Book Title: Yog Prayog Ayog
Author(s): Muktiprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 264
________________ योग-प्रयोग-अयोग/२१९ ध्यान भावना उपर्युक्त परिभाषा से प्रतीत होता है कि धर्म ध्यान बाह्य प्रवृत्ति को बदलने का धर्म है। आन्तरिक भावना को प्रबल करने का मार्ग है और समत्व साधना की आराधना का द्वार है। इस द्वार से ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य इन चार भावनाओं में प्रवेश पाया जाता है। धर्म ध्यान का चिन्तन भावना है। जिनभद्रगणि क्षमा श्रमण ने ज्ञानादि चार भावनाओं का ध्यानशतक में निरूपण किया है। जैसे ज्ञानाध्ययन में तन्मय रहना, मन के अशुद्ध व्यापार का निरोध करना, तत्वातत्व का विवेक, करना, जीवाजीव के गुण पर्याय का निरीक्षण करना, इत्यादि का चिन्तन धर्म ध्यान कहलाता है आचार्य जिनसेन ने ज्ञानादि चार भावनाओं को पाँच स्वरूपों में विभक्त किया है १. वाचना-शास्त्रों को स्वयं पढ़ना । २. पृच्छना-जो अर्थ स्वयं की समझ में न आये उसे ज्ञानीजनों से पूछना । ३. अनुप्रेक्षा-पदार्थ के स्वरूप का चिन्तन करना । ४. परिवर्तन-कंठस्थ ज्ञान को बार-बार दुहराना । ५. धर्म उपदेश-धर्म के सम्यक तत्व का उपदेश देना । दर्शन भावना दर्शन भावना-आज्ञारुचि, नवतत्वरुचि तथा २४ परम तत्त्वों की रुचि स्वरूप तीन प्रकार की हैं ३२ आचार्य जिनसेन ने सम्यग्दर्शन की सात भ वनाएँ बतायी हैं । संवेग, प्रशभ, स्थैर्य, असंमुढ़ता, अस्मय, आस्तिकता और अनुकम्पा ।३३ आचार्य कुंदकुंद ने सम्यग्दर्शन के आठ गुणों का वर्णन किया है । (१) संवेग, (२) निर्वेद, (३) आत्मनिन्दा, (४) गर्दा, (५) उपराम, (६) गुरुभक्ति, (७) वात्सल्य और (८) दया ।३४ ३२. दर्शन भावना आज्ञारुचि (१) तत्व, (२) परमतत्व (२४ रुचिमेदात प्रिधा ध्यान विचार नमस्कार स्वाध्याय प्राकृत विभाग) ३३. आदिपुराण - २१ - ९७ ३४. समयसार - १७७

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