Book Title: Yog Prayog Ayog
Author(s): Muktiprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 275
________________ २३०/योग-प्रयोग-अयोग शुक्लध्यान ध्यान में तल्लीन योगी जब ध्यानावस्था में पारंगत हो जाता है तब उसकी राग, द्वेष आदि वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं और निर्विकल्प समाधि प्राप्त हो जाती है। उस अवस्था विशेष को जैन दर्शन में शुक्लध्यान कहते हैं। इसकी भी उत्तरोत्तर वृद्धिगत चार श्रेणियाँ होती हैं । प्रथम श्रेणी में बुद्धिपूर्वक ही ज्ञान में श्रेय पदार्थों की तथा योग वृत्तियों की संक्रान्ति होती रहती है, पश्चात् अन्य श्रेणियों में इसको भी स्थान नहीं है, यह ध्यान रत्न दीपक की ज्योति की भांति निष्कंप होता है अर्थात् इस ध्यान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। शुक्लध्यान का लक्षण ___ शुक्ल अर्थात् शुद्ध निर्मल तथा श्वेत । जिसमें सुचि गुण सम्बन्ध होता है, वह शुक्ल कहलाता है ।५२ जैसे मैल हट जाने से वस्त्र सूचि होकर शुक्ल कहलाता है उसी तरह निर्मल गुणयुक्त आत्म-परिणति को शुक्ल कहते हैं ।५३ आत्मा की विशुद्ध परिणति से रागादि विकल्प टूट जाते हैं और स्वसवेदनात्मक ज्ञान प्राप्त होता है, आगम भाषा में इस ज्ञान को शुक्लध्यान कहा है ।५४ द्रव्य संग्रह में आचार्य नेमिचन्द्र ने भी निजशुद्धात्मा में विकल्प रहित समाधि को शुक्ल ध्यान कहा है।५५ वृत्तियों के परिवर्तन से गुणों की विशुद्धता होती है, कर्मों का क्षय और उपशम होता है तथा लेश्या शुक्ल होती है। उसे योगियों ने शुक्लध्यान कहा है।"नियमसार गा. १२३ में शुक्लध्यान का स्वरूप निश्चय रूप में प्राप्त होता है। यहाँ ध्याता-ध्येय तथा ध्यान का फल विकल्पों से विमुक्त अन्तर्मुखी तथा परम तत्व में अविचल स्थिति में प्राप्त होता है। तत्वानुशासन गा. २२२ में इस ध्यान को वैडुर्यमणि की शिखा के समान सुनिर्मल और निष्कंप कहा है। कषाय के क्षय या उपशम से आत्मा में सुनिर्मल परिणाम होते हैं । उसे ही शुक्लध्यान कहते हैं । ५२. राजवार्तिक ९/२८/४/६२७/३१ ५३. प्रवचन सार ता. वृ. ८/१२ ५४. द्रव्यसंग्रह टीका - गा. ४८, पृ. २०५ ५५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. ४८३ ५६. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. ४८३

Loading...

Page Navigation
1 ... 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314