व शब्द का प्रयोग चिन्तनात्मक है।
दो ध्यान तक मूर्छा का क्रम टूटता रहा। तृतीय ध्यान में मूर्छा समाप्त हो जाती है- साधक समाज में है फिर भी अकेला है, परिवार में है फिर भी अकेला है। हर प्रकार की प्रवृत्ति करता है फिर भी अकेला है । यहाँ साधक एकत्व भावना का अधिकारी होता है। मूर्छा तो द्वन्द्व में है, एकत्व में नहीं ; भोग में है ; योग में नहीं ; सुख-दुख की परिधि में है, शान्ति में नहीं। वितर्क शब्द से यहाँ सारा तर्क निष्प्राण है, अतः योग का स्फुरन, स्पंदन यहाँ समाप्त होते हैं । इस ध्यान में चिन्तन की आवश्यकता ही नहीं । यहाँ साधक निर्विकल्पसमाधि में स्थिर रहता है । अतः निर्विकल्प के स्थान पर अविचार शब्द का प्रयोग है।
द्वितीय ध्यान में निर्विकल्प होते ही, केवलज्ञान केवलदर्शन में स्थित होते हैं।
यहाँ पहुँचा हुआ साधक - अकम्मे जाणइ - अर्थात् अकर्म वान, जानने और देखने की दो ही क्रिया करता है। ये दोनों क्रियाएँ निरन्तर चलने से अतिसूक्ष्म होती है। यहाँ से साधक तृतीय चरण में प्रयाण करता है। सूक्ष्मालिया प्रतिपाती-ध्यान
शुक्लध्यान का, तीसरा चरण है सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती । चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करने से पहले आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर जब केवली भगवान मन और वचन इन दो योगों का सर्वथा निरोध कर लेते हैं और काय योग के निरोध में केवली भगवान की कायिकी उच्छवास आदि सूक्ष्म क्रिया ही रहती है। यहाँ योग निरोध क्रम से स्थूल काययोग द्वारा मन और वचन के स्थूल योग को सूक्ष्म बनाया जाता है। पश्चात् मत और वचन के सूक्ष्मयोग से शरीर का स्थूल योग सूक्ष्म बनाया जाता है। काय के सूक्ष्म योग से मन और वचन के सूक्ष्म योग का भी निरोध किया जाता है यह प्रक्रिया तेरहवें गुणस्थान में ही होती है।
६२. योगशास्त्र - ११ - ७ - २६५ ६३. राजवर्तिक -:१/४४/१/६३४/३१