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२२४ / योग- प्रयोग-अयोग
४. तदध्यवसित
= क्रिया को संपादित करने में दृढ़ निश्चय और
प्रवर्धमान उत्साह अथवा निश्चय वाला। ५. तत्तीव्राध्यवसान
= प्रारम्भ से ही प्रतिक्षण प्रकर्षित होने वाला ६. तदर्थोपयुक्त
= अत्यन्त प्रशस्त संवेग से विशुद्ध और अर्थोपयोग से
युक्त हो । ७. तदर्पिकरण
= मन, वचन और कायरूप कारणों की समर्पितता हो। ८. तदभावना भावित = भावना से भावित हो । ९. अन्य स्थान से रहित स्व में स्थित मन वाला = प्रस्तुत ध्यानादि क्रिया से भिन्न मन कहीं भी अलग
न हो ।४७ धर्मध्यान की अनुप्रेक्षा
एकत्व, अनित्यत्व, अशरणत्व और भवस्वरूप का चिन्तन धर्म ध्यान की अनुक्रम से चार अनुप्रेक्षाएँ हैं । “ध्यान (धर्मध्यान) से निवृत्त होने पर अभ्रान्त आत्मा को अनित्यत्यादि चार अनुप्रेक्षाओं का नित्यभावन करना चाहिए कयोंकि ये अनुप्रेक्षाएँ ध्यान के प्राण के समान हैं ।५० धर्मध्यान की लेश्या
धर्मध्यानी महायोगी को तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम परिणाम पूर्व की तेजी, पद्म और शुक्ल लेश्या होती है।
उत्तम कोटि के ध्याता को शुक्ललेश्या, मध्यम कोटि के ध्याता को पद्मलेश्या तथा मंद कोटि के ध्याता को तेजोलेश्या अपनी-अपनी योग्यतानुसार तीव्र, मध्यम और मंद रूप में होती है। धर्मध्यान के बाह्य और अंतरंग चिह्न बाह्यचिह्न
पर्यंकादि-आसनों को धारण करना, मुख की प्रसन्नता होना और दृष्टि का सौम्य होना आदि धर्मध्यान के बाह्य चिह्न हैं।
४७. अनुयोगद्वार सूत्र २७ ४८. काललोक प्रकाश सर्ग ३०, श्लो. ४७३ ४१. ध्यानशतक हरिभद्रीय आवश्यक निर्युक्तेखचूर्णिः श्लो. ६५ ५०. आध्यात्मसार ध्यान स्वरूप श्लो. ७०