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२१४ / योग-प्रयोग-भयोग
प्रशस्यते-जिसका चित्त स्थिर है वही ध्यान का अधिकारी है ।१६ ध्यानी-धीर, शान्त, स्थिर, जितेन्द्रिय गुणों से युक्त होता है ।१७ . --
आनन्द का बाधक तत्व है-शक्ति, और आनन्द का साधक तत्व भी शक्ति है, क्योंकि शक्ति भोगी में भी है और योगी में भी है। एक शक्ति का उपयोग करता है, एक शक्ति का उपभोग करता है। ध्यान के प्रकार
ध्यान के दो प्रकार है-१. शुभ ध्यान,२.अशुभ ध्यान। भोगी की शक्ति का उपभोग अशुभ ध्यान में होता है। योगी की शक्ति का उपयोग शुभ ध्यान में होता है। अतः ध्यान को प्राथमिक भूमिका से उठाकर अंतिम शिखा तक ले जाने के चार आयाम
चतारि झाणा पण्णता तं जहा अट्टे झाणे रोट्टे झाणे थम्मे झाणे सुक्के झाणे"। ध्यान के चार प्रकार कहे हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान।
ध्यान के दो आयाम- १. आर्तध्यान २. रौद्रध्यान । अशुभ ध्यान है जैसे-कामान्ध विषयों में आसक्त है, किसी स्त्री के रूप में मुग्ध है, लोभी धन प्राप्ति की योजना में संलग्न है, हत्यारा हिंसा में ही लीन है, चोर चोरी करने में ही मस्त है, मायाचारी षड्यन्त्र में ही एकाग्र बुद्धि रखता है। यहाँ किसी एक विषय में स्थिरता अवश्य है किन्तु एक गाय का दूध है दूसरा थूहर का। दूध दोनों है, श्वेत वर्ण दोनों में ही है किन्तु एक में अमृत है, दूसरे में विष है। एक में मृत्यु है, दूसरे में जीवन है। एक में संसार है, दूसरे में मुक्ति है।
अशुभ ध्यान का आदि बिन्दु है--राग, वासना, मूर्छा । कड़ी को कड़ी से जोड़ने वाला राग है। जहाँ राग है वहाँ संसार है, जहाँ राग है वहाँ बन्धन है, जहाँ राग है वहाँ सम्बन्ध है, जहाँ राग है वहाँ परिस्थिति, परिवार, समाज और व्यवहार है। राग की तरंगों ने ही वासनाओं को जन्म दिया । वासना की पूर्ति के लिए माया और ममता का सम्पर्क स्थापित हुआ। यह सम्पर्क ही पोजिटिव प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में ही काम, क्रोध, मद, लोभ छिपा हुआ है। इसी प्रक्रिया में व्यक्ति की अभिव्यक्ति व्यक्त होती है। उस अभिव्यक्ति की अनुभूति ही आर्तध्यान और रौद्रध्यान है।
१६. ज्ञानार्णव – पृ. ८४ १७. ज्ञानसार -६ १८. स्थानांग सूत्र -४